मुक्तिमार्ग दुर्गम है या सुगम?
                   (ता.२ से ५-११-१९३६)
    
              उपासकों! जीवात्मा जब उपाधिसे मुक्त यानी स्वतंत्र होता है, अपने यथार्थ स्वरूपका आनंद लेता है, तभी उसे मोक्ष कहते हैं। मोक्षका मतलब है अक्षय आनंदका खजाना। अखंड ब्रह्मस्वरूपमें तादात्म्यता जब प्राप्त होती है, तभी वह आनंद मिलता है। कोईभी
सांसारिक सुख उसकी बराबरी नही कर सकता।
    
            वह ब्रह्मतादात्म्यता पानेके लिए पहले हमें अपनी उपाधिको शुद्ध करना पड़ता है। उसीके लिए वैराग्य, भक्ति और ज्ञान ये तीन साधन हमने बताये हैं। तुम्हें मालूम है कि केवल बर्तन या केवल इंधन होनेसे रसोई नही बनती। अग्नि, धान्य, उदक। तरीच घडे पाक  ऐसा कहा गया है। इसीतरह भक्ति-ज्ञान-बैराग्य ये तीनों बातें ईश्वरप्राप्तिके लिए आवश्यक होती हैं। लंगोटी लगाकर जंगलमें जाना यह वैराग्य नही है,


तो निरासक्त वृत्तिसे सच्चा व्यवहार करते हए वासनाओंसे अलग हो जानाही वैराग्य है। अशाश्वत विषयोंसे वृत्तियोंको हटाना-काबूमें लानाही वैराग्य है। टाल कूटना या माला जपनाही भक्ति नही, तो ईश्वरपूजा
समझकर प्रेमसे सब जरूरतमंदोंकी सेवा करना और भगवानके चिन्तनमें मस्त हो जानाही भक्ति है। ग्रंथोंको कूटकूटकर पी जाना ज्ञान नही है, तो अपने हृदयमेंही डुबकियाँ लगाकर अमरतत्त्वकी खोज करना, स्वयं अपना पता पानाही ज्ञान है।
  
           ये तीनों बातें जो पकडकर चलेगा वही संसारमें सच्चा परमार्थी बन सकता है। मोक्षसुखको इसी जीवनमें पा सकता है। परंतु हमारे कईं मित्र पूछते हैं कि- क्या यह सब हमारे लिए संभव हो सकता है?
भगवानने कहा है- बैराग जोग कठिन ऊधो!  सन्त तुकाराम महाराज कहते हैं-  भक्ति ते कठिण शूळावरील पोळी! कोई महात्मा कहते है-  ज्ञानका पंथ कृपाणकी धारा! फिर इन कठिन बातोंको हम
साधारण जीव कैसे पा सकेंगे?  मैं कहता हूँ- भाई! सबसे ऊँचा ध्येय साध्य करना हो, सर्वश्रेष्ठ आत्यंतिक सुख पाना हो, तो उसके लिए संसारसे हजारगुनाभी कष्ट उठाने पडेंगे फिरभी सौदा महँगा नही कहा जा सकता। मगर यहाँ तो ऐसीभी कोई बात नही है। ऋषी-मुनि या संत-ग्रंथ भी यदि कहते होंगे कि ईश्वरका मार्ग बडा कठिन है तो भी मुमुक्षुको घबडानेका कोई कारणही नही है। क्योंकि वह मार्ग जितना दुर्लभ उतनाही सुलभभी होता है।    हरिको मारग छे शूरानो, नहि कायरनो काम  जेणे  ऐसा कहनेके पिछे कारण एकही होता है कि प्रभुमार्गपर चलनेवालेको सबसे पहले धीरज, हिम्मतकी जरूरत मालूम हो। जो निर्धार कर लेता है उसके लिए कोई दिक्कत नही है। बल्कि मैं कहँगा कि उसके लिए


मोक्षके द्वार अपने आप खुलते जाते. हैं।
    
         ईश्वर या मोक्ष मिलनेकी बातें छोडकर जो अपना अभ्यास या कर्तव्य लगनसे करता है; जो कुछ न माँगते हए काया-वाचा-मनसे सेवा बढाता है; बाहरके तीर्थव्रतादि हजार उपाय छोडकर अपने मनको शुद्ध
प्रेममय बनाता है, उसके पिछे स्वयं भगवानही लगते हैं। हम अपने विकारों और व्यसनोंको छोडेंगे नही, प्रेमभजनमें डोलेंगे नही और सारी दुनियाके छलकपटमें व्यस्त रहेंगे तो हमारे लिए यह मार्ग बहुतही दुर्गम है-दुर्लभ है। अन्यथा  ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। कहनेवाले भगवान हम यदि एक पाँव आगे धरेंगे तो वह दस कदम दौडकर पास आ जायेगा। इसके लिए संन्यासीको गृहस्थी लेनेकी या
गृहस्थको संन्यासी बननेकीभी कोई आवश्यकता नही होगी। सन्त कबीरदासजीने इसीलिए कहा था की-                                 
              साँईसे साचा रहो, साँई साच सुहाय।
            भावे लंबे केश रख, भावे घोट मुंडाय॥

