पत्थर के भगवान?
          
                     (ता.२४-१०-१९३६)
       
       उपासकों! केवल ईश्वरभक्तिही मनुष्य के उद्धारका सुगम और बढिया साधन है। आजकी परिस्थितिमें सामान्य समाजके लिए इसके अलावा दूसरा तरणोपाय नहीं हैं। भक्तिका मतलब हैं आत्यंतिक प्रेम, जिस प्रेमका आधार श्रद्धा हुआ करती हैं। परन्तु यह श्रद्धा अंधश्रद्धा नही होनी चाहिए। ईश्वरभाव सच्चा होना चाहिए। ऐसी सच्ची भावभक्तिसे योगयाग और तपस्याकाभी फल आपसे आप मिल जाता है। शर्त यही है कि आचार पवित्र हो, अंतःकरण शुद्ध हो और अपरोक्ष ज्ञानकी ओर खिंचाव हो। जो बाहरसे स्वच्छ नही रहेगा वह अंदरसे स्वच्छ कैसे हो सकता है? जो मनुष्योंसे निःस्वार्थ प्रेम नही कर सकता वह ईश्वरसेही प्रेम कैसे लगा सकता हैं?
   
         भाइयों! मैं मूर्तिपूजाका विरोधी नही हूँ; लेकिन मूर्तिकोही भगवान समझनेवाले लोग उसके भोजन-शयन आदिका जो आडम्बर खडा कर देते हैं और उसको भक्ति समझ लेतें, वह मुझे बिलकुल मंजूर नहीं है।कहते हैं कि सन्त नामदेवने बचपनमें अपनी श्रद्धाके बलसे विठ्ठलमूर्ति को दूध पिलाया था। मूर्ति उनसे घण्टों बातें करती थी। लेकिन सन्त नामदेव महाराज तो कहते हैं कि -                                    
             पाषाणाचा देव बोलेचिना कधी।
               हरि भवव्याधी केवि घडे?
               दगडाचा देव मानिला ईश्वर।
               परि तो साचार देव भिन्न।।


          दगडाचा देव इच्छा पुरवीत                                                तरी का भंगत आघाताने?
           प्रस्तराचा देव बोलत भक्ताते।
                    सांगते ऐकते मूर्ख दोघे॥
   
         पत्थरका ईश्वर भक्तके साथ बातें करता, उसकी इच्छा पुराता, ऐसे कहनेवाले और उसे माननेवाले दोनों मूर्ख हैं। क्योंकि मूर्ति प्रतिकमात्र है. ईश्वर नहीं। इसीसे मूर्तिकी भक्तिमें निमग्न नामदेवको सन्तोंने कच्चाघडा कहा, जो कलंक धोनेके लिए नामदेवको विठोबा छोडकर विसोबाकी ओर दौडना पडा। महात्मा विसोबा खेचर एक शिवमंदिरमें पिंडीपर पाँव रखकर सोये थे। नामदेव शंकित होगये। उन्होंने उस महात्मा को जगाकर इस अनुचित व्यवहारकी जानकारी दी। विसोबा बोले- बेटा! मैं बूढा आदमी। पैर उठतेही नही। तूही मेरे पैर ऐसी जगह रख दे जहाँ, शिव  न हो।

          नामदेव महाराज ने उनके पैर उठायें और दूसरी जगह रखें तो वहींपर पिंडी दिखने लगी। फिर तीसरी-चौथी-पाँचवी जगह पैर घुमाते हुए रखने चाहे : लेकिन हर जगह पिंडियोंके दर्शन होते थे। इसका मतलब नामदवजीके मनमें स्पष्टरूपसे प्रकट हुआ था कि  हर जगह ईथ्वर हI पैर रखे तो कहाँ ? यही बात स्वयं नामदेवजीने सूचित कीया है की -                                                                      
    बाराशीचे  गावी जाहला उपदेश। देवाविण ओस स्थळ नाही।।
 
        सच्चा ज्ञान प्राप्त होनेपरही  सर्वत्र ईश्वरदर्शन  का अनुभव आने लगता है और ऐसे ज्ञानीभक्तकोही सभी भक्तोंके शिरोमणी कहा जाता दै। सन्त नामदेव ऐसेही सच्चे ज्ञानीभक्त थे, इसीसे रसोईके वक्त रोटी लेकर भागनेवाले कत्ते के पिछे वे घी लेकर दौडने लगे थे।  तूप घे


गा! जगजेठी। कोरडी रोटी का खाशी? ऐसे उद्गार उनके मॅुहसे निकल रहे थे। कितनी ऊँची भूमिका थी उनकी! ऐसेही सच्चे भक्तके गुलाम स्वयं भगवान बन जाते हैं।  ये यथा मां प्रपद्यन्ते, तांस्तथैव भजाम्यहम्  यानी जो मेरी जैसी भक्ति करेंगा वैसाही मैं उसकी सेवा करूँगा, यह तो भगवानकी गीतामें प्रतिज्ञा हैं। वह ध्यानमें रखकर हम सबको रोजाना ध्यान-प्रार्थना-भजनादिकी आदत डालनी चाहिए और भगवानका स्वरूपज्ञान पानेके लिए भरकस कोशिश करनी चाहिए।

  
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