सही परमार्थमार्ग- कर्मयोग
         
                  (ता.११-१०-१९३६)
   
          उपासकों! ज्यादातर यह नजर आता है कि, जब हम सुख पाते है तब उसका कर्ता स्वय अपनेको ठहराते हैं, परन्तु जब दुख उठात है तो भगवान को जिम्मेदार समझते है; यह बात गलत है। अगर ईश्वरकोही जिम्मेदार मानना हो तो सभी बातोंमें मान लो। जगत्कर्ता, जगत भर्ता जगच्चालक, जगत्पालक एक परमेश्वरही है, यह भावना जागृत करो I हवाकी सत्ताको कभी मत भूलो।  वृक्षाचेही पान हाले त्याची  सत्ता . इसप्रकार हरएक वस्तुपर उसका अधिकार, हरएक कृतिपर उसकी सत्ता समझ लो।
   
                ऐसा अगर समझ सकोगे तो किसी कर्मका कर्ता तुम अपनेको नही मानोगे। और कर्मका नियम तो यह है कि, जो करेगा सो भरेगा। तुम जब कर्ताही नही रहोगे तो कर्मका फल सुख या दुख तुम्हें कैसे मिलेगा? जो हर बातमें मैं-मैं करता है, कर्मका अहंकार लेता है, वही कर्म से बंधा जाता है और उसीको सैंकडों दुख उठाने पडते हैं।
   
               तुम कहोगे कि करते तो हमही हैं फिर कर्ता ईश्वर कैसे हुआ? भाई! कर्तव्य तो तुम करते हो इसमें शक नही; मगर ये पंचभूत क्या। तुम्हीने बनाये हैं? अगर नही, तो यह पंचभूतोंसे बना हुआ देह, यह
ज्ञानेंद्रियाँ- कर्मेंद्रियाँ, ये प्राण और बल क्या तुम्हारी बनायी हुई चीजे हो सकती हैं ? इन चीजोंके बिना क्या तुम कोईभी कर्म कर सकते हो? मतलब यह हुआ कि ये कर्म-साधन,  यह सामर्थ्य आदि जब ईश्वरीय


है तो तुम्हारा कर्तापनका अहंकार किस कामका?

        सज्जनों! हम कर्म करते हैं वह सुखकी इच्छासेही करते हैं। खानपान, वस्त्राभूषण, दवा, मकान आदि बातें तो जरूरी हैही। लेकिन यह सुख साधारण है। कितनाभी धनमान बढाया तो ऐसा सुख नही मिल सकता जिससे हमारी तृप्ति हो, परिपूर्ण सन्तोष हो। ऐसा सुख तो एक ईश्वरस्वरूपके अनुभवमेंही मिल सकता है, ऐसा महान आचार्यों और सन्तमहात्माओंका प्रत्यक्षअनुभव है। वह शरीरसे नंगे फकीरभी रहेंगे तो भी आनंदतृप्तिकी बराबरी राजा महाराजाओंका वैभवजन्य सुख नही कर सकता। यह कई उदाहरणोंसे सिद्ध हो चुका हैं। अब हमको सोचना यह चाहिए कि हम कर्म करें तो किस सुखके लिए? नाशमान क्षुद्र सुखोंको हम अपना ध्येय मान लें या शाश्वत परम आनंद को? हम अगर परम आनंदको ध्येय समझकर अपने कर्तव्य करते रहेंगे तो हमारे कर्म परमानंदरूप परमात्माके लिए हो रहे, ऐसा इसका अर्थ होगा। इसको कहा जायेगाईश्वरके प्रीत्यर्थ कर्म करना। हमारा ध्येय जब ईश्वर बनेगा तो हमारा हरएक कर्म ईश्वरके लिए होगा, ईश्वरको अर्पण होगा। क्योंकि वह कर्म निष्काम समझा जायेगा।
  
             निष्कामका अर्थ बिलकुल कामनारहित कर्म, ऐसा नही हो सकता। जब कोई कामनाही नही तो कर्म कौन और क्यों करेगा? हम स्कूल की परीक्षामें बैठ रहे और पास होनेकी कामनाही हमारे दिलमें नही है, यह कैसे हो सकता है? हाँ, पास होने की कामना तो है लेकिन हम अपनी सुखचैनके लिए नही पास हो रहें, तो समाजकी सेवाके लिए या ईश्वरका कार्य बढाने के लिए पास हो रहें हैं, ऐसा अगर हो तो हमारी यह कामनाही निष्काम हो जाती हैं। मतलब यह कि ईश्वरप्राप्ती या


ईश्वरकी कामनासे जो जो कर्म किये जायेंगे वेही निष्काम कर्म होंगे और संकुचित विषयों, व्यक्तियों, कुटुम्बों आदिको ध्येय बनाकर उनके प्रीत्यर्थ कर्म किये जायेंगे, वेही सकाम कर्म होंगे। निष्काम कर्मही भगवानकी पूजाके फूल समझने चाहिए।
 
