उँची भक्ति और अंधश्रद्धा!
(ता.२३-१०-१९३६)
उपासकों! सन्त और भगवन्तमें ऐसा अटूट नाता पैदा होता है। कि उनमें कोई अन्तरही शेष नही रहता। यही कारण है कि भक्त कभी भगवानको सरपर उठा लेता है, तो भगवान कभी भक्तको।
माझे पाय तुझा माथा। ऐसे करी गा पंढरीनाथा।।
पाहता दिसे उफराटे। घडेल तरी भाग्य मोठे॥
इस अभंग में भगवानके माथेपर भक्तके पाव ऐसा अर्थाभास होने लगता है, परन्तु ऐसी कोई बात नही। हे भगवन् ! तुम्हारे पाँव मेरे हों और मेरा मस्तक तुम्हारा हो | ऐसीही सीधीसी माँग इसमें तुकाराम महाराजने की हैं। देव ते संत ते सन्त कहनेवाले तुकाराम महाराज स्वयं भगवद्प बने थे और इसी अधिकारसे वे कहते थे कि- घे गा देवा आशीर्वाद। नांद आमुच्या भाग्याने॥
याद रहें, मंदिरोंकी भगवन्मूर्तियाँ जो पूजा लेती हुई चैनसे निवास करती आयी हैं वह सन्तोंके आशीर्वादकाही फल हैं। सन्तोंने
जनहृदयोंमें जो भगवद्भभाव पैदा किया उसीकी यह परिणति हैं। वास्तवमें मुर्तियाँ केवल प्रतीकरूप है, साक्षात् प्रभुरूप नही। परन्तु सामान्य भावुक जनता को उपासनाद्वारा चित्तशुद्धि तथा चित्तकी एकाग्रता साध्य करनेके .लिए ऐसी मूर्तियाँ बडी उपकारक सिद्ध हुई हैं।
गुरु नानकदेवजी जैसे पहुँचे हुए महात्माने ऐसे प्रतीकपर पैरभी रखा तो क्या? परन्तु हमें ऐसी बातोंका अनुकरण करनेका बिलकुलही अधिकार नही हैं, ऐसा सबको समझ लेना चाहिए। मंदिर या आश्रममें
हमें बडी नम्रतासे, श्रद्धासे, पवित्रतापूर्वक नियमोंका पालन करना चाहिए। यहाँकी सुव्यवस्थामें बाधा न हो इसी दृष्टिसे उठना-बैठना और अनुशासनपूर्वक चलना चाहिए। लाइनमेंही क्यों बैठना ? चिल्लाना क्यों
नही? जूते बाहरही क्यों रखना? ऐसे सैंकडों सवाल यहाँ आनेवालोंके दिलमें पैदा हो सकते हैं; परन्तु जिन्हें लाभ उठाना हो उनको कुछ नियमोंका पालन तो करना होगा। हमें शिस्त लगानेवाले ये लोग दुष्ट या स्वार्थी दृष्टिवाले होतें तो बात अलग थी; परन्तु ये तो हमारीही भलाईके लिए यह सब कर रहें हैं, इसे नही भूलना चाहिए।
मंदिर और आश्रममेंही नही, सभास्थानमें और अपने मकानमेंभी हमें ऐसेही कुछ नियम, पवित्रता और अनुशासन के तरीके अवश्य अपनाने होंगे।रोतेचिल्लाते बच्चे लेकर यहाँ नही बैठना चाहिए। यह नियमभी किसी द्वेषभावनासे नही लगाया है। जो जगह जिस कामके लिए हो उसका वही उपयोग किया जायेगा, तो सबको सुभिता(सुविधा) होगी और अपना उद्दिष्ट सफल हो सकेगा।
भाई! अद्वैतके नामसे बच्चे को कहींभी टट्टीके लिए बिठाना
क्या उचित होगा? अल्लाह मस्जिदमें है और बाहरभी है, तो बाहर के बदले हम मस्जिदमें शराब क्यों न पियें? यह युक्तिवाद विरोधक कर सकता है, परन्तु जिसे जीवनको उन्नत बनानेका लाभ उठाना हो उसे न ऐसी बातोंसे दूरही रहना चाहिए। यहाँपरही नही, अपने घरमेंभी पवित्रताको पनपाना रहना चाहिए, बच्चोंकों सँवारना चाहिए। अकेला आदमी मनोनीत मार्गसे दुनियामें नही चल सकता; इसलिए अपने साथियोंकोभी अच्छे कामोंमें लगानेकी चिंता करनी चाहिए। खाली घरको पवित्र रखना पर्याप्त नही होता, अपने गाँवको पवित्र बनानेकेभी प्रयास करने चाहिए। गाँवकी एक ईट गिर जानेसे पूरे गाँवकी इज्जत जाती है, यह धारणा हमारे दिलमें बैठ जानी चाहिए। जो झाडबुहार करेगा वही महंत, जो जूतोंके पास रहेगा वही महंत, ऐसी सेवाभावकी महत्ता हमारे दिलमें दृढ होनी चाहिए। समाजमें प्रचारद्वारा सदाचार और सच्ची भक्तिको फैलाना चाहिए; यही हर सज्जनका कर्तव्य है। उठना-बैठना ठीक नही, पडोसीसे प्रेम नही, व्यवहारमें सच्चाई नही, कारोबारमें शिस्त नही, जीवनमें ध्येय नही, आचारमें पवित्रता नही, दिलमें भक्तिकी लगन नही-तो कैसे हमारी प्रगति होगी? कैसे उद्धार होगा?
