सच्चा परमार्थमार्ग- ज्ञानयोग
(ता.१३-१०-१९३६)
उपासकों! वास्तवमें ईश्वर अप्राप्त वस्तु नही है तो वह सबके लिए प्राप्तही है। ईश्वर सभी जगह व्याप्त है तो वह अप्राप्त कैसे हो सकता है? वह अगर प्राप्त न होता तो हमारा जीवन - हमारा अस्तित्वभी नही होता। वह हमारे इतना नजदीक है कि उतनी कोई भी वस्तु हमारे नजदीक नही है। हमारी आँखभी उतनी नजदीक नही है बल्कि हमारी
देखनेकी वत्तीभी उतनी निकटं नही है, जितना ईश्वर हमारे पास है। उसको देखने जाओ तो देखनाही खत्म होता है। अन्य चीजें हम आँखोसे भिन्न देख सकते हैं, लेकिन ईश्वर वैसा नही है। वह तो अभिन्न है. बल्कि आँखकोभी वही देखता है।
ईश्वर जितना हमारे नजदीक है उतनाही वह सबके नजदीक है। क्योंकि वह सब जगह मौजूद है। महात्मा कबीर कहते है- चीटीके पाँवमें धुंघरू बाँधा, वहभी अल्ला सुनता है। चींटी का पैर कितना छोटा! उसमें बँधे छोटेसे घुघरुकी आवाज कितनी सूक्ष्म! उससेभी सूक्ष्म अणुपरमाणुके अंदर वह विराजमान है! चींटीके पैरकी आवाज सुनता है। तो हमारी प्रार्थना क्यों नही सुनेगा?
सच्चे हृदय की प्रार्थना, निश्चय सुने जगवास है!
नहीं भक्त से है दूर वह, रहता सदाही पास है।।
वह हमेशा हमारे बिलकुल पासही रहता है मगर बहुत दूर भासमान होता है। क्योंकि उसे देखनेका चष्मा हमको मालूम नही है। अगर हम चष्मा लगातेभी हैं तो केवल विषयोंके दृश्यों को देखनेका। यह तो बहिर्मुख वृत्तिका चष्मा है। पुरुषका मन इंद्रियाधीन होनेसे कभीभी अन्तर्मुख नही होता। वह विषयही देखता है, विषयही चखता है। जबतक ज्ञान प्राप्त न हो। तबतक अंतरंगका भानही नही होता, फिर ईश्वरको कितनाभी ढूँढो वह मिलनेवाला नही है। कैसे मिलेगा? वह तो अन्दर के भी अंदर बैठा हुआ है और हम उसे तीरथधाम, मसजिद-मंदिर, जंगलगुंफामें खोजते फिरते हैं।
जैसे कूर्मे आवरिले। कर-चरण अंतरी नेले।।
अर्थात् कछुआ जैसे अपने हाथपाँवोंको समेटकर अपने अन्दर खींच लेता है उसीप्रकार हम अपनी वृत्तियोंको बाहर जानेसे रोककर जब उनका निशाना अंतरंगमें मोड देंगे तो सारा मामला सहल हो जायेगा, ईश्वर नजदीकही मिल जायगा। मिलना क्या है? वह तो मिला हुआ ही है. लेकिन इसकाही प्रत्यय आ जायेगा।
वृत्तियोंका स्वभाव तो बाहर दौडनेकाही होता है और इसी स्वभावको कम करनेके लिए शमदम, प्राणायाम, ध्यानधारणा, भक्तिभाव,योग-बैराग आदि साधनोंका अवलम्ब किया जाता हैं। सभी साधन मनोनिग्रहके लिएही होते हैं, ऐसा भागवतमेंभी कहा गया हैं। मनका निग्रह कर लेनेपरभी वह दौडेगा तो जरूर, लेकिन उसके साथ हमको अपना सम्बन्ध तोड देना होगा। उसकी धारामें न बहते हए हम अगर उसकी लीला देखते रहेंगे, खाली साक्षित्व करते रहेंगे तो उसकी ताकत आपसे आप कम होती जायेगी। फिर उसको अन्तर्मुख कर देना मुश्किल नही होगा। मन खेलता है, तब उसे कौन देखता है? मन जब शून्यवत् होता है तब उस दशाको कौन देखता है? यह सब विचार कौन सोचता या देखता है? कौन है वह देखनेवाला? वह तो हमही हैं और इसी हम के पिछे ईश्वर छिपा हुआ है।
