नियति के चक्रसे छुटकारा
                 (ता.१८-१०-१९३६)
 
           उपासकों! गीतामें भगवान श्रीकृष्णने कहा है कि-  सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि। यानी ज्ञानीपुरुषभी अपनी प्रकृतिके अनुसारही बर्ताव करते हैं। अर्थात् ज्ञानीमहात्माओंके व्यवहारको प्रकृतिकी मर्यादा रहा करती हैं, यद्यपि वे ज्ञानानुभवके जरिये प्रकृतिके साक्षी बने रहते हैं। इससे लाभ यही होता है कि उनकी प्रकृति प्रकृतिही बनी रहती है, वह विकृति नही बनती।

             वैसे तो सभी जीव प्रकृतिके बंधे होते हैं। वे प्रकृतिमें विकृतिके शिकार बनकर कई दफे नाना योनियोंमें चक्कर काटते आये हैं। मैं पहले कौन-कौन था, कहाँ-कहाँ घूमा, कौन जानता है? उसके सुखदुखभोगका तो अंदाजाही नही। यह सब प्रकृतिका चक्र चल रहा है I ज्ञानी पुरुष


प्रकृतिको जानता है। बनना और बिगडना प्रकृतिका खेल हैं ऐसा जानकर वह अलिप्त रहता है। वह सुख और दुख, लाभ और हानिमें बह नही जाता। घूमनेवाले चक्र के मध्यबिंदुको खोजकर उसीपर वह अपना आसन जमाते हुए शान्तिसे बैठता है।
    
         बैठनेका मतलब कर्म छोड देना नहीं हैं। मैं कर्म नही करूंगा। स्वस्थही बैठूगा ऐसा कहनेवाला भूलमें हैं। प्रकृति स्वयंही कर्मरूप है और  तुम उसके चक्रपर आरूढ हों तो स्वस्थ किसतरह बैठ सकोगे? तुम्हारा तो आग्रहसे चूप बैठनाभी कर्मही होगा। राजा रहें या प्रजा, भोंदू रहें या साधू - सबके पिछे कर्म तो लगा हुआही हैं। यह देह प्रकृतिकाही एक रूप है, जो बिना कर्मके क्षणकालभी नहीं रह सकता। कर्मेंद्रियाँ, ज्ञानेंद्रियाँ. प्राण, मन, बुद्धि ये सब प्रकृतिकेही रूप हैं और इनके, स्वभाव पहलेसेही निश्चित हुए हैं। ये सब निसर्गसेही चलते रहेंगे, फिर मनुष्य इसमें क्या बना-बिगाड सकता हैं? उसे अगर स्वस्थ बैठना है तो एकही रास्ता हैं। उसे पहले  स्व की खोज करनी होगी। स्व यानी आत्मा ही ऐसा तत्त्व है जो इस प्रकृतिके खेलसे परे हैं। उसे जानकर जो  स्व  की जगह स्थिर बना रहेगा वही वास्तवमें स्वस्थ होगा। फिर देहादिके कर्म भलेही चलते रहें; परन्तु रथमें बैठे पुरुषके मुताबिक सौ कोस चलनेपरभी उसकी बैठक अचल रहेगी। प्रकृतिका खेल उसके लिए आभासमय बन जायेगा।
   
          ग्रंथ कहते हैं कि, सृष्टिकी उत्पति-स्थिति और उसका प्रलय । इनका तो हिसाब पहलेसेही तय होचुका हैं। कब क्या होनेवाला है यह  नाटककी तरह पहलेसेही निश्चित हैं। मनुष्य जिस तिथि-नक्षत्रमें, जिस घडी-पलमें जन्म लेता है उसी पलमें उसकी जन्मकुंडली तैयार होजाती


वह किस घडी क्या कार्य करेगा यह उसपरसे बताया जा सकता है I  उसका बोलना, हलना-चलना, उसका चोर या दानी बनना, उसका भक्त होनाभी बताया जा सकता हैं। अगर ऐसा है तो हम आग्रहपूर्वक कर्म छोड कैसे सकते है? और सोचनेकी बात यह है कि हमारा अच्छा होना बड़ी बहादुरी दिखाना, ज्ञानी बनना या सत्संगी बनना यह सभी जब प्रकृति या निसर्गसेही होनेवाला है तो हमको इसका अहंकार धारण
करनेके लिए जगह कहाँ ?
     
