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सत्संग की महानता
( ता.३०-०९ -१ ९ ३६ ) 
उपासकों ! परमार्थकी कोईभी बात मनुष्य जितना अपने बलपर कर सकता है , उससे कहीं अधिक वह सत्संग के सहारे कर लेता है । सत्संगका मतलब है उस रंगमें रंगे हुए पुरुषकी संगति , जिसे अपनेसे अधिक मार्गदर्शन और बल की सहायता मिल जाती है । जैसे खुद तैरनेवाले मनुष्यको अगर तराफा , सांगड या डोंगी मिल जाये तो वह जल्दी जल्दी आगे बढ सकता है उसीतरह । कारण यह है कि मनुष्यका विवेक उतना जबरदस्त नही रहता कि जो अपनी ताकतसे हर काममें सफल हो सकें । और आदमी का स्वभावभी कुछ दूसरोंपर अवलंबित रहनेका होता है । रंगे हुएके साथमें रंग जाना एक सुगम बात होती है । जैसी संगति


वैसा असर होता रहता है । लेकिन सवाल यह है कि वह असर टिक सकता है या नही ? ख्याल रक्खो , जिसकी भूमिका तैयार हो उसको यदि अल्पकालभी सत्संग मिले तोभी जीवनभर उसका असर टिकना असंभव नही होता । समर्थ रामदास स्वामीने कहा है- सावध साक्षेपी आणि दक्ष । तयास तत्काळचि मोक्ष । और संतश्रेष्ठ तुकाराम महाराजभी कहते हैं  आपुल्यासारिखे करिती तत्काळ ।।  मतलब यह कि सत्संग तत्कालही पूरा असर कर सकता हैं , लेकिन उसके लिए अपनी भूमिकाभी शुद्ध हो । अर्थात् जितना महत्त्व सत्संगका उतनाही अपनी शुद्ध भूमिकाकाभी होता है ।
भूमिका अगर अधिक ऊँची बन गयी तो सभी वस्तुओंमें सत्संगका दर्शन होता है । किसीके साथ चर्चा करनेसेही नही , हरबातका अच्छाबुरा फल देखनेसेभी कुछ उपदेश मिलता है । सदिच्छासे , सदविचारोंसे , सभी बातोंमें लालच आदि विकार छोड देनेसेभी घरबैठे सत्संगका कुछ फल जरूर मिलता है । मनकी चंचलता तथा बुद्धिका जाड्य जिन जिन चीजों या बातोंसे कम कम होता हो , वे सब बातें सत्संगकीही होती हैं । बुद्धिकी प्रगति हुई तो बुरी बातोंमें भी महान सबक या उपदेश नजर आता है । जैसे अच्छा वैद्य जहरसेभी संजीवनी बना लेता है । पर इतनी ऊँची भूमिका शायदही किसीकी होती है । बाकी परावलम्बी विचारवालेही अधिक मिलते हैं । ऐसे परावलम्बी या सामान्य जीवोंका विकास , उनका उद्धार तो बिना सत्संगके होही नही सकता ।
दृष्टान्त सुनो , एकबार देवर्षि नारदने भगवान श्रीकृष्णसे पूछा कि ,  भगवन् ! सत्संगका महिमा क्या है ? श्रीकृष्णने कहा- भाई ! अमुक अरण्यमें जाओ , वहाँ इमली के पेडपर एक बडा रंगीन सरडा ( गिरगिट ) है , वह सत्संगका महिमा जानता है ; उसे पूछलो ।  नारदजी
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