सबकी नींव- सदाचार
            
                   (ता.१४-१०-१९३६)
  
          उपासकों! मैं तुम्हें ब्रह्मज्ञानी बनो ऐसा एकदमसे नहीं कह सकता। क्योकि भगवान कहते है,  कर्मणो गहना गतिः। कर्मचक्र कुछ विचित्रसा होता है, इसका भेदन एकदमसे नहीं किया जाता। फिर ईश्वरकाभी अनुभव एकदमसे कैसे किया जा सकता है? इसलिए पहले तो सदाचार मार्गही स्वीकारला होगा। भगवान उद्धवसे कहते है कि-  स्वधर्मरूप सदाचार हो, प्रेमभक्ति हो. तो मैं मिल सकता हॅू । प्रातर्ध्यान, सद्ग्रंथपठन, शुचिता,पवित्र संकल्प, सात्त्विक खानपान, भजन-चिंतन आदि बातोंसे पूरा दिन पावन कर लिया तो सत्त्वगुण की वृद्धि होगी। नीति-न्याय तथा चारित्र्य से जीवन सत्त्वमय बनेगा। तभी आत्मिक उन्नति हो सकती है। नींवही पक्की न हुई तो दिवाल टिकेगी कैसे ? तुम कहोगे कि मैं मनमाना चलुंगा लकिन बातें करूंगा. ब्रह्मज्ञानकी. उन्मनी-टिन्मनीकी, तो क्या फायदा? बिना सदाचार, बिना सेवाप्रेमके चित्तशुद्धि नहीं होगी। तो ब्रहाज्ञानका


अधिकार कहाँसे आयेगा?
    
          एक बात और! हमने किसीकी दया की लेकिन अभिमान के  साथ, किसीको दान दिया लेकिन दंभके साथ, किसीकी सेवा की लेकिन मतलबके साथ और उपासना की, लेकिन कामनाके साथ, तो सभी जमा-खर्च बराबर हो जाता है। वैसै हि सदाचार तो किया लेकिन षड्विकारोंका गुलाम बनकर, तो इससे ईश्वर कहेगा कि तुमने नौकरी । ठीकसे नही की; फिर बिल्ला कैसे मिला? याद रक्खो, जबतक नौकर कष्ट उठाकर मालिकको प्रसन्न नही कर लेता और उससे बिल्ला या 
प्रशस्तिपत्र नही पा लेता तबतक उसका करना-धरना सब बेकार चलाजाता है। परंतु जिस नौकरकी ईमानदारी और सेवासे मालिक प्रसन्न होता है उसे वह प्रमाणपत्रही नहीं देता बल्कि उसे मालिकही बना देता है।पवित्र सदाचारको छोड जो केवल ब्रह्मज्ञानकी बातें करता है, उसे तो ईश्वर पासभी नही आने देता। सत्संग से यदि सिद्धात जानभी लिया परन्तु जबतक पवित्रता, विश्वबंधुता और सत्यका आचार न हो, चित्तकी
शुद्धता न हो, तो उसका क्या प्रभाव पड़ सकता है? महात्मालोग कहते हैं कि दुनियाके बारेमें सोये वेही भगवानके प्रति जगे रहते हैं। फिर षड्विकारों में जकडें हुए लोग ब्रह्मज्ञानकी असली रंगत कैसे पा सकत हैं?
  
         सज्जनों! सदाचार न करते हुए कोई बडा भक्ति-उपासना करता हो, दिनभरेके आचारमें तो कोई सच्चाई नही और संध्या-समय लम्बी प्रार्थना करता हो, तो भगवानकी आँख लगी हुई तो नही है कि वह देखताही न होगा। वह तो उसे बराबर टाल देगा। सुबहके उठनेसे लेकर रातके सोनेतक जो नियमसे चलेगा, प्रामाणिकता से व्यवहार करेगा, सात्त्विक दिनचर्या |


रखेगा तो उसका जडत्व कम होता जायगा, पवित्रता बढेगी और ऐसेही उपासककी प्रार्थना भगवानको प्रिय होगी। प्रार्थना सिर्फ जबानकी नहीं होती,दिलकी होती है, सच्चे आचरणकी होती है, इसे मत भूलो।
  
