१३४८
सुन्ने बराबर मिट्टी भी, अभि काम देती है बडी ।
सुन्ना भी कर सकता न कुछ, जब झंझटे रहती खडी ।।
कभी संत की धूली और आशिर्वाद ही पूरा करे ।
दोनों करें मिल प्रार्थना, हथियार भी चूरा करें ॥

१३४९
किसिने तुम्हे नहिं है सताया, ये तुम्हारे कर्म है।
चोरी करोगे तुम और कहते हो प्रभू का वर्म है।।
बिन भोग के गर छूट जाओगे, सजा पाये बिना।
आदत नहीं जावेगी यह, यदि कोई भी कर दे मना ।।

१३५०
सर्वस्व देता है नहीं तो, भक्त केसे होयगा ? |
आज्ञा हि नहिं माने कहीं, सेवक वह क्यों कहलायगा ।।
तप त्याग जिसमें है नहीं, वह सिद्ध फल पावे कहाँ ?।
सेवा न करता देश की, वह राज्य टिक जावे कहाँ ? ॥

१३५१
पूरा अपेशी राज्य वह, जिसमें प्रजा को दुःख है।
संकट ही घेरे मारते ओ निसर्ग करता चूक है।।
सारा कलह मचता है फिर, जब दैवि शक्ति छोड दे।
जब तक धरम नहिं मानते, भगवान भी क्यों आड दे? ॥

धन की शक्तिसीमा

१३५२
 सच्चा धनी तो है वही, जो दान देता धर्म में।
सच्चा धरम तो है वही, जो नेक कर दे कर्म में ॥।
सच्चा करम तो है यही, सबको हि अपनाना चहाँ |
सच्चा तो अपनाना वही, नहिं दोष ही देखे कहाँ ॥


१३५३
जब शक्ति आती पास तब, उसको पच्चाना चाहिए |
नेकी से उसका भोग में, संयोग देना चाहिए ।।
हर शक्ति भी यौवन ही है, पागल बनाती बुद्धि को ।
अजि! राज्य शकती,त्याग- शकक्‍ती भी बिगाडे शुद्धि को ।।

१३५४
जो धन का स्वामी हो कहीं, वह इंद्रियों का है नहीं ।
जो इंद्रियों का स्वामी हो, वह धन नहीं रखता कहीं |।
है प्रेम जिसका बुद्धि पे, वह ना धनी कभु होयगा |
दोनों भी रखता हो कोई, वह सार भी नहिं पायगा ||

१३५५
संसार में दुखिया है वह, जब धन जरा भी है नहीं |
उससे भी दुखिया है वही,जिसको चुकाना ऋण सही ।।
उससे भी भारी दुःखि है, जो रूग्ण* हो दिनरात ही |
सबसे बड़ा दु:खि वही, गृहिणी न जिसके हाथ ही ।।

राजनीति के तुषार


१३५६
यह धर्म राजा का नहीं, शत्रू से करना मित्रता ।
टक्कर से टक्कर भेजना, शासक की है आदर्शता ॥
जो शत्रु पे करता दया, उसकी प्रजा दुःखी रहे ।
सच्ची दया तो है यही, ना शत्रुता बाकी रहे ॥

१३५७
ना हो समय अनुकुल तब तक, शत्रु सिर पर लीजिए ।
ही बल हो अपने पास तब तो, पैर सिर पर दीजिए ।।
नहिं नीति होती राज की, उसके बिना चारा नहीं |
 नहीं तो गुलामी आयगी, आजादि को थारा नहीं ।।


१३५८
जिस काम में जनहित नहीं, वह काम तजना चाहिए।
जिस काम से लज्जा लगे, उससे न सजना चाहिए ।।
जिस कार्य से शुभ बुद्धि हो, उस पर सदा ही प्रेम हो |
आत्मा जहाँ उन्नत बने, ऐसे हि अपने नेम हो ॥

१३५९
कौआ कभी बिन गंदगी के, तृप्त होता ही नहीं ।
सूअर बिना किचड़ से लपटे, शांति पाता ही नहीं ॥
बिन हड्डियाँ फोडे कभी , स्थिर श्वान रहता ही नहीं ।
वैसे हि निंदक छल बिना, खाली जिवन सहता नहीं ।।

१३६०
शत्रू कभी छोटा न होता, यह समझकर जागिए ।
ऋण भी कभी थोडा न होता, यह सदा दिल लाइए ॥
अग्नी कभी ना अल्प होती, प्रेम मत कर जाइए |
सत्संग भी छोटा न होता, मुक्ति ही भर लाइए ॥

श्रेष्ठ ओर भ्रष्ट


१३६१
दुनिया में दो ही है सुखी, अति मुर्ख, या ज्ञानी महा ।
बाकी सभी आसक्त है, है आलसी, मानी महा ॥
कुछ आततायी गुंड हैं, कुछ चोर हैं, सिरजोर हे ।
ये है सभी दुःख से भरे, लेकिन बडाईखोर हैं ।।

१३६२
यदि कोयला जलता भी हो, छूते फफोला ही करे ।
और बिन जला भी हो कहीं तो हाथ काला ही करे ।।
वैसी कुटिल की संगती, बोले बिना बदनामी है |
गर प्रेम भी कर जाइए, तो भी नरक की गामी है ॥


१३६३
अजि! वह सभा किस काम की ?जिसमें न बैठा वृद्ध है।
वह वृद्ध भी किस काम का ? जो धर्म से नहिं शुद्ध है।।
वह धर्म भी नहिं काम का, जिसमें जरा नहिं सत्य है ।
वह सत्य भी नहिं काम का,छल का हि करता कृत्य है ।।

१३६४
जो बिन बुलाये ही कहीं, घर में घुसे वह मूर्ख है।
पूछे बिना ही बात कह दे, वह समझना धूर्त* है।।
न्यौते बिना ही बैठकर, भोजन करे वह शूद्र है।
आदर बिना व्याख्यान दे, वह जान लो कि अभद्र* है ।।

१३६५
सब कामना ही पूर्ण हो, ऐसा नहीं है आदमी ।
इच्छा समस्त अपूर्ण है, ऐसा नहीं है आदमी ? ॥
सद्भावना यदि कुछ फले, तब तो बडा माना गया ।
दुर्भावना में फँस गया, शैतान ही वह हो गया।।

१३६६
चाहे उसीको संत कह दे, या किसीको शूर भी।
मर्जी नहीं जिस पर तेरी, वह शूर होता क्रूर भी ।।
कितने भी पापी थे मगर, तूने लगाये पार है।
तेरी लिला तूही बनाये, जीत भी, या हार हे ॥

गुणनीति के रत्नदीप

१३६७
पुरुषार्थ में दारिद्रय ना, नहिं राम-जप में पाप है।
नहिं मौन में कभि कलह ही, नहिं प्रेम में संताप है।।
हानी सेवा में औ, जगने में न भय कुछ भी कहीं ।
ना भेद ज्ञानी में मिलें, आलस में श्रीमंती नहीं ।।


१३६८
है वृक्ष झुकता फलभरा, वर्षासमय बादल झके।
सज्जन झुके गुणपात्र पर, दो मित्र हो समबल झुके ॥
निज तत्व से ग्यानी झुके, और क्रूर झुकते शौर्य पर |
कवि कल्पना से ही झुके, विषयी झुके सौंदर्य पर ||

१३६९
किसि अज्ञ को समझाओ तो,वह समझ जाता साथ ही |
किसि सूज्ञ से बोलो तभी, वह जान लेता बात ही ||
पर अल्पज्ञानी दंभ के, मारे फुला जाता बड़ा ।
वह सबके सिर गुब्बारसा , बनकर ही जाता है चढा।।

१३७०
शांतीसरीखा तप नहीं, संतोषसम नहिं सुख कहीं ।
तृष्णा सरीखा रोग नहिं, ना प्रेम के सम योग ही ।।
ज्ञानी सरीखा मित्र नहिं, अज्ञानसम बैरी नहीं ।
नहिं क्रोधसम शत्रू कोइ और भक्तिसम मुक्ती नहीं ।।

१३७१
लज्जा करे निर्धन सदा, घरबार में, या लोक में ।
उससे पराक्रम नष्ट होता, बल न आता काम में ।।
जब कुछ पराक्रम है नहीं, अपमान होता हर घड़ी |
अति दुःख -शोकाकुल बने,पर बुद्धि भ्रम में जा पडी ।।

१३७२
मत मित्र कर लो मूर्ख को, वह भ्रष्ट कर देगा तुम्हे ।
अपमान होगा हर घड़ी, फिर नष्ट कर देगा तुम्हे ॥
उससे भला ही शत्रु हो, पर सद्गुणी विद्वान ही ।
सीखों उसीका ज्ञान, फिर ना व्यर्थ जावे जान ही ॥


स्वर्गसम संसार कब ?

१३७३
नश्वर* सभी यह देह है, यौवन भि क्षणभंगूर है।
धन उल्लुओं पे* स्वार है, किसि दिन करेगा चूर है।।
सत्ता भि वेश्याचार है, कायम नहीं रहती कभी ।
प्रभु-भक्ति निर्भय एक, मित्रो ! याद रखना है अभी।।

१३७४
सारी पराधीन जिंदगी, आजादी पत् भी है नहीं।
फिर भी घमंडी मस्त रहता, मान ही कहता वही ।।
घरदार उसको चूसता, खाते सभी कर भोग है।
धनमाल लूटे अंत में, आखिर जलाते लोग है॥

१३७५
अजि! मित्रता भी हो बराबर, सद्गुणी के साथ में।
हो स्त्री भी उसकी धारणा-पर ही उसीके हाथ में ।।
हो पुत्र भी संस्कार* के, सीखे पढे अति नम्र है।
है शांति जीवन में उसे, यह स्वर्गमय ही उम्र है।।

१३७६
जब धन नहीं है पास में, पर मन तो मेरे साथ है।
आदर से जल ही दे तथा, कर प्रेम की खैरात है।।
आया अतीथी घर कभी, आदर से उसको बोल दे।
मै हूँ अकिंचन, आइए, यह भेद-ऐना खोल दे॥

१३७७
है नर्कगामी घर उन्हींका, भाँग मदिरा सब पिये।
वेश्यागमन, चोरी औ भ्रष्टाचार में ही हैं जिये।।
नहिं संत की तसबीर हे, ना टेवभक्ती दे कहीं
खाओ -पिओ, मारो मजा,बस दूसरा कुछ है नहीं ||

१३७८
नौरंग गालीचा  बिछा, षड्रसधरे  पक्‍वान्न है॥
बर्तन भी सोने के भरे, फल,फूल का मंदान है।
सब मित्र ही बैठे उजागर, अब चले भोजन यहाँ।
मदिस गयी जब पेट में, हैदोस ही देखा वहाँ।।


१३७९
सुंदर बदन, ताजा है यौवन, सुंदरी सुकुमार है।
धन भी लबालब है भरा, फुलबाग भी ढबदार है।।
बलभीम जैसे पुत्र है, और हाथ सत्ता-डोर है।
सब है, मगर प्रभु की कृपा बिन, स्वप्न क्षणभंगुर है ।।

१३८०
सिर किर्ति का भी छत्र है, देशी -विदेशी मित्र है।
व्याख्यान -बकता, योग्य परिचय कार्य भी सर्वत्र है।।
पदवी, महंती* धन अतुल, सत्ता भी झुकती पैर पर |
नहिं आत्मसुख,परमात्म -सुख ,तो शांति नहिं पावे किधर ||

१३८१
कइ सैकडो परिवार हैं, घरबार खेती अपार है।
उद्योग घर घरमें चलें, धनमाल की बलिहार” है ।।
सब मित्र चारों ओर हैं दल-बल, बडाही जोर है।
बिन भक्ति प्रभु की सुख नहीं,संकट सभी सिरजोर है ।।

१३८२
सुख तो सभीके पास है, पर ज्ञान बिन समझे नहीं ।
जैसे कि धन घर में ही है, पर स्थान मालुम है नहीं ।।
सत्‌ संग ही है मार्ग उसका, सुख सही पा जाईए।
बिन आत्म की प्रगती भये, सब दु:ख में भरमाइए ।।

खुद सुधरो और महात्मा बनो ?

 
१३८३
हर व्यक्ति की न्यारी रूची,गुरु की रहे-नहिं शिष्य की ।
है बाप की -नहिं पुत्र की, स्त्री की रहे-नहिं मर्द की ॥
इस ही लिए तो एक चुनकर महल-मंदर बाँधता |
दूजा उसीको बेचता, करता बदल, या खोदता ||


१३८४
जो स्वयं सुंदर है, न उसके साज सुंदर हैं कहीं।
कितना भि सुंदर साज हो; पर स्वयं-सुंदर है नहीं।।
इसही लिए कहता हूँ सुंदर, आप खुद बन जाईए।।
सद्गुण विमल, निर्मल, सुभाषित, ज्ञानभक्ती पाईए।।

१३८५
बादल घना बनकर ही पानी बाँटने दानी बने।
वैसे महात्मा संग्रही दे ग्यान-भक्ती के चने ।।
चारों तरफ की संगती, सद्ग्रंथ, पंथ ढंढोलते।
जो भक्ति चातक-प्रेमि चाहे, तो उसीसे बोलते।।

१३८६
जब तक महात्मा का हि कोई अनुसरण कर जायगा।
तब तक महात्मा नहिं बनेगा, चाहे वह मर जायगा।।
हम तो महात्मा के कहे पर ही, चलेंगे अंत तक।
आज्ञा उन्हींकी सर पे लेकर, धन्य होंगे संत* तक।।

१३८७
दुर्गुण न किसके गाइए, बलके खुदी* पहचानिए|
अपने को अच्छी राह पे, सत्‌कर्म करके लाइए।।
उसके हि जरिये दोषियों पर, हो सके परिणाम है|
गाली बकेसे इस जगत में, कुछ न होता काम है।।

१३८८
खोले हुए पानी में अपना, रूप दिखता है नहीं।
त्यो कालिमा में क्रोध की, ना ग्यान चमचमता कहीं।।
बा लिए तो चाहिए, मति शांत, सुस्थिर भावना।
उससे ही मिलता हृदयवासी, सदगुरु प्रभु आपना।।

१३८९
वाह रे प्रभू । तूने अजब, यह खेल जग में कर दिया।
मेरे सरिका का मूर्ख भी, भारी महात्मा बन गया।।
ऐसे समय में कई हजारो, कवि कवायदबाज है।
मै हूं अंगूठाछाप फिर भी, जग कहे महाराज है।।


जरुरतें कम करो !


