ग्रामसेवाके बिना नामजप व्यर्थ!
(ता.२०-१०-१९३६)
उपासकों! तीर्थक्षेत्र या मंदिर-आश्रममेंही भक्ति हो सकती है। ऐसा नहीं; तो वह अपने घरमें और कामधाम करते हुएभी हो सकती है। मुखमें नाम और हाथोंमें काम यही भक्तिसंदेश हमारे सन्त नामदेव,
सन्त चोखोबा, सन्त सावतोबा, सन्त नरहरी, सन्त गोरोबा, सन्त जनाबाई आदि श्रेष्ठ सन्तोंने दिया। उन्होंने तो अपना घरबार संभालते हए और कामधंदा करते हुएही भगवानको प्राप्त कर लिया था। तो क्या उसी मार्गसे हमारा उद्धार नही हो सकता? जरूर हो सकता है। मगर आवश्यकता होती है पवित्र आचारकी, ईमानदारीके व्यवहारकी, सच्चे प्रेमकी और सत्संगसे प्राप्त किये ग्यानध्यानकी।
अब तुम आश्रममें हो। यहाँ तुम्हें कुछ कडे नियमोंसे रहना पडता हैं। जहाँपर जैसी पवित्रता-जैसी रहन-सहन हो वहाँपर वैसाही रहोगे तो वहाँके प्रमुख नेताका उद्देश्य सफल हो सकेगा और उसी रीतीसे व्यवस्थाभी बनी रहेगी। कोई कहेगा कि मैं तो ठाकुरजीके पास रहनेवाला हूँ और यहाँ मुझे दूर रहना पडता हैं। नियमोंसे चलना पडता हैं। परन्तु इसमें नाराजगीकी क्या बात हैं? भाई! तुम्हारा प्रेम सच्चा हो तो तुम दूर रहकरभी
ठाकुरजीके पासही हो। कोई कहेगा कि मैं तो बडा हूँ, मगर यहाँ तो छोटेछोटे लोगभी मुझे नियमोंके पाबन्द बना रहें हैं ! परन्तु वे लोग क्या तुम्हें दुष्टतासे कह रहे हैं ? भक्तिमें लगने और बढनेकी जो यथोचित व्यवस्था हो उसे तो तुम्हें खुशीसे स्वीकारते हुए मर्यादासे चलना चाहिए; तुम्हें जरूरतभी न हो तो भी औरोंके सामने आदर्श रखनेके लिए स्वयं वह शान्त-पवित्र तथा नियमित आचरण कर दिखाना चाहिए। रहनसहन और उठना-बैठनाभी नियमानुसार करना चाहिए।
यह बात आश्रममें ही नही, तो मठ-मंदिरमें, सभा-संमेलनमें और अपने घरमेंभी अमलमें लानेकी जरूरत हैं। जिससे हम सुव्यवस्था तो बढाही सकते हैं, बल्कि विशेष लाभभी उठा सकते हैं। घरमें हम अपने ऊपर ज्यादा अंकुश नही रख सकतें, इसीलिए देवल या आश्रम जैसी जगहमें जरा सख्त नियम लगाये जाते हैं। जिससे हमें लाभ उठाना चाहिए। यहाँ नमक-मिर्चका उपयोग नही किया जा रहा, चिल्लानेकी तो क्या-कहीं कहीं बातचीत करनेकीभी मनायी की गयी; छोटे बच्चोंको यहाँ न लानेका नियम किया गया, जूते निश्चित जगहपर लाइनसे रखनेकी आदत डाली गयी- ऐसे कितनेही नियम कुछ लोगोंको अखरतेभी होंगे: लेकिन संयम, शिस्त (अनुशासन), शान्ति और सुव्यवस्थाकी दृष्टिसे इनकी जरूरत महसूस हुई जो हमारे सबके लिए आवश्यक हैं। स्थल-कालके अनुसार इन नियमोंमें हेरफेरभी हो सकता है, क्योंकि ये नियम अटल नही होतें।
यहाँसे घर जाओगे तो इन सख्त नियमोंमें तुम कुछ सुगमता जरूर ला सकते हो; परन्तु नियमही न रखोगे तो कुछभी लाभ पा नही
सकोगे। कत्सित भाव हो तो तुम रसोईमेंभी जूते ले जा सकते हो, तमाशामेभी जा बैठ सकते हो। परन्तु अगर अपनी आध्यात्मिक उन्नति चाहते हो तो अपना घर तुम्हें आश्रम बनाना होगा: अपनी रहन-सहनमें पवित्र भाव लाना होगा; अपने बच्चोंकोभी शिस्त और सदाचार सिखाना होगा ; अपने पड़ोसियोंकोभी अपने समान बनानेका यत्न करना होगा। सब मिलकर ध्यान-प्रार्थनादि करनेका नियम चलाना होगा।
यहाँ के कार्यक्रम इसलिए है कि, यहाँसे तुम सीखकर जाओ और गाँव-गाँवमें अमलमें लाओ। यह नहीं कि, यहाँका मंदिर संन्यासीका है और गाँवका मंदिर सांसारियोंका। वहाँभी अच्छे नियम जरूर शुरू किये जाने चाहिये जिससे समाज भक्तिमय बनें। छोटे-बड़े और ऊँच-नीचकी भावना को त्यागकर हमको सबके साथ प्रेम बढाना जरूरी है। ऐक्यता, नम्रभाव, शिस्त, सदाचार, ईश्वरभजन इत्यादि बातें गाँववालों में प्रचारित करना आवश्यक हैं। मैं तो बड़ा उसको कहता हूँ जो गाँवकी झाडझूड करनेको आगे बढ़ता है और महंत उसको कहता हूँ जो सबके जूते शिस्तके साथ संभाल सकता हैं। छोटासे छोटा कामभी छोटा नही होता,यह हमें समझ लेना चाहिए।
