नाममंत्रके साथ पथ्यपालन
(ता.१५-१०-१९३६)
उपासकों! सन्त-देव, ऋषी-मुनी आदि सभी श्रेष्ठोंने अनुभवसे कहा है कि आमजनताके लिए ईश्वरभक्ति ही श्रेष्ठ साधन है। भक्ति जैसी मार वस्तु संसारमें दूसरी नहीं है। भक्ति बिना इस मानव जन्म में उद्धार दुर्लभ है। ईश्वरप्रेम, ईश्वरचिंतन जो मनुष्य धारण न करें वह व्यर्थही है। भक्तिमें नाम का महत्त्व अपूर्व कहा गया है! श्री वामनपंडित कहते है, अजित नाम वदे भलत्या मिसे। सकल पातक भस्म करीतसे।। अर्थात्
भगवानका नाम हम अजामिलकी तरह किसीभी निमित्तसे लेते रहेंगे तो हमारा पाप भस्म हो जायेगा; जैसे एक अग्निकी चिनगारीसे घास की ढेरी खाक हो जाती है। नामको तो सन्तोंने आकाशसेभी बडा बताया है। लेकिन कोई भाई सन्त कबीरदासजीका वचन सुनाते है की -
रामनाम सब कोई कहे। ठग, ठाकुर और चोर।
जिस नामसे ध्रुव-प्रल्हाद तरे। वह नाम कुछ और।।
यानी नाम तो चोर डाकुभी लेते हैं। वही नाम अगर हम लेंगे तो क्या लाभ होगा? जिस नामसे ध्रुव-प्रल्हाद आदि भक्तोंका उद्धार हुआ वह नामही कुछ और था। परंतु यह कहना उचित नही है। कुछ और का
अर्थ नामही कुछ अलग था ऐसा नही है तो नाम लेनेकी रिती अलग थी, उसका मतलब हैं। हम ठगी या चोरीमें सफलता मिले इस भावनासे जपते रहेंगे तो वह क्या भक्ति हुई? सन्त कहते है- राम-कृष्ण वाचे बरळती बरळ । त्या कैचा दयाळ पावे हरी ?बिना प्रेम के किसी
बहूरूपियेने नाम लिया तो क्या होनेवाला है। जो सदाचार का पथ्य पालेगा नही और जिसके दिल नि:स्वार्थ प्रेमका झरनाही नही अथवा दिल नाम मे टिकताही नहीं, तो भक्ति कैसी बनेगी और ईश्वर कैसै
मिलेगा ?ध्रुव्र-प्रल्हाद जैसे भक्तोंमें सदाचार, प्रेम-भक्ति और निश्चल वृत्ती ;थी इसलिए उन्होंने भगवानको पा लिया। उन्होंने नाम कौन सा लिया, यह बात महत्त्व नहीं रखती।
उपासना का अर्थ खाली पूजापाठ या प्रार्थना का अर्थ केवल स्तुतिपाठ नही होता। अपना सबकुछ ईश्वरको समर्पित कर देना, अपने सभी कर्म ईश्वरार्पण बुद्धिसे करना और अपने समेत अपना कुटुम्ब ,
तन-मन-धन सब उसी ईश्वरका समझकर उसीके चिन्तनमें जीवन लगाना यही सच्ची भक्ति होती है। तीर्थभी वही है जहाँ पवित्र भाव बने रहते हों, मन पवित्र होता हो। नही तो काशीमें जाकरभी सिनेमा देखते रहें तो काशी कहाँकी? विषयनिवृत्तिके साथ जहाँ भक्तिभाव उमडता हो वही हरिमंदिर तथा तीर्थधाम है, फिर वह मरघटकी जगह क्यों न हो।
सज्जनों! सन्तोंने कहा है कि- जेणे विठ्ठलमात्रा घ्यावी। तेणे पथ्ये सांभाळावी।। नामकी दवा गुणकारी तभी होती है जब हम उसके साथ पथ्यपालनभी करते हैं। व्यावहारिक आरोग्यशास्त्र का नियम है कि औषधि खाकरभी जो कुपथ्य करता है वह अपना देह तो बिगाडताही है, साथही वैद्यकी मिहनत मिट्टीमें मिलाता है औरऔषधिके गुणधर्मपर कलंक का धब्बा लगाता है। जो नाम लेने के साथ यथोचित आचरण नही करता वह चौबीसों घण्टेभी नाम जपेगा तो कुछ ठोस लाभ नही होगा। हाँ मानपान या सुखचैन भलेही मिल जाये। इसीलिए मैं कहता हूँ कि विवेकीपुरुषको नामके साथ आचारात्मक पथ्यपालन अवश्य करना चाहिए।
आचार का मतलब है हमारी दिनचर्या पवित्र हो। हमारा आहार विहार रजो तपोगुणी न हो। क्योंकि जिस गुणका आहार करोगे वृत्तिभी वैसी ही बनेगी। गरीब व्यक्तिभी सत्त्वगुणी आहार कर सकता है। मिर्च मसाले आदि तमोगुण बढाते है। रातभर जागते हए भजन करना और बीमार होकर दिन गमाना उचित नहीं है। नियमसे चलोगे तो भजन चिरकाल टिकेगा। छ् घण्टे सोना शरीरके लिए आवश्यक होता है। रातके चौथे प्रहरमें ध्यानचिंतन करनेका नियम योगी-तपस्वी के लिएही नही, गृहस्थके लिएभी उचित है। बडे सबेरे जागनेसे मेंदू शान्त होता है, विचारोंमें तेज चढता है और वृत्ति आपसे आप कहती है-भजन करो, भजन करो!