१३९०
अभिलाषी क्यों बनते किसीके? जब न तुममें कार्य है।
जो कार्य करते मस्त होकर, फल मिले अनिवार्य है।।
लालच बडी बूरी बला, पहिले हि दिल में घुस गयी ।
बेमानि आयी कर्म में, फल-चिंतना ही बच गयी ।।

१३९१
जिसकी जरूरत बढ गयी, वह ना सुखी कभु होयगा |
आशा और मनशा के पिछे, पागल बना भरमायगा ||
जरूरत को अपनी कम करे, वह ही सही योगी रहे ।
जरुरत नहीं कुछ भी रही, वही मोक्ष का अधिकारि है ।।

१३९२
यह चाहिए, वह चाहिए, पुछो तो क्या नहिं चाहिए? ।
चहिए बढाते जाइए, तब शांति केसे पाइए ? ।।
नहिं चाहिए जो कह सके, और कर सके द्रूढ भावना |
उसको सभी मिल जायगा,और शांति भी होगी दुना ।।

१३९३
मत भोग को सन्मान दो, हरदम तिरस्कारों उसे ।
मत इंद्रियों के दास हो, करके दमन मारो उसे ।।
जितनी जरूरत ध्येयपूर्ती कर सके उतनी कहो।
पूरा न मारो भोग को, पर होके वश भी ना रहो ॥

१३९४
मेरे उजागर दोस्त ! तू तो, चोर है इस ग्राम का |
सारा हि संग्रह कर लिया, कुछ काम का, बेकाम का ॥
गर दिक्कतों में भी किसीके काम तू नहिं आयगा।
नाहक कभी मर जायगा, किसकों पता नहिं पायगा।।


१३९५
सोचा नहीं हमने कभी, कुछ हाथ लो,कुछ साथ लो |
जो मिल गया सो ले चलो,मत सोच लो, आगे चलो ||
जो रह गया रहने हि दो, सत्‌काम करने सौंप दो।
बचने न दो कुछ पास में, निर्मल रहो सत्‌बोध दो ||


सत्कर्म करो !

१३९६
नहीं तो किसिका क्या रहा? इतिहास भी तो बोलता।
यहाँ तो समय की माँग को, पूरा करे वही डोलता।।
धन काम में, मन काम में, जीवन हो सारा काम में।
जिस काम से जनता सुखी हो, ले चले वही राम में।।

१३९७
उद्योगहिन जो आदमी, शैतान ही बनकर चले।
शांति न उसके दिल मिले, ना धन मिले, भोजन मिले।।
बस आलसी बनके सदा, सोता औ रोता हर घड़ी।
इससे बेहत्तर लाज तजकर, मजदूरी करना बड़ी।।

१३९८
काया रूपी इस खेत में, मन ही किसानी कर रहा।
है पाप-पुन बिजे पड़ी, सत औ असत से बढ़ रहा।।
यह जीव-मालक चाहता,उसपे सदा करता अमल।
वहीं भोगता पाता सदा, जिस बीज को ले आत्मबल।।

१३९९
सतधर्म का मूल है दया, अभिमान का मूल पाप है।
इस ज्ञान को छोड़े नहीं,जब तक मिटो नहीं आप है।।
जो चाहते हो कर चलो, अपना किया ही भर चलो।
आज्ञा हुई भगवान की, शुभ नाम आखिर धर चलो।।


आनंद की लहरें


१४००
बंधू कहँ या मित्र भी, ईश्वर ही काफी है हमें ।
संगी और साथी चाहिए, मिलता विधाता ही हमें ।।
आनंद गर उपभोगना, तो ज्ञान ही पुरा करे।
पाना अधोगति है अगर, तब वासना में जा मरे ।।

१४०१
पशुपक्षि भी होते जिगर, पर प्रेम सच्चा चाहिए।
बैमानि कर ना हो कभी, तब साच कैसा पाइए? ॥
अपने समान हि देखना, बिन ज्ञान के होता नहीं ।
हो मुक्ति ही पानी अगर, दुर्वासना छोड़ो सही।।

१४०२
इंद्रीय-लोलूप आदमी, यदी ग्यान भी बतलायेगा।
कुछ त्याग भी दिखलायेगा, या तो किसे सिखलायेगा ।।
फिर भी न उसको शांति है, आदत से वह लाचार है।
जब तक न गुरू की संगती, होगा न बेडा पार है।।

१४०३
किसके बनाये मत बनो, जो कुछ बनो खुद ही बनो |
इस अंतरात्मा की झलक, ऊँची उठाकर ही बनो।।
किसका सिखाया बोलना, प्रगती न खुद की है सही ।
उद्धार कैसा होयगा, जब आत्म को जाना नहीं? ।।

१४०४
मैं पंथ का हूं, ग्राम का हूं, नाम का हूं, मत कहो ।
जाती -अजाती को मिटा दो, शुद्ध होकर के रहो ।।
जो सत्य हो वह ही कहो, जो नित्य है उसमें रहो ।
आनंद की लहरें बढाकर, दु:ख जितना ही सहो।।


सदवृत्ति का पोषण कब?


१४०५
बेबूध राजा जब बने, अंधेर नगरी तब बने।
जब फैल जाता है अराजक, काम किसके ना बने ॥
सद्वृत्ति भी होगी कहीं, संकट हि उस पर आयगा।
राजा न जब हो निर्विकारी, राज्य नहिं चल पायगा॥

१४०६
जिस भूमि का हो संत जागा, भक्त भी वहि जागते।
सारा समाज हि जागता, जब प्रेम -दीपक जागते ॥
फिर सत्यता की क्या कमी ? होगा सदाचार हि वहाँ।
आनंदघन बरसे सदा, जहाँ संत से नात रहा ॥

२४०७
मत बोलिए चाहे जबाँ, वृत्ति-प्रवाह न बंद है।
जब हृदय में आनंद है, निकले तभी स्वच्छंद है।।
ऐसे निरामय* सन्त का, व्यवहार ही उपदेश है।
प्यारे ! उठो देखो उन्हें, उनका यही संदेश है।।

१४०८ 
धन के किनारे पर बसो, पर मन रखो बाहर कहीं।
गंगाकिनारे बास हो, पर जल पिओ उसका नहीं।।
सत्‌ संग में जाकर बसो, पर लक्ष्य हो घरबार का।
क्या लाभ उसको होयगा ? जब तत्त्व ना हो सार का।।

१४०९
मत देर गिन लो वर्ष से, गिन लो खुदी के हर्ष से।
जब प्रेम पावे स्पर्श से, तब ही लगो आदर्श से।।
जितना ही बर्तन माँज लो, उतनी चमक भर आयगी।
यह वृत्ति जब रंग जायगी,चारो तरफ सुख पायगी।।


धर्ममन्दिर की दुर्दशा क्यों ?


१४१०
शिक्षण है भक्षण का सभी, रक्षण नहीं पल एक भी।
संस्कार जो है नष्ट होंगे, हैं यहीं शिक्षण अभी।।
कारण है इसका धर्मसे, राजाहि तो निरपेक्ष है।
नेता पिछे गट-पक्ष हैं, सब वोट का ही लक्ष्य है।।

१४११
मैं स्पष्ट हूं इसही लिए, सब नष्ट होते देखता।
मानव-जिवन भी दिन दुना, यह भ्रष्टसा है भासता।।
किसपे किसीका बोझ नहीं, आजाद ही सब है गडी।
धर्मादि बंधन है नहीं, किसको सुधारोंकी पड़ी ?।।

१४१२
कितनाभि संशोधन करों, पर मानने को कौन है? ।
कितनाभि कानून पास हो, पर जानने को कौन है? ।।
अब धर्म-मंदिर तुच्छ हैं, सीने-क्लबों की शान है।
जब बाढ यह जावे निकल, तब सत्यता का मान हैं।।

१४१३
ऐ साधुओं! तुम स्वस्थ हो, इसकाहि यह परिणाम है।
बंदर बनी सारी प्रजा, खाना-पिना यहि काम है॥
अच्छेभी सज्जन है कोई, वे भी घरों में छुप गए।
किसके भरोसे जी सकेंगे, धर्म और सत्कर्म ये?।।

१४१४
ऐ डरनेवालो सज्जनों! यह डर ही तुमको खायगा।
निर्भय बनो, आगे बढ़ो, तब धर्म कही बच जायगा।।
आंधी बढ़ी कुविचार की, तूफान है भ्रष्टान का।
होगा नहीं जन-जागरण, धोखा बढ़ेगा जान का।।


१४१५
व्याख्यान से कुछ नहिं बनेगा, घर न छोडोगे कहीं।
रह जायगी सारी किताबें, पंडिताई सब यहीं।।
बूरा सिखाने के लिए, पैसा कमाने के लिए।
चारों तरफ घेरा पड़ा, आकर जरा तो देखिए।।

१४१६
कुछ ग्रंथ भी बेकार है, वे पेट भरने को लिखे।
उनमें नहीं है तत्व का बल, पंथ वैभव ही दिखे।।
सारा चमत्कारों हि का, भंडार उसमें भर दिया।
इन्सान कैसा भी रहे, पर पार करते कह दिया ।।

१४१७
मिरची -मसाला दूध में, डाला बघारा तेल से।
क्या खानेवाला खायगा ? यदि सब कहें भी मेल से।।
हो मेल भी तो ठीक हो , कुछ समझ कहने में रहे।
गध्धे अगर कुछ ग्यान दें,तो क्या अहो ध्वनि बिन कहे? ।।

अटल कलिकाल !


१४१८
कलजूग का वर्णन किया, जिस संत ने ज्योतिष्य में।
क्या उसमें शक्ती ही नहीं थी, पुण्य भरने शिष्य में  ॥
कह तो दिया, पर कर नहीं सकते अगर कुछ काम है।
तब स्पष्ट होता है कि हम,कलिकाल के हि गुलाम है।।

१४१९
नहिं टाल सकता है कोई, भगवान भी कलिकाल को।
क्यों दोष देना इस जमाने के, किसी बलवान को।।
जो कुछ भी होता पाप और व्यभिचार किसका दोष है?।
बुद्धि ही उसने कर रखी, वैसा चला हौदोस है।।


१४२०
शासक बिचारा कया करे ? वह समय का हि गुलाम है ।
जितना बना उसने किया, फिर भी वही बदनाम है ।।
भुकंप यह औ काल पड़ना, हाथ जिसके होयगा ।
उससे हिं कहते क्यों नहीं ? जो काल यह बनवायगा ॥

१४२१
ऐ शांतिदूतों ! क्यों उधम करते हो दुनिया रोक के ? ।
जाने दो उसकी मर्जि से, आँसू न सींचो शोक के ॥
 कलजुग को बोलों भला, जो प्रेरणा देता इन्हें ।
सत्ता है उनके हाथ, तुम लो मौन, तब शांती बने ॥

१४२२
काल से बनती प्रजा, या इस प्रजा से काल है!।
न इसका आज तक,किसके किया सचवाल है ।।
समझ में है प्रभू का, खेल ही जो भी किया ।
खेले वही, झेले वही ,दुख भी किया,सुख भी किया ॥


पूरे योग की पहिचान


१४२३
योगी! तुम्हारी वृत्तियां, स्थिर हो गयी है क्या सदा?।
अभ्यास के व्यतिरिक्त भी, स्थिर बुद्धि ही है क्या सदा।।
देखें जिधर, सोचे जिधर,क्या उन्मनी की है छटा।
तब तो तुम्हारा योग पूरा, हो गया हमको पटा।।

१४२४
तुम क्रोध से और काम से,अती लोभ स क्या दूर हो?।
आदर-अनादर एकसा, निंदा-स्तुति नहीं चुर हो?।।
तुमको न प्रिय-अप्रिय कोई इष्ट औ न अनिष्ट है?।
गर सध गया यह वृत्ति में, तब योग पूरा स्पष्ट है।।


१४२५
लाखों जमाना आ गया, व्यवहार भी खुब हो गया।
फिर भी न मुझको स्पर्श है,क्या हो गया,क्या रह गया ||
परिणाम ऐसा शांत है, निर्मल विमल समचित्त है।
होता वही योगी पुरा, जो आत्म में निश्चित है।।

में और विश्व के धर्मपथ

१४२६
मेरा गुरू ही इष्ट है, सब देवता से प्रेम है।
जनता -जनार्दन की सदा, भक्ती करूँ यह नेम है ।।
हो देश का कल्याण, मेरी पूजना आधार है।
मानव्यता हो विश्वव्यापक, यह मेरा निर्धार है॥

