चित्तशुद्धिका उपाय- वैराग्य
(ता.२८-१०-१९३६)
उपासकों! चैतन्यस्वरूप जीवात्मा वास्तवमें शुद्धस्वरूपी है; परन्तु उपाधिके संसर्गसे वह मलिन भासमान है। यह उपाधि है प्रकृतिकी अर्थात् संक्षेपमें मनकी। मन विकार-वासनाओंसे मलिन हो गया है, इसीको मल दोष कहा जाता है। इस दोषका निवारण सत्कर्मसे होता है, ऐसा शास्त्रका कहना है। हमें सत्कर्म. सदाचार, नीतिनियमोंका पालन आदि करनेके लिए मनको कुछ विकारोंसे, कुछ गलत वासनाओंसे छुडाना पडता है, बुराईका मोह त्यागना पडता है। सत्कर्ममें सेवा, दान, तप आदि बातें आती हैं; उनके लिएभी मनकी स्वार्थी इच्छाओंसे ऊपर उठना पडता है। इसीसे सत्कर्मको मलदोष का नाश करनेवाला बताया गया है। वास्तवमें सत्कर्म ही, विचारही इसके मूलमें हैं।
यही बात मैं दूसरे शब्दों में यों कहुँगा कि बैरागही मलदोषको नष्ट करनेवाला होता है, सिर्फ सत्कर्म नही। दिल में अगर बैराग नही
बढता हो तो सत्कर्म केवल कवायद या ढोंगभी हो सकता है। मनका मल नष्ट हुआ, मन निर्मल हुआ, यह हम तभी कह सकेंगे, जब हमारे दिलमें नाशमान वस्तुओंके बारेमें वैराग्य पैदा होगा। वैराग्यका मतलब वैताग नही है। कुछ परिस्थितिवश रांड मई धनसंपद नासी। मूंड गुंडाय भये संन्यासी ऐसा स्मशान-बैराग्य आ सकता है, परन्तु वहभी सच्चा बैराग्य नही है। सभी प्रापंचिक विषयोंके बारेमें जब विचार किया जाता
है कि क्या ये चीजें हमेशा ऐसीही टिकनेवाली हैं? क्या ये चीजें जैसी दिखती वैसाही इनका वास्तव स्वरूप हैं? क्या ये चीजें मुझे चिरंतन सुख दे सकती हैं? क्या इनके पिछे गुलाम बनकर मैं अधिक दुःखका भागी नही बनूँगा? इन चीजोंका अधिक से अधिक संग्रह करनेवाले क्या आजतक कोई संतुष्ट-तृप्त हो सकें हैं? इस जौके बराबर सुखके आभासके लिए पहाड जैसे दुःखोंमें दब जाना क्या बुद्धिमानी हो सकती हैं?... तब
इन विचारोंसे हमारी मनोवृत्ति उन चीजों या विषयोंसे उपराम हो जाती हैं।परावृत्त हो जाती हैं। और उसको कहते हैं सच्चा वैराग्य! उसीसे नष्ट होता है वासनाओंका मल, जिसे कहते हैं चित्तकी शुद्धि।
मित्रों! चित्तशुद्धि बिना बैरागके होही नही सकती; फिर भलेही हजारों ग्रंथ कहते रहें कि कर्मसेही चित्तशुद्धि होती है। दृष्टान्त सुनिए। एक महात्माके पास एक पटेल दर्शन करने गया था। उसे महात्माजीसे
ज्ञान पानेकी लालसा थी। उसने वैसी प्रार्थना की तो महात्माजीने उससे कहा- कल एक कोयला सफेद करके मेरे पास ला; बादमें तझे ज्ञान देंगे। पटेलने आज्ञा शिरोधार्थ मानली। दूसरे दिन एक मन कोयला उसने खरीद लिया। सोचने लगा इसे, चूने का रंग दिया तो कैसा? परन्तु उसके दिलने कहा, यह रंग तो निकल जायेगा। फिर कोयलोंको सफेद करनेके
लिए उसने ढेर सारी साबुन खरीद ली और हौजके पास बैठकर बारबार कोयलोको धोने लगा। धोता रहा-धोता रहा; परन्तु एकभी कोयला सफेद नही हो रहा था। पटेल निराश होने लगा। अब करें तो क्या?
उसकी पत्नीने दिनभरके इस खटाटोपका कारण पटेलसे पूछा। महाराजकी आज्ञा सुना दी, तो वह बाई हँसने लगी। पटेल गुस्सा लगा, तो वह बोली- आपने महात्माकी आज्ञा तो सुनी और सुना लेकिन उस आज्ञाका मर्म नही जाना। क्या कोयला धोनेसे कभी सफेद हुआ ? देखिए, मनभर कोयला मैं एक घंटेमें सफेद कर देती हु आपको!और उसने मनभर सूखा कोयला मंगाकर उसपर केरोसीन डाला और आग सुलगा दी। देखतेही देखते कोयलोंकी सफेद राख बन गयी।
भाइयों! चित्तशुद्धि की भी यही हालत है। सैंकडों तीरथोंमें जाओं, चारों धाम करके आओं, गंगागोदामें डुबकियाँ लगाओं, सैंकड़ों गौओंका दान करों, अन्नदान करों, यज्ञयाग करो या धर्मशालाएँ बनवाओंऐसे कर्मोके प्रभावसे चित्त शुद्ध होगा, मनका मल धोया जायेगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता। विचारके केरोसीनसे बैरागका अग्नि जब धधकेगा तभी मनोमल भस्म हो सकते हैं। सत्कर्म तो सहायक मात्र होते हैं।
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