भक्तिमार्ग सुगम है या कठिन ?
(ता.१६-१०-१९३६)
उपासकों! उपासना या भक्तिका-गौरव सभी सन्त गाते हैं और वह सहीभी है। भक्तिमार्ग सबसे सुगम है यह बातभी मानी हुयी है। मगर सुगम बातोंमें ढोंगधतूराभी अधिक बढ़ जानेका डर रहता है। देवाचिये उभा क्षणभरी। तेणे मुक्ती चारी साधियेल्या।। अथवा मुखी नाम हाती मोक्ष। ऐसी बहुतांची साक्ष॥ ऐसे वचनोंसे भक्तिकी सुगमता और उसकी महानता सबको मालूम हो गयी है। परन्तु यह ख्याल करनेकी बात है कि मंदिरके दरवाजेमें क्षणकाल खडा रहनेसेही
क्या सबको मोक्ष मिल जाता है? उनकी बद्ध अवस्थामें उसीवक्त परिवर्तन होकर क्या वे सब लोग सिद्ध बन जाते है?
ईश्वरका द्वार है सत्संग! ईश्वरका द्वार है उसका नाम! क्या क्षणकाल सत्संग करनेवाले सभी लोग मुक्त हो जाते हैं? क्या मुखसे नाम लेतेही सबको तत्काल मोक्ष मिल जाता है? प्रत्यक्षरूपमें हम देखते रहे है कि ऐसा कछभी नही होता। और कहीं हुआसा दिखताभी है तो वह उच्चाधिकारीके बारेमेंही दिखता है, किसी ऐरे-गैरेके बारेमें नही। फिर सन्तोने ऐसी खली घोषणा क्यों की? इस घोषणाका मर्म यह है कि क्षणकाल मंदिरके द्वारपर खडा रहनेवाला या मुखसे नाम लेनेवाला श्रद्धाशील तो होताही है। वही आगे चलकर धीरे-धीरे सत्संग से उद्धारमार्ग जान लेता है; भक्तिरहस्य समझ लेता है और आखिर मोक्षका अधिकारीभी हो जाता है। ये वचन तो ऐसे हैं जैसे स्कूलमें डाला कि लडका एम.ए.
हो गया! घर से बाहर कदम डाला कि पंढरपुर आगया! बीज बोय की फल मील गया। इसमें झूठ तो कुछभी नहीं है। मगर तारतम्यदृष्टिकी
जरूर आवश्यक होती I
वास्तव भक्ति अगर इतनीही सुगम होती तो भक्ति ते जाणावी शूळावरील पोळी ऐसा सन्तोंने क्यों कहा होता? भक्ति तलवार की धारपर चलनेजैसी कठिन है, ऐसा क्यों बताया होता? परन्तु लोगो ने
विकृत अर्थ निकाला और भक्तिका नाटक बना लिया, यह बात उचित नहीं है। समर्थ रामदास लोगों के बारेमें ठीकही कहा करते हैं कि देवावेगळे काही नाही। ऐसे बोलती सर्वही। परंतु त्यांची निष्ठा काही। तैसीच नसे। मतलब यह है कि भक्तिकी भाषामें तो सब लोग बाते करते है. परन्तु सच्ची भक्ति, सच्ची ईश्वरनिष्ठ शायदही किसीमें मिलती है।
सुनो एक विचित्र (दृष्टान्त) कहानी। चार-पाँच आदमी दोस्त थें। कष्ठ करना उनको अच्छा नहीं लगता था और हट्टेकट्टे आदमियोंका भीख मिलनाभी मुश्किल होता था। फिर भीख मांगना कोई सम्मान की बात नही थी। उन्होंने सोचा इससे तो घरबार छोडकर भक्ति करनाही ठीक रहेगा।
हरि-. भजन के तीन गुण, सबकोई लागत पाँव।
खानेको मिष्ठान मिले और आखिर बैकुण्ठ जाव॥
यह बात उनको जंची और तिलकछाप लगाकर माला जपते हुए वे एक दानशूर साहुकार के पास गये। उन्होंने कहा- हम तुम्हारे दत्तगुरूके बडे मंदिर में भक्ति करेंगे तो उसका आधा पुण्य तुम्हेंभी मिलेगा। उसके
लिए तुम्हें खाली हम लोगों के जीवननिर्वाहकी फिक्र करनी होगी। साहुकार धर्मकर्म के बारेमें भोला था। उसने मान लिया तो वे लोग खशीमें मस्त होगये I