१४२७
टूटा न जाये धर्म किसका, जब सचाई पे खडा।
बिगडा न जाये कर्म किसका, जब कि सेवा से जडा ॥
भूला न जाये वर्म किसका, जो कि उन्नति पे चढा।
चूका न जाये मर्म किसका, जो इमानी से बढा ॥

१४२८
ये धर्म भी तो अनेक है, औ कर्म भी तो अनेक है।
जाती औ पक्ष अनेक है, लोगों के लक्ष्य अनेक हैं॥
कई देश भेष अनेक है, औ रंग रूप अनेक है। 
सब पंथ संत अनेक है, इन सबमें ब्रह्म हि एक है।।

१४२९
मैं पक्ष का नहिं पंथका , नहिं धर्म का पर धर्म का।
मैं हूँ निरामय लक्ष्य* का हूँ सत्यमार्गी वर्म का ॥
पोथी मुझे नहीं ग्यान दे, है ग्यान मेरी अनुभुत्ती।
जो साच है जहाँ भी मिले, करता हूं मैं उसकी स्तुती॥


१४३०
मेरे भरोसे मत रहो, मैं खुद नहीं अपना रहा।
गुरूदेव मेरा इष्ट है, यह बोलता हूँ जहाँ वहाँ ।।
अपने हि साधन से बढो, तुम प्राप्त करने इष्ट को ।
उपदेश सम्बल  साथ लो, टालो सभी संकष्ट को ॥

१४३१
 यदी तुम किसीको शत्रु मानो पर वहाँ जाऊँगा मैं ।
अपना कथन गाऊँगा मै, रोना न बतलाऊँगा मैं ।।
समझ न समझे बात मेरी मैं द्खी नहिं होऊँगा |
मुझको न मानापान है, सच तत्त्व ही बतलाऊँगा ।।

१४३२
मैं सोचता भी हूँ नहीं, ये ही मेरे प्रिय मित्र है।
सच मित्र मेरा कार्य है, करना मुझे अनिवार्य है ।।
मैं माँस-मूर्ती पे कभी, खुश ही न बनता हूं कहीं ।
मुझे सत्य, करूणा, नप्रता ही, साक्ष देती है सहीं ।।

१४३३
हर धर्म में भी संत होते, जाति में भी संत है।
हर पंथ में भी संत होतें, वेश में भी संत है।।
बंधन नहीं है संत को, किसि स्थान मान विशेष का ।
जो सत्य का अनुभव करे, वहि संत है हर भेष का ।।

१४३४
इस्लाम के भी सन्त की कबरों में, जा बैठा हूं मैं ।
हिन्दू धरम के सन्त के, चरणों का रस - लूटा हैँ मैं ।।
कई ख़िश्चनों की भी सुनी, गिर्जा घरों में प्रार्थना ।
कई बुद्ध स्थानों में भी मैंने, की प्रभू से वंदना ॥

१४३५
मेरे लिए अच्छा -बुरा, दुनिया में कोई है नहीं।
सब ही भरा गुरूदेव ! ऐसी, भावना मेरी रही ॥
घट घट में वह ही बैठकर, लीला कराता सर्व से ।
जो जानता नहिं है इसे, वहिं मर रहा है गर्व से ॥


मेरा परिवार और मैं 

१४३६
मेरे भी बनकर चूसते, मुझको बनाकर बावला।
अपने लिए घर-घर मुझे, घुमवा रहे कहकर भला।।
मैं सोचता हूँ है न इनमें, आत्मबल, अध्यात्मबल ।
बेकार है यह जिन्दगी, होवेगी केसी यह सफल ?॥

१४३७
जो कार्य अपना आपबल पर, कर नहीं सकता खड़ा।
तब जानिए के उसके आगे, है बडा धोखा पड़ा॥
इन्सान वहि सुख पायगा, जो ना परस्वाधीन है।
अपनी लगन से कार्य करता, निश्चयी और लीन है॥

१४३८
सेना तुम्हारी हैं बडी, पर शस्त्र बिन क्या कर सके ?।
गर शास्त्र भी होंगे बडे, पर धैर्य बिन क्या तर सके?।।
हिंमत है काफी फौज में, पर ध्येय नहिं हो सत्य का।
फिर तो लडाई व्यर्थ है, ठेका हि है आपत्ति का॥

१४३९
जो भी जहाँ भी दिल में आता, देखकर प्रत्यक्ष में।
आत्मा वही कहता मेरा, मै लिख सकूँ कुछ साक्ष में॥
चलती है मुझको देर भी, अंधेर नहिं भाता जरा।
इसके लिए कडवा भी कहना, ठीक है मित्रों ! मेरा॥

१४४०
तारीफ तो काफी सुनी, अच्छी -बुरी बातें कई। 
इसमें मेरा दिल अब कहीं भी, मानता बिलकुल नहीं।।
मैं चाहता हूँ सन्त के, कुछ कार्य आगे बढ सके।
इससे खुशी होगी मुझे, यह धर्म ऊँचा चढ सके।।

१४४१
बिरलाद ही देखा है घर, जो घर कहाने योग्य है।
बिरलाद ही देखा है मंदर, सर झुकाने योग्य है।।
बिरलाद ही देखा है मेला, मेल मेरा बन सके।
सर्वांग उन्नत हो जहाँ, वहाँ ही मेरा सर झुक सके!।।


१४४२
यह घर हि तो मंदिर हैं, जब शुद्ध शांत पवित्र है।
हरिनाम जपते मंत्र हैं, शुभ कामना का तंत्र है।।
तसबीर है भगवान की, तुलसी है घर के सामने।
व्यवहार निर्मल, सत्य है,तब तीर्थ घर क्यों ना बने? ।।

१४४३
मैं कवि नहीं करुणा हूं मैं,उन दुःखियों की, दीन की ।
मैं साधु नहिं मै साधना हूँ, प्रेम की सत्‌ नेम की ॥
मुझमें न शांती है, हूँ में पिछड़े जनों की भावना।
इन्सान बनने जो चले , मैं उनकी हूं शुभ कामना ॥

माँ नर्मदे !


१४४४
हे नर्मदे ! तेरे ही दर्शन से, सदा फूला फला।
तेरी अमित जलबिंदुओं से, प्रेरणा ले मैं चला ।।
इस शांतिजल में भी तुने, कितनी भरी कठिनाईयाँ ।
सब फोड पर्वत-पत्थरों को, बह रही भर खाईयाँ ॥

१४४५
हे परमपावन, पापनाशन, पुण्यशीले नर्मदे ! ।
भू-भार हरणी, अन्नभरणी ,. शांतिदानी नर्मदे ! ॥
हे योगीजन-मन रंजनी ! शुभदर्शनी, पथगामिनी ! ।
भाव्यांबरी, जल सागरी ! हे नर्मदे ! सुखवाहिनी ! ॥


स्वार्थ की रीति


१४४६
इंसान अपने स्वार्थ से, अन्याय-न्याय न जानता।
देता किसे तकलीफ भी, और कार्य करता, मांगता।।
उसको नहीं है सूझता, किससे कहे, कितने कहे।
निर्भय ही उत्तर देके उसको, शांत करना चाहिए।।


१४४७
अति प्रेम और मुँह पे स्तुती,यह भी तो एक धोखा हि है।
जब आदमी बन जाय खुश,बनता है उसका राहि है।।
उस प्रेमि ने तो फंद का, जरिया स्तुती की जानकर।
कब्जा किया, पकडा दिया, सीटी बजा मृग मानकर ।।

१४४८
स्वारथ का अंधा आदमी,क्या क्या न करता पाप है?।
वह दूसरों का खून करने तक करे संताप है।।
उसके भरोसे से कभी, उपकार बनता है नहीं।
बचके हि रहना उससे हरदम, बोलता हूं मैं सही।।

१४४९
जब दूसरों पर बीतती, तब ग्यान देना सहज है।
पर आपबीती जब दिखे, रह जाय सूझनबूझ है।।
सद्भाव दिल में चाहिए, उपकार करने के लिए।
निर्भय नहीं है आदमी, नैतीक बनने के लिए ।।

आदि शक्ति की मुर्ति-नारी !

१४५०
नारी नहीं अबला है, इसको क्यों किया बदनाम है?।
मौका नहीं तूने दिया, देखा न उसका काम है।।
आदर्श देवी जानकर, तू शक्ति उसको माँगता।
यह भी समय आता कि अबला को सबल जब जानता।।

१४५१
 यहि आद्य शक्ति है, तेरे घर नारि बनके आ गयी।
जैसा तुने समझा इसे, वह काम के कर रही॥
गर तू इसे बलवान कहकर, जंग में भी छोड दे।
तो देख, झाँसी की तरह, कइ शत्रुओं को तोड दे।।


१४५२
नारी रहे, या हो पुरूष, बल-बुद्धि में नहिं भेद है।
जैसा दिया अभ्यास वैसा, कार्य होगा सिद्ध है।।
बल्के पुरूष से शक्ति ही, आगे बढ़ेगी काम में।
संगत और शिक्षण ना मिले, दोनों भी है बदनाम में ।।

१४५२
शक्ति बिना कोई पुरूष, कुछ काम ही करता नहीं।
वहि शक्ति तो हैं प्रकृती, यह ख्याल भी धरता नहीं ।
हरदम दबाता है उसे, संतान पाने के लिए।
देता न मौका काम का, अबला बनाकर धर दिये।।


आसक्ति जीतनेवाला वीर


 १४५४
जो वीर लाखों पर विजय पाता नहीं वह वीर है।
लड़ता है खुद ही जंग में, फिर भी नहीं रणधीर है॥
जो मन को काबू में करे, और सत्य को पहिंचानता।
वहीं वीर होता है पुरा, मरना नहीं जो जानता ।।

१४५५
अति दुष्ट काँटा तो तुम्हारे, हदय में है घुस गया।
सोने न देता ग्यान में, वह विषय-घर में फँस गया।।
जब तक अपने काम को, और क्रोध को न्यारा करो।
तब तक न शांती पायगी, यह ध्यान की धारा करो ॥

१४५६

आये हजारों मुसीबतें, फिर भी न शांति भंग हो।
चाहे हजारों कष्ट हो, फिर भी न बिगड़ा रंग हो।।
घरदार सब परिवार भी, नाराज हो, बिगडे नहीं।
प्रभु-भक्ति गर बिछुड़ी गयी, तब दिख पड़े सब दुख ही।।


१४५७
अब तो जिधर देखे उधर, स्वार्थी ही दर्शन हो रहे।
बिन स्वार्थ का कोई नहीं, सब स्वार्थको ही रो रहे॥
निःस्वार्थ हो बिरला कोई, उसके फजीते है बडे।
प्रभु ! सत्य की दुनिया बना, यहि प्रार्थनाकरने खडे ।।

१४५८
जो कुछ करो प्रभु के लिए, सबका प्रभू ही साक्ष है।
लाखों करोडों मार्ग हैं, प्रभु का न कोई पक्ष है।।
वह जानता है कौन होगा, प्रीयभक्ती -दक्ष है।
उसको प्रभू भी हाथ दे, दुसरा न उसका लक्ष्य है।।

१४५९
आदत से मानव है बँधा, लाचार है उस बात से।
आसक्ति की है डोर जकड़ी, टूटती नहिं हाथ से ।।
जब संत संगति की धुनी से, ग्यान-अग्नी जागती।
तब ही सभी आसक्तियाँ, जी छोड़कर है भागती॥

१४६०
आशा और तृष्णा भाग जायें, तब तो फिर कहना हि क्या?।
यह दीव्यता ही छायगी, फिर मृत्यु में रहना हि क्या ? ।।
बैकुंठ उसके पास है, सब सिद्धियाँ भी दास हैं।
आनंद ही आनंद है, आनंद का निज-ध्यास है।।


वक्तव्य कैसा हो ?


