जीवसेवाही ईश्वरसेवा!
              
                   (ता.१९-१०-१९३६)
        
        उपासकों! महात्मा कबीरदासजीने कहा -                       
         चलती चक्की देखके, दिये कबीरा रोय।
         दो पाटनके बीचमें, साबित रहा न कोय।।

             अर्थात् भूमि और आकाश इन दो पाटोंवाली कालकी जो चक्की रातदिन चल रही हैं, उसके बीचमें जितनेभी दाने आगये वे सब चकनाचूर हो गये, यानी जितनेभी लोग पैदा हुए वे सब खत्म हो चुके। यह सब देखनेसे कबीरजीकी आँखोंमें आँसू भर आयें। परन्तु सोचनेपर उन्हें इस बातका सन्तोषभी हुआ कि इस चक्कीकी केंद्रवर्ती खूटे (कील) का जिन दानोंने आश्रय लिया वे सब कालचक्रसे बच गये। येथे एकचि लीलया तरले। जो सर्वभावे मज भजले।। यानी जो अपनी समस्त भावनाओंसे ईश्वरभजनमें मस्त हए वेही सिर्फ भवसागरसे तर गये; मायाचक्रसे छूट गये। भक्तिका यह महत्त्व सभी सन्तोंने गाया हैं। नामका यह महिमा सभी धर्मग्रंथोंने सुनाया हैं।
   
            लेकिन ख्याल रहें, नाम या भक्तिमें निष्ठा और प्रेमका सबसे ज्यादा मूल्य होता हैं. हेतुका महत्त्व अधिक होता हैं। खाली धनमाल, आडम्बर या चिल्लाहटकी कोई कीमत नही होती। नामके साथ हमारा आचार, हमारा सेवाभाव पहले देखा जाता हैं।
    
          दृष्टान्त सुनो, सच्चा नाम लेनेवाला कौन है? यह सवाल एकबार देवी पार्वतीनेही शंकरजीसे किया था। काश्याम् मरणान् मुक्तिः 


इस धारणासे काशीक्षेत्रका महत्त्व बहुत बढ़ गया हैं। इसी कारण से काशीमें हरसाल बडा मेला लगता हैं। पुराने जमाने में काशीयात्राके लिए छ: महिने लग जाते थे। फिरभी घरबारका मोह छोडकर हजारों लोग दूर दूरसे तकलिफें उठाकर, संकटोंको झेलकर काशीक्षेत्रमें पहुँचते थे। उस साल शिवरात्रिसे पहलेही भक्तजनोंकी अपार भीड लगी हुई थीं। गला फाड फाडकर वे हरहर महादेव की गर्जना करते थे। कितनी श्रद्धा उमड रही थी! पार्वतीने देखा तो उसे आश्चर्य हुआ और साथही कुछ चिन्ताभी महसूस हुई कि अब इतने सारे भक्तोंको कैलासमें जगह कैसे मिलेगी ?                                                                
                इसलिए पार्वतीने शंकरजीसे कहा कि, अब आपको दूसरा  कैलास बनाना पडेगा? क्योंकि हरसाल अगर इतने भक्त आने लगें तो उन्हें रक्खेंगे कहाँ शंकरजीने जवाब दिया कि-  पार्वती! क्या तुम समझती हो कि ये सारेके सारे भक्तही हैं? इनमें ज्यादातर लोग हौसेगौसे-नौसेही मिलेंगे। सच्चा भक्त तो एकाधही होगा। फिर चिन्ताकी क्या बात? मगर पार्वतीको सन्तोष नही हुआ। उसने कहा- भोलेनाथ! घरबार छोडकर वर्षा-धूप सहकर, बडे कष्टसे यहाँ आनेवाले और सूखे कण्ठसे तुम्हारा नाम गानेवाले क्या ये सब अभक्तही होंगे? मैं तो नहीं मान सकती! शंकरजी बोले-  ठीक है। तो चलो. सच्चा नाम लेनेवाला कौन है, यही हम कल खोज निकालेंगे। 
    
           शिवरात्रिके दिन तो चारों तरफसे समुद्रतरंगोंकी तरह भक्तजनोके झुण्ड के झुण्ड उमड रहे थे। उनमें एक बूढा आदमी बूढे बैलपर सँवार हो आ रहा था; जिस बैलको उस बूढे की जवान पत्नी हाँक रही थी। सभी को आज शिवदर्शनकी जल्दी थी। रास्ते खचाखच भरें हए थे, इसलिए यह विचित्र दम्पति अपना वाहन बाजू-बाजूसे चला रही थी। लेकिन नजदीक


कहीं एक कीचडभरा गड्ढा था। बैलका पैर फिसल गया। वह गडढेमें धंस गया और उसपरसे गिरा हुआ बूढाभी गहरे कीचडमें धंस गया। जवान पत्नी रोनेधोनेके सिवा अकेली करही क्या सकती थी? वह चिल्लाचिल्लाकर प्रार्थना करती थी कि-  भक्तजनों! कृपा करके जरा सहारा दोऔर मेरे पतिको संकटसे निकालो। पहलेही वे बिमार हैं। मगर लोग तो शिवदर्शनकी जल्दीमें थें। कौन इस फालतू झंझटमें पडता ! 

