सत्संग का तथ्य और पथ्य
                 
                  (ता.०९-१०-१९३६)
     
             उपासकों! सन्तके प्रति आर्तका और आर्तके प्रति सन्तका क्या भाव होना चाहिए ,यह मैंने कल बताया था। सबको ज्ञानका प्रकाश देनेके लिए ही सन्त चौबीसों घण्टे कष्ट उठाते है , सारी उमर घूमते हैं और जबतक शरीरमें त्राण हो अपना भार किसीपर नही डालते हैं। खूब भजनपूजन या एक्के-सप्ताह करना यह परमार्थ या परोपकार तो नही समझा जायेगा।सातारा लूटकर पूनामें दान देना यह सन्तोंका कार्यभी नहीं होता। लेकिन यह कार्यका आडम्बर खडा करनेमें सन्तकी हार्दिक भावना परमार्थकी और सच्चे परोपकारकीही हो सकती है। सभी दीन लोगोंको एक थाल में खिलाकर कुछ विचार देना ,  सबको सही ज्ञान देना , यही सन्तका उद्देश्य होता है। अविद्याबद्ध जीवोंको आत्मोद्धारकी प्रेरणा देकर अपने स्वरूपकी प्राप्तीके लिए यत्नशील बनाना इसीलिए वे अपने स्थानपर लोगोंको इकट्ठा कर लेते हैं। लागोंमे अनाचार और दुराचार न फैले , सबमें बंधुता-समता निर्माण


हो और सुख-दुखोंसे परे होकर सभी परमानंद पा सकें , इसलिए सच्चे ज्ञानका दान करना यही सन्तोंका कर्तव्य होता है।
  
            अब आर्त जीव उन संतोंको क्या माँगे? क्या नाशमान और पापों में गिरानेवाली चीजें माँगना उचित हो सकता है ? ऐसी अगर तुच्छ (इच्छा) विचार हो तो उसे निकालकर फेंक दो और माँग लो कि हमे अशाश्वत दुःखसंसार से छुडानेके लिए दिव्य ज्ञान दीजिए। सन्त बड़े हि परोपकारी होत हैं। सन्त जैसे शान्त देवता कहाँ मिलते है? इसीलिए भगवानभी उनका सम्मान करते है ,उन्हें आज्ञा माँगते है। गोस्वामी तुलसीदासजीने कहा है  -             
          सन्त बडे परमारथी, शीतल जिनके अंग।
          तपन बुझावे और की, दे दे अपना रंग।।
   
           सन्त सबको अपना रंग-अपना शान्तिसुख देना चाहते हैं। वे चाहे सो दे सकते हैं , मगर लेनेके लिए हमारे पास पात्र तो चाहिए ना? सन्त बिना अधिकार देखे कृपा नही कर सकते, भलेही वे कृपाके सागर
होते हैं। शिष्योंको चाहिए कि अन्य तुच्छ वस्तुओंकी इच्छाएँ छोडकर वे अपना अधिकार बढावे और बारबार जन्ममृत्युके चक्करमें पडनेसे
बचानेकी माँग करें।
   
             संतसंगका मतलब होता है सत्का संग करना। तभी हमें सत्यलाभ प्राप्त हो सकेगा। मगर लोग तो सत्संग नहीं करते। कईं तो अच्छा खानपानका संग करते हैं और कई अच्छे मान-पानका। कई लोग कहते है कि हमने तो कई वर्ष सन्तोंके सहवास में बिताये फिर हमारा उद्धार क्यों न हुआ? क्यों हम वैसेही अशान्त बनें हुए हैं? उसका कारण तो भाई!


यह है कि तुमने मायावी पदार्थों की संगति की है-न कि संत की। वसिष्ठ महर्षि की कहानी तो बताती है कि लाख वर्षों की तपस्याका फल एक निमिषकी सत्संगति प्राप्त होता है। फिर हमें वह क्यों नही मिलता? सच
तो यही है कि हमने सतवस्तुकी संगतिही नही की। जो असली चीज लेनी थी उससे हम दूर रहे और हम बडे सत्संगी है इसी भ्रान्तिमें खो गये।
   
           दृष्टान्त सुनो , सन्तसद्गुरु के पास पहुँचना बडा मुश्किल होता है। एक पुरुष एक महात्माकी संगतिके लिए उनके आश्रम में जाने लगा तो पहलेही महाद्वारपर उसे रोक दिया गया। दरवानने कहा- अगर भीतर जाना चाहता है तो अपनी नाक काटने दे। उसे अजिबसा लगा  फिरभी उत्सकतावश उसने मान लिया। बाकीके सैंकड़ों लोग वापिस चले गये। दूसरे दरवाजेपर उसकी जिव्हा काट ली गयी। तीसरे दरवाजेपर हाथ और चौथे दरवाजेपर कान काट लिये गयें। जब पाँचवा जगमगाता हुआ सुन्दर दरवाजा दिखाई दिया  तब तो उसे कहा गया कि- भाई! बिना सीस उतारे सद्गुरु-दर्शन होही नही सकते। बडी कठिन बात थी। मगर उसने सीस उतार दिया तो आश्चर्यकी बात यह कि सद्गुरुकी दीप्तिमान मूर्ती उसके साथ लिपट गयी और उसके सभी अवयव दिव्य बन गये। सद्गुरुने उसे अपने स्वरूपानंदमें मिला लिया।
    
       इस रूपकका तात्पर्य यह है कि,  सत्संगका सच्चा फल वह प्राप्त करता है जो अपनी नाक-कान , आँख-जबान आदि इंद्रियोंको काबूमें कर ले। सन्तके पास भावुक लोग पंचविषयोंके मानो नमूनेही रख देते हैं। सुगंधि-संगीत सौंदर्य-स्वाद आदिकी कमी नहीं रहती। कच्चा आदमी इसीमें बह जानेका संभव रहता है। इसलिए सत्संगका सही मजा जिसे पाना हो , उसे इन विषयोंके बारेमें एक प्रकारसे अंधा-गूंगा-बेजबान


बननाही हितकर हो जाता है। हाथ कटानेका मतलब है अनुचित कर्म और अपनी कर्मकुशलताका अहंकार नष्ट कर देना और सीस कटाने का अर्थ है अपने मगजमें भरें हए क्षुद्र विचार , रुढिबद्ध भाव ,अशाश्वत
चीजोंके प्रति शोकमोह आदि निकाल फेंक देना। ऐसा जो भी अनुयायी करेगा , वही सच्चा सत्संगी बनेगा ; बल्कि वही सन्त बन सकेगा। क्योंकि वह सद्गुरुका शब्द ख्वाबमेंभी नहीं भूलेगा और हर स्वाँसमें सही बातोपर अमल करते हुए परमार्थ का सच्चा अधिकारी बन जायेगा।
     
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