पहले लोग गरिबोंकी शादी में जी-तोड मिहनत करते थे और गाँवकी एक ईटभी निकल जाये तो सबकी इज्जतका सवाल मानते थें; परन्तु आज वह भावना शायदही नजर आती है। देवलमें चौरस खेलेंगे;
बच्चा रास्तेपर टट्टी करता हो तो वहीं उसे मिट्टीसे ढंक देंगे या दूसरे घरके सामने फेंक देंगे; कोई अछूत बीमार हो तो उसे हाथभी नही लगायेंगे और अद्वैतकी बातें करते रहेंगे-ऐसी विकृती अब हमको गाँव-गाँवसे निकाल
फेकनी होगी और सबको पवित्र, सुखी, उन्नत बनानेकी कोशिशें करनी होंगी। इस आश्रमसे यही ख्याल तुम्हें गाँव-गाँव ले जाना चाहिए।
सज्जनों! हमारी भक्ति या हमारा ज्ञान हमको समाजका त्याग करनेको नही सिखाता। भक्ति कहती है कि सबकुछ भगवानका है और ज्ञान कहता है कि सबकुछ भगवानही है। फिर सबकी उपेक्षा हम कैसे कर सकते हैं? हमें तो सबकी सेवामेंही भगवानकी सेवा नजर आनी चाहिए। सबके कल्याणका काम वही हमारा ईश्वरनाम होना चाहिए।
दृष्टान्त सुनो, एक गाँवमें एक धनवान मालिक था। उसके पास एक भला आदमी नौकरी माँगने आया। मालिकने यही कहा कि, तू ईमानदारीसे काम करेगा तो तुझे जितना माँगे उतना पगार दूंगा। मैं तो हरिद्वार जा रहा हूँ। दो-तीन महिने जरूर लग जायेंगे; तबतक तुझे मेरे घर-परिवारकी देखभाल करनी होगी। नौकरने खुशीसे हाँ भर दी।... मालिक हरिद्वार-यात्रा करने चला गया, तो उस नौकरने एक हजार आठ मनकोंकी बडीसी माला बनायी और मकानकी देवडीपर बैठकर वह मालकसाहब-मालकसाहब का जप जोर-जोरसे करने लगा। अपने खाने-पिने आदि कामोंमें बहुत थोडासा समय वह खर्च करता और रातमेंभी ईमानदारीसे जप करने बैठता। बडा एकनिष्ठ था वह। नामजपके सिवा घरका सामान लानेकोभी उसे फुर्सत नही थी।
एकदिन कुछ डाकुओंने हमला किया और तिजोरी साफ कर दी। कसाबोंने गायबैल चुरा लिये और काट डालें। एक दिन बिना दवाके मालिकका एक लडका मर गया और गुण्डोंने एक दिन लडकीकाभी अपहरण किया। परन्तु उस नौकरने किसी बातपर ध्यान नही दिया। उसने
नामजपका व्रत ले रक्खा था। दो-तीन महिनोंके बाद जब वह मालिक शाम करके वापिस आया तो परिवारकी हालत देख-सुनकर बडा दुखी हुआ। इतनेमें वह नौकर आया और कहने लगा- मालकसाहब!
मैने ईमानदारीसे रातदिन आपके नाम का जप किया, अब मेहरबानी करके मेरा पूरा पगार चुकता कीजिए। यह सुनतेही उस मालिककी आँखें क्रोधसे लाल होगयी और वह कडककर कहने लगा- अरे बेईमान! तूने मेरा परिवार बरबाद होते देखा लेकिन कुछभी नही किया और अब नाम जपनेका एहसान जता रहा है? तुझे तो उलटा टांगकर हंटरसे तेरी चमडी उधेड़नी चाहिए।
मित्रों! आज भारतके हजारों भक्तोंकी हालतभी यही दिखती हैं। लोग भूखसे मर रहें हैं, गौएँ कट रही हैं, सतियोंकी इज्जत लूटी जा रही हैं, बीमारोंको सहारा नही है और चोर-डाकू बढ रहें हैं। ईश्वरके बालक
दुखसे रो रहें हैं, परन्तु उनके आँसू पोंछनेवाला कोई नही। ऐसे समयमें ईश्वरका यह परिवार सुधारने या संभालनेकी जराभी फिक्र न करते हुए
जो भक्त कहलानेवाले खाली नामही जपते रहेंगे, उनको ईश्वर क्या मोक्षका इनाम देगा? यह कभी नही हो सकता। क्योंकि भक्तिशास्त्र कहता हैं .
अपहाय निजं कर्म कृष्ण-कृष्णेति वादिनः।
ते हरेषिणः पापा: धर्मार्थं जन्म यद् हरेः।।
जो अपना कर्तव्य छोडकर केवल हरिनामही जपता हो वह तो हरिका शत्रु और पापी कहा जायेगा। क्योंकि स्वयं हरीभी तो लोकहितैषी कर्तव्य करनेके लिए ही अवतार लेता हैं। फिर प्रभु का प्रिय कर्म सच्चा भक्त कैसे टाल सकता हैं? उसलिए मैं यही कहूँगा कि आप सब लोगोंको
अपने उद्धारके लिएभी जनसेवाका कर्म तो जरूर अपनाना होगा I सेवा यह भक्तीका एक प्रमुख अंग हैं, इसे याद रखना होगा। तुम सच्चे हदयसे भक्त बनोगे तो भगवान तुम्हें अवश्य अपने हृदयमें स्थान देगा I
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