तीन प्रतीतियाँ
(ता.२६-१०-१९३६)
उपासकों! परब्रह्म परमात्मा सच्चा सुवर्ण है और जीवात्मा उसका टुकडा। अर्थात् वहभी उतनाही शुद्ध है, परन्तु उसे कुछ अशुदध तत्त्वोंने घेर रखा हैं। कुछ मिलावटने दूषित कर रखा है। उसे अपनी
पूर्वावस्थामें आनेके लिए कहीं आना-जाना नही पडता, तो अपनी जगही साधनाभ्यास करना पडता है; जिससे मल, विक्षेप और आवरणका हिनाश नष्ट हो जाय और वह अपने परब्रह्म स्वरूप में तदाकार हो जाए।
मनुष्यको ब्रह्मस्थिती पानेके लिए तीन प्रतीतियोंमें से गुजरना पडता है I पहली है शास्त्रप्रतीति महापुरुषोंने बद्ध अवस्थासे लेकर सिद्ध अवस्थातक के जीवोंके बारेमें अपने अनुभवोंके आधारपर जो ग्रंथ लिखें है और कमशः सबकी उन्नतिके मार्ग बताये हैं, उनका अध्ययन करना, उन ग्रंथोके जीवोंके जो विभिन्न अधिकार बताये हैं, उनमें अपना स्थान निश्चित कर लेना और अपने उस अधिकारानुसार जो साधन बताये हैं। उनको चुन लेना; ग्रंथोंमें जो बैराग, भक्ति, योग आदि का प्रतिपादन किया है उसको ठीक तौरसे जान लेना। जीव, माया, ईश्वर, ब्रह्म, मोक्ष आदि का जो तत्त्वविवेचन किया है उसको भलिभाँति मालूम कर लेना, ये सब बातें शास्त्रप्रतीतिमें आ सकती हैं।
शास्त्रप्रतीतिके साथही गुरुप्रतीति आवश्यक होती हैं। क्योंकि खाली ग्रंथ पढनेसे काम नहीं चलता। उसमें जो पात्रताएँ बतायी हैं उनमेंसे अपना अधिकार कौनसा हैं? जो साधन बताये हैं उनमें से अपने लिए कौनसा उपाय देश-काल-पात्र भेदानुसार विशेष उचित हो सकता हैं? जो विवेचन किया है उसका स्पष्टार्थ क्या है? जो पारिभाषिक शब्द बताये हैं उनका प्रत्यक्षरूपमें क्या स्वरूप हो सकता हैं ? इत्यादि बातोंका सच्चा मकसद कोई अनुभवी संत-महात्माही बता सकता हैं; अन्यथा भ्रममें गिरनेकी नौबत आ जाती हैं। इसीलिए ज्ञानी आचरणशील तथा अनुभवी सन्तकी सगतिमें पहुँचकर ग्रंथोंका वास्तविक भावार्थ जान लेना आवश्यक होता है। ग्रंथोंका जो ज्ञान है वह सन्तोंके द्वाराही सुफलित किया जा सकता हैं;
इसीको कहते हैं गुरुप्रतीति। गुरुका मतलब कान फूंकनेवालाही नही होता गुरुका मतलब है ज्ञानका प्रकाश देनेवाला सन्त-महात्मा।
भाइयों! शास्त्रप्रतीति और गुरुप्रतीतिके बारेमें और एक बात मै कहुँगा। जब ग्रंथोंके वचनोंमें विरोध नजर आता है या अपने दिल मै शंकाएँ पैदा होती हैं, तब उन शंकाओंका निरसन करना, उन वचनों की तारतम्यदृष्टिसे व्यवस्था लगाना या ग्रंथवचनोंका समन्वय करना इतनी शक्ती यदि हमारी बुद्धिमें आजाती है तो उसीको शास्त्रप्रतीति कहा जा सकता है; खाली ग्रंथ-पठनको नहीं। हमारे दिलमें कोई बिचार आजाता है, परस्पर विरोधी कल्पनाएँ उठती हैं या क्या करना-क्या न करना ऐसी समस्या खडी होती है, ऐसे वक्त ग्रंथोंके आधारपर निर्णय लेनेकी शक्तिभी हमारे अंदर नजर आती है, जो बल शास्त्रप्रतीतिका फल हैं।