          कोई कहेगा कि हम बद्ध हैं, चोरजार हैं, दृष्ट हैं - तो यहभी तो प्रकृतिकाही खेल है, जो पूर्वनिर्धारित हैं। फिर इसके जिम्मेदार हम कैसे? मैं तो यहभी माननेको तैयार हूँ कि, भाई! तुम इसके जिम्मेदार बिलकुल नही हो! मगर क्या तुम इस भूमिकापर अटल रह सकते हो?
क्या इसका कर्तृत्व तुम सचमुचही अपने दिलसे त्याग सकते हो? ऐसा अगर होता तो तुम्हारी यह कर्मप्रवृत्तिही कम होने लगती। परन्तु ऐसा तो नजर नही आता और तुम अपनी बुरी आदतका समर्थन करनेके लिए बड़े बडे शब्दोंका उपयोग कर रहे हो। खैर, इन दुष्ट आचार-विचारों को प्रकृतिके कर्म बताकर तुम भलेही छिपना चाहो, परन्तु इनके दुःखरूप
फल भोगनेकी नौबत आयेगी तो रोतेधोते हुए तुम अपने आपही सामने आ जाओगे, यहभी पूर्वनिर्धारितही हैं।
   
         सज्जनों! भगवानने गीतामें कहा हैं कि,  भ्रामयन् सर्व भूतानि यत्रारूढानि मायया। अर्थात मायारूपी यंत्रपर आरूढ हुए सभी जीवोंको मै घुमाता रहता हूँ। सभी जीव प्रकृतिचक्रमें बंधे हुए हैं, परन्तु प्रकृति तो जडरूप है। वह चेतन ईश्वरकेही बलसे सभी कर्मखेल कर सकती है। जब


साधारण जादुगरके जादुमें हम भूल जाते हैं तो इस प्रकृतिके मायाजाल मे क्यों नहीं फसेंगे? और फंसे रहेंगे तो उसका सुखदुखभोग भी हमें भुगतनाही पड़ेगा। इस चक्रसे हम तभी आजाद हो सकते हैं, जब इसका सही सही ज्ञान प्राप्त कर लें। वेदान्तकी ऊँची दृष्टिसे यद्यपि प्रकृति भ्रांतिमूलक है तो उससे निवृत्ती पानाभी भ्रांतिमूलक है; ज्ञानभी भ्रांतिज न्य है, तोभी व्यवहारकी सत्तामें यह ज्ञानकी भूमिका श्रेष्ठ होती है। भ्रान्तिमेंसे निर्धान्तस्थिति देती हैं। बुरे सपनोंसे जगाया जाना बहुमूल्यही होता है, यद्यपि जागृतिमें आनेपर उसका कोई महत्त्व नही रहता।
    
            जो ईश्वर इस मायाचक्रका चालक है उसीको जानना इसका नाम है ज्ञान! द्रष्टा, दर्शन और दृश्य सभी प्रकृतिसे संबंधित होते हैं: परन्तु द्रष्टाको जान लेनेसे दृश्यदर्शनका प्रभाव समाप्त हो जाता है और ईश्वररूपमें शान्ति प्राप्त होती है। परन्तु उस साक्षि ईश्वर को हम जाने तो कैसे? गोस्वामी तुलसीदासने कहा है !  सो जाने जिहु देहु जनाई। जानत तुमहि तुमहि हो जाई।।  वही जान सकता है जिसको तुम अपनी। कृपासे जानकारी देते हो। और ईश्वरको जान लेनेका फल यही होता है कि वह स्वयं ईश्वर बन जाता हैं, अर्थात् उसमें तादात्म्य प्राप्त कर लेता हैं। इसप्रकार चक्रचालकके साथ एकाकार होनेपर प्रकृतिका सारा खेल कोई असर नही डालता। ईश्वरसे एकाकार हुए जो महान भक्त या सन्त होते हैं, वेही हमें प्रकृतिचक्रसे आजाद होनेका ज्ञानमार्ग दिखा सकते हैं। इसीलिए सत्संगका महत्त्व है।

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