गुरु और शिष्य का कर्तव्य
(ता.०८-१०-१९३६)
उपासकों! मोक्षका अनुभव मरनेके बाद होता है ऐसा समझनेवाले गलती करते हैं। मोक्षका आनंदानुभव तो इसी जीवनमें सन्त पा लेते है।इसीलिए सन्त जीवनमुक्त होते हैं। इसी जीवन्मुक्तिमें देह फना हो जाय उसे विदेहमुक्त कहते है और अवतारी पुरुषोंको नित्यमुक्त कहते है। सन्त, सिद्ध, परमहंस, मुक्त, अवतार आदि शब्द अलग अलग दिखते हैं: उनमें थोडासा अवस्थाभेद या कार्यभेदभी हुआ करता है। परन्तु इन सबमें जो सत्ता चलती आयी वह एकही होती है। करीब करीब ये सारे एक जैसेही होते हैं।
ऐसे मोक्षाधिकारी महात्मा के शिष्य बनकर यानी उससे ज्ञानदृष्टि लेकर जो कोई अपना उद्धार कर लेता है वह शिष्य या साधकभी आगे चलकर गुरू या सिद्धपुरुष बन जाता है; जैसा कि पुलिससिपाही जमदार या इन्स्पेक्टर का पद पा सकता है। गुरुका मतलब किसीका मंत्र लेनाही नही है। लोग तो किसीकाभी मंत्र लेकर अपनेको कृतार्थ समझते हैं लेकिन यह अंधरूढि है। सच्चे सन्तका बोध सुनना और उसी मुताबिक चलना इसीका नाम सत्संग होता है। किसी विशिष्ट वेषभूषा या पंथसंप्रदाय के चिन्होंसेही कोई सन्त नही हो सकते। जो आत्मानुभवी पुरुष निर्लोभ वृत्तिसे लोककल्याणही अपना जीवितकार्य समझते है, उन्हींका उपदेश शुद्ध हो सकता है।
जो धन-मानके स्वार्थमें पड़ा हुआ हो, शिष्योंके भरोसेपर जो
ऐष करना या जीविका चलाना चाहता हो , शिष्योंके हाथों सेवा लेकर द्रव्य तथा देह को बढानेकी इच्छा रखता हो , ऐसे बुवा-पंडितको सन्त या गुरू समझना व्यर्थ है। सच्चे सन्तको तो एकही बातका लोभ होता
है कि इन सब लोगोंकी बुराइयाँ मैं कैसे निकाल सकूँ , इन शिष्यों या प्रेमियोंको मैं कब ज्ञानी बना सकूँ। किस तरह अंधश्रद्धा हटाकर जनता को सच्ची राहपर बढा सकूँ , इसी लगन से ऐसे सन्त प्रचार करते हुए पँखेरू जैसे घूमते हैं। वे किसीसे सेवा लेनेकी इच्छा नही रखते और अगर लोग उनकी बडी सेवा करने लगें तो भी वे अपने तत्त्वको कभी नही भूलते।
शिष्यों या अनुयायियोंके बारेमें सन्त की क्या धारणा-क्या भावना रहती है , यहभी सोचनेकी बात है। सन्त या गुरूको इसका तो पूरा ज्ञान रहता है कि मुझमें और इसमें एकही तत्त्व विराजमान है ; भलेही यह जानता न हो। इसलिए सन्त अपने अनुयायियोंको तुच्छ या अपनेसे कम नहीं समझते। अतीव आत्मीयतासे वे उसे देखते हैं और उसकी स्मृति जगानेकी फिक्र करते हैं। शिष्यके हाथों सेवा लेने की वे कभी इच्छाही नहीं रखते। सन्तश्रेष्ठ श्री तुकाराम महाराजने तो यहाँतक कहा है -
शिष्याची जो नेघे सेवा। मानी देवासारखे।
त्याचा फळे उपदेश। इतरा दोष उफराटे।।
जो गुरू शिष्यके हाथों सेवा नही लेता, बल्कि उस शिष्य कोभी ब्रह्मरूपी समझता है , उसी गुरुका उपदेश सफल होता है ; सही रंगत लाता है। शिष्यको हीन समझकर उसके द्वारा सेवा लेनेवालेको तो पाप
लगता है।
शिष्योंको यह समझ लेना चाहिए कि खाली सन्तोंकी सेवा
