विवेकशक्ति और प्रारब्धभोग
        
                    (ता.१०-१०-१९३६)

              उपासकों! सत्संग के बारेमें आपने बहुत कुछ सुना। सन्त और  ग्रंथ अनेक हैं। उनके उपदेशभी अनेक हैं। उनमेंसे पहले हमको क्या सीखना चाहिए और कौनसी बातें त्याग देनी चाहिए , इसका विचार
जरूरी होता है। अपने लिए कौनसी बातें व्यवहारमें लानेलायक है , उसे चुनकर फिर उसे कभी नहीं भूलना चाहिए। यह चुननेकी शक्ति हमको कहाँ मिलेगी? इसकी चिन्ता मत करो। कोई हमको कुबेर के जैसा
भंडारीभी बना दे तो वह लाभ जिसके सामने कुछभी नही ,ऐसा एक महालाभ अपनी जगह ईश्वरने दे रक्खा है  वह है सत्-असत् को पहचाननेवाली विवेकबुद्धि! यह अनमोल चीज हमारे पास है। यह अंदरका ग्रंथ खुला रहे तो फिर सारे सवाल हल हो सकते हैं।

              आप लोगोंने सुना होगा कि ब्रह्मदेव के पास देवता ,मानव और 


राक्षस उपदेश लेने गये थे ; तो ब्रह्मदेवने तीनोंको एकही अक्षर द का उपदेश दिया। तीनों संतुष्ट हो गये। विलासी देवताने द से अर्थ लिया था दमन ; धनलोभी मानवने अर्थ लिया था दान और क्रूर राक्षस ने अर्थ लिया था दया । ये अर्थ किस ग्रंथोंमें उन्हें मिले थें? वह यही ग्रंथ था जिसको हम कहते हैं सद्सद्विवेकशक्ति! यह विवेक जिसमें प्रकट न हो उसको हम खाली देहका रूपरंग देखकरही मनुष्य नही कह सकते। को विवेकी है, वही मनुष्य है।    नाही तरी काय थोडी। श्वानसूकरे बापडी (तुका.) इस वचनके अनुसार विवेकहीन मनुष्य पशुसेभी बदतर  होता है। वास्तवमें पशुभी परोपकारी होते हैं ;  मित्रभावसे मिलजुलकर रहते हैं ; बंधुभावसे सहयोग देते हैं ; परन्तु मनुष्य मनुष्योंका तिरस्कारदेष करते हैं ; ऊँचनीच मानते हैं ; उनको मनुष्य कैसे कहा जायेगा?
   
          सज्जनों! मनुष्यको विवेकका-ज्ञानका उपयोग करते हुए जीवन बनाना चाहिए ; जिससे वह अपने साथ औरोंको भी सुखी बना सकता है। मगर एक भाईने कहा- विवेक का उपयोग करकेभी क्या फायदा होता है? मेरा अनुभव तो यह है कि मैं बडे विवेक से चलता हूँ। किन्तु ईश्वर कुछ का कुछ कर डालता है। विवेकसे दुख तो रुक नहीं सकता। मैंने जवाब दिया, भाई! मेरे मन कुछ और है कर्ताके मन और, यह तो मानी हुई बात है। ईश्वरको हमारे अनंत जन्म याद हैं, लेकिन हमको तो गये जन्मकाभी पता नही है। ईश्वर हमारे किसी पूर्वकर्मका फल हमें दे देता है तो उसको अकारण समझकर हम दुखी होने लगते हैं। हमारा विवेक हमारे पूर्वकर्मों के फलको तो रोक नही सकेगा; लेकिन उस दुख को वह कम जरूर कर सकता है। जैसे तुम अगर समझ लोगे कि यह मेराही पूर्वकर्म सुखदख दे रहा है और उसको भोगनेसे मेरे पाप धोये जा रहें हैं,


तो उससे मनः शान्ति जरूर मिलेगी। यह विवेकका फायदा क्या कम है?
    