१४६१
अजि ! यह नहीं है बुद्धिमानी, राह किसकी मोड दें।
या धर्म किसका तोड दे और परधरम को जोड दें ।।
सच्चा वही है आदमी, जो साच ही बतलायगा।
नेकी करो अच्छे रहो, उसिका धरम कहलायगा ।।


२४६२
बल्के नहीं बलवान वह, जो दुसरोंपर बल करे।
बल्के नहीं बलवान वह, अपने में बलबल करे ।।
बलवान वहि होता गड़ी, जो धीर है, गम्भीर है।
सोचे बिना समझे बिना, छोडे नहीं जो तीर है।।

१४६३
बल बल किसीसे क्यों करे,जब ठीक चलता काम है? ।
किसिने भी भाषण दे दिया, अपना हि होता नाम है ।।
जब तक न निंदा, या विरोधी बात कोई आयगी ।
तब तक खुशी ही मानिए, गर सत्‌ -सभा सुख पायगी ।।

१४६४
इतना फरक रखना नहीं, जब हम समाज के साथ है।
ऊँचा और नीचा भेद यह, नहिं सभ्यता की बात है ॥
चाहे भले जो दे रहा, वक्तव्य ऊँचा बैठ ले।
जब बात पूरी हो गयी, सबमें हि मिल हम सोच लें ।।

१४६५
हो मुख्य भाषण जिस किसीका, वक्त उसको दीजिए ।
आमत्रितो को मान देकर, स्वस्थ आसन लीजिए ।।
नहिं तो न पूरा एक का भी, विषय ही हो पायगा ।
श्रोता-समाज भी शांति छोड़े, घर चला ही जायगा ॥

१४६६
किर्तन बडा अच्छा हुआ, पर ख्याल में नहिं रह गया ।
जितना सुना इस कान से, उस कान से ही बह गया ।।
तब तो बड़ा हरिदास भी हो, किस लिए आया यहाँ ? ।
सब रात ही बरबाद की, कुछ लाभ भी नहिं हो रहा ।।

१४६७
बातें बडी तुम कह रहे, पर समझ में नहिं आ रही।
जनता उदासिनता लिये, वापस सभी घर जा रही ॥
इतनी समझ तो चाहिए की, मोड उसको दिजिए।
समझे वही सीधी सरल, बातें वहाँ पर कीजिए।।


१४६८
क्या गा रहे हो यार ! अपनी तान में, धुमधाम में ? ।
ये सुननेवाले हँस रहे, सुनते नहीं हैं कान में ।।
तब तो समझना चाहिए, यह माल यहाँ चलता नहीं ।
वैसी हि चीजें दीजिए, श्रोता कभी हिलता नहीं ।।

१४६९
जनता जनार्दन जोर से, बहता हुआ चल आ रहा।
लाखों भरे हैं आदमी, अंदाज-बाहर जा रहा ॥।
कारण है इसका एक ही, यहि इष्ट है, यह स्पष्ट है।
उसिको बताना हर्ष से, जो कार्य का उद्दिष्ट है ॥

लोकप्रिय कौन बनेगा


१४७०
जो चाहता अपनी तरक्की, सो तजे आलस्य को |
निद्रा और तन्द्रा-भ्रान्ती छोडे, प्राप्त करने लक्ष को ।।
हर बात पर कोशीश करके, उन्नती की राह ले।
तब ही तरक्की होयगी, आगे कदम की चाह ले ।।

१४७१
बल के भरोसे लोकप्रियता, प्राप्त होती है नहीं ।
उसके लिए तो चाहिए, कुछ जिम्मेदारी ही सही ॥
अपना भरोसा दूसरों को, जिस तरह भी आयगा |
वह ही करेगा प्रेम-संपादन, पता लग जायगा।।

१४७२
हम पर भरोसा ही करो,कहना बडा आसान है।
पर जिम्मेदारी को निभाना ही, सही पहिचान है ॥
इंसान सीखा हो भले, पर कुछ सचाई है नहीं ।
ऐसे दगाबाजों पे किसका, क्यों भरोसा हो सही?।।


१४७३
क्या शास्त्र पढनेवालें सब ही शाने होते मै सुना।
बिलकुल गलत है बात वह, यह बंद कर दो बोलना।।
जब तक अनुभव आचरण में, आयगा नहिं व्यक्तिके।
तब तक उन्ही में मूर्ख भी भले, कुछ भी सिखें ।।

१४७४
यह शास्त्र इतना भव्य है, बिन दिव्य के समझे नहीं।
जब तक सु-संगति ना लगे, उलटा भी होता है कहीं ।।
इसके लिए तों कृष्णने ,अर्जुन से आखिर कह दिया ।
तू धर्म -शास्तर मत बता,वहि कर जो मैंने कह दिया ||

१४७५
सब ही उमरवाले नहीं, होते हैं ऊँचे ख्याल के |
बच्चे भी उनके ठीक रहते, जो हो अच्छी चाल के ||
राजा बलाढ्य हिरण्यकश्यपु, था पिता भी क्या किया? |
प्रहलाद बालक ही रहा, पर बाप को तरवा दिया ||

१४७६
हर बात पर साबित  ही होती, क्या तुम्हारी योग्यता ।
चाहे भले तुम वस्त्र पहनों, या घड़ी, या हो जुता ॥
आंखे भाली एनक लगे, क्या उम्रवाले बन गये ।
अब तो कई बच्चे भी लगवाते, जो चष्मा ले लिये ||

१४७७
कहते ही जाते हर घड़ी पर एक भी करते नहीं |
वे प्रिय कैसे हो सके ? दुनिया बताती है सही।।
ये केहनेवालो! खाली कहना, आज स ही छोड़ दो।
करना ही खुद का है बड़ा, यह ख्याल दिल में जोड़ दो।।


राज्य की शोचनीय दशा

१४७८
धुमधाम है चारों तरफ, इस राज्यशासन के लिए।
नहिं भान लोगों के किसी सुख-दुःख का, क्षण के लिए।।
इस देश का होवे बुरा, चाहे भला जो भी बने।
पर ये नहीं पीछे रहें, हरदम हि रहते सामने ॥

१४७९
चारों तरफ हलचल मची, क्या यह अपेशी राज है।
किसिको भी सुख पाता नहीं,सब दुःख में मुँहताज है।।
खाना नहीं, सोना नहीं, सारा कलह है हर जगह।
कहते बुरा भी कर लिया, फिर भी रहें अपनी जगह॥

१४८०
जनता भी अपने बल नहीं, ऊँचा करे आवाज को।
डरती सदा वह जान को, कुल की प्रतिष्ठा मान को ॥
ऐसे समय भगवान ही, इस देश का वाली बने |
नहिं दूसरा साधन कोई, क्रान्ती बिना अब सामने ॥

दुर्गुण और दुर्व्यसन


१४८१
जो खुद नहीं अपने उपर, शासन चलाता नेम का।
वह हो नहीं सकता है आजादी के कोई काम का ॥
आजादिं का मतलब नहीं, जो मन में आवे सो करे।
चोरी करे और घर भरे, व्यभिचार करके जा मरे ।।

१४८२
फूटा हो बर्तन, क्या करेगा ? कौन उसको साथ दे? ।
जो बज नहीं सकता, न उसमें माल भी कुछ डाल दें ।।
वैसे ही व्यसनी आदमी को, छिद्र होते लाख हैं।
होता न सेवापात्र वह, चारित्यहिन नापाक है।।


१४८९
अपने हि अवगुण औ व्यसन,अपने हि को दुखदायि हैं।
यह सोच लेगा तब तो तेरा, सुख समझ तुझमाहि है।।
निर्मल-विमल जब आचरण, तेरा खुदी बन जायगा।
तब सौख्य क्या ? तू स्वर्ग का, आनंद भी अजमायगा।।


साधुसन्त-विष है या अमृत ?


१४९०
अब ही पढा अखबार में, लिख दी किसीने खबर है।
साधू नहीं अब चाहिए, यह देश में ही जहर है।।
पूजा ओर पाँती पाद सेवन, इनकी प्रतिष्ठा ना करो! ।
मेंने कहा मंजूर है, जब काम उंनका तुम करो।।

१४९१
अखबार,लेखक और साहित्यिक यह बोझा हाथ ले।
इन्सान सच्चा बन सके, ऐसी प्रतिज्ञा साथ ले
फिर काम क्या किसि संत का,मठ का,पुजारी,पोथि का ? |
सब कुछ लगे उद्योग में, हो काम चाहे खेति का!।।

१४९२ 
साधू अगर बिन काम का, बिन ज्ञान का घूमे कहीं।
संसारियों को उन्नती में, साथ गर देता नहीं ।।
गर देश अपना ठीक करने की, न उसमे है फिकर।
बेशक हि साधू नाम को, होना नहीं है देश पर।।

१४९३
पर बात है सच्ची यही, है कौन उनका काम ले?।
रोटी पे जीये और अपना, देश-धर्म हिं थाम ले।।
घर घर में जावे प्रेम से, सबको गुणीजन की सके? ।
सारा जिवन ही त्याग से, भारत के आगे धर सके।।


१४९४
घर की नहीं, मठ की नहीं, नहिं पंथ की चिंता जिन्हे।
है एक ही मस्ती सदा, यह देश अच्छा कब बने ? ॥
चारों तरफ इसके लिए, जो धुंद* होकर बोलता।
अच्छे रहो, सच्चे रहो , ऊँची करे मानव्यता।।

१४९५
हर चीज में कुछ तत्व है, इसके लिए वह धन्य है।
जो तत्वहिन हो जायगी, किसिको नहीं वह मान्य है।।
साधू हुआ तो क्या हुआ ? पंडीत है तो भी रहे।
पर कुछ नहीं करता है जो, फिर यह रहे, ना वह रहे।।

१४९६
है धूम जैसी साधु की, वैसी हि तो नेता की है।
अखबार भी तो खूब है, अच्छी -बुरी बातों की है।।
साहित्यकारों की मजल, ऐसे ठिकानों पे लगी।
इन्सान ही हैवान हो, फिर भी नहीं आँखें जगी।।

१४९७
किस किसको बंद करते हो तुम ?है कौन तुम जैसा बसा? ।
तुम भी तो शायद वह हि हो,तुमको भी है अपना नशा ॥
हाँ, एक बात जरूर है, लाठी तुम्हारी हो बडी।
तब हो तुम्हारे नाम की, महिमा रहे कुछ दिन खडी ।।

१४९८
दोस्तों! किसीको ना भगाओ,ठीक सबको कर चलो।
इस देश-धर्म के काम में आवें, यही रूख धर चलो।।
ऊँची निगा सबपे रखो, कहिं दोष उनमें ना रहे !
यहि तो जो अगुआ हो गये, उनका सदा ही काम है।।

१४९९
जब धर्म दुनिया से उठा,तब कर्म का क्या स्थान है?।
सत्‌ कर्म को तो धर्म का ही, मूल अधिष्ठान है?।।
अजि  धर्म माने ध्येय है, और कर्म उसका मार्ग है।
शुभ कर्म का फल श्रेय है, ऐसा रचा यह वर्ग है।।


१५००
ऐसा कहे, हम जो करें, बिन धर्म के ही हो रहा।
इसका है मतलब, सोच समझे ही किया सब जा रहा।।
पागल यही करता सदा, बकता मगर ना अर्थ है।
सुविचार बिन जो जो करे, समझा गया हि अनर्थ है।।

१५०१
इंसान तेरी शान ने ही, सब डुबाया काम है।
वह शान भी तो है नहीं, सब तत्व ही नादान है।।
घर में नहीं है अन्न, फिर भी, बिन सिनेमा ना रहे।
चोरी करे, मदिरा पिये, वाह रे ! तुम्हारी शान है।।

१५०२
अखबार सुधारेगा जगत्‌, तब साधुओं का काम क्या ? ।
झगडा मिटावें लोग ही, तब कोरटो का काम क्या? ॥
पर-शत्रु से धोखा नहीं,तब फौज क्यों ओ शास्त्र क्यों ? ।
सब लोग ही अच्छे चले, तब राज्यशासनयन्त्र क्यों ? ।।

१५०३
आरोग्य से बरते जगत्‌ तब डाक्टरों का खर्च क्यों ?।
आपस में सब कुछ चल रहा,तब पुलिस,अफसर व्यर्थ क्यों ? ।।
सब मिलके नीती -धर्म चलता, तब यहाँ मंदीर क्यों ? ।
सबकी व्यवस्था ठीक है,तब चोर, शोर ,मुजोर क्यों ? ॥

१५०४
सबकी जरूरत हैं यहाँ, फिर भी नहीं होता पुरा।
इन्सान ही नहिं बन रहा, सारा हि है कचरा भरा॥
कुछ हैं भी अच्छे आदमी, वे है पड़े अपनी जगा।
गर काम ही करते नहीं, तब रोग क्यों कहना भगा ?।।


भगवान का नाम और राजा प्रजा का काम

१५०५
भगवान  का यह हुक्म है, जनता सुखी रखना सदा।
पर आदमीने स्वार्थ से, यह सर उठा ली आपदा ।।
इक हैं सुखी, इक है दुखी, यह मानवी वैषम्य है।
इंसान जब उन्नत बनें, तब यह न होगा क्षम्य है।।

१५०६
राजा उसीका नाम है, जिसकी प्रजा भूखी न हो।
हर आदमी को काम दें, वह पेट से झूकी न हो ।।
चिंता हो सबको एक ही, हम सब बनें उन्नत सदा |
बिन कष्ट के जीये न कोई, जो जिये होगा गधा ।।

१५०७
हर बात में भगवान डालो, और हम हों आलसी |
बेकार बन के टाल कुटो, यह नहीं प्रभु को ख़ुशी ।।
इंसान हो तो अक्ल से, और हाथ से खूब काम लो।
कर लो सुखी मानव प्रजा, भगवान का फिर नाम लो ॥

१५०८
भगवान ! तू किसके कहे से, मानता भी है कहीं ? ।
ऐसा नहीं देखा गया, ना सुन लिया हमने कहीं ।।
फिर भी भगत रोकर सुनाते, दें उसे हम फंद भी ।
ऐसा नहीं चाहता था वह, हमने दिया है छंद भी ॥

१५०९
नागानी* अपनी गर्ज की, पूँजी बनाना काम में ।
कहना प्रभू हमसे सुनेगा, जो कहें हर नाम में।।
रे यार! सच्ची बात तो है, वह खुदी खिलवाड* है।
भगवान ही सब कुछ करे, वहि फूल -पत्ते-झाड है।।


१५१०
भगवान को डालो नहीं, हर बात में, हर काम में।
तुम खुद करो इन्सान बनकर, काम सब ही शान मे।।
भगवान ही करता सभी, क्यों दुःख देता वह किसे ? ।
यह कौन मानेगा कि, धोखा ही हुआ भगवान से ? ॥

१५११
हो देश में भूखा न कोई, प्रथम यह ही ख्याल दो।
चाहे उसे तुम काम दो, बेकार कोइ न डाल दो ।।
है दूसरी बातें यही, शिक्षा मिले, कपड़ा मिले।
हो जिन्दगी अच्छी तभी, यह राज फिर फूले-फले ।।

१५१२
इन्सान को नहिं काम है, जहाँ काम है करते नहीं ।
नेतागिरी करते सभी, और जिम्मेदारी ले नहीं ।।
बेकार ऐसि जहाँ प्रजा, उसको उठाना चाहिए।
है राज्य का कर्तव्य यह, सुख देश पाना चाहिए ।।

