बहिरंग त्याग से सावधान!
(ता.२९-१०-१९३६)
उपासकों! बैराग्यका अर्थ होता है निरासक्त वृत्ति! नित्य क्या, आमित्य क्या ? कौन पदार्थ सच्चा सुख देनेवाला है और कौन क्षणिक
सुख देनेवाला है? इसका विवेक जब जाग जाता है तभी हमारी आँखोंपर आया हुआ मोह या आसक्तिका पर्दा हट जाता है। हमारा मन वासनाबंधनसे दूर हटने लगता है।
हमारे अंदरके मलिन बीजको जलानेवाला, ऐसा नित्यानित्य विवेकसे पैदा होनेवाला सच्चा वैराग्य अगर हममें नहीं है, तो ऊपरसे बैरागीका भेख धारण करना क्या कामका? और अगर ऐसा वैराग्य है तो ऊपरके भेखकीभी क्या जरूरत? तुम तो अपने घरसंसारमें रहकरभी ऐसे सच्चे बैरागी बना सकते हों। और जब ऐसी विरक्तता तुम्हारे अंदर पैदा होगी तभी तुम परमार्थका पहला गढ चढ चुकें ऐसा कहा जा सकता है। परंतु मैं समाजमें देखता हूँ कि कईं लोग सच्चे वैराग्यका अर्थ समझतेही नही; और झूठी काया, झूठी माया कहते हुए सबका त्याग कर देते हैं। ऐसे लोगोंमेंसे कई लोग आखिर समाजका उपद्रव बनते हैं; या पछताकर दुखमें जीवन बिताते हैं। ऐसे अविवेकी लोगोंको देखकर मुझे अक्सर एक बात याद आती है।
दृष्टान्त सुनो। एक गाँव में एक राजपूत और एक ठाकूर अडोसपडोसमें रहते थे। वह ठाकूर जबभी बाहरसे घर आता था तो राजपूत अपने दरवाजेमें बैठकर अपनी मूंछे ऐंठता और बारबार मूंछोंपर ताव मारते हुए दिखाई देता। यह देखकर ठाकुरके दिलमें गुस्सा पैदा होता, लेकिन वह क्रोध पी लेता। उसे लगता कि यह जानबुझकर मुझे चिढाता है, धौंस जमाना चाहता है।... हररोज यही होता था, इससे ठाकुरका दिमाग आसमानपर चढ गया। एक दिन इसका आखरी फैसला कर लेनेकी उसने ठान ली। उसने अपनी कुल्हाडी घिस-घिसकर धारदार बना ली। सोचने लगा, यदि इस झगडे में मैं मारा गया तो मेरी बीबी-बच्चेकी
क्या हालत होगी? इससे तो यही ठीक रहेगा कि पहले यह पाशही मिटा देना चाहिए। और उसने सोते हुए अपने बीबी-बच्चे को मार डाला। बादमें कुल्हाडी लेकर वह राजपूतको ललकारने लगा।
वह बाहर आकर जब इसका अवतार देखने लगा तो सकपका गया। ठाकुरने कहा- तूने अपनी माँका दूध पिया हो तो सामने आजा। राजपूत बोला- भाई! तुम मेरे पडोसी हो। आखिर मेरा अपराध क्या है? सो तो बताओ। ठाकुर बोला- मुझे देखतेही तू हरबार अपनी दामँछोंपर ताव नही देता था? आज तुझे इसकी मजा चखाता हूँ। राजपूत अचरजसे कहने लगा- भाई! मेरा तुझसे कोई झगडाही नही था। मैं तो फुरसतके वक्त अपनी मूंछे योंही मरोडता था। मेरी यह खाली आदत थी। तुम्हें अगर वह पसंद नहीं है तो आजसे मैं तुम्हारे सामने ऐसा कभी नही करूँगा। इसके लिए लडनेकी क्या जरूरत?
यह सुनतेही ठाकुरकी हवा निकल गयी। वह इसलिए रोने लगा कि अपने हाथोंसे बीबी-बच्चेको नाहक मारकर उसने अपना सर्वनाश कर लिया था। इसका कारण तो यही था कि- बिना बिचारे जो करें
सो पाछे पछताये। हमारे कईं बैरागियोंकाभी यही हाल होता है। देखीसेखी लिया जोग। छिजे काया बाढे रोग यही उनके बैरागका परिणाम मैंने देखा हैं। उनको जब समझाया जाता है कि बैरागका संबंध आंतरिक त्यागसे होता है, बाहरी दिखावेसे नहीं। तब उनको भान होता
है अपनी मूर्खताका, कि हमने व्यर्थही घरबार छोडा और जीवनको बिगाडा।... इसलिए मित्रों! तुम्हें चाहिए कि तुम पहलेसेही हर बातका असली रूप मालूम कर लो।
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