          दृष्टान्त सुनो, एक सत्तर सालकी बुढिया थी; जिसके सारे नजदीकी रिस्तेदार मर चुके थे। खाली एक लडकेका लडका बचा हुआ था। वह बडा गुणवान था, शीलवान था, बलवान था और कर्तृत्ववानभी था। जरा जर्जर बुढियाका एकमात्र वही सहारा था। उस दीनदुखी बुढियाको वही खिलाता-पिलाता था। परन्तु एक दिन अचानक उस लडकेको सापने डस लिया और वह लडका मर गया। बुढिया के सिरपर मानो। पहाडही टूट पड़ा। वह उस मरे हए लडकेको छोडने तैय्यारही नही थी। मनुष्यकी आशा भी कितनी विचित्र होती है!
   
        बुढिया बिलख-बिलखकर रोती जा रही थी। वह कहती थी कि ! सारे लोग तो दरिद्र जीवोंसे कोसों दूर भागतेही हैं पर भगवानभी दुखियोंके सिरपरही डंडा मारता है! मेरी अंधीकी लकडी भगवान खींच
ले गया; यह कैसा न्याय है? .. नारदमुनी उसी मार्गसे जा रहे थे। उन्होंने बुढियाका रोनाधोना सुनकर पूछताछ की। उनका दिल करुणासे भर आया। बुढिया को उन्होंने सांत्वना दी। आगे बढे एक बडा महल नजर आया। जाँचपडताल की। उस धनिकके दसों लडके जिंदा थे और उस महलमें सुख-चैनसे जीवन बिता रहे थे। किसी बातकी कमी नही थी। दुनियाकी यह विचित्रता नारदमुनीके दिल में खटकने लगी।
    
            नारद श्रीकृष्णके पास गये। पूछा- भगवन्! यह कैसा तुम्हारा न्याय? किसिको तो सारेके सारे सुख लुटा देते हो और किसिका तो सबकुछ ले जाते हो! उस बेचारी बुढिया का तो इकलौता सहाराभी तुमने खत्म कर दिया। ऐसा क्यों भला?... श्रीकृष्ण कहने लगे- नारदजी! चर्चा मैं बादमें कर सकुँगा। पहले तो मुझे एक जरूरी काम करना है |


उसके लिए दो-तीन ईटें जल्दी कहींसे ला दो। नारद फौरन इधर-उधर खोजने हुए रास्ता चलने लगे। एक देवल अभी अभी बना था, पलस्तरभी होने का था। ईंटें नजर आती थी, लेकिन वहाँसे ईटें निकालकर लाना ठीक नही लगा। आगेही एक मकानकी पडझड हई थी। उसकी तीन ईटे निकालकर नारद चलते बनें।
  
            श्रीकृष्ण ने पूछा कि ये ईटें कहाँसे लायी? तो नारदने सबकुछ बता  दिया। कृष्णने कहा-  नारद! तुमनेभी संगीन मकानकी नही, तो तुटे मकानकीही ईंटें निकाल लायी। उस मकानपर थोडीसी दया तुमने क्यों
नही दिखायी?  मरेको मारना यह कहाँका न्याय? खैर! मुझपर जो तुमने इलजाम लगाया कि मैंने अनाथ बुढिया का सहारा छीन लिया, वह ठीक नही है। मैं किसीको नही मारता; यह तो काल और कर्मका संयोग है अब वह बुढियाभी मर जायेगी और वे दोनों सुंदर रूप धारण करके इस विश्वके रंगमंचपर फिर आजायेंगे। इसलिए दुखी क्यों होते हो?"
 
       मित्रों! ख्याल रखो। सुख और दुख तो आनेहीवाले है; परन्तु उनमें डूबो मत। विवेक के बलसे स्थिर रहो। जब सुख मिले तब यहभी समझलो कि आगे दुख आनेवाला है और जब दुख मिले तब यहभी मत
भूलो कि ये दिनभी जानेवाले हैं। क्योंकि सुख-दुख से ही संसार रचा गया है। तो वे आते रहें, डरनेकी जरूरत नहीं। दुख-निवारणके उपाय तो जरूर करो, लेकिन जोभी हो उसमें समाधान रखो। विवेकके बलपर अपने आपको संभालते रहो और अपने जीवनका सार्थक कर लो।

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