            मित्रों! इन बातोंका तात्पर्य यह हुआ कि हमारी परिस्थितीके अनुसार जो भी कर्म हमारे हिस्सेमें आये हों उनमेंसे अनुचित कर्मोको छोडकर, सकाम कर्मोको त्यागकर, सभी आवश्यक कर्म हमको ईश्वरके लिए या ईश्वरार्पण बुद्धीसे अवश्य करने चाहिए। उनके फलोंकी इच्छा और कर्तापनका अहंकार हमको छोड देना चाहिए। इतना हुआ तो फिर हमारा नियत कर्मही कर्मयोग बन जायगा। कर्म करनेपरभी कर्मका बंधन नही लगेगा ऐसी यह कुशलता है। जो सुखदुख-लाभहानिमें हमारी वृत्तिकी समता कायम रखती है।  योगः कर्मसु कौशलम् और समतयोग उच्यते  ऐसा जो गीताने कहा है वह इसलिए। गीताने यह नही कहा कि कर्मही छोड दो, गीता तो कहती है कि कर्ममें तुम्हारा अधिकार है, मगर फलासक्ति छोड दो! कर्तापन छोड दो! इतनेसे कर्मही कर्मयोग बनता है, अर्थात् कर्मके द्वारा ईश्वरसे संयोग हो सकता है।
   
               कर्म और कर्मयोगमें जो अन्तर होता है वही प्रपंच और परमार्थमें होता है। कुछ लोग तो नगारा पीटपीटकर कहते हैं कि प्रपंच और परमार्थमें जमीन-आसमानका अन्तर होता है। परन्तु असलमें बात यह
है कि प्रपंच और परमार्थमें ऐसा कोई फर्क नही होता, फर्क होता हैं तो वह सिर्फ दृष्टिभेदमें, मनकी भूमिकामें! दासबोध पूछता है कि भाई! प्रपंची खाती जेवती। परमार्थी काय उपास करिती? दोन्ही सारिखेचि
दिसती। विषया विषयी।।  प्रापंचिक हो या परमार्थी हो, जीवनका


निर्वाह तो दोनो कोही करना पड़ता है। ऐसा तो नहीं होता कि परमार्थी पुरूष की आँखें अंधी हो जाती हैं, जबान गुंगी हो जाती है। अज्ञानी और ज्ञानी लागोंके व्यवहारमें जो फर्क होता है वह सिर्फ आसक्ति और
अनासक्तिकाही होता है।
      
              राजपाट मिलें, अरब-खरब की संपत्ति मिलें, फिरभी इन भोगोमे समाधान नहीं मालूम होता; तृष्णा बढतीही जाती है, यही है प्रपंच! और निसर्गसे प्राप्त परिस्थितिमें जो वस्तुएँ मिलती हैं उन्हीमें सन्तोष करते हुए किसीकी कौडीभी नही चाहना यही है परमार्थ! जो प्रापंचिक अपनी आमदमेंसे चौथा हिस्सा लोकसेवामें लगानेकी इच्छा रखता है और यदि धन पासमें न हो तो जैसीभी बनें दीनदखियोंकी सेवासहायता करता है। ईमानदारीसे रहकर भगवानकी भक्ति करता है, गरिबीमें भी सन्तोष रखता है और दान देने के लिए कुछभी न हो तो भी दिलमें दयाभाव रखता है, वह संसारमें होते हए भी सच्चा परमार्थी है। परंतु जो परमार्थी कहलाता है लेकिन विषयोंकी आसक्ति दिलमें बनी रहती है; अपना सरतो मुँडा लेता है परन्तु जिसकी हाय-हाय कम नही होती और चंदा इकट्ठा करते हुए जो लोगोंकेभी सर मुंडाता है, जिसका अहंकार लोगोंको तुच्छ समझता है और अपना नाम अखबारोंमें छपे इसलिए जो छटपटाता है, वह परमार्थी के नामपर पूरा प्रापंचिक है। उसको तो मैं आदर्श र्प्रापंचिकभी नही कह सकता।
     
        जो साधुवेषी, लोगोंके हजार रुपिये उडाकर चैन करता है और जिसके दिलमें समाधान या हरिभजनका वास्तवमें पता नही रहता उस साधुको तो  शोचनीय सांसारिक कहना पडेगा। ऐसा साधु साधुताका


कलंक होता है। परमार्थका मतलब यह तो नही है की ह्म बिमारोके जैसे मौज उडाना भी परमार्थ नही हो सकता | जैसी स्थिती आहे तैशा रीती राहे। कौतुक तू पाहे संचिताचे।। इसतरह अपनी हालत सन्तोष कायम रखना यह परमार्थ की वत्ति होती है। इसका मतलब यह नही कि हमें प्रयत्नको छोडकर बैठ जाना चाहिए। असाध्य वस्तुभी प्रयत्नो के द्वारा प्राप्त हो सकती है I इसलिए प्रयत्न तो जरूर करते रहना चाहिए। समर्थ रामदास कहते हैं आधी प्रपंच करावा नेटका। मग घ्यावे परमार्थ विवेका।। अर्थात प्रपंचको नेटका यानी यथोचित, ठीकठाक बनाने के लिए प्रयत्नोंकी तो जरूरत होगीही। वह प्रयत्न न्याय नीतिसे, सदाचारसे सबके साथ प्रेमभाव रखकर और सहयोग देकर करना होगा तभी प्रपंच ठीक हो सकता है। इसके साथही हमें परमार्थका विवेकभी अपनाना होगा। अर्थात् ईश्वरको अपना ध्येय जानकर उसीके लिए कर्म करने होंगे। दिलमें संतोष रखकर और निरभिमान बनकर सभी बातें ईश्वरके चरणोंमें सौंप देनी होंगी। ऐसा करनेसे प्रपंचही परमार्थ बन जाता है, इसे मत भूलो।
  
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