           कई भक्त तो एक नजर इस दृश्यपर डालते ,वह विचित्र जोडा देखकर मुस्कुराते और हरहर महादेव गाते हुए आगे बढ जातें। कई विषयांध कहते-  अरे! बूढा फँसा तो मरने दे, अब जवान पती बना ले।
न हो चल हमारेही साथ। कुछ तो कहतें-  हम क्या तुम्हारे नौकर हैं? हम जत्रा करने आयें कि यह हमाली करने?  कोई कहता-  अरी! कुछ कलदार-रोकड हो तो निकाल, फिर बात कर। कुछ लोग तो यहाँतक आपसमें बातचित करतें कि-  अरे चलो, बूढेको कीचडमें दबा देंगे और इस तरुणीको भगा लेंगे। .. लोगोंकी ये बातें सुनते-सुनते इस महिलाके कान पक गयें। रोते-रोते उसकी आँखें सूज गयी। निराशा और घृणासे उसके दिलपर बडा आघात हुआ और उसने अब किसीसे प्रार्थना करनाही छोड़ दिया।                                                         
               अब तो दिनभी डूबनेको आया था। भीडभी कम हो गयी थी। मगर दरी होनेके कारण एक सज्जन-भक्त दौडधूप करते हुए उसी मार्गसे मंदिरकी ओर जा रहा था। उसकी नजरोंमें यह दृश्य आतेही उसकी दयावृत्ति जागृत हुई। वह जल्दीसे वहाँ जाकर उस बूढे को कीचडमेसे निकालनेकी सोचने लगा। उस महिलासे उसने कहा-  माताजी! चिन्ता मत करना। मैं प्राणकी बाजी लगाकरभी इनको निकाल दूंगा। मगर बूढाभी


बडा चिल्लीखप्ती  था। वह चिल्लाया- अबे! तूने जीवनमें अगर कोई पाप किया होगा तो तेरे छूनेंसे मैं औरभी फँस जाऊँगा। अभी सोचले।  यह सुनतेही वह सोचमें पड़ा और चूपचाप चला गया।
    
        कुछ समयके बाद एक और यात्री गंगामें नहाकर गीले कपडोंसे, चुनखडी का तिलक लगाते हुए बेलपत्री लेकर मंदिर की ओर दौडा जा रहा था। यह दृश्य देखकर उसका दिल पसीज गया। वह बूढेको कीचडसे निकालने गड्ढेमें उतरने लगा तो बूढेने वही शर्त सुना दी। उस भोले भक्तने कहा-  बाबाजी! मैंने जानबूझकर जीवनमें कोई पाप नही किया। और कुछ हुआभी हो तो अभी मैं गंगास्नान करके आया हूँ।  गंगा पापम् के मुताबिक गंगाजीने मेरा सभी पाप धो दिया होगा। आप फिक्र न करें, मैं आपको जरूर निकाल सकुँगा।  बूढेने कहा- अरे भाई! तू दुबला-पतला आदमी। किचड सख्त होगया है, तू कैसे निकालेगा? और शाम होगयी। पहले शिवजीका दर्शन करके तो आ।  वह भक्त बोला-  नही बाबाजी! शंकरजी तो कहेंगे कि अरे! तूने मेरे दुखी
जीवोंकी तो मदद नही की और चला मंदिरमें मेरी छाँव देखने? वे मुझे दर्शन कैसे देंगे? मैं तो चाहे जो हो, आपको निकालकेही रहुँगा ।

         वह कमर कसकर आगे बढा। उसने बूढेको हाथ लगायाही था। कि जैसे बिजली क्रौंध गयी। प्रकाश फैला और उसीजगह शिव-पार्वती अपने नंदीके साथ प्रकट हुयें। शिवजीने कहा-  पार्वती! यह मेरा सच्चा
भक्त है, जो कैलासका अधिकारी हो सकता है। दूसरा आधा भक्तभी तूने देख लिया। बाकी तो सब भक्तिका ढोंग-धतूरा हैं। जो जीवसेवा को ही  शिवपूजा  समझता है वही मुझे भाँता हैं। बहिरंग दिखावा क्या कामका?... शंकरजीने उस भक्तके सिरपर हाथ रखा। प्रसन्नतासे उसे


पावन कर लिया।                                                                
     मित्रों! ऐसा शुद्धाचार, सच्चा प्रेम और सेवानिष्ठभाव येही हमारे भक्तिके आधार होने चाहिए, तभी हमाराभी उद्धार हो सकता हैं।
   
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