भक्तिका प्रकट रूप- सेवा
                      (ता.३१-१०-१९३६)
   
            उपासकों! प्रेमका स्वभावही समर्पित होनेका होता है। विशुद्ध प्रभुप्रेमही भक्ति है। वह कायिक, वाचिक और मानसिक ऐसी त्रिविध रूपमें प्रकट होती हैं। जिसमें ये तीनों रूप प्रकट नही हुयें वह भक्त अधूरा
है। वास्तवमें जिसके हृदयमें प्रभुका प्रेम लबालब भर जाता है, उसका तो अंग अंग प्रेममय होने लगता है। उसकी कायासे जो कर्म होंगे वे अपवित्र या दृष्टताके होही नही सकतें।  यद् यद् कर्म करोमि तत्तदखिल शंभो तवाराधनम्   इसप्रकार उसका प्रत्येक काम सेवारूप होगा, पूजाका फूल बनेगा। उसकी वाणीसे व्यर्थकी बातें नहीं निकलेंगी। जो निकलेंगी उससे प्रभुका महिमा प्रकट होने लगेगा या दूसरे जीवोंका उपकार होगा। उसका मन जो जो संकल्प करेगा वह आत्मोन्नति के साथ विश्वशांति को अधिक बल देनेवालाही होगा।
   
            याद रहें, भक्ति कोई बाहरी आडम्बरका नाम नही है। जैसे शरीरपर खूब तिलकछाप लगायें या भस्म रमायें, माला-मुद्राएँ धारण की, संध्यापूजामें दिन बिताया या तीर्थोंमें जा परिक्रमा की, रातदिन नामकी रट लगायी तो इसी को हम भक्ति नही कह सकते। भक्ति तो होती है प्रेमका सागर! वह प्रेमभी निष्काम निरहंकार। किसी फलके लिए जो भक्ति की जाती है वह तो भक्ति कहलानेयोग्य कभी होतीही नहीं। भक्त का जीवन अंदर और बाहरसेंभी काँचकी तरह शुद्ध रहना चाहिए। ईश्वर केवल मंदिरमें बैठा है और बाहर दिखनेवाले मानव ईश्वरके रूप नही हैं; ऐसा समझनेवाला पुरुष मंदिरकी पूजा तो धूमधामसे करता है, परंतु मनुष्यको गालियाँ देता हैं, उनपर अत्याचार ढाता है। ऐसा पुरुष भक्त कैसे हो सकता है? जो कहेगा कि  तू अपने पापसे अंधा हुआ हैं, अपने पापसे कुष्ठरोगी हुआ है। तेरी जिम्मेदारी मुझपर नही  - वह
आदमीभी सच्ची भक्तिसे कोसों दूर है।
    
          भक्तको सर्वात्मभावसे समाजकीभी सेवा करनी चाहिए। इसका अर्थ यह नही कि दिन निकला कि हम हर व्यक्तिके सरपर बेल फुल


डालते चलें जायें या टिकले लगाते रहें। अर्थ इतनाही कि सब मनुष्यमात्र को हम प्रभुकेही जीव माने, प्रेमसे सबको देखें, सहानुभूतिसे उनके कष्ट दूर करें और ठोस सेवासे उनकी प्रगति करनेका प्रयत्न करें। प्राणिमात्रकी सेवाभी ईशसेवा है और यह भक्तका आवश्यक तपही है।
     
           दृष्टान्त सुनिये। मैंने एक कहानी सुनी, जो मुझे अच्छी लगी। श्वेतकेतु जैसा कोई राजा अपनी प्रजाका पालन करने में बडा तत्पर था। मेरे राज्यमें कोई चोर न हो, और चोरोंको पैदा करनेवाला कोई कंजूषभी न हो। कोई व्यसनी न हो, जुआरी न हो, दराचारी न हो, अत्याचार न हो और किसी प्रकारके दुखमें तडपनेवाला कोई बेसहारा न हो। इस बातकी बडी फिक्र उस राजाको लगी रहती थी। वह सेवाके लिएही सत्ताका उपयोग किया करता था।... एक दिन वह सोया हुआ था कि उसके महलमें प्रकाश फैला। उसने देखा, तो नारदमुनी कुछ लिख रहें थे।.. राजाने प्रणाम किया और पूछा जो मुनीने बताया-  भाई! प्रभुने मुझे
अच्छे भक्तोंकी सूची बनाने को कहा है। वह सूची अब लगभग तैयार हो चुकी हैं। वह मैं उनके सामने रखूगा और वे अपने हाथोंसे उनका क्रम लगायेंगे। कल रात फिर मैं, इधरसेही होता हुआ भ्रमण करने निकलँगा। क्या तुम्हारा नाम लिखें इस सूचीमें?
   
           राजाने कहा-  मुनिवर! मैं कहाँ भक्ति करता हूँ? अपना कर्तव्यकर्म करनेसेही मुझे फुर्सत नही मिलती। फिर अच्छे भक्तोंमें मेरा गुजारा कहाँ? फिरभी नारदजीने उसका नाम लिख लिया और वे सीधे
वैकुंठ चले गये!... भगवानने सूची देखी। उसमें कुछ हेरफेर किया और फिर वह सूची नारदजीको सौंप दी।... दूसरी रात राजा सोने के तैयारी मै ही था कि नारदमुनी आ गये। राजाने पूछा-  मुनिवर! मेरे बारे में प्रभुने क्या


कहा? नारदजीने  वह सूची राजाके हाथमें थमा दी। राजाने सोचा, मेरा चित इस सूचीमें आया होगा तो वह आखरी आखरीमेंही होगा। वह निचेसे नामावली देखता गया। पन्ने उलटते गये लेकिन कहीं नाम न था। वह निराश होने लगा। परंतु खोज जारी थी। और आश्चर्य
की बात यह कि उसका नाम पहले पन्नेपर सबसे ऊपर था।
 
           राजाने सवाल किया-  मुनिवर! यह क्या माजरा है? मैं तो साधा भक्तभी नही हूँ और मेरा नाम विशेष भक्तोंकी सूची में सबसे ऊँचा जर आता है, ऐसा क्यों? नारदजीने कहा-  भाई! ईश्वरकी भक्तिकी कसौटीही अलग है। भजन-पूजन तो हम लोग अपनी खुशीके लिए करते है. परंतु ईश्वर चाहता है हम जनता जनार्दनकी सेवा करें। दुखियोंके सुखमेंही भगवानका संतोष होता है। वह तो इसीलिए कईं दीनदखियोंकेपतित अनाथोंके रूप लेकर हमारे सामने आते और भक्तोंकी परीक्षा लेते हैं।... राजाके आँखोंसे पानी बरसने लगा।
 
                मित्रों! याद रहें, भगवान वैकुंठ-कैलास में ही नही; वह सर्वत्र व्यापक है, हर जीवजनमें भरा हुआ है। सबकी सेवा सच्चाईसे, ईमानदारीसे करना यहभी भक्तिका महत्त्वपूर्ण अंग है। लोगोंको दिखानेके लिए नही तो अपने दिलको साक्षि रखकर हमें यह सेवा करनी चाहिए, खुशीखुशी । सेवाका मालिक हर जगह मौजूद है फिर नाराजगी कैसी? सेवा ईश्वर जानता है और सेवक जानता है; तीसरेको दिखानेका सवालही नही होना चाहिए। सेवाका उद्देश रंजनही नही,अंजनभी होता है। शूर पुरुष अन्यायी परपिडकको रणमें मारभी दे तो वह क्रूरता नही, सेवाही है। सेवाधर्म अगाध कहा जाता है इसीलिए।.....

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