उपदेश - सामर्थ्य की सीमा
( ता .१७-१०-१९३६ )
उपासकों! सत्कर्म और उपासनाके साथही सत्संगकी बडी आवश्यकता होती है अपने उद्धारके लिए। मगर सत्संग के लिए सच्चा सत्पुरुष खोजना-चुनना जरूरी होता है। दांभिकोंके चंगुलमें फँस जानेसे जीवन का महत्त्वका समय बेकार जानेका डर रहता है। वैसे तो दांभिकभी मनुष्यही होते हैं, जैसे सच्चे सन्त। भेद होता है तो आचरणमें, गुणस्वभावमें, ज्ञानमें और अनुभवमें। हम व्यवहारमें देखते हैं कि राजाभी मनुष्यही होता है और प्रधान, कप्तान, पुलिस, पटेल और कुतवालभी मनुष्यही होते हैं। लेकिन कारोबारके मुताबिक उनका अधिकार, दर्जा, मान-सम्मान न्यारा-न्यारा होता हैं। परमार्थ सत्तामेंभी ऐसीही श्रेणियाँ होती है। सज्जन, उपासक, मुमुक्षू, साधक, सन्त, अवतारी आदि कोटियोंमें फर्क हुआ करता है।
संसारमें बद्ध, वैराग्यभाव धारण करनेवाला, मोक्षकी तीव्र इच्छा रखनेवाला और मोक्षमार्गपर अमल करनेवाला ऐसे चार दर्जौके मनुष्य अपनेमें ही जोडतोड करनेमें लगे रहते हैं। ये ज्यादातर औरोंको उपदेश दे नही सकते। हाँ, वैराग्यवान व्यक्ति पामर और विषयबद्ध लोगोंको
विचार दे सकता है और आगे-आगे बढ़नेवाला हरेक पुरुष अपने पिछे रहें हए लोगोंको जरूर कुछ समझा सकता है। मगर समझानेकी ज्यादा ताकद तो मोक्षमार्गपर अमल करनेवाले साधक, स्वयं अनुभव पानेवाले सिद्ध, औरोंको ऊँचा उठानेकी इच्छा रखनेवाले सन्त और बारबार यही कार्य करनेके लिए दुनियामें आनेवाले नित्यमुक्त अवतारी पुरुष इनमें
उत्तरोत्तर विशेष होती है।
एक बात ख्याल करनेकी है कि एकदमसे राजाके पास अर्जी नही भेजी जा सकती: तो अपने निकटके वरिष्ठ अधिकारीके पासही भेजनी पडती है। और अगर राजाके पास अर्जी भेजी गई तो वह पहले निकटके अधिकारीके पासही वापिस आती है। परमार्थमेंभी यही होता है। हम .भगवानकी शरणमें गये तो भी वह उचित सन्त, साधक या विरक्त के पासही हमें पात्रताके अनुसार भेज देता है। अर्थात् ऐसेही पुरुषके साथ हमारा सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। और ऐसा संबंधही लाभकारी होता है। हमसे जो एक सीढी आगे है वही पुरुष हमको उपदेश देनेका विशेष अधिकारी होता है, क्योंकि वह हमारी अवस्थासे ज्यादा परिचित होता है और उसकी भाषा हमारे लिए अधिक सुगम और आत्मीयताकी हो सकती है।
सांसारिक जीवनवाले लोगोंको त्यागी-बैरागी (वैराग्यशील) पुरुष अधिक प्रभावित कर सकता है। विषयोंको विष्ठावत् माननेवाले का असर उनपर जितना जितना ज्यादा होता है उतना समदृष्टि महात्माका नही हो सकता। त्यागी पुरुषोंके दर्शन-उद्बोधनसे सांसारिक जरूर आगे बढेंगे, क्योंकि संसारके बारेमें उनकी दृष्टिभी धिःकार-भावनावाली हो जायेगी। जैसे लष्करी शिक्षण लेनेवालोंको देखकर लडकें अपने घरमेंभी
वैसैही हाथ घुमाना शुरू कर देते हैं। संसारमें रहते हएभी सन्त परम वैराग्यशील रह सकते हैं, परन्तु सांसारिक जीवोंपर उनका असर प्रत्यक्ष त्यागी पुरुषसे कमही पडेगा। मुमुक्षू और साधक जीवोंपरही सन्तका
प्रभाव अधिक पड सकता है।
सन्तोंने सन्तमहात्माके अधिकारके बारेमे कहा है- करील ते काय नव्हे महाराज ? परि पाहे बीज शुद्ध अंगी॥ अर्थात् सन्त क्या नही कर सकतें? वे तो गधेकोभी घोडा बना सकते हैं। परन्तु ऐसा तभी करते हैं, जब सामनेवाले व्यक्तिके अंदर शुद्ध बीज होता है। यानी पात्रता देखकरही वे उद्धार करते हैं। इसीका मतलब यह हुआ कि सबकुछ करनेका सामर्थ्य होनेपरभी सन्त सबका उद्धार नही कर सकते, कुछ मर्यादित लोगोंकोही तारक होते हैं। सन्तकीही बात नही; अवतारी पुरुषकी, बल्कि ईश्वरकीभी यही न्यायनीति है। नही तो कर्तुम् अकर्तुम् अन्यथा कर्तुम् शक्तिवाले ईश्वरने हर किसीका उद्धार किया होता। मगर ऐसा कहाँ है?