१५१३
इस देश को खींचो उपर, पहिले तो बुद्धी डाल दो।
जो हो चुनिंदे* आदमी, उनको समझ का ख्याल दो ॥
फिर काम करने दो उन्हें, घर-घर में ज्योती दो जगा ।
भारत न हो अब आलसी, कर्तव्य-तत्पर हो निगा ॥

जीवननिष्ठ काव्य का प्रभाव

१५१४
हर आदमी होता पुराना, यही नहीं दनिया कहे।
जो आज की पोथी -किताबें, वह भी तो कला ना रहे।।
रचना समाजों की बदलती, मुल्य भी है बदलता।
जो आज के है पाप-पुन, वे भी न कल के सर्वथा।।


१५१५
मेरे उपर आरोप है, में काव्य नहिं हूँ जानता ।
मुझको बडी इस की ख़ुशी, चाहे न कोई मान्यता ।।
पर लोग तो सब समझते हैं, मैं जहाँ गाने लगू ।
लाखों किताबें जा चुकी, यहि प्रेम मैं पाने लगूँ ।।

१५१६
तारीफ में अपनी करूँ , यह तो बडी है मूर्खता ।
पर लोग जब घर-घर में सुनते, और क्या है मान्यता ॥
बच्चो जवानों और बूढों के भी मुख में है वही ।
गाओ भजन, गाओ भजन , चाहे भले तुम हो कहीं ॥

१५१७
इतना बडा है मुँह दिया, पर लाभ अच्छा ना लिया ।
करके हुआ बदनाम तू. चल बोल किसने यह किया ? ॥
रे मित्र ! मेरी समझ में, तो दोष है इन्सान का ।
भगवान ने तो दे दिया, सामान प्रेम -जबान का ॥

१५१८
हम थक गये, सब बक गये, अब है निराशा हाथ में ।
सुनते सभी, करते नहीं, अनुभव यही हर बात में ॥
पर छोड़कर जाना कहीं, यह भी नहीं बनता हमें। 
अपना किया, करना अदा, जो फर्ज हे हर बात में ॥

१५१९
रे यार ! जब जाता शहर, तब डर यही होता मुझे।
कही मैं नही ऊनके सरीखा, हो चलू लगता मुझे।।
जो शान इनकी बढ राही, वह आज कल मुड जायगी।
जब जिंदगी सादी- सरल होगी, ठिकाने आयगी।।


बालकों का सुधार

१५२०
बालक-दिनों के हर्ष में, मुझको बुलाया बंबई।
भाषण दिया मैंने यही, बालक बनाने है सही।।
हो छाप उन पर भारतिय, हम है न केवल प्रांत के।
दोनों भि उद्यत बाह हों, ये शब्द चाचा नेहरू के।।

१५२१
छोटे उगे जो वृक्ष हैं, लेते है बाँक लचीले* है।
मोटे हुए तब तोड़ना, और मोडना मुश्कील हैं॥।
वेसे हि बालक-वृत्ति पर, संस्कार होते ठीक है।
हो ख्याल उनके चालकों * को, शिक्षकों को अधीक है।|

१५२२ -
उन बालकों का प्यार करना, पक्षि-पशु भी जानते।
पर बालकों को ले सुधरना, सब नहीं करते फत्ते*।।
इसके लिए ही. गुरूजनों का-चालकों का मेल हो।
संस्कारि बालक बन सकें, ऐसा हि उनका खेल हो॥

सत्ता के लिये संघर्ष.

१५२३
अजि!सरल सात्विक व्यक्ति को,जीना यहाँ, मुश्कील है।
सब स्वारथी,सत्तार्थ-लोलुप ,यहि चली चिलबील* है।।
अपना भंला हो इसलिए, चाहे भी . हो. डरते नहीं। 
सबसे बडे होंगे तभी, शुभ ख्याल ही करते नहीं ॥

१५२४
सबको लगी है चोट अब, हम ऊँच हों, अधिकार हों।
उसके लिए सब कुछ करें, फिर झूठ हो, या चोरि हो।।
यह गरिब मारा ही गया, सुनता न कोई बात है।
नेतागिरी के फंद में, सब ही बने एकजात है।।


१५२५
हम पाप भी करते हैं फिर, हम ही यहाँ अगुवा रहें।
किसमें नहीं हिम्मत रही, कोई विरोधी हैं कहे ।।
जब तक चले, तब तक चले,यह नीत-रीत समाज की।
आगे जमानां क्या करे, पर बात कह दी आज की॥

१५्२६
भगवान इसमें क्यों पडे ? वह साक्षि होकर खेलता।
इन्सान पर सौंपा है सब, जो मेल चाहे झेलता॥
अपना किया वहि भोगता, अच्छा हुआ बूरा हुआ।
सब दिन नये दिखने लगे, आश्चर्य है यहि वाहवा।।

१५२७
मैं मौन हूँ इस बात पर, कोई. चुनो, कोई बनो ।
में काम अच्छा चाहता, इस देश का अच्छा गुनो*॥
दंगल लढो, आगे बढो, जो जीत ले सो है मेंरा।
मैं काम उससे चाहुँगा, जिन्दा रहे, या हो मरा।।

१५२८
मुझमे नही कुछ है बदल, मैं पक्षबाजी ना धरू।
सेवा करे इमान से, मैं मान उसका ही करू।।
चाहे भले तुम उच हो, अधिकारी हो, नेता राहो।
यदी लोकप्रियता है तुम्हे, तब ख़ुश रहो जीते रहो।।

१५२९
कब तक रहोगे इस तरह, गरीबों पर बोझा डाल के?।
उनकी बखत भी आयगी, तब बाल लूचे भाल के।।
इसको समझ कर जो चले, उनका कभी बिगड़े नहीं।
सब मेल हो, लेकर चलो, किससे कोई झगड़े नहीं।।


सन्तपन की असलियत

१५३०
यह संतपन उपकार नहिं, यह हैं कै खुदी संवेदना* ।
जब आदमी उन्नत बने, होती यही है कामना ।।
जो जो मिले, प्रेमी बने, सब विश्व मेरा मित्र है।
यह धारणा बढती जहाँ, वहि संत हैं, सज्जन कहो ॥

१५३१
हम संत है उपकारी हैं, करते जंगत्‌-कल्याण हम ।
यह जो कहे, जहाँ भी कहे, समझो बडा है मूर्खपन ॥
जो नम्र है, सत्‌कर्मि है, सेवा-प्रवण सात्वीक हो।
वहि संत है, उपकारी है, माँगे न किनसे भीख है।।

१५३२
जैसे वकीली, डाक्टरी, मजदूरि हो या नौकरी ।
वैसा ही है यह संतपन, यह बात बिलकुल ना खरी ॥
साधु तो अपने आपको, कर खाक* घुमता है सदा ।
जल बूंद सम निर्मल रहे, वहि सन्त होता सर्वदा ॥

जन्मवर्ण या कर्मवर्ण ?

१५३३
यह सन्त-साधु,ब्रह्म, क्षत्रिय-वैश्य कहना छोड दो।
हो जिन गुणों के तुम यहाँ, मुँहतोड* सबको बोल दो ॥
ना संतपन, ना ब्रह्मपन, ना वैश्यपन गर है तुम्हे ।
तब शुद्र कहना क्यों नहीं ? क्यों लाज लगती है तुम्हे ।।

१५३४
हम भी वही, तुम भी वही, सबही नकल चलने लगी ।
फिर तो तमासा ही चले, जब असलियत हिलने लगी ।।
फिर एक ही रह जायगा, जिसका हो बल सबसे बडा।
वह चाहे जो भी कर सके, जब तक न फूटेगा घड़ा ॥


१५३५
मजबूर कहने दो किसे, हम छात्र हैं, क्षत्रीय है।
पर काम तो कुछ है नहीं, बेकार हैं निष्क्रीय है।।
ऐसे समय में देश का, कैसा बने कल्याण है? ।
यह वर्ग-धर्म चले नहीं, फिर क्यों करो अभिमान है? ॥

भक्ति नाम में या काम में ?

१५३६
भगवान की जय क्यों करे? सत्‌ काम क्यों करता नहीं ? ।
बिन कष्ट के जीता यहाँ, पाता प्रतिष्ठा भी सही॥
है कौन सच्चा ? जो तुझे, यह स्पष्ट बोलेगा कहीं।
भगवान का तू काम कर, तो होयगा भगवान ही ॥

१५३७
भगवान नहिं बोला परंतु, काम उसका ही किया।
चंदन ओ माला है नहीं, पर झूठ पथ से ना गया।।
तीरथ गया नहिं फेर भी, उपकार नहिं छोड़ा कभी।
इन्सान बनकर जो रहा, फल पायगा अच्छे सभी ।।

१५३८
भगवान पर रखकर भरोसा, आलसी सोता सदा।
दिनभर हि ठोके खंजरी, नहिं कष्ट करता है गधा।।
खाता जहाँ उस घर भी अपनी, तान ही है मारता ।
वह लोक में, परलोक में, नहिं पा सकेगा मान्यता ।।

१५३९
हम तो समझते कष्ट ही, भगवान की भक्‍्ती कहो ।
नेकी करो, अच्छे रहो, सुखदुः:ख दोनों भी सहो।।
जिससे मिलो वह हमारा, यह समझ दिल में रखो ।
तर जाओगे, तर जाओगे, यह बात फिर-फिरसे सिखो ।।

१५४० 
इन्सान बनकर क्यों नहीं, रहते हमारे देश में?।
नाहक धरम के नाम पर, खाते फुकट पडे भेष में।।
काषायधारी,* या विरागी ही प्रभू के भक्त है?।
जो कष्ट करते सतनियत्‌, वे क्या नहीं अनुरक्त है।।


१५४१
हो कार्य जीवन के सभी, सत्‌कार्य ही है मनना।
श्रद्धा पकडकर ही सदा, उस कार्य को पहिचानना।
जिस कार्य से बदनाम हो, ऐसा न करना कार्य है।
व्यष्टी-समष्टी साक्ष हो, वह कार्य ही अनिवार्य है।।

१५४२
भगवान भक्तों के सदा, सत्‌कार्य ही है देखता।
उसि पर भगत की मान्यता, और है सभी कुछ भक्त ता।।
सत्‌कार्य जब ही नष्ट हो, तब तो भगत राक्षस लने।
इन्सान भी रहता नहीं, ऐसे उदाहरण है जुने*॥

इन्सान ही सब कुछ

१५४३
इन्सान का मुख चमकता, कारण उसीका कार्य है।
उसके बचन में ओज* है, कारण उसीका शौर्य है।।
उसके हि हाथों लक्ष्मी है, कारण भरा औदार्य है।
उसके चरण मंगल करें, कारण वह सत्‌का सूर्य है॥

१५४४
इन्सान ही है देवता, जो सत्य-पथपर चल गया।
इन्सान ही साधू बने, जब संयमी मनको किया।॥।
इन्सान ही वह वीर है, जो ना करे अन्याय को।
इन्सान वह इन्सान है, जो खोजता सदुपाय को ।।

१५४५
इन्सान में भगवान में, कोई .फरक रहता नहीं।
भगवोन की पूरी चमक, इन्सान ही पाता. सही।।
अवतार उसिका नाम है, भगवान का ही काम है।
भगवान की शक्‍ती औ युक्‍्ती का वही एक धाम है।।


१५४६
इंसान में गुण और अब की सभी दृष्टी भरी ।
लाखो तरहा पशु पश्षि की, नर-प्रकृती की हैं धरी !!
सुन्दर बगीचा, हर तरह उद्योग, संगित, नृत्य है।
इनसान हीं सब कर सके, जो चाहता वह कृत्य है ॥

उपकारी नेता का चुनाव

१५४७.
उपकार का फल नहिं मिलेगा, जानकर उपकार हो |
उपकार ही फल है हमारा, और क्या सुविचार हो ? ॥।
उपकार गर करना है तो, यहि मानकर कर जाईए ।
फल हो, न हो, सोचो नहीं बेपार मत फैलाइए ॥

१५४८
हमने कियाजब आ गया,तब जो किया, सो बह गया ।
 खाली अहें ही बढ गया, फल हाथ में ना रह गया ॥
 होना अगर अभिमान तो, आगे भी करने का रहे ।
उपकार मेरा फर्ज है, आत्मा यही हरदम कहे ॥

१५४९
उपकार करने की जिसे, सद्भावना करूणा रहे ।
उन्नत है किसकी आतमा, वहि तो करे उपकार है ॥
जो नीच है, उपकार क्‍या ? करते न देखेगा उसे ।
बनके बने रोडा, न हो उपकार , कह देगा उसे ॥

१५५०
घर लूट ले कोई जो किसिकी आतमा में आ गया ।
करूणा-दया ने घर किया, जो चोर मन साधू भया ।।
फिर तो सभी घर आपने, कहने में डर उसको नहीं ।
सबका हि हित हो यह बचन,हर स्वाँस में बोले सही ।।


१५५१
अपना हि घर जिसको दिखे,वह क्या किसीका हित करे? ।
नेता वहीं यदि बन गया, फिर तो प्रजा नाहक मरे।।
ऐसी समझ जब तक न हो, जन-जागरण कैसे बने ? ।
निस्पृह नेता जब चुने, कलिकाल में सतजुग बने ।।

१५५२
हमको चुनो, हमको चुनो, पागलसरीखा बोलना।
उसको चुनो ,उसको चुनो यह भेद क्यों नहिं खोलना ? ।|
जो है खडा बाजार में, घर फूककर अपना चला।
नेता वही, साधू वही, सज्जन वही समझो भला॥