बैठना-सोना औरोंसे अलग होना चाहिए जिससे किसीके विचार अपनेको छू न सकें। कपडेभी साफसुथरे और पवित्र होने चाहिए। इत्रफुलेलकी जरूरी नहीं लेकिन धूपबत्ती-पुष्प आदिका उपयोग करना चाहिए। परिश्रम करनेसे पवित्रता बढ़ती है इसे नहीं भूलना चाहिए। जहाँभी जाओगे वहाँसे कोई सद्गुण लेनेकी कोशिश करते रहना चाहिए। जो भी शंका उठती हो वह सज्जनोंसे जरूर पूछ लेनी चाहिए; परन्तु शंका निकालनेका छंदही नही लगा लेना चाहिए। जिससे हमको कुछ लाभ या संतोष हो, वैराग्य या ज्ञान हो, जिससे हमारी या दूसरे किसीकी उलझन सुलझ सकें, ऐसीही चर्चा करनी चाहिए। अहंकारसे हारजीत के बारेमें सोचनेवालेका परमार्थ लंगडा हो जाता है इसे नही भूलना चाहिए। आज परमार्थके नामपर बेहद कष्ट उठानेवाले, शरीरपर अत्याचार करनेवाले, कल स्वास्थ्यसे हाथ धोकर सबकुछ छोड बैठते हैं, इसलिए सोच समझकरही चलना चाहिए।
सभी बातोंमें जितना बने सदाचार करके बढनेवाला पुरुष अपनी
परिस्थिती या अवस्था ही ईश्वरके निकट पहुंच सकता है और उचित नियमों के विरुद्ध चलनेवाला पुरुष ईश्वरसे पराङ्मुख होकर भटक जाता है. इसे हमेशा ख्यालमें रखना चाहिए। नाशमान चीजोंपर चिपकी हई आसक्तिको जितना बनें छुडाते जाना चाहिए और सबकुछ ईश्वरका है ऐसा समझकर उसके प्रेममेंही मस्त रहना चाहिए। ऐसा करोगे तभी तुम्हारा भजन सच्चा भजन होगा; तुम्हारी भक्ति या नामस्मरण भगवान को प्रिय लगेगा और धीरे धीरे तुम भगवान बन जाओगे।
दृष्टान्त सुनो, गुरु नानकदेवजीके पूर्वजीवनकी बात है। वे एक धनवानके धान्यभाडार पर नौकरी करते थे। शरीर तो काम करता था मगर मन भगवानकी तरफ लगा रहता था। एक बार किसीको अनाज नापकर देनेकी जरूरत थी। गुरु नानकदेवजीने लाभ-दो-तीन इस तरह गिनगिनकर नाप डालना शुरू किया। जब बारहके बाद तेरा नंबर आया तो फिर आगेभी तेरा-तेरा-तेरा ही चलने लगा। गिनतीके सारे अंक बाद हो गया और गल्ला खत्म होने तक सब तेराही तेरा चलता रहा। क्योंकि गुरु नानकदेवजीको स्मरण होगया था कि सब तो भगवानकाही है। जो स्वयं भगवानको समर्पित होगये उनके मुखसे दूसरा निकलताही कैसे? नतीजा यह हुआ कि उन्हें नौकरीसे हाथ धोना पडा। जो भगवानकी नौकरीमें मस्त हो गये उनको दूसरेकी नौकरीसे क्या लेनादेना? गुरु नानकदेव तो अपनी इस समर्पित भावनाके कारण स्वयंही देवतल्य होगये थे। नानक लीन भयो गोविंदसौ ज्यों पानीमें पानी यह अधिकार उन्होंने अपनी उपासनाभक्ति या भजनसे प्राप्त कर लिया था। इससे हमको भी उचित सबक सीखना चाहिए।
* * *