मुक्तिका दाता- ज्ञान
(ता.०१-११-१९३६)
उपासकों! वैराग्यका अर्थ है त्याग और भक्तिका अर्थ है योग। केवल बहिरंग त्याग वह त्याग नही है; वासनाओंका त्यागही आवश्यक होता है। हम भक्तिकाभी त्याग करेंगे ऐसा अगर कोई कहेगा तो वह
जिसपर बैठा उसी डंगालको तोडनेवाला सिद्ध होगा। अन्य विषयोंकी आसक्ति का त्याग करना और भगवानसे आसक्ति बढाना-भगवानसे संयोगकी चाह बढाना, इसका नाम है भक्ति! विवेकके बिना बैराग्य और ज्ञानके बिना यथार्थ भक्ति नही हो सकती। हम भगवानको जानेंगे तभी तो उससे सही प्रेम कर सकेंगे। केवल भावनात्मक भक्ति तो उपासना है, जो हमारा चित्त शुद्ध एवं स्थिर कर सकती हैं। परन्तु ज्ञानात्मक भक्तिसे आवरण समाप्त होता है और भक्त भगवानसे एकरूप होसकता है। भक्त विभक्त नही रहता।
कईं लोग चौबीसों घण्टे भक्ति करतें हैं। उसीमें सारा जीवन बिताते हैं; फिरभी उन्हें शांति नही मिलती। क्योंकि वह भक्ति तो केवल परंपरा के रूपमें होती है। हाका मारी ज्याच्या नावे। त्याचे गावचि नाही ठावे।। अर्थात् जिस भगवानकी भक्ति वे अपनी कल्पनाके
अनुसार करते हैं, वह भगवान आखिर है कौन? कैसा? क्या है उसका स्वरूप? यह उन्हें मालूमही नही होगा तो शान्ति कहाँसे मिलेगी? उनकी असफलताकी जड है तो केवल ज्ञानका अभाव!
जीवात्मा के त्रिदोषोंमेंसे वैराग्यसे मल तथा भक्तिसे विक्षेप
दूर हो जाता है; परन्तु तीसरा और मूलभूत दोष आवरण जबतक नष्ट नही होगा तबतक शान्ति या मुक्ति मिलना असम्भव है। आवरण का अर्थ है ढक्कन अथवा पर्दा। मैं कौन हूँ? परमात्मा कौन है ? कहाँ है?
क्या है उसका स्वरूप? इस बारे में हमारी बुद्धिपर पर्दा पड़ा हुआ है। ग्रंथोंके अध्ययनसे या ज्ञानचर्चा सुनकर हम इतना तो समझ लेते है कि आत्मा या परमात्मा है। परन्तु उसका प्रत्यक्षानुभव हम नही कर सकते।इसीलिए अनुभवी सन्त-महात्मासे हमें ज्ञान प्राप्त कर लेना जरूरी होता है।
भाइयों! ज्ञान तो कई प्रकारके होते है। हर एक उद्योगकलाका, इतिहास-भूगोलका, व्यापार व्यवहारकाभी ज्ञान हमें मालूम है। दुनियाभरके विषयोंमें कईं लोग बडे चतुर होते हैं। कई प्रकारके ग्रंथोंकेभी बडे विद्वान होते हैं। पर इसवक्त हम जो ज्ञान शब्द का उच्चारण कर रहें हैं उसका स्वरूप बिलकुल अलग है। समर्थ रामदास स्वामी कहते हैं- ऐका ज्ञानीचे लक्षण। ज्ञान म्हणजे आत्मज्ञान।। आत्मस्वरूपको जाननाही सच्चा ज्ञान है। प्राणायाम आदिका योगसाधन कर बहुरूपियेभी समाधि लगा सकते हैं; परन्तु वह योग इस ज्ञानकी बराबरी नही कर सकता। वैसेही भूतभविष्य-वर्तमान। ठाऊके आहे परिच्छिन्न।। कोणी यासीच म्हणती ज्ञान। परि ते ज्ञान नव्हे ।। यानी भविष्य आदिका ज्ञानभी हमें शान्ति या मोक्ष दिलानेके काममें उपयोगी नही हो सकता। आत्मा-परमात्मा का
अनुभव जिस ज्ञानकी सहायतासे प्राप्त हो सकता है, वही है सच्चा ज्ञान।
इस आत्मज्ञानकी भक्तिकोभी बडी आवश्यकता होती है। वह अगर न हो, तो- रामकृष्ण वाचा बरळती बरळ । त्या कैसा दयाळ पावे हरि? ऐसा कहनेकी नौबत आती है। इस ज्ञानसेही वैराग्यकीभी पूर्णता होती है। अन्यथा लंगोटी लगाकर जंगल-पहाडमें जीवन व्यतीत
करनेवालेके सामनेभी संसार खडा हो जाता है। गीतामें कहा है कि विषयोंका त्याग होनेपरभी सूक्ष्म आसक्ति कायम रहती है; जो ज्ञानकेद्वारा परमतत्त्वके अनुभवसेही समाप्त होती है और बैराग्यको परमवैराग्यकी पदवी मिलती है। योगाभ्याससे वृत्तिका निरोध तो होता है परन्तु बिना ज्ञानके परमात्म-रूपमें सही योग प्राप्त नही हो सकता। ज्ञानही है सब साधनोंकी पूर्णाहुति और परमार्थका सच्चा शृंगार। मानव जीवनका ध्येय जो मोक्ष कहा जाता है, वह इसी ज्ञानसे साध्य होता है; अन्यथा नहीं।
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