हम कौन सन्त चुनें?
               
                     (ता.२१-१०-१९३६)
      
       उपासकों! मैंने कहा था, इस संसारमें जो राजसत्ता चलती है। उसके कई स्तर होते हैं। कुतवाल, पटेल या सिपाही से लेकर प्रधानजी तक सबमें अधिकार बँटा हुआ होता हैं। सबसे ऊँचा अधिकार होता है राजा का। परमार्थमेंभी ऐसे भिन्न-भिन्न अधिकार हुआ करते हैं। दिखनेमें तो पटेल भी मनुष्य होता है और कप्तानभी या मंत्रीभी। मगर उनकी कोटि, उनका मानसम्मान, उनकी सत्ता एकसी नही होती। परमार्थसत्तामेंभी ऐसाही फरक हुआ करता हैं। सन्तमहात्मा, भक्त, मुमुक्षू, साधक और अवतारी पुरुष ये ऊपर से एकसमानही भासमान होंगे, मगर हर एककी दृष्टि और उसकी सृष्टिभी अलगही होगी। पामर, बद्ध, बैरागी, आर्तभक्त, मुमुक्ष, ज्ञानी, साधक, सिद्ध या शैतान, हैवान. इन्सान और भगवान ऐसे कईं भेद मानव-समाजमें नजर आते हैं।
            आत्मा तो सबका एकसा है मगर यह भेद है संस्कारोंका सत्संग द्वारा धीरे-धीरे ऊँचे संस्कार पाकर पामर या बद्धभी क्रमशः सिद्ध बन सकता है। एक बात याद रहें, एक गँवार आदमी एकदमसे राजा पास अपनी अर्जी पेश नही कर सकता। वैसेही गंदे विषयोंमें फँसा हुआ


एक पतित जीव एकदमसे मुक्त पुरुषके पास नही जा सकता। या यों कहिए कि मुक्तपुरुषकी भाषा उसके पल्ले नही पड़ सकती। उसे तो एक बैराग्यशील पुरुषही अच्छा मार्ग बता सकता है। इसीप्रकार ऊपरऊपरवाले अधिकारी पुरुष निचे-निचेवाले जीवोंको क्रमश: अधिक लाभप्रद हो सकते हैं। वे उनका दुखडा ठीक तौरसे समझ सकते हैं और उनकी भाषामेंही मार्गदर्शन कर सकते हैं। मतलब यह कि अपनेसे जो नजदीकी ऊँचा हो, उसीका सत्संग हमारे लिए अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
   
            यह मानी हुई बात है कि विदेह मुक्तकी भाषा (बातें) जीवनमुक्तसे कुछ अलग होती हैं; जो साधारण जीवोंके पल्ले नही पड सकती। ब्रह्मनिष्ठ ज्ञानीभक्त की भाषा आर्तभक्त को भ्रममें डालनेवाली मालूम हो सकती है। हाँ, अवतारी पुरुषकी बात अलग होती है। जो बालकोंमें बालवत्, सांसारिकोंमें व्यवहारीवत् और सिद्धोंमें महासिद्धवत् बातें कर सकते हैं। सबकी नसनाडी, सबकी अवस्थाओंको पहचानते हैं और
यथोचित राह बताते हैं। परन्तु सबके भाग्यमें ऐसे महापुरुषकी संगति कहाँ लिखी होती हैं? इसलिए हमको चाहिए कि अगर हम प्रापंचिक जीव हैं तो हमें त्यागी सत्पुरुष के उपदेश ग्रहण करने चाहिए। विरक्त
संतकी संगति कर लेनी चाहिए।
   
           विरक्त संतोंकी वाणीमें एक अद्भुत प्रभाव हुआ करता हैं। हमारे सन्त तुकाराम महाराज कैसे विरक्त महात्मा थे! स्त्री-पुत्रोंके होते हुएभी उनका वैराग्य जाज्वल्य था। छत्रपती शिवाजी महाराजने बढी
श्रद्धासे सजेसजाये घोडे, अबदागिरी, पालकी और हीरेमोतियोंका नजराना उनके पास भेजा था।  खोप मोडकी जर्जर।। घरी मोडकिया बाजा।


वरी वाकळाच्या शेजा।। दरदरीत पाण्यामाजी रांधल्यासे कण्या ॥ ऐसी बेहद दरिद्रता जहाँ थी, वहाँ इतना बडा राजवैभव आया। लेकिन तुकाराम महाराजजीका दिल जराभी विचलित नही हुआ। उन्होंने सारा वैभव लौटा दिया और साथमें चिट्ठी लिख दी कि- दिवट्या छत्री घोडे। हे तो बऱ्यात न पडे।।... तुका म्हणे धन। आम्हा गोमासा समान।कैसी नि:स्पृहता थी वह!
    
            सन्त तुकाराम महाराजकी धर्मपत्नी दिनभर रोती रही। शामको तुलसीवंदावन के पास बैठकर तुकाराम महाराजने कारण पूछा। जिजाबाई बोली-  हम लोग किसीको माँगने तो नही गये थें। आपसे आप भगवानकी दयासे धन आया, वहभी आपने ठुकरा दिया। बच्चोंके मुँहका कौर छीन .लिया। आखिर इसका कारण क्या है? महाराज बोले-  जिजा, मैंभी बनिया हूँ - दूकानदार हूँ। धनका मूल्य जानता हूँ। लेकिन यह धन तो अध:पतनका कारण बन जाता। तुमने खाली उसका दर्शन किया तो दिनभर पेटमें कौर नही गया और आँखें रोती रही। हमारी कुटियामें अगर उसे रख लेते तो तुम्हारी नींदही हराम हो जाती। आज तो चोरभी हमसे डरते हैं कि कहीं कुछ माँग न लें। लेकिन यदि धन रख लेते तो जीका जंजाल बन जाता। सही बात यह है कि सुख धनमें नही होता, वह हमारे अंदर है। आनंदाच्या कोटी। साठवल्या आम्हा पोटी। मैंने धनका बाप धनैया देखा हैं, फिर इन कंकड़-पत्थरोंसे क्या लेना-देना?
    
           कैसा अपूर्व वैराग्य था! यही कारण है कि सन्त तुकाराम महाराजकी वाणीमें अद्भुत शक्ती पैदा हुयी थी, जिसके प्रभावसे पंढरपुरमें आनेवाली जनता क्रांतिकारी विचार लेकर लौटती थी और अपना तथा


अपने गाव का जीवन उज्ज्वल बनाती थी। सारे जनसमाजमें एक नई चेतना की लहर फैलने लगी थी।.....

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