भारत के हरएक प्रान्तमें महान सामर्थ्यशाली महापुरुष हो गये। भगवान बुद्ध, महावीर, महात्मा पैगंबर, शंकराचार्य, चैतन्य महाप्रभु, रामतीर्थ, दयानंद, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, रमण महर्षी, गोस्वामी तुलसीदास, चक्रधरस्वामी, बसवेश्वर स्वामी आदि सैंकड़ों प्रभावशाली सन्त-महात्मा यहाँ अपना कार्य कर गयें। लेकिन क्या किसीने अपने देश या प्रान्तके सभी लोगोंका उद्धार कभी किया है? क्यों नही किया? क्या उनमें करुणा कम थी? इससे स्पष्ट होता है कि कोई कितनाभी बडा महात्मा हो वह सबको उठा नही सकता, क्योंकि उसकी अधिकारवाणी पात्रताभेदके
कारण समाजपर एकसा असर नही कर सकती। और कोई अपने विशिष्ट प्रभावसे किसी बद्धको एकदम सिद्धभी बनादें तो वह उसपर और ईश्वरी नियमपरभी आक्रमण होता है। उसमें भेदभावकाभी दोष आता है। इसीसे मुमुक्षू और साधक जैसे पात्रतावाले पुरुषोंकाही सन्तोंने उद्धरण किया है।
दृष्टान्त सुनिए। कहते हैं, गुरु नानकदेवजी मक्का-मदिना गये थे। वे तो मस्त फकीर थेही। अपनी मस्तीमें वे मसजिदके अंदर पहुंचे। वहीं पाव पसारकर सो गये। मौलवियोंने आकर आवाज दी; मगर अपने मस्तीमें मस्त हुए महात्मा दुनियाकी आवाजको कब सुनते है? नक्कारखाने में तूतीकी आवाज किधर? पाक जगहपर गुरुनानकजी के पाँव पडे हए थे, इससे खफा होकर काजीने गालियाँ बकना शुरू किया। नानकदेव बोले भाई! मैं तो बूढा होगया हूँ। पैर उठा नही सकता। तुमही इन्हें हटा दो। काजीने उनके पैर पकडकर और दूसरी तरफ घुमा दियें तो मसजिदही घूमने लगी। तीसरी ओर पैर घुमाये तो औरभी मसजिद फिरने लगी। बडा अचरन हुआ और सभी उनकी शरण आगये। परन्तु इतने बडे सामर्थ्यशाली महात्माने पूरा भारत तो क्या, पूरा पंजाबभी एकसा उन्नत नही किया। कहा जाता है कि, श्रीगुरु ज्ञानेश्वर महाराजने मिट्टीकी दिवालमें चैतन्य जगाकर उसे चलवा दिया, लेकिन उन्होंनेभी अवघाचि संसार सुखाचा करीन! आनंदे भरीन तिन्हीलोक।। इस वचनको प्रत्यक्षमें सार्थक नही किया।
यह मर्यादा ध्यानमें रखकर हम सबको पहले अपनी वृत्तियाँ तैयार करनी होंगी, अपनी पात्रता बढानी होगी, तभी हम सन्त महापुरुषोंके कृपापात्र बन सकेंगे। तुम्हें त्यागी पुरुषोंका उपदेश अधिक लाभप्रद होगा। परन्तु त्यागी ऐसा न हो, जो मुँहसे तो त्याग-बैरागकी लम्बी बातें करता
हो, मगर दिनभर दलाली करनेसे बाज नही आता। खाली लंगोटही त्यागका प्रतीक नही है। सांसारिक विषयोंके बारेमें सच्चा विरक्त, निष्काम, नि:स्वार्थ ऐसा विवेकशील, सदाचारी पुरुषही तुम्हें परमार्थपथपर आगे बढ़ा सकता है। वैसी तो अच्छी बातें हम कहींसेभी ले सकते हैं। श्री तुकाराम महाराजने कहा है- उपदेश तो भलत्या हाती। झाला चित्ती धरावा।। हरजगहसे उपदेश यानी उपयुक्त विचार लेनेमें कोई हर्ज नही। इसीतरह बढ़ते हम श्रेष्ठ सन्तोंसे अपना शंकानिवारण कर लेंगे और उनके सद्बोधपर अमल करेंगे तो इसी जन्ममें हम अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकेंगे।
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