१५५३ 
मैंने सुनी घंटी बडे बाजार में किसि नाम की।
हम हैं वही जो कर सकें, सेवा जगत्‌ के काम की ॥
मैं पूछता हूँ, क्या तुम्हारा, नाम किसिको याद है? ।
फिर तुम हि क्यों खुद कह चले,आबाद है बरबाद है॥

१५५४
लायक हूँ में जनता कहे,तुम क्यों खुदी चिल्ला रहे? ।
सेवा हि करते जाइए, तब नाम की धारा बहे।।
तुम तो खुदी के नाम पर, बिन कार्य के रहते खड़े है।
कैसे चलाओगे यह रथ* ? चुनके भी गर आये बडे॥

योग, तप से मृत्यु पर विजय

१५५५
भगवान ही सब कुछ कराता, हम कहाँ के? खाक है।
मैं-मैं किया पर कुछ नहीं, ऐसे हि मरते लाख है।।
भगवान के दिल से चले, तब पंगु भी गिरिवर चढे।
बंदर भि लंका जीत लें, गूँगे भि बेदों को पढे।।


१५५६
कितना किया है तप? अगर, तुम मृत्यु बस में चाहते ।
क्या सिर्फ भीष्माचार्य की पोथी हिं पढ़ना चाहते ? ॥।
वह योगि था, था देवव्रती, था ब्रह्मचर्यो* से पूरा।
इच्छामरण करके मिला, बिरलाद ही है दूसरा।।

१५५७
जिसने न मन पर काबु कर, विजयी करा दी आतमा।
वह मृत्यु कैसे बस करे ? गर पाप ही होगा जमा।।
निर्भय अटल श्रद्धा जिन्होंने, प्राप्त कर ली संत से।
वे मृत्यु से भी डर नहीं सकते हैं, खेलें अंत से।।

१५५८
अब तुम भले ही चित्र या चारित्र को सजवा सको।
पर बात सच्ची है यही, ना पा सको, ना गा सको।।
जिसकी लगन प्रभु से लगी, उसकी न बोली बात हैं।
ना अंग है, ना रंग है, ना भेष, अरू ना जात है।।

१५५९
अजि! योग को क्यो ढूँढते ? तुम भी तो योगी ही रहे।
बिन योग के नहिं भोग मिलता, जो कोई भी ले चहे।।
है सिर्फ अनुसंधान की, प्रीती समझ में आयगी।
तब आत्मदृष्ठी पायगी, विषयांधता जब जायगी।।

१५६०
क्या चोर चोरी के लिए, उल्टी नजर करता कभी ?।
क्या जिन्दगी के वासते, अभ्यास करते हैं सभी ?॥
फिर भक्ति-मुक्ति हि के लिए,क्योंकर रहे यह हट्ट है? ।
बुद्धीं समझ जब जायगी, अनुभव मिलेगा पट्ट है।।

१५६१
कितनी जलाते अगरबत्ति, सुवास कैसे आयगा?।
गर ना हटायी गंदगी, तब क्या उसे फल पायगा ? ।।
वैसे तिरथ गंगा औ जमुना, न्हाओगे तो कया हुआ ?।
मन-मैंल जब धोया नहीं, क्या पुण्य है उसके सिवा ? ॥


१५६२
झट के उठे, पट के चले, सोचा नहीं कुछ काम है।
चल भी गये हो मजल पर, कुछ रह गया सामान है।।
यह हड्डि का बेबूध पुतला, गर कहीं ले जाओगे।
बिन प्रेम के, या ज्ञान के, केसा नतीजा* पाओगे ? ।।

१५६३
मरना ही है तो मर भले, पर साथ तो कुछ कर चलो |
ईमान जाहिर कर चलो, खूले बचन सिर धर चलो ।।
यह आदमी अच्छा हि था ,इतना तो जनता कह सके ।
ऐसा करो उपकार चाहे, फिर भले ही मर सके ॥

१५६४
है यार ! ऐसे भी कई, जनता कहे क्यों ना मरे ! |
वे जो भि कुछ बोलें-चलें, सब में बुराई ही भरें ॥।
हो गंदगी जैसे कहीं, देगी सुगंध न लेश भी।
वैसा उपद्रवि आदमी, किसिको सुखी न करे कभी ।।

भगवान और आँख

१५६५
इन्सान की आशा कहाँ तक, दम पकडती है भला ?।
जब अंत ही होने लगा, तब तो कहेगा वह खुला ।।
वैसी हमारी आँख तुझको, देखने को है खड़ी।
गर इस जनम में ना मिले,तब सोचने की क्या पडी ? ॥

१५६६
इस आँख से चाहे न देखें, पर समज में आ गया।
तू सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है, इसका पता भी पा गया ।।
इतना निकट है तू हमारे दूसरा कुछ भी नहीं।
हम चाहते नहिं ऐक्य हो,फिर तो मजा ही क्या रही ? ।।


१५६७
जो है सभी तूही भरा, इतना हमें पाया पता |
पर आँख नहिं पलटी पुरी, मैं इसलिए हूँ खोजता ।।
जिस दिन मिटेगा मैं व तू , सब एकही हो जायगा |
आनंद ही रह जायगा ! आनंद ही रह जायगा! ! ॥

साधुजनो ! सावधान ! !

१५६८
देखूँ तुम्हारी पोतडी में, क्या छुपा सामान है? ।
आसक्ति का पूरा खजाना, और दंभ महान है ।।
इसको जलाकर जब तलक, तुम शुद्ध ना बन जाओगे ।
तब तक सभी संसार में, आनंद तुम ना पाओगे ।।

१५६९
तारीफ कितनी भी करो, तो मूर्खता क्या जायगी ? ।
चाहे पिलाओ दूध, नागिन शांति क्या बतलायगी ? ॥
वैसे हि जो है शूर, रण से क्या कभी हट जायगा? ।
जो साधु है वह लोभ में, क्योंकर कहाँ फैंस जायगा ? ।।

१५७०
हर आदमी अपनी पड़ी, आदत से ही लाचार है ।
वह छूटना मुश्कील है, चाहे करे व्यवहार है ॥
यह समझकर ही जो कोई, उससे करे पहिंचान है ।
तब तो बडी मुश्क़ील से, वह तार लेगा जान है ।।

१५७१
घर-घर घुमो, सबसे पुछो, तुम धर्म कैसा मानते ? ।
क्या चिन्ह है घर में कोई, जो लोग तुमको जानते ? ॥
तुम तो इंधर के, ना उधर के, बीच में मर जाओगे।
 गर धर्म नहिं समझोगें तब तो, पार क्‍यों लग पाओगे ॥


१५७२
लाखों गुरू और सन्त हैं, जाओ उधर दिखते सदा।
फिर भी तो भारत की दिनोदिन, बढ रही है आपदा।।
कारण है इसका एक ही, सब सन्त मन्दिर में अडे |
जाते नहीं घर-घर कोई, तब धर्म किस कारण खढे ? ।।

१५७३
मैंने किये बहु यत्न, कुछ तो मुर्ख को अच्छा करूँ।
पर आज तक का फल मिला,किसको बतावूँ, या धरूँ ? ।।
जितने मिले, खाये -पिये, मुझको हि मूर्ख बना गये।
मैं हाथ मलते रह गया, वह सर पे हाथ घुमा गये।।

राष्ट्रीय हथकण्डों से बचो |

१५७४
दुर्भाग्य है इस देश का, उलटा हि सब कुछ हो रहा।
नहिं मेल अपने आप में, शत्रू इसे बहका रहा।।
प्रादेश बनवाये कि अपने, आपकी हो उन्नति।
पर अब नजर आने लगा, बेछूट है इनकी मति।।

१५७५
पहिले सुना, भाषा हो अपने प्रांत की, समझें सभी।
फिर के सुना, पर प्रान्त में, कुछ नाज ना जावे कभी ।।
अब तो सुना, गैया, जनावर, आदमी जावे नहीं।
क्या है दशा इस देशकी, मेरी समझ आवे नही।।

१५७६
बाहर बताकर मित्रता, अंदर जहर को फेंकना।
यह तो है शत्रु से भि बढकर, आग घर में झोंकना।।
ऐसे जहाँ पर लोक है, क्षण एक भी न पचाइए।
 धोखा भी हो तो साफ हो, पर आग मत घर लाइए।।


१५७७
है क्षुद्र जिनकी बुद्धि ही, वह पूजकर जाती नहीं।
चाहे उन्हें धन, माल दो, आदत न जाती है कहीं ।।
ऐसे हशारों को सदा, अपनी निगाहों में रखो |
मालुम नहीं किस दिन बिगाडे, यह हुशारी ही सिखो ।।

१५७८
सब ही रहे अपनी जगह, जिसकी जहाँ जरूरत सही |
मारो नहीं किसि जान को, होना व्यवस्था ठीक ही।।
उपयोग करना चाहिए, हर चीज का, हर जान का ।
यह तो धरम कहते बडे, गोरव बढ़े गुणग्यान का ।।

१५७९
प्रिय भावुको ! श्रद्धा तुम्हारी, काम लगनी चाहिए।
यह देश ऊँचा हो, यहाँ इन्सानि बढनी चाहिए।।
घुसखोरि, काली कारवाही, नष्ट हो, यह स्पष्ट हो।
तब ही सफलता पायगी, मिट जायेंगे सब कष्ट हो।।

१५८०
मैं मुर्ख हैं यह जब तलक, नहिं पायगा अपना पता |
तब तक नहीं सत्ग्यान का, निर्माण होगा तत्वता।।
जब ग्यानदीपक जल गया, तब फेर अंधियारा नहीं ।
चारों तरफ है ग्यान ही, सुखदुः:ख दोनों भी नहीं।।

१५८१
करते हो तो पूरा करो, परमार्थ, या संसार भी।
आधा इधर, आधा उधर, हो तो, न पावे सार भी ।।
गर भक्ति प्रभु की ही करो,तब ख्याल क्यों हो जाल में।
निर्भय रहो, निष्ठा रखो, धोखा न फिर कलिकाल में ।।

१५८२
हर रोज ही करता हूँ मैं, यह काल बदला जा रहा।
हर बात में दिखता फरक, कुछ आज भी तो हो रहा।।
आगे जमाना आयगा, निश्चित वही अच्छा रहे।
जब तक सहन करना है यह, भारत यहाँ सच्चा रहे।।


शासक, साधु और हिन्दू धर्म

१५८३
कवडी नहीं है पात्रता, और मान राजा का मिले।
यह चाहनेवाला तो पागल ही, कहा जावे भले ।।
जनजागृती इसके लिए, भरपूर होनी चाहिए।
लायक नहीं तो चल पिछे , यह बोलकर समझाइए ||

१५८४
क्या देश के सब मूल्य ही, बदले यहाँ पर जायेंगे? ।
ऐसा हि लगता है मुझे, नहिं तो कोई बतलायेंगे ।।
जो थे पुराने धर्म, औ थी धर्म की सदुपासना |
सब ही खंतम होने लगे, जो है उसे करते मना ॥

१५८५
ना सर पे पगड़ी भी रही, टोपी नहीं, फेटा नहीं।
चंदन लगाने की शरम, माला न, चोटी है कहीं ।।
मुख में न आता राम कभि,आदर न किसिका कर सके |
वाह रे! जमाना हिन्दुओं का, देश कैसे तर सके ? ॥

१५८६
घर में थी तसबीरें पुरानी, संत की, अवतार की।
खो दी सभी इस पुत्र ने, खाली सिनेनट की रखी ।।
हर रोज उनको देखकर ही, थिरकता और नाचता।
साहब बना फिरता और मदिरा के लिए घर बेचता ।।

१५८७
लिखते रहो, पढ़ते रहो, फिर भी न होता काम है।
जब तक न वैसा आचरों, सब ही बने बेकाम है।।
लिखना और पंढना तो सही, पर हद इसकी चाहिए |
ऐसा न॑ हो सब देश डूबे, आप लिखते जाइए.।।

१५८८
नेता ही सब बन जायेंगे, तब काम करने कौन है? ।
सब साधू ही बनने लगे, तब कौंन सेवक भी रहें ॥
हमको तो श्रम करता और कहता ,वह हि नेता चाहिए ।
घर-घर घुमे, जनता जगावे, सो साधु ही बताइए!।।


१५८९
शासक धरम का गुरू बने,फिर गुरू को क्या उद्योग है? ।
उसने चलाना हल कहीं, या खेती करना योग्य है ॥
ऐसा ही हो, तो. स्पष्ट हो, फिर भूल में नहिं जाओगे |
पर एक भी नहिं कर सकें तो, बीच में मर जाओगे ॥

१५९०
डंडे फरासी से नहीं, शासक बने, साधू बने ।
वह तो बने कर्तव्य: से, और ग्यान से दोनों बने ॥
जैसी हो जिसकी योग्यता, वैसा ही उसको मान हो ।
और आततायी जो करे, उसकी सजा का ध्यान हो ॥

१५९१
बंगला हमारा साफ हो, मंदीर चाहे हो सुना।
दीपक छगे घर में मेरे, अंधियार* मंदर में बना ॥
सारा धरम मिट जाय पर, यह शान मेरी जाये ना ।
हिन्दू धरम का नाम है, पर गैर का चेला बना ॥

१५९२
है धर्म. की नीती सदा, कर्तव्य पर आरूढ हो ।
जिसको न समझे ग्यान उसको, साथ दो, यदि मूढ हो ॥
तन-मन और धन की,साफ सुधरी राह हो,उत्साह हो ।
सेवा करे निष्काम जब तक दम हो,बल की बाह" हो ॥