परन्तु एक बात ख्याल करनेकी है कि खाली निर्णय लेनेसेभी काम नहीं चल सकता। अनुचित बातको ठुकराने और उचित बातपर अमल करनेकी ताकद हममें आ जाये तभी उस निर्णयका उपयोग हो
सकता हैं। चोरी नही करना चाहिए यह निर्णय तो होगया, लेकिन चोरी करनेसे बाज आना, पिछे कदम हटाना यह शक्ति जबतक हममें उत्पन्न नहीं होगी तबतक क्या लाभ? और यह शक्ति आती है गुरुकृपासे।
दूसरे, शब्दोंके लक्ष्यार्थ बुद्धिमें प्रकट होतें जानाभी गरुप्रतीति हैं। ग्रंथसे प्राप्त परोक्ष-ज्ञानको गुरुप्रतीति ही अपरोक्ष ज्ञानमें बदल देती हैं।
गुरुकृपा या गुरुप्रतीति हर किसीके पल्ले नहीं पड़ती। मूकं करोति वाचालम् यह गौरव तो अपनी जगह ठीक है; परन्तु मंदबद्धि, आचारहीन या अनधिकारीपर गुरुकी कृपा नही हो सकती। अगर होती है ऐसा मान लिया तो सभी सन्तोंको भेदवादी कहना पडेगा क्योंकि उन्होंने हर किसीपर
कुपा की ऐसा नजर नहीं आता। तो क्या वे एकको अपना और दुसरेको प्राचा मानेवाले थे? वे बडे दयालु थे, लेकिन साथही वे बडे न्यायी थे अधीकार तैसा करू उपदेश। यही उनकी प्रतिज्ञा थी।
शास्त्रबोध यदि हमारे पास न हो तो गुरूबोध हम कैसे समझ सकते है ? और गुरूबोध सुनतेवक्त हमारी आँखोंमें यदि पानी न आ जाये या हमारा हृदय सद्गदित न हो जाये तो हमारा रूखा शास्त्रबोधभी क्या काम का? कहनेका मतलब यह कि शास्त्रबोधके साथ शुद्ध श्रद्धाभी हमारे दिलमें पर्याप्त होनी चाहिए, तभी महात्माओंने बतायी हुई बातोपर हम अमल कर सकेंगे। प्राण जानेकीभी नौबत आ जाये तोभी जो गुरूबोधको नही छोडेगा, वही आत्मप्रतीतिका अधिकारी हो सकता हैं।
शास्त्र तथा गुरूके बोधका जो निचोड (सार) है उसका अंदर अनुभव करना, मैं-तू आदि अध्यास या मायाको छोडकर आत्मरूपमें तदाकार होजाना यही है सच्ची आत्मप्रतीति। आत्मप्रतीतिका अर्थ होता है स्वानुभव। वह अगर नहीं पाया तो सब व्यर्थ हैं। इसलिए हमें क्रमश अपनी प्रतीति बढाते जाना चाहिए और हम कहाँ है यह बात समझ लेनी चाहिए। रोजाना अभ्यास बढाकर अपने अंदरके दोषोंको निकालते जाना चाहिए। अच्छे पारमार्थिक ग्रंथोंका अध्ययन और सन्तोंकी संगतिमे रोजाना अधिक से अधिक समय व्यतीत करना चाहिए और उनके बोधपर अमल करते जाना चाहिए। मैं यह नहीं कहता कि तुम ग्रंथ हमेशा पढतेही रहो या काशी-हरिद्वार जाकर सन्तोंको ढूँढतेही रहो। मेरा ख्याल तो यह है कि अपनी बद्धिको जागृत रखते हुए हम अगर थोडेही ग्रंथों या सन्ताक बचनोंकी गहराई खोजने लगेंगे तो सबकुछ ठीक हो जायगा। अबतक तुम अपनी शंकाओंका शास्त्रन्यायसे स्वयंसमाधान कर लेनेकी
ताकत नही पा सकाँगे तबतक परमार्थ मार्गपर तुम बढे जा रहे हा ऐसा में कहुंगा नही | मै आशा करता हैु , गुरुदेव आपको जल्दी ही अपने पथपर आगे बढा ते रहेंगे ।
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