चित्तस्थिरता की साधना- ध्यानाभ्यास ( ता ३०-१०-१९३६)
उपासकों! गीतामें भगवानने कहा है कि, मनुष्यका मन बडाही चंचल है। मनकी अशुद्धता और चंचलता यह परमात्माके मार्गमें बहुत बडा अडंगा है। मनका यह स्वरूप बदल देना, उसे शुद्ध और स्थिर बनाना, यही है परमार्थका सही उपाय। और इसके लिए गीताने साधन बताया है- अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गुह्यते।। अभ्यास तथा वैराग्यसेही मनके ये दोष नष्ट हो सकते हैं। वैराग्यसे मनकी मलिनता दूर होती है तो अभ्याससे उसकी चंचलता कम होती है।
अभ्यास का अर्थ पुस्तकों का अभ्यास नही है। भाषा, गणित या साइन्स (शास्त्र) आदि विषयोंका भी अभ्यास नही है। अभ्यास का मतलब यह है कि मनको बार-बार स्थिर करनेकी कोशिश करना या आदत डालना। सन्तोंने हमें नामजप करनेको कहा है, ध्यान लगानेको कहा है, वही है अभ्यास! मुद्रा, अजपाजाप, योगधारणा, समाधी आदिभी अभ्यासही हैं। लेकिन एक बात ध्यानमें रखनी चाहिए कि दसपाँच प्रकारके अभ्यास करनेकी कोई आवश्यकता नही होती। बल्कि वही एक नई चंचलता बन सकती है। इसलिए सुगम बात यही है कि भगवान के नाम की धुन लगाना और अपने प्रिय उपास्यका ध्यान करना तथा इसके द्वारा अपने मनको अधिक स्थिर बनाते रहना चाहिए। ध्यानके अभ्यासके लिए मानसपूजाका अभ्यासभी कोई करें, तो हर्ज नही है।।
मित्रों! मनकी स्थिरताके लिए ध्यानाभ्यासके जैसा दूसरा उपयोगी
मार्ग नही है। हमारे मनकी चंचलता क्या है? पलमें कोई चीज हमें याद तो पलमें कोई दूसरी चीज। अभी एक नाम दिलमें गूंजता है तो दुसरे क्षण दूसरी चीजका नाम-स्मरण हो आता है। पलपलमें नये नये रूप मन में उठते जाते हैं। ये जो सैंकडों नाम और रूप मनमें उभरतें हैं, इसी का नाम है-चंचलता। और केवल एकही नाम तथा रूप को मनमें टिका ये रखना, इसीको कहते है - स्थिरता, एकाग्रता। इसीको ध्यान कहा जाता है, जो मनकी स्थिरताके लिए कारगर अभ्यास है।
मनकी स्थिरताके अभ्यासमें आहार-विहारकी सात्त्विकता पवित्रताभी सहायक होती है। चलना-बोलना, संगति, दृश्य देखना आदि सभी बातोंसे इसका संबंध आता हैं। कोई कहेगा कि हम ध्यानके वक्त ध्यान करेंगे और फ़िर कैसाभी बर्ताव करेंगे तो क्या होता? लेकिन ऐसा चल नही सकता। हमारे व्यवहारमेंभी दया, प्रेम, नम्रता, संयम, सत्य,निर्व्यसनता, विवेक आदि बातें बहुत जरूरी होती हैं। हरघडी सावधानीसे हमें अपनी वृत्तिको शुद्ध रखना होगा। हर व्यवहार में अपने ध्येय के खिलाफ कोई अनुचित बात न हो इसकी दक्षता रखनी होगी। ऐसा अगर न हुआ तो हमारे अभ्यासपरभी उनका अनिष्ट परिणाम जरूर हो सकता है।
भाइयों! एक बातकी ओर मैं तुम्हारा ध्यान खींच लेना चाहता कि, मनको एकाग्र करनेका जहाँतक सवाल है, वहाँतक ध्यान तो कसी प्रकाशपुंज, दीप, फूल या रत्नकाभी किया जा सकता है। परंतु ऐसा करनेसे उसमें रूक्षता आती है। इसके बदले हम अगर किसी देवमूर्ति का धान करते है तो वहाँ देवत्व भावना कायम होनेसे एक सरसताका, आनंद अनुभव होता है। एकाग्रताके साथ मनकी पवित्रता-शुद्धता भी बढती । एक विशेष बात यह कि प्रेमके कारण प्रियवस्तुका ध्यान,
सहजही दृढ होने लगता है। अर्थात् अभ्यास का अर्थ अगर हम भक्ति करें तो वह अधिक उचित हो सकता है। हमारे उपास्य भगवानका ध्यान तो सहजही बढता जाता है।
मैंने कहा था, मनको निर्मल बनानेके लिए वैराग्यकी आवश्यकता है। वैराग्यका अर्थ है कि सभी वस्तुओंका मोह त्याग देना। पर मनका स्वभाव बच्चे के जैसा होता है। उसके हाथसे एक चीज छुडानी हो तो
दूसरी सुंदर चीज उसके सामने रखनी पड़ती हैं। मनको भगवानके प्रेममें लगाया तो अन्य वस्तुओंका प्रेम वह सुगमतासे छोड सकेगा। कहनेका मतलब यह कि वैराग्य यह भक्ति के द्वारा बडे अच्छे ढंगसे वर्धमान होगा। चीटीको खडी-शक्करका टुकडा दिखाया तो उसके मुंहमें फँसा हुआ दाना आपसे आप गिर जायगा। इसलिए मैं कहता हूँ कि, हम सबको अपने दिलमें भक्तिभाव बढा लेना चाहिए। प्रभगुण गाने में हमें रंग जाना चाहिए; नामसंकीर्तन और भजनमें मस्त होना चाहिए और ध्यानप्रार्थनाद्वारा मनको स्थिर करनेका अभ्यास बढाना चाहिए। तभी हम ईश्वरप्राप्तिके हकदार हो सकेंगे।
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