राजाने उनके रहने-सोने, खाने-पिने और कपडेलत्तेकी बडी अच्छी व्यवस्था करवा दी। वे नये भगत नहा-धोकर प्रभातमेंही भंग का घोटा चढाते थे और घण्टे बजाबजाकर आरती गानेके बाद फिर दत्तमंदिरमें बगुले जैसे ध्यानमें बैठते थे। भंगकी तरंगमें अजीब रंग खिलता था। कहाभी है- कोटिन रंग दिखावत है जब अंगमें आवत भंगभवानी।। इसीतरह उनकी आपसमें हँसी-मजाक और बडी गडबडी चलती थी। उनकी ठठोलीके मारे आर्तलोग मंदिर में आते डरने लगे थे।
साहुकारको इस बातकी जानकारी कुछ वर्षों बाद हई। तो उसे लगामेरे पैसें पापमें तो नही जा रहें? एक दिन श्री रामदासस्वामी उसी मार्गसे जा रहे थे; तो साहुकारने उनका स्वागत किया और पुजारियोंका हाल बताकर उनसे प्रार्थना की कि कृपया आप इसी मंदिरमें रहिए और इन्हें सुधारिये। स्वामीजीने मान लिया और वे पुजारियोंके साथ रहने लगें। मगर उन पुजारियोंका भंग का नशा था तो स्वामी रामदासका खुदका नशा चलता
था। उसवक्त समर्थ रामदास धावा धावा ब्रह्मपिसा येतो सामोरी ऐसी ब्रह्मपिशाच की अवस्थामें थे। वह नशा कब उतरनेवाला था? और फिर उन संडगुंड पुजारियोंको सुधारनेका काम कौन कर सकता?
लेकिन दत्तप्रभुकोही चिन्ता हुई। उन्होंने सोचा यहाँ मेरा कोई लालभी है, उसे दर्शन देना चाहिए। मगर अनधिकारीसे अपनेको छिपाना होगा। इसलिए दत्तप्रभुने अजीब रूप बनाया। फटीटूटीसी गूदडी, एक
बडीसी हंडिया, कुछ भैंसे, गधे और मुर्गे, साथही एक विचित्रसा शिष्यइनको साथ लेकर घिनौने वेषमें दत्तगुरू आगये उस मंदिर में डेरा डालने। उन्होंने ऐलान किया, आज यहा गोश्त (माँस) बनेगा। हाथ में तलवार
थी, फिर कौन विरोध करता?
शिष्यने मालिक की आज्ञासे बडासा चूल्हा जलाया और उसपर हंडिया धर दी। मुर्गे, गधे और भैंसे एक-एक करके वह काट-काटकर उसमें डालने लगा। सभी प्राणी डाल दिये गयें मगर हंडा भरताही नहीं था | तब उस विचित्र फकीरने शिष्यसे कहा- इन बडे बडे सेहतमंद भक्तोंको काट-काटकर डाल दें उसमें। बडा माल उडानेवाले हैं ये यह आवाज सुनतेही वे ढोंगी पुजारी बडे घबडा गयें। रोते-रोते कहने लगें हम बिलकुल भक्त नही हैं महाराज! हमको छोड दो लेकिन हाथमें छूरी लेकर शिष्य उनकी तरफ लपका तो वे सबके सब जी-तोड भागने लगें। स्वामी रामदास तो बैठे हएही थे। फकीरने शिष्य से कहा- अरे! इस लटाऱ्याकोही काट डाल।
शिष्य स्वामीजीकी तरफ बढ़ने लगा तो उन्होंने हाथ जोडते हुए फकीरसे कहा- प्रभो! फिर कब दर्शन दोगे मुझे? यह सुनतेही दत्तगुरु प्रसन्न होगये और उन्होंने अपना असली रूप प्रकट करते हुए कहा अरे! तेरे लिए तो दर्शनही दर्शन है! मैं तो उन दांभिक लोगों को भगानेके लिए आया था। ऐसे दृष्ट ढोंगियोंके पास तेरेजैसे भक्त का रहना ठीक नहीं होता। या तो उन्हें सुधारना चाहिए, या उनका त्याग करना चाहिए। भक्तका नाम लेकर भक्ति को कलंकित करनेवाले ऐसे लोग दुनियाको धोखा देते हैं।
मित्रों! कईं बरसकी ऐसी भक्ति भी झूठी हो सकती है। ईमानदारीसे दिलको पाक करके जो भक्ति की जाती है उसीसे उद्धार हो सकता है। लंगोटी लगानेकी कोई जरूरत नहीं होती। घरमें रहकरही जो
प्रेम भजनमें सच्चे दिलसे रंग जाते उनको कठिन साधनोंकी आवश्यकता नही रहती। हरिनामका नशा सबसे बलवान होता है जो कभी नष्ट नही
होता। इसीसे गुरु नानकदेवजीने कहा है -
गाँजा-भाँग-अफीम-मद, उतर जात परभात।
नामखुमारी नानका, चढी रहें दिन-रात॥
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