         सदाचारका एक पहेलू औरभी है। हमारा आचार सिर्फ अपने आपमेंही नही होता, उसका सम्बन्ध औरोंसेभी आता हैं। औरोंके साथ ससच्चाईका आचरण करें तो उनपरभी कुछ असर जरूर होता है। खाली बातोंसे कोई पवित्र नही बनता। तुम खुद आदर्श आचरण करोगे तो औरोंपरभी उसका कुछ न कुछ संस्कार अवश्य होगा। मातापिताके संस्कारोंसे बच्चे भजन-पूजन, गीतापठन, स्नानध्यान करने लगते हैं, ऐसा हमने कई घरोंमें देखा हैं। सदाचारके संस्कार से कुटुम्ब सहजही दुरुस्त होने लगता है. बल्कि मित्रोंपर-गाँववालोंपरभी उसका प्रभाव पड जाता हैं। तुम अगर चाहते हो कि अपना कुटुम्ब-परिवार अपना अडोस-पडोस अच्छा हो तो आग्रहपूर्वक तुमको सदाचार करनाही होगा। केवल औरोंके लिएही नही तो अपने उद्धारके लिएभी तुम्हें उसकी सख्त जरूरत होती है।

            कोई कहेगा कि औरोंकी चिन्ता हम क्यों करें? लेकिन यह कहना बिलकुल गलत है। जिस समाजमें तुम रहते हो, खातेपिते और बढते हो, उस समाजकी क्या तुमपर जिम्मेदारी नहीं है? जानकार और श्रेष्ठ व्यक्तियोंपर तो यह जिम्मेदारी अधिक होती है कि हमारा कुटूंम्ब, मित्रपरिवार, हमारा गाँव और प्रदेश अच्छा रहे; हमारा राष्ट्र आदर्श रहें।इन सबका अच्छा रहना हमारे लिएभी तो फायदेमंदही होता है। बिगड हुए समाजमें क्या हमारी उन्नती हो सकती? हमें शान्ति मिल सकती है? सच्चा विरक्त परुष सदाचारके नियमोंका पालन नही करेगा तो


नकली विरक्तभी नही करेगा। फिर किसको चुनना? इससे समाजही बिगड जायेगा और वह पाप सच्चे विरक्त के माथे बैठेगा। इसलिए उसकोभी सदाचार करनाही चाहिए  |                                                
 
             कोई कहते हैं कि जो सिद्धपुरुष हूआ उसपर विधिनिषेधका कोई नियम लागू नही होता। मगर मैं कहूँगा कि बद्धसे लेकर सिद्धतक किसीकोभी सदाचार छोडनेका अधिकार नहीं होता। अगर वह सदाचार
छोडना चाहे तो उसे समाजमें रहनेका कोई हक नही; उसे किसी एकान्त गिरिगुंफामें जाकर बैठना चाहिए। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जन! समाजसुधार के लिए सिद्धकोभी अपना आचरण अच्छा रखना चाहिए; क्योंकि जैसा बर्ताव श्रेष्ठ लोग करेंगे वैसाही जनता करने लगेगी। यह जनताका भान अगर किसी सिद्धको नहीं होता तो उसे  खानेपिनेका भानभी नही होना चाहिए। और एक सोचनेकी बात है कि सिद्ध होनेसे पहले साधक अवस्था में जो सदाचारी था वह सिद्ध होने के बाद सदाचारहीन होही कैसे सकता है? अगर होता है तो वह वास्तवमें सिद्धही नही है, ऐसा कहनेमें कोई दिक्कत नही।
   
             तो भाइयों! हमें यह निश्चयपूर्वक समझ लेना चाहिए कि बिना सदाचारके परमार्थपर हम आगे बढही नही सकतें। बिना सदाचारके वैराग्य, भक्ति, ज्ञान आदि यथार्थरूपमें मिलही नही सकते। इसलिए सर्वप्रथम हमको सदाचारकी नींव मजबूत करनी चाहिए।

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