           तुम्हारी बाहरी भेखसे या कवायदसे भगवानको कोई लेना-देना नही है।  मनकी खटपट मिट गयी तो चटपट दर्शन होय। ऐसा यह सुगम रास्ता है। जो कोई चलनाही नही चाहता उसके लिए तो चारों ओर
पहाड दिखाई देते हैं; परन्तु जो निश्चय करके कदम बढाता है, उसको पहाडभी रास्ता बना देता है। रास्ताही आगेका मुकाम निकट लाता है। सीधीसी बात है। हम धूपमेंसे चलकर आयेंगे तो अपने घरमें भी हमें अंधेरा दिखाई देगा। परन्तु आँखें वही स्थिर की कि सहजहीमें उजाला होता जायेगा। परमाथमार्गभी ऐसाही है। एकदम देखनेवालेके लिए वह


दुर्गम अंधेरा है; परन्तु उसमें जो रमता है उसके लिए तो प्रकाश कहींसे ही नही पडता, इतना सुगम है। निर्मल मनमें भगवान स्वयं प्रकट होता है। क्योंकि वह हमसे जराभी दूर नहीं है। तोतेने कसकर पकडी हुई डंगाल छोड दी कि वह उसीवक्त  मुक्त कहला सकता है। लेकिन बंदर अपनी मठठीमेंसे चने छोडना नही चाहेगा तो उसका हाथ सालभरभी घडेके मुँहमेंसे नही निकलेगा। फिर तो वह जरूर कहेंगा कि यह मुक्तिमार्ग बडाही कठिन है। वास्तवमें सोचो तो ऐसी कोई बात नहीं है।
    
             फिर यह मार्ग बड़ा कठिन है ऐसा क्यों कहा जाता? इसका जबाब समर्थ रामदास स्वामीने दिया है कि-  आहे तरी परम सुगम। परि जनासी जाहला दुर्गम। का जयाचे चुकले वर्म। संत-समागमाकडे।।  यानी सुगम बातभी दुर्गम इसलिए हुई कि हमने सत्संगतिका सर्वोत्तम उपाय छोड दिया। श्री ज्ञानेश्वर महाराजने कहा है कि-  देवाचिये द्वारी उभा क्षणभरी। तेणे मुक्ति चारी साधियेल्या।। ईश्वरके द्वारपे क्षणभरभी जो खडा होता हैं, उसे मुक्ति तो सहजहीमें प्राप्त होती है। वह द्वार है सत्संग । भागवतमें कहा गया है-  महत्सेवा द्वारमाहर्विमुक्तेः।  यानी सन्तोंकी सेवा यही मुक्तिका द्वार है। यह सत्संग क्षणकालमेंभी कुछका कुछ कर डालता हैं। आपणासारिखे करिती तात्काळ   ऐसा जो संत तुकाराम महाराजने कहा है- और  सावध, साक्षेपी आणि दक्ष। तयास तत्काळचि मोक्ष।। ऐसा जो समर्थ रामदासजीने कहा है, उसका तात्पर्य यही निकलता है कि सत्संगसे  फौरन मोक्षप्राप्ति होती है। अर्थात् यहाँ दुर्लभ  कहनेके लिए जगाही नहीं रहती।

               मित्रों! पापीसे पापी आदमीभी सत्संगसे पुण्यशील बनता है। गधेकोभी हम देखतेही घोडे बना देंगे   यह सन्तोंकी प्रतिज्ञा झूठी नही


है। इस सत्संगसे वैराग्य, भक्ति, ज्ञान-सब हमारे दिलमें धूम मचाने लगते हैं और बद्धकोभी देखतेही सिद्ध बना देते हैं। यह प्रक्रिया कैसे होती है यह समझना तो कठिन है, परन्तु होती है जरूर। अर्थात् उसके लिए वह संत सच्चा संत हो और वह सत्संगी सच्चा सत्का संगी हो, यह शर्त तो रहेगीही। परन्तु कभी कभी गयें बीतें आदमियोंकाभी सत्संगसे कायापलट हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं।
   
             एक दृष्टान्त मैं आपको सुनाता है। एक बडा बिलंदर चोर था। उसने राजाकी राजधानी में चोरी करनेका निश्चय किया। राजधानी में इधर-उधर चोरी करनेके बजाय वह राजमहलमेंही घूस गया। वहभी वहाँ यहाँ नही, सीधा राजाके शयन-कक्षमें जा छिपा। वह उतनाही चालाख था, भेख बनानेमें उस्ताद था; इसीकारण किसी दरबान या नौकरोंकी नजरोंमें नही खटका। रातके समय रानी राजासे कह रही थी कि अपनी इकलौती लडकी बडी होगयी। उसकी शादी जल्दीही कर डालनी चाहिए। क्या जाने, हमें कब भगवान बुला लेगा। दामाद आयेगा तो राजपाट सम्हालेगाही।  राजाने कहा-   मैं भी इसी सोचमें हैं। हमें
किसी धनवान नही, गुणवान वरकीही आवश्यकता है। सौभाग्यसे शहरके  नजदीकही स्वामीजीका आश्रम है, जिसमें एकसे एक गुणवान  बुध्दीमान युवक अध्ययन कर रहे हैं। दो-चार दिनोंमें मैं आश्रम पहँच जाऊँगा और उन्हीमेंसे किसी योग्य वरको तय तक लूँगा।
  
             ये सारी बातें पलंगके निचे छिपा वह चोर सुन रहा था। उसने सोचा, छोटीमोटी चोरी करनेमें क्या फायदा? यह राजपाटका सौदाही हम क्या न साध लें? और वह वहाँसे खिसक गया। दूसरे दिन वह स्वामीजीके आश्रममें पहुँचा और बडी श्रद्धा दिखाकर उसने दीक्षा ले ली। नाटकही