प्रेमगली अति साँकरी, जा में दो न समाय।
जब मैं था तब हरि नही, जब हरि है, मैं नाय।।
खुदा हमसे जुदा कहाँ है? हमसेही क्यों, दुनियासे वह कहाँ जुदा है? इस सारे जगत्में, सृष्टिके कणकणमें ऐसी जराभी जगह खाली नही है, जहाँ ब्रह्मसत्ता न हो। दिखनेवाली ये सभी वस्तुएँ अध्यस्तरूपसे
भासमान होती हैं, प्रकृतिमात्र हैं। प्रकृतिसेही जगत् न्यारासा मालूम होता है, वास्तवमें ऐसा कुछभी नही। वह प्रकृति जब अपने मूलस्वभावको पा लेती है तब जगतभी ब्रह्मरूप हो जाता है। वेदान्तकी दृष्टीसे इस संसार का अलग अस्तित्वही नही है। प्रकतिजन्य स्वभावसे वासनामय प्राणी को यह इंद्रियगोचर संसार नाना रूपसे दिखायी देता है और वह हर प्रकारके कार्यभी करता है। परंतु ज्ञानकी दृष्टी खुल जानेपर प्रकृतिरूप वृत्ति ब्रह्म में तादात्म्यता पाती है तो जगत् न्यारा दिखताही नही।
ख्याल रक्खो। जैसे बिना आकाशके बादल नही होते, वैसेही बिना ब्रह्मके जगत प्रतीत नही हो सकता। संसारके जर्रे-जर्रेका अधिष्ठान तो एक ब्रह्मही है। सफेद पर्देके ऊपरही सिनेमा आता है। सिनेमाके लिए अंधेरा जरूरी है; सपनेके लिए नींद जरूरी है, उसी मुताबिक जगत्भासके लिए अज्ञान या माया जरूरी है। जैसे भयंकर शेरको देखकर कोई आदमी । बहूत डर जाता है और वही चिन्ता उसके दिमागमें घर कर लेती है तो वह वस्तुमें शेरकोही देखने लगता है। उसीप्रकार जीवमें मायाका नशा चढ जाता है; इसलिए उसे हर वस्तू ब्रह्मसे न्यारी दिखने लगती है। वह नशा जब ज्ञानसे नष्ट हो जाता है तो जगत् उसे सत रूपमेंही नजर आता है। क्योंकि जगत यह कोई अलग चीज नही है, यह तो एक चैतन्यब्रह्मकाही अलग रूपमें हुआ अनुभव है-अन्यथा भान है।
सज्जनों! हम खाली दुनियाका बाहरी रंग देखते हैं और सन्त वस्तुका अन्तरंग देखते हैं। वे संसार में रहकरभी ब्रह्मसागरमें तैरते हैं। स्वामी रामतीर्थ कहते हैं- मैं खेलता हूँ होली। दुनिया है गेंदगोली। ख्वा इसतरफ उठा हूँ, ख्वा उसतरफ हटा दूँ।। दुनियाको इसप्रकार
चाहे जिधर मोड देनेकी यह हिम्मत, यह आत्मविश्वास, ज्ञानयोगकाहो फल है। इसलिए हमको सच्चा ज्ञान प्राप्त करके अपने निकटत़म परमात्मा का अनुभव करना चाहिए। उसके लिए अपनी वृत्तियोंको अंन्तर्मुख करनेका अभ्यास करना चाहिए और वह पात्रता हममें अगर न हो तो वह लानेके लिए सदाचार, उपासना, सत्संग आदिसे अपनी उचित उन्नति कर लेनी चाहिए |
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