दृष्टान्त सुनिए। हैरत होती है लोगोंकी भावभक्ति देखकर। एक माला-मुद्राधारी हरिभगत हाथोंमें टाल और बगलमें पताका लेकर पंढरपुरकी यात्रासे लौटा था। जय जय रामकृष्ण हरि की धुन गाते हुए। मुंबई शहरमें रेलसे पहुँचा। एकसे एक ऊँची इमारतें और एकसे एक चौंडी। सडकें देखते हुए चलने लगा। सबेरा होनेवाला था; चहलपहल अभी कमही थी। उसे टट्टी लगी, लेकिन उस साफसुथरे शहरमें बैठे तो कहाँ ? लाचार होकर वह सडकके किनारेही बैठ गया।...
थोडीही देरमें पुलिसकी सीटियाँ बज उठी। वह घबडा गया, परन्तु उसने चातुरी की। अपनी थैलीमेंसे गुलाल-बुक्का और फूल आदि निकाले। इन्ही चीजोंसे उसने वह मैला- ढंक दिया और कपूर-उदबत्ती जलाने लगा। पुलिसका एक सिपाही नजदीक आकर पूछने लगा- यह क्या है? उस भक्तने कहा- जमदारसाहब! मेरे सपनेमें जो दृष्टांत हुआ था, बस वैसाही हुआ। यहाँ भगवानका नया बान निकला है। बडी अजीब बात है। यह जागृत देवता है।.. सुनतेही लगा सिपाही दण्डवत करने। लोकभी जमा हुए और भक्ति की बाढसी आगयी।
जो सुनता वही दौड पडता। गरीब-धनिक, स्त्री-पुरुष सब वहाँ पुजापाठ करने लगें। दिण्डियाँ आयी और मेलासा लग गया।... इतनी धुम मची नये देव की कि यातायातभी रुक गयी। आखिर बड़े अधिकारी को उसमें ध्यान देना अनिवार्य हो गया।... अफसरने जब उस मूर्तिको यहाँसे उठानेका हुक्म दिया तब ऐसा भंडाफोड हुआ कि पूछो मत। कितनी कमाल है इस अंधश्रद्धाकी! एकने बात उडायी कि सौ लोग भेडबकरियोंकी तरह सत्ती पडते हैं। कोई अपने दिमागसे सोचनेको तैयारही नही।
मित्रों! ऐसी अंधश्रद्धासे हमारा विकास कभी होही नही सकता। सत्य-असत्यासी मन केले ग्वाही। मानियेले नाही बहुमता। ऐसा कहनेवाले हमारे संत-अंधश्रद्धाको हमेशा घातक समझते आये हैं। नवसे कन्यापुत्र होती। तरी कां करणे लागे पती? ऐसा बुद्धिवाद समाजमें जागृत करनेका उन्होंने हमेशा प्रयत्न किया हैं। मैं आशा करता हूँ कि आप सब लोग उन्हींका दृष्टिकोन लेकर हमेशा हर बातकी छानबीन जरूर करेंगे और सच्ची बातकोही स्वीकार करेंगे।
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