करने , उनके हाथपैर दबाने , उन्हें अच्छे अच्छे भोजन या कपडे देने और उनकी बडाई गानेसे सच्चा लाभ कभी नही हो सकता। सच्चा लाभ तो उनके यथार्थ उपदेशोंको सुनकर उनपर अमल करनेसेही प्राप्त होता है। पत्तोंको चाहे वैभव दे दो या उनकी लंगोटी जीवनभर धोते रहो, इससे तुम कभी अपना उद्धार नही करा सकोगे। सन्तोंको तो अपनी सेवा हुई ऐसा तब मालूम होगा जब तुम उनके विचारोंको समझ लोगे , उनपर मनन करोगे , अहिंसा-सत्य आदि व्रतोंका पालन करोगे, निर्व्यसनी बनकर शुद्ध उपासना करोगे ,समाजमें समभाव रखोगे , न्यायसे आचरण करते रहोगे और सच्चा ज्ञान पानेकी कोशिश करोगे। तभी तुम सन्तोंको प्रिय हो सकोगे और उन्हें वास्तविक प्रसन्नता होगी।
जो अनुचित और अश्वाश्वत ऐसी बाहरी चीजोंको नही चाहता और धन ,बल ,कीर्ती पुत्र आदिकी चाह रखकर , श्रीगुरुपर प्रेमनिष्ठा नही रखता ,तो सिर्फ अपनी पारमार्थिक उन्नतिकी इच्छा रखकरही
चौबीसों घण्टे गुरू-वाणी का चिन्तन कर उसपर निश्चयपूर्वक पलपलमें अमल करना चाहता है ,वही सच्चा शिष्य कहा जाता है। अनंत पुण्यसे प्राप्त सत्संगती में जो अशाश्वत चिजोंकाही लोभ लेकर जायेगा उसे तो हजार गुना दुखही भुगतने पड़ेंगे। सन्तोंको जो चीज माँगनी है वह है- सच्चा ज्ञान ,स्वरूपप्राप्ति और विश्वप्रेम!
अपने पास जो आया वह सुखी हो और बाकी लोग दुखी रहें ,अपना शिष्य श्रीमंत तथा निरोगी हो और अन्य लोग कंगाल या रोगी रहें , ऐसा भेद क्या सन्तके पास रह सकता है? सन्त तो समदृष्टी होते
हैं। उनकी तो यही इच्छा होती है कि सबके सब लोक सच्चा सुख
अनुभव करें, सभी खुशहाल हों , सभी निरोगी हों। फिर व महात्मा अपने अनुयायीकोही धन-बल-आरोग्य देगा ऐसा तो हो नही सकता। इसलिए उनके सामने ऐसी माँगें रखना यह हमारी गलती होगी।
सज्जनों! सन्त एकही अनमोल चीज हमें देना चाहते है , वो यह कि वे हमारी मुलाकात हमसेही करा देते हैं। सन्त अज्ञानी और दुखी जीवको सच्चिदानंदरूपी ब्रह्मसिंहासनपर बिठा देना चाहते हैं। यह काम दूसरा कोईभी कर नहीं सकता।
दृष्टान्त सुनो , एक भेड-बकरियाँ चरानेवाला धनगर था। उसे एक दिन जंगल की गुंफामें शेरका छोटासा बच्चा मिला। वह उसे घर ले आया। बकरियोंका दूध पिलाकर उसने उस बच्चेको पाला पोसा। बकरियोंके साथ वहभी ब्याँ-ब्याँ करता था। खुदको बकरीका बच्चा समझकरही वह खेलता-दौडता और जंगलमें चरने जाता था। वह कुछ बडा हो गया , फिरभी उसका व्यवहार वही था।
एक दिन जंगलमें बकरियोंकी झुण्डको देखकर एक शेरने उसपर आक्रमण कर दिया , तो सबकी सब बकरियाँ चिल्लाती हुई भाग निकली।उनमें वह शेरबच्चाभी था जो बकरेकी आवाजमेंही चिल्लाता हुआ दौडा जा रहा था। शेरने उसको देखा तो बड़ा अचंभा लगा। अन्य बकरियों को छोडकर शेरने उसीका पीछा किया और उसे पकड़ लिया ; तो वह डरके मारे थरथराने लगा। शेरने उसको धीरज बंधाया और कहा कि तू भेडबकरी नही है , तू और मैं एकही हैं। तालाबके पानी में (प्रतिबिंब) पर दिखाते हुए शेरने उसे समझा दिया कि देखले. तेरा रूपरंग उन भेडबकरियोंके रूपरंगसे कितना अलग है और मेरे रूपरंगसे कितना मिल रहा है। यह
तत्वमसि का बोध पातेही शेरके बच्चेकी आँखें खुल गयी। उसे अपने स्वरूप काअनुभव हुआ और उसीवक्त उसका भयशोक समाप्त हो गया I उसके अंदर सही जीवनकी ज्योति जाग उठी।
सन्त-सद्गुरुसे यही सर्वोत्तम लाभ मनुष्यमात्रको होता है। सतशिष्य बनकर झूठी इच्छाओंको हटाते हुए हमें सद्गुरुको प्रसन्न कर लेना चाहिए। सच्चा रहस्य जानते हुए बेडा पार कर लेना चाहिए I
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