सन्तोंको बन्धन कहाँ ?
(ता.२२-१०-१९३६)
उपासकों! राजाके लिए कानून नहीं होतें, वैसेही सन्तोंके लिए आचार के नियम नही होतें। निस्वैगुण्ये पथि विचरतां को विधि: को निषेद ऐसे वे विधिनिषेध के बन्धनोंसे परे पहुँचे हुए होते हैं। फिरभी वे कानून, नियम, विधिनिषेध आदिका बन्धन अपनेको लगाही लेते हैं। क्योकि यद्यदाचरति श्रेष्ठः तत्तदेवे तरो जनः। अर्थात् श्रेष्ठ-पुरुष असा बर्ताव करेंगे वैसाही आचरण सामान्य जनता करती रहती हैं। श्रेष्ठपुरुष इसका ख्याल यदि नही रखेंगे तो समाजमें अव्यवस्था उत्पन्न
करनेके वे पापभागी बन सकते हैं।
हाँ ,यह बात अलग है कि कोई महात्मा यदि देहभानही भुला चुका हो, ब्रह्मानंद निमग्नचित्त हो चुका हो, तो उसके लिए कोई कैसे बंधन डाल सकता है? परन्तु जबतक हमें अपने-परायेकी जानकारी है, देहभान या विश्वभान है, तबतक तो हमें जानबूझकर उचित नियमोंका पालन आदर्शरूपमें करनाही होगा। हाँ, जातिवर्णधर्म आदिके भेदोंको मानना यह सन्तोंके लिए आवश्यक नही होता। श्रीसन्त तुकाराम महाराजने कहा है परमहंस तरी जाणे सहज वर्म। याति कुळ धर्म नाही तेथे॥ अर्थात् महात्माकी दृष्टिमें न जातियोंका भेद होता है और न देशोंका या धर्मोंका I
भाइयों! सन्त मानवधर्मी होत है। विष्णुमय जग वैष्णवांचा धर्म। भेदाभेद भ्रम अमंगळ।। यानी सारा विश्वही सन्तोंकी दृष्टी से विष्णुरूप है। न कोई ऊँचा न कोई नीचा, न कोई ब्राह्मण न कोई शुद्र | सबकी ओर समानतासे देखना, सबके साथ आत्मीयतासे बर्ताव करना I सबके कल्याणके लिये रातदिन कष्ट उठाना यही करुणामूर्ती सन्तों कार्य होता हैं। उनके लिए कोई अछूत नही, कोई पराया नहीं। उनके लिए कोई मानव अपवित्र नही हो सकता, अपवित्र है तो केवल भेदभावना वें ख्रिश्चनके चर्चमें और मुसलमानोंकी मसजिदमेभी प्रार्थना कर सकते हैं; पारसियोंकी अग्यारीमें और बौद्धोंके विहारमेंभी भजन गा सकते हैं।
हमारे महात्मा कबीरदासजी जितने मुसलमानोंके गुरू थें उतनेही हिन्दुओंकेभी। पंजाबके महाप्रभावी गुरु नानकदेवजीकीभी यही हालत थी। कहते हैं, उन्होंने मक्का-मदीनेमें जाकर वहाँ की मसजिद घुमा दी थी। इनकी वाणीमें ऐसाही मानवताका प्रभाव था कि, इस्लामधर्मके पंडित-मौलवीभी उनका अनुसरण करने लगे थे। क्या यह मसजिदका घूम जाना नही हैं? उनके प्रभाव से तो सारा पंजाब शिष्य यानी सिक्ख बन चुका था, जिसमें सभी वर्गों-जातियों और धर्मों के लोग थे।
सन्त जितने धनिकोंके होते हैं उतनेही गरिबोंकेभी होते हैं। उनकी दृष्टीमें जातिभेद, अवस्थाभेद, लिंगभेद आदि भेदोंका कोई मूल्य नहीं होता | लेकिन भलाई और बुराई का भेद उनके लिए विशेष महत्त्व रखता है। सत्य , सच्चाई, यही तो संतकी सबसे प्रिय चीज होती है। ऊपरसे बडी भक्ती दिखलानेवाले लोग अन्य जीवोंपर अगर अत्याचार, दमन या उसका शेषन करते हैं, तो वे सन्तोंकी दृष्टिसे मानवताके महान शत्रु होते है।
दुष्टान्त सुनिए। गुरुनानकदेवजी बडे पहँचे हए महात्मा थे। समतावाद उनमें कूट-कूटकर भरा हुआ था। फिरभी प्रामाणिक मजदूरको वे आभिमानी अमीरसे अधिक पवित्र, अधिक प्रिय समझते थें। एक नगरीका सत्ताधिकारी बडा धनवान था। उसने सजधजके साथ यज्ञ किया |उसमे गरु नानकदेवजीको भोजनके लिए निमंत्रित किया। उसीदिन शुद् समाजका एक गरीब श्रमिक आदमी भक्तिभावसे नानकदेवजीको भोजन के लिए अपने घर ले गया और गुरुजीने वहीं भोजन कर लिया। यह सुनतेही वह धनिक क्रोधित हुआ। गुरु नानकदेवजीके पास आकर भलाबुरा कहा। आप सन्त होते हुएभी भेदभावसे बर्ताव करतें। आपने एक गरीबके घर भोजन करके मेरा अपमान किया यह बात उसमें प्रमुख थी।
गुरुनानकदेवजीने उस धनवानकी घीचुपडी रोटी मँगाई और उस गरीबकीभी रूखीसूखी रोटी मँगाई। एक-एक हाथमें उन्हें सम्हालते हुए।
कहा- भगवानके बंदो! मेरी दृष्टिमें सब समान हैं। परन्तु जन्मसे नही तो कर्मसेही मैं मनुष्यको ऊँचा समझता हूँ। धनभी कोई बडा नही होता, परिश्रम करनेवालाही बड़ा होता है; क्योंकि धनभी श्रमकेद्वाराही पैदा होता हैं। तू धनवान हुआ है श्रमिकोंका खून चूसकर। देख, तेरी रोटीमें गरिबोंका खून भरा है और इस गरीबकी रोटीमें पवित्र दूध । ऐसा कहकर गुरुजीने दोनों मठियाँ कसकर दबा ली, तो धनवानकी रोटीसे खून टपकने लगा और गरीबकी रोटीसे दूध।
महत्त्व चमत्कारका नही: यह तो प्रतिकात्मक बात है। इससे हमें समझलना चाहिए कि प्रामाणिक परिश्रम करनेवालेही सन्तोको अधिक
प्रिय होते हैं। जनताका शोषण करनेवाले कितनेभी बडें धनवान या सत्तावान हो, बुद्धिमान हो, उनको सन्त कभी आदरणीय नही समझतें। लोकसंग्रह की दृष्टिसे सन्त-महात्मा पुरुष ऐसे धनिकोंको भलेही सम्मान देते होंगे,पर वे सन्तोंके कृपापात्र नहीं होते। हम अगर सन्तोंकी कृपाके पात्र बनना चाहते हैं तो हमें सदाचारी, सेवाभावी और परिश्रमी अवश्य बनना होगा।
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