मन मारकर हो जा अमर


१५९३
जंग-जंग पछाड़ा यत्न करके,फिरभि ना मन सुन गया।
चाहें उसे मंदीर में और तीरथों में ले गया।। 
उसके लिए तो एक ही, पायी दवा है आखरी।
सत्‌ संग हो, बैराग हो, अभ्यास हो बाणी खरी।।


१५९४
तू मर गया तो क्या हुआ ? मन-बुद्धि तो है नाचती |
यह सूक्ष्म देही लेके फिर भी, जन्मकां उल्हासती ||
मरना हि है तो मन और बुद्धि, वासना को ले मरो।
फिर से जनम नहिं पायगा, साधन कोई ऐसा करो ||

१५९५
गर अमर होना है तुझे, तब तो धरम से चल गड़ी! |
नहिं तो खुशी से शौक कर, विषयों में डूबे हर घड़ी ||
क्या श्वान-सूकर की कमी है ? काम तेरा बॉट दे।
तू राम का सुमरण करे, सारे व्यसन उच्चाट दे।।

धर्म और अर्थ का र्हास


१५९६
संसार से तंग हो गयी, जनता बडी दु:खी हुई।
हर घर मची बेबुद्धशाही, शांति तो दिखिती नहीं ।।
इसकी कमी, उसकी कमी ,सब कुछ कमी ही पड गया |
जब पेट ही भरता नहीं, माँ-बाप-बेटा लड़ गया ।।

१५९७
देखो जहाँ झंझट हि है, शांती जरा दिखती नहीं।
घर-घर मची धुमधाम सारी, बात बेबस* हो रही।।
देखो जहाँ पैसा हि माँगे, धन बिना मुँह बंद है।
आदर नहीं मिलता कहीं, सारी हि अंदाधूंद है॥

१५९८
दुःख की शरम की बात है ! सारा जमाना रो रहा।
आमद नहीं खर्चा बढा, आगे भि बढता जा रहा॥
कब तक सहेगा आदमी ? जब पेट भी भरता नहीं।
भगवान ! तूने क्या समय लाया ? जरा सुझता नहीं |


१५९९
इस पेंट के खातीर ही, सब धर्म छोड़े जा रहे ।
जो प्रेम करता पास लेता, उसहिकों अपना कहे ।।
इस काम में लाखों इसाई, धन और मन देने लगे ।
पर हिंदुओं के साधु तो, दिखते नहीं आगे जगे ||

१६००
हर जात ऊन्नत होयगी, तब तो उठेगा देश यह |
इसके लिए करना हि होगा, संघटित सबका समुह ॥
हर कौम का हों लक्ष्य, अपने देश का और धर्म का |
रोड़ा न बनने जाय, फल जो मैं बड़ा इस भर्म* का ||

१६०१
किसकों पड़ी है धर्म की और देश की,भगवान की? |
अपना हि उल्लू हो खडा* बस फिक्र है इस बात की ||
स्वार्थी है जिनकी बुद्धियाँ,वे क्या चलावे राज को? |
शत्रू भी उनके मित्र है, छोड़े गये सब लाज को ॥

१६०२
जो देश को बरबाद करना भी समझते धर्म हैं।
पर हम न सत्ता छोड़ते, ऐसा हि जिनका वम्र है ।।
इनको अगर जनता हि सीधा कर सके तो कर भले ।
अवघड़* बना यह कार्य बिन भगवान के ना बस चले ||

१६०३
वाहरे! शहर क्या कह रहे ? लखलूट है सब झूठ की ।
हैं चोर पर भी मोर पाते, छूट अपने गुट्टू की ॥
घर-घर किसानों के यहाँ से, माल लूटा जा रहा।
दाना नहीं उसके यहाँ, वह हाय तोबा ! रो रहा ॥

१६०४
चिल्लायगा उसका भला, शांती रखें, वह मर गया।
कुछ संघटन हो, तर गया, यदि हो अकेला, हर गया ॥
धनवान को उल्लू बनाकर, कुछ घडी दे मान है।
जबतक न गुंडा हो कोई, बचती नहीं अब जान है।।


१६०५
बीती - बीतायी है हमी पर, हाँ कहे पर ना करे।
विश्वास दे करके गला काटे, सदा धमका करे ।।
शासक भी उनका साथ देकर ही भरेगा जेब है।
भगवान ! तेरे बिन यहाँ, सत्‌ काम सब गायब रहे।।

१६०६
हाँ - हाँ, नतीजा हमसे पूछो, क्या यहाँ हो जायगा ? |
आपस में कट मरना हि है, कोई नहीं सुन पायगा ।।
मजदूर गरिबो का बुरा है, हाल जब. देहात में।
बिगडे हूऐ अनके ही दिल, क्रांती केरेंगे बाद में।।

१६०७

सल्ला मसरा तुम करो, पर अन्न तो सबको हि दो |
उस पर गदा जब आ रही,झगडा हि फिर तो मोल लो ॥
भूखा न कर बैठे कहीं डाका और चोरी पेट को |
अब तो रहा थोडा समय, छोडो सभी इस ऐंठ को ॥।

सभी धमों से मेरा नाता !

१६०८
मिलता हूं मै सब धर्मवालों से, मेरा दिल साफ हैं ।
मैं जानता हूँ कि, प्रभू सबका करे इन्साफ है ॥
झूठा न हो कोई प्रचारक, धर्म-निंदा जो करे ।
सबको सिखावे प्रेम निर्मल, सत्य की सेवा करे ॥

१६०९
इस्लाम, ईसा, बुद्ध, हिंदू, जैन, सिख चाहे रहे ।
पर एकसम साथी समझकर, हम सभी से ही कहे- ॥
झूठे न हो धन के लिए, मन के लिए भी साफ हो।
सेवा करो सत नाम से, सारे करो जप जाप हो।।


धनवानों ! मन की आँख खोलो 

१६१०
भूखा तडपता आदमी, तुम अन्न को नहिं बाँटते |
खाली अदालत में बसे, और बात लंबी छॉटते ||
प्यारे ऐ भारतवासियों !, समझो अभी क्या काम है |
फिर के लड़ेंगे कायदा करने, बचे गौ-जान है ||

१६११
वाहवाह! तुम्हारी शादियाँ,कितना भी हो संकट पडा |
पर शान जाती ही नहीं, ना काम थोड़ा भी अडा ॥
मेरी समझ से खर्च करना कम, और देना दान है ।
भूखे पड़े जो लोग, उनकी ही दुआ बेदाम है ॥।

१६१२
हैं धन तुम्हारे पास तो, खर्चा करोगे शौक से ।
सोचो नहीं गर बात यह, कितने हैं मरते भूख से ॥
तब तो तुम्हारे पर भी जब संकट धडक कर आयगा ।
नहिं साथ दें, जब लोग तो, कैसा नतीजा होयगा ? ॥

१६१३
तुम आततायी बनके माँगो, जो उचित-अनुचीत है |
उसका मिलेगा फल अभी, पर समय जावे बीत है ॥
एक शक्ति ऐसी आयगी, सब एक ही होना पडे |
भारत के टुकडे ना करो, नहिं तो पडोगे जो चढे ॥

१६१४
देहातियों को लूटकर, धन क्यों बढ़ाते शहर को? |
उनको नहीं घर-खेत हैं, जो है न पुरता बसर* को ॥।
लाखों धनी बनके यहाँ, कंगाल देहाती किये |
एक दिन वही आ जायगा, वे नहिं रहें बदला लिये ॥


सत्संग और प्रभरूप का आनंद

१६१५
दरबार पूरा भर गया, सत्संग भी होने लगा ।
ऐसे भी इसमें हैं कई, जिनका नहीं दिल ही लगा ।।
है ख्याल उनका चोरीयां में, जारियां* में ही जगा ।
सत्संग बिचारा क्या करे ? शैतान होकर मन भगा।।

१६१६
व्यवहार से मन ऊब गया, बैराग में ही डूब गया।
भाते नहीं घर - पुत्र,स्त्री, अब सब प्रलोभन छुप गया ||
है अब रहा सतसंग जिसकी, आस भारी है लगी ।
ऐसे समय सद्गुरु मिलें, तब आत्म-ज्योती ही जगी ।।

१६१७
है अंत और आरंभ की, एकी छटा तो दिख रही ।
तब दु:ख क्या, आनंद क्या ? दोनों बराबर ही सही ||
जब बाल -यौवन वृद्ध रूप में, बादलों के दल चले |
तब छल्-बिछल* होता है जीवन,ग्यान यहि होना भले ||

१६१८
हर रंग की ऊठी छटा, उसमें चमक है, तेज है।
मन भौर होता देखकर, लगता बिछायी सेज हैं।।
पर कौन लीला करने आवे, ग्यान इसमें है नहीं |
बिजली चमक कर बोलती - मैं हूँ सभी ,सब हूँ मही ।।

१६्१९
 विकराल रूप भी है तुम्हार, हम सदा से जानते |
इसके लिए डरते नही, हम प्रेम से ही छानते ।।
नीलाबरों के वस्त्र में, जब तारका शोभा करे ।
तब चंद्र के रूप में, हम दर्श की सुषमा स्मरे।।

१६२०
यदि क्रोध का भी रूप हो, है मूल तो भी एक ही।
आनंद के आस्वाद में, बदले नही व्यक्ती काही।।
ऐसे प्रभू के रूप नाना, वेष लेकर छा गये।
पाहिचान होने से हमे, लगते नही आये नये।।


१६२१
 अजि! तुम भले बदलोगे सुरत, पार है मुरात तो वही।
कहिं गुंड हो, कही ठंड हो, कहिं लदिफंदि भी सही ।।
हम तों तुम्हारां मूल ही देखें, उसी पर खुश रहे।
आत्मा तुम्हारा शुद्ध है, आनंद है ! यहिं बस रहे।।

१६२२ 
जैसा तुम्हारा ठाठ है, वैसी ही उसकी बाट हैं !
सुख है भले, दुख भी तो है, सारे ही कर्म अचाट है।।
जब खेल सब मिट जायगा, तब तो पता लग जायगा।
मै शुद्ध हूं, आनंद हूं, ऐसा अनूभव आयगा।!

१६२३
वन-पर्वतों का रूप लेकर, तू हि तो यहाँ स्थीर है।
कहिं व्याघ्र-सिंह भी बनके उनमें, खेलता बनबीर है ।।
घन -गर्जना कर गुँजता, है नाद भेरी सा कहीं ।
मैं जानता हूं है तेरी, लीला हि सबमें हो रही ।।

१६२४
हैं कौन शौकिन जो तेरे, इस शौक की बाजी करे? ।
है चित्रकार हि कौन तेरी, लेखनी से भी परे? ॥
है कौन शक्‍ती भी भयानक, तुझसमान दिखायगा? ।
बस तू हि है, बस तू हि है,सब कर अलग रह पायगा।।

१६२५
हम बूंद है पर है वही, सागर हि जिसका नाम है।
हम दीप हैं पर हैं वही, सुरज का तेज तमाम है।।
हम देह हैं पर हैं वही, सारा हिमालय छा गया।
हम पिंड हैं पर हैं वही, ब्रह्मांड विश्व बना गया।।


समाजवाद की और


१६२६
यह क्या पुरानी बात लिखकर, सर गरम करने लगे ?।
प्यारे हो ! अब तो मूल्य बदले, सो नजर आने लगे।।
सब पापपुण्य और धर्म-बंधन, तोडकर आगे बढे।
बस देश ही अच्छा सुखी हो, इस समझ में हैं खडे॥

१६२७
अजि ! एक था ऐसा जमाना, चोरि करना पाप था।
संग्रह न था धन का, तभी तो चोर ना संताप था।।
अब लूटकर जब धन जमाते, नाज रखते लाख है।
भूखों मरेंगे कया कोई ? जाकर लगाते थाक* है।।

१६२८
ऐ शासकों ! तुम काम दे दो पर न भुखों मारना।
यह है तुम्हारा फर्ज, सबको तारना आओ सुधारना।।
गर राज में हो भुखमरी तो, खुद को दोषी मान लो।
सेवा करोगे सत्य से, तब शुभ हुआ पहिचान लो।।

१६२९
लाखों करोडों हाथ से, क्या हो नहीं सकता यहाँ ?।
पर ठीक नीयत की जरूरत, होती है सब की यहाँ।।
मूँह मोडकर गर आदमी, आलस्य ही करता रहे।
तब कोन पाले औ सम्हाले ? चाहे वह मरता रहे।।

१६३०
हर किस्म के, रस्म के, हर धर्म के है आदमी। 
हर जात के, हर बात के, हर पंथ के हैं आदमी॥
हर पाप के, संताप के, जप जाप के हैं आदमी ।
मैं प्रेम ही करता रहा, उसमें न पड़ने दी कमी ।।

१६३१
सुख दुःख अपने बोलकर,हलका किया करते है दिल।
उनको भरोसा हे मेरा, जाता हूँ मैं सबमें हि मिल।।
होना न होना जो भि हो, भगवान के आधीन है।
पर प्रेमियों के दिल में लगता, भक्त के स्वाधीन है।।


संसार और सत्संग

१६३२
मद-मोह की गादी है यह, संसार इसका नाम है।
मिलना मिलाना कुछ नहीं, सब काम ही बेकाम है।।
आसा लगाये जग रहे, अब सौख्य फिर-फिर कब मिले ? ।
आसक्ति जब तक ना टुटे,ना यह मिले,ना वह मिले।।

