बढिया परमार्थ- भक्तियोग
                  
                    (ता.१२-१०-१९३६)
     
         उपासकों! संसारमें जितनीभी प्रिय वस्तुएँ हैं उन सबसे परमात्मा को प्रिय समझना चाहिए। और सांसारिक वस्तुओंके साथ हम जैसा प्रेम लगाते उसीसे ईश्वर के प्रति प्रेम लगानेको सीखना चाहिए। वस्तुओंकी


प्रीती तो तुम जानतेही हो। प्रिय व्यक्तिको कैसे प्रसन्न रखना चाहिए; उसके लिए कैसी सावधानी बरतनी चाहिए और कैसे कष्ट उठाने चाहिए। किसी बडे पुरुषको खुश करनेके लिए क्या क्या करना चाहिए; ये बातें तो तुम बिना पुस्तक पढेही जान सकते हो। बस वही रास्ता ईश्वरसे प्रेम बढानेका और उसे प्रसन्न रखनेका होता है। शद्ध जलके समान मूलमें प्रेम तो एकही होता है। वह सांसारिक वस्तुओमें लगाया तो आसक्ति कहा जाता है। और ईश्वरमें लगवाया तो भक्ति कहा जाता है। आसक्ति फल बडेही दुःखोंके रूपमें मिलता है; तो भक्ति का फल परम सुखरूपमें मिल जाता है I   

                स्वार्थ के लिए प्रेम करना तो तुम संसारवाले जानतेही हो, मगर यह नही जानते कि ईश्वरही हमारा सबसे बड़ा स्वार्थ है। संसारकी चीजें जरा-जरासा सुख देती हैं और वहभी थोडे समयके लिए; मगर उनसे
लाखों गुना सुख हमेशाके लिए देनेवाला ईश्वर होता है, जिसमें अधिक सुख पानेकी फिर चाहही नही रहती। ऐसा बडासे बडा सुखसागर परमेश्वर पानेके लिए कोई कठोरतम साधन करनेकी जरूरत नहीं है। वह तो संसारकी प्रेमरीतिसेही मिल सकता है। बडी अजीब बात है यह! 
 
           संसारप्रेम और ईश्वरप्रेम इनमें एकही बात कुछ अलगसी होती है। वह यह कि संसारमें हमारा प्रेम एकही वस्तुपर केंद्रित होकर नही रहता वह कमज्यादा रूपमें कईं वस्तुओं या व्यक्तियोंपर होता है। परंतु हमारा प्रेम जैसा अन्य वस्तुओंपर है, वैसा वह कुछ अंशमें ईश्वरके प्रतिभी रहें, यह चल नहीं सकता। ईश्वरके प्रतिही हमारा पूरा प्रेम हो यानी अन्य चीजोंसे प्रेम हटाकर वह समूचा प्रेम हम ईश्वरमेंही केंद्रित करें, इसीका नाम भक्ति है। यह भक्ति हमारे उद्धारका सबसे बढिया साधन है | सभी वस्तुओंसे प्रेम खींच लेना इसीका नाम  त्याग है और एक


ईश्वरमेंही  प्रेम लगा देना इसीका नाम योग  है।
   
         मित्रों सांसारिक लोगोंमें भी कई ऐसे लोग होते हैं कि जिनका प्रेम कई वस्तुओपर पर तो होताही है, मगर किसी एक वस्तुपर वह सबसे अधिक होता है। जैसे किसीको धन इतना प्यारा होता है कि उसके लिए
वह अपने पत्नी-पत्रके भी सुखकी पर्वाह नहीं करता। किसीको सन्तान सबसे ज्यादा प्रिय होती है, तो किसीको सत्ता या मानबड़ाई।।
 
    तुमने दृष्टान्त सुना होगा कि, गोस्वामी तुलसीदासजी पूर्वजीवन मे बड़े विषयासक्त थे। उनका अपनी पत्नीके प्रति हृदयसे ज्यादा प्रेम था। एक दिन पत्नी मैके गयी तो तुलसीदासजी को वियोग असह्य हूआ। रातका समय था। तूफान वर्षा हो रही थी. अंधेरा चारो तरफ फैला था, और बिजलियाँ चमक रही थी, फिरभी प्रेम के नशे में वे आगेही बढते गचे I नदी मे बाढ जोरोपर थी, मगर एक डोंगी समझकर एक मुर्देके सहारे वे नदी पार कर गये। पत्नी-रत्नावली के पिता के मकानके सभी दरवाजे बंद थे। पिछली  खिडकीसे एक लंबा साँप लटक रहा था। अपनी पत्नी ने अपने लिएही यह रस्सी लटका दी होगी, ऐसा समझकर वे उसीको पकडते हुए उपर चढ़ गये। रत्नावलीने जब यह प्रेमकी बेहोशी देखी तो उसे बड़ा आश्चर्य और खेद हुआ। उसने कहा                   
            अस्थिचर्ममय देह मम तामें जैसी प्रीति।
          तैसी जो श्रीराम में होति न तो भवभीति॥

         अर्थात् मेरे हाडमासके देहमें आपका पूराका पूरा प्रेम केंद्रित हो गया I इतनाही प्रेम आप प्रभुको अर्पण करते तो आपका बेडा पार होने में बिलकुल देर नहीं लगती। पत्नी-रत्नावलीके ये विचार सुनतेही तुलसीदासजीका मोहका बंधन टूट गया और पत्नीको अपना वैराग्य


गुरू समझकर प्रणाम करते हए तुलसीदासजी प्रयाग की ओर निकल पडेI उनका तो पूरा जीवनही दिव्य बन गया!
 
             सज्जनों! ईश्वरप्रेम का रास्ता संसार प्रेम को ध्यानमें लेकरही निकलना पडता है। विषयप्रेमकी जगह ईश्वरप्रेम मे जो धुंद होतै है , वे तो आनंदकंद ईश्वरको पा ही लेते है। प्रेमलगनसे सबका त्याग होता है वासनाएँ जीत ली जाती हैं, सारे विषय तुच्छ लगते है, भाग्य का झरनाही खुल जाता है। जो पुरुष ईश्वर है या नही? इस संदेहम पडता ; न तो उसे खोजता है और न तो उसका पाँच मिनटभी भजन करता है ; संसार के लिए आँसू बहाता है मगर भगवानके लिए एकबारभी नही रोता, वह बडा अभागा है। प्रेमभजनही एकमात्र कारगर रास्ता है अब तुम्हारे लिए I ना धर्मकर्म न योगयागका साधन अब लाभकारी होगा। वह अब तुमसे पूर्णरूपसे बनही कैसे सकता है? तो अपने घर-संसारमें रहते हुएही सबसे प्रेम खींचकर एक ईश्वरकी जगह लगा दो, तो बेडा पार हो जायेगा ।

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