बहिरंग और अंतरंग साधना
          
                       (ता.२७-१०-१९३६)                                          
          उपासकों! हर एक पुरुषके दो रूप होते हैं- एक बहिरंग और दूसरा अंतरंग। ये रूप वृत्तिके कारणही हुआ करते हैं। वृत्ति जब देहका अहंकार लेकर इंद्रियोंपर आरूढ होती हैं और उनके विषयोंको ग्रहण
करती है तब उसे बहिरंग वृत्ति कहा जाता है। और वह जब अपने मूलकी तरफ दौडती है या अपने मूल स्फूर्तिरूप झरनेमें डुबकियाँ लगाती है, निर्विकल्प अवस्थाका अनुभव लेने लगती है, तब वह अंतरंग वृत्ति कही जाती हैं। अपनेमें तल्लीन रहनेवाली वृत्तिही अंतरंग होती है। अंत:करणकी जो स्वाभाविक दशा वहभी वृत्तिकी अंतरंग अवस्था कही जा सकती हैं और मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार के पर्दोमें छिपकर इंद्रयोपाधिमें आसक्त होनेवाली वृत्ति बहिरंग मानी जाती है। बहिरंगवृत्ति जब अंतरंग वृत्तिमें मिल जाती है तभी वह ब्रह्मरूपमें तदाकारता पानेके योग्य होती हैं। उसके लिए आवश्यकता होती है ज्ञानांजनकी।
   
          वृत्ति जब बाहर प्रवाहित होती है तो संस्कारोंका खेल बढता है।। कई प्रकारके बंधन बढ जाते हैं। बहिरंग वृत्तिही संसार है और अंतरंग वृत्तिही परमार्थ। योगीजन घण्टोंही नही-दिन दिनभर अंतरंगवृत्तिमे रह


सकते हैं। कोई समाधि लगानेवालेभी ऐसा कर सकते हैं। यह अंतरंग निर्विकल्परूप तो होती है, परन्तु बिना आत्मज्ञान के वह ब्रह्मरूपमें तदाकार नही हो सकती। इसलिए आत्मबोध करा लेना बहुत जरूरी होता है। लेकिन केवल आत्मा-ब्रह्म या माया-मुक्तिका शब्दज्ञान पाठ करनेसे काम नही चलेगा। गंदा कपडा साफ कियेबिना उसपर कोई रंग ठीकसे नही चढ सकेगा। इसलिए हमें पहले मल-विक्षेप आदि दोषोंको उचित मार्गसे निकाल फेकना होगा। अंतरंग वृत्तिसे पहले बहिरंग वृत्तिही हमें पवित्र बनानी होगी, अपने बसमें कर लेनी होगी।
  
              मेरे कहनेका मकसद यह कि सिर्फ बहिरंग वत्तिको त्याग देनेसेही बात नही बनेगी। बहिरंग वृत्तिको पहले सुधारना होगा। उसके लिए हमारा बाह्याचरण दुरुस्त करना होगा। नि:स्वार्थ भावसे सत्कर्म करने होंगे। बाहरी जीवनको हमें आदर्श और सेवामय बनाना पडेगा। ऐसा अगर नही करेंगे तो ग्रंथाध्ययन से ही हम सच्चे परमार्थी नही बन सकतें। अशुद्ध वृत्तियोंका जंजाल लेकर हम सही अर्थों में अंतरंगमें नही पहँच सकते।
   
         मित्रों! भाग्यकी बात है कि सन्तोंके ग्रंथोंमें हमारे उद्धारके लिए आजभी दिव्य बीज कायम हैं। लेकिन बाहरका वातावरण बहुतही बदल गया है। आचार-विचारों में गंदगी बढ़ती जा रही हैं। हम ईश्वरको पाना तो  जरूर चाहते हैं, मगर कितनी विचित्र बात है कि हम उसको अपनी गंदगीमेही बुलाना चाहते हैं। क्या अपवित्र जीवन का फल वह पसंद करेगा? हमें तो उसको प्रिय लगनेवाली चीजें अपनी चारों ओर-अंदर बाहर सबसे पहले बढानी होंगी। अहिंसा, सत्य, प्रेम, नीति, दया, सदाचार आदि बातोंका हमें जी-जानसे पालन करना होगा। ईश्वरको प्रीय लगनेवाला पवित्र आहार-विहार निष्ठापूर्वक शुरू करना होगा।


खाली ऊपरसे साधुका पार्ट लेनेसे नही चलेगा; तो ईमानदारीसे साधुत्व टिकाना होगा; जनता को लूटना बंद कर देना होगा। हमें ऐसा जीवन बनाना होगा, जो देखतेही औरोंके दिलमेंभी सात्त्विक भाव पैदा हो सकें।
   
          दृष्टान्त सुनिए। स्वामी रामकृष्ण परमहंसने एक भक्तकी कथा सुनाई थी। गाँवके बाहर कई सालोंसे एक पुराना मंदिर सूना पडा हुआ था। उसमें कूडा-कचराही नही, कीडे-मकोडेभी भरे पडें थें। उसमें कभी कोई आता जाता नहीं था। लेकिन एक दिन एक भक्तने बड़े सबेरेही वहाँका घण्टा जोरोंसे बजाना शुरू कर दिया। वह धूमधामसे पूजा के मंत्रोंका पाठ कर रहा था। लोगोंमें आश्चर्यकी लहर फैल गयी। सब लोग मंदिरकी ओर दौड पडें। परन्तु देखते क्या है कि मंदिरकी चारोंओर गंदगी पड़ी हुई हैं। मंदिरमेंभी कूडा-कचरा वैसाही पडा हैं। मकड़ियोंके जालें,गधोंकी लीद, चूहोंके बिल, सब ज्यों के त्यों हैं। न कहीं साफसफाई, न कहीं धूपदीप। यह सब थोथा नाटक देखकर सब लोग उस भगतके नामसे 
थुं- थुं- थुं करने लगे।
    
           एक सज्जन पुरुषने कहा-  अरे भाई! भगवान क्या खाली घण्टा बजानेसे या धून सुनानेसे प्रसन्न होगा? अरे! हम साधारण लोगभी तेरी इस हरकतपर नाक-भौं सिकोडते हैं तो भगवानको यह भक्ति भायेगी कैसे? भगवानसे पहले तो भाई! हमें अपने मनकोही प्रसन्न कर लेना चाहिए। जरा झाडू लेकर पहले यह गंदगी हटा दे। लिपपोतकर, पानी सींचकर उसपर रंगोलियाँ सजा दे। धूपदीप और चंदनपुष्पोंसे मंदिरमें पवित्र वातावरण बना दे और देख तेरा दिल कैसा प्रसन्न होता है। फिर तो भगवानकी शक्ति यहाँ आपसे आप चमक उठेगी।
  
         मित्रों! यही बात सही है। इसलिए मैं कहता हूँ कि अंतरंगकी


बातें बादमें करो: पहले अपना बहिरंगही सुधार लो। आज नई शिक्षाके नामपर हमारे यवकोंमें कईं गंदी आदतें बढ़ने लगी हैं: उन आदतों को पहले काबू में लाओ। बाह्याचरण पवित्र बनाओ। अपना शरीर. अपना अपना गाँवभी अगर हम पवित्र बनायेंगे तो मंदिर-मंदिर घूमनेकी जरूरत नही रहेगी। हमारा गाँवही नही, हमभी तीर्थरूप बन जायेंगे और फिर अंतरंग वृत्तिका अधिकार हमें सहजही प्राप्त होगा।


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