१६३३
संसार पहिले छूटता, माँ -बाप होते जागते।
छोटे ही पन से धर्म के, बैराग के पथ सौपते।।
पर क्या करें? वे चाहते, बालक भि हम जैसा बने।
शादी करें, बच्चे करें, हमको सहायक ही बने।।

१६३४
कुछ भी बिगडता था नहीं, सत्संग अच्छा लाभता।
ससार भी करता भला, और भक्ति सुख भी साधता।।
पर क्या करें ?जो कुछ मिला,व्यसनी जनों का फाँस है।
हरदम विषय के दास है, और ग्यान का सब नाश है।।

१६३५
अच्छा तो चाहते है सभी, पर काम अच्छा है नहीं।
तब तो बने अच्छा कहाँ ? अच्छा न दिल होगा सही।।
यह जिसके दिलमें आ गया और अच्छी संगत पा गया।
पूरा जनम सुधरा उसीका, संत का संग भा गया।।

विद्याभ्यास तथा आदर्श जीवन

१६३६
सीखा मगर उपयोग नहिं करता, उसे नहिं लाभ है।
किस काम की विद्या रही, जब जिंदगी बेकाम है? ।।
सादा-सिथा अनपढ भि है, पर है सदाचारी गड़ी।
उपकार करता हर घड़ी, यहि जानिए विद्या बडी।।


१६३७
सीखो मगर उपयोग भी कर लो, सदाचारी बनो।
आदर्श का परिचय भी दो, झूठे घमंडी ना बनो||
विद्या नहीं हो सिर्फ अपने पेट ही के काम की।
विद्या, विनय, संपन्नता, है साक्ष भी निज धाम की ।।

१६३८,
खाली किया अभ्यास पर, नहिं प्रेम ना आत्मीयता।
अभ्यास नहिं वह जानना, है देह की भारी व्यथा ॥
यदि बोलने को ही बड़ा, अभ्यास है, चिंतन नहीं ।
किस काम का वह आदमी ? अपने लिए कुछ भी नहीं ।।

१६३९
जग जाइए, लग जाइए, अभ्यास करने के लिए।
सूरज डुबा, अब जा रहा, थोडे हि दिन तो हैं रहे।।
 अंधियार जब छा जायगा, तब क्या करोगे उन्नति ? ।
बाकी बची जो आयु है, अब सीख लो कुछ सन्मति ॥

१६४०
मेरा अलग अभ्यास है, मन का अलग अभ्यास है ।
जब मेल ही मिलता नहीं, तब समय का ही नाश है।।
अभ्यास उसका नाम है, मन-इंद्रियों का मेल हो।
आदर्श हो व्यवहार तो, सारा हि सुन्दर खेल हो।।

१६४१
पोथी पढी, गीता पढ़ी, सब पढ़ लिये हैं वेद भी ।
लादा भराभर बोझ, नहिं कुछ कार्य की उम्मीद भी ।।
पढना हि जिसका शौक है, बोझा लिये फिरता यहाँ ।
कुछ काम का नहिं देश के, है मान लो पशु ही रहा ।।

१६४२
अजि! बिन पढ़े रहना नहीं,और बिन किये बहना नहीं।
दोनों पर बराबर चाहिए, तब कीर्ति बढती है सही ॥
हम तो अनुभव -पात्र को ही, मान्यता देते सदा।
खाली पढ़ा तो क्या हुआ ? है बोझ बहने का गधा |


अधर्मकाल की बाजीगरी

१६४३
मँझधार बहती जोर से, वैसा समय है पाप का।
रोका न जाता वेग यह, अग्नी जले संताप का।।
शांती कहाँ से आयगी, इंद्रीय लोलुप के लिए? |
हो धर्म की ही बाग तब तो,. लोग ये सारे जिये ||

१६४४
कभि धर्म की वृद्धी रहे, कभि भोग सत्ता की बढे |
दोनों भि हों एकी जगह, तब देश उन्नति पे चढे।।
अब तो धरम की बाह ही, लकवा हुआ, ढीली पड़ी।
यह धुंध सत्ता की चढी, है काल की ऐसी घडी।|

१६४५
हैदोस है इस जिन्दगी का, बाजिगर ने कर दिया।
शैतान सत्ता में चढा, मदिरा का हंडा भर दिया ||
व्यभिचार की बन्सी बजी, सब लोग उसमें नाचते |
सद्धर्मि तो बंदर बने, मन के हि मन वे खाँसते | |

आनंदघन गुरुदेव !

१६४७
लाली चढी है लालकी, बुद्धी नहीं कंगालकी।
आशा न किसि जंजाल* की ,आयी नशा सतख्यालकी ।।
जीयें -मरें पर्वा नहीं, आत्मा हमेशा मस्त है।
आनंदघन गुरूदेव ही, हृदयस्थ है ! हृदयस्थ है! !।।

१६४७
है स्वस्त इतना माल फिरभी, क्या खरीदोगे नहीं? |
नजदीक से नजदीक है, फिरभी न देखोगे कहीं?।।
मृगजल भरा संसार यह, चाखो रहोगे त्रस्त है।
आनंदघन गुरूदेव ही, हृदयस्थ है ! हृदयस्थ है! !।।


१६४८
क्यों साधना करके कहीं घिसते हो देह औ इंद्रियाँ ? ।
मनमें नहीं क्षपता* भरी, वह दिमपे दिन चंचल किया ।।
अभिमान को सिरपे चढाकर, जो किया सब व्यर्थ है।
गुरूदेवकी सेवा करो, तब पाओगे कुछ अर्थ है।।

संसार में सुखका मूलमंत्र

१६४९
सब बात लेकरके पुरानी, काम यहाँपर लाओगे।
इस आजके बदले जमानेको, कहाँ सिखलाओगे? ||  
सब मूल्य बदले पाप के और पुण्यके, गुणधर्म के।
सिद्धांत है जीओ जिलाओ साथि हो इस वर्म के।। 

१६५०
भागों नहीं संसारसे, त्यागों नहीं व्यवहार को। 
जागो सदाही आत्म में, काटो सदा मँझधार को।।
सच्चे रहो अच्छे रहो, मिलके रहो समुदाय से। 
निरलेप रहकर भोगलो, आनंद सुख सदुपाय से ॥

१५५१
दुनियामें दुनिया लाख हैं, बल्के उसीसे है अधिक।
तू ढूँढते रह जायगा, क्यों दौडता प्यारे पथिक ? ।
अपनी हि दुनिया देखकर, आनंद उपभोगो यहाँ।
बूरा न करना काम कुछ, पावे पता जहाँके तहाँ


मेरा सार्थक किसमें

१६५२
यह आजका दिन कर नहीं ,कलका न दिन फिरसे मिले |
ऐसे हजारों दिन चले, बेकार ही फुलें -फले।|
हम चाहते वह ना मिला,मानख - जनम किस कामका ? |
सार्थक नहीं होगा मेरा, जब दर्श ना हो रामका ।।

१६५३
बंदर बनाकर ही मुझे, संसारमें घुमवा दिया।
लाखों करोड़ों से मिला, पर साच एक न पा लिया ||
मैं चाहता कोई मिलें, पर सत्यकों ही दे मुझे |
गुरूदेव ही ऐसा मिला, कहे सत्य देता हूँ तुझे ।।

१६५४
अजि! क्या करूँ धन पास लेकर ?चोरकी होंगी निगा |
और क्या करूँ ताकत बढ़ाकर ? इंद्रियोंसे हो दगा ||
वह क्या करूँ विद्याभी पढकर ? यदि बढ़े अभीमान है।
अभिमान से न्यारा रहू, पावे मेरा भगवान है ।।


सन्तति नियमन करो


१६५५
झगडा लिया है मोल मैंने, सब अडोस-पडोस से |
कितने किये है पुत्र तुमने ? सोचलों संतोष से ।।
हो एक अधवा दो भले, पर अधिक ना पैदा करो ।
 नहिं तो सभी जिंदगी में अपनी, भुखे हि रोते फिरों ॥

१६५६
कितना बढा जाता है कल भारत, सालमें हि करोड से |
इतनी नहीं है भूमी इसकी, गर मिलावे जोड से।।
इसके लिये ही कह रहा हूं, रोकिये संतान को।
बस एक दो ही पुत्र हो, कुलदीप सुख दे जानको।।


१६५७
जादा बनकर व्याप सब, संताप ही होता खडा।
दाना नहीं घरमें रहा, अफसोस होता है बडा।।
एक स्त्री औ दोनों पुत्र इनको ही निभाना दिव्य है।
तब अष्ट पुत्रा भव कहे, यह आज तो अपसव्य है ॥

धन्य है वे शिष्य !


१६५८,
अजि ! सन्तकी पूरी तपस्या, सन्त के ही बाद है ।
जो भक्त उनके हैं सही, वहि कर सकें आबाद है ।।
जहाँ सन्तकी होगी समाधी, धन्य वह ही स्थान है ।
निर्मल बने वातावरण, जहाँ शांतिको आव्हान है ॥

१६५९
सत्‌ शिष्यकी निष्ठा वहीं; पर फूलती-फलती रहे ।
जहाँ सन्तकी होगी समाधी, भक्ति ही चलती रहे ॥
हरिनाम-किर्तन-ग्यानकी, ज्योती नहीं बुझ जायगी |
जबतक है निष्ठावंत उनके शिष्य, शांतीही पायगी ।।


१६६०
सत्‌संग करना तो बजारों में भी होता है खडा।
पर सादवचन उनके निभाना, पर्वतो से है बडा।।
जो अंतरंग में ग्यान को, फुलवायगा फलवायगा।
वही धन्य होगा शिष्य उनक, नाम जगमे छायगा।।


झुठ और सच क्या है ?

१६६१
मेरे बिना सब झूठ है, फिर पंथ हो या धर्म हो ।
कहना बड़ाही गलत है, कोई भी चाहे वर्म हो ॥।
मैं झूठ तो सब झूठ हैं, मैं साच तो सब साच हैं।
ऐसा भि कोई बोलते, पर साच है वहि साच है।।

१६६२
जब साच को नहिं आँच है,तब साच किसके पास है? ।
झुठाभि बोले साच है, सच्चाभि बोले साच है ॥।
पहिचान किसको सत्य की? जो झूठ से झलके नहीं ।
जब सत्य उसमें है नहीं, तब झूठ भी कोई नहीं ॥

१६६३
है सत्य आत्मा झूठ में, तब तो चमकता झूठ है।
झूठा हि होता गर अकेला, फिर तो सबही टूट है।।
यहही मजा हैं साच के बल, झूठ भी झूठा करे |
आत्माहि जिसमें है नहीं, वह यह करे ना वह करे ॥

१६६४
व्यवहार का झूठा अलग,और आत्म की समता अलग ।
दोनों मिलाकर ना चलेगा, फिर तो डूबेगा यह जग ॥
आत्मा सभीमें एक है, घोड़ा रहे या हो गधा।
राजा रहे या रंक हो, किसिसे न आत्मा है जुदा॥

१६६५
पहिचान जिसको आत्मकी,वह भिन्नता सब धो गया।
सबमें हि उसका ब्रह्म है, यहाँभी रहा वहाँभी गया ॥
वह पाप-पुन से है परे, घोडा-गधा नहिं मानता ।
मैं ही सभीमें हूँ भरा, साक्षीत्व से यहि जानता ॥

१६६६
अजि ! आत्मकी क्या बात है ? हम तो डटे संसारमें ।
झूठा और सच्चा हम समझते, जब पड़े व्यवहार में ॥
हम इंद्रियोकि ही कसौटीपर, रचेंगे खेल है।
आत्मा हमारा है वही, धनका जमे जब मेल है।।


१६६७
अजि ! कौन पूछे सत्य है, या झूठ है या है कोई।
जबतक कमाई है नहीं, कोई किसीका है नहीं ।।
जिसका करें हम साथ हैं, फिर वह भी साथी है पुरा ।
सब मिल -मिलाकर जिंदगीका, काम चलता है खरा ||

१६६८,
तू जिसमें है वहि बोल दे, ऊँचा चढाकर क्या करे? |
ये ग्यान की बातें करे, पर पेट से भूखों मरे ।।
विश्वास तेरा है नहीं, मैं ब्रह्म हूँ, या हूं कोई |
करके हि धोखा खा रहा, जब एक पर निष्ठा नहीं ।।

१६६९
डुबते को हो साथी तुम्ही, माने तुम्ही डूबो भले? ।
दोनों डुबे जल में तो बाहर, कौन किसको ले चले ? ॥।
ऐसा नहीं है अर्थ लेना, फिर अनर्थ हि छायगा।
जो हो डुबा उसको उठाओ, साथ ही हो जायगा ।।

कवि, कविता और मैं

१६७०
यह मन ही मेरा है कवी, कविता हि रचता हर घडी |
लिखता है मेरा हाथ, आदत ही उसीको है पड़ी ॥
श्रोता हैं मेरे कान, आँखें बाँचती, होती ख़ुशी |
मैं साक्षि आत्मा हूँ सभीका, है सदा स्थिति एक सी ॥

१६७१
जब मन बढेगा दुःख में, कविता भी दुख की होयगी |
जब मन रहेगा सौख्य में, कविता खुशी कर जायगी ॥
जब मन ही ब्रह्मानंद में, रममाण यह हो जायगा |
तब ब्रह्मलीला का हि सारा, काव्य वह लिख पायगा ||


५६७२
यदि भेद है मुझमें पड़ा तब, ब्रह्म क्या लिख पाउंगा ? ।
जो ब्रह्म को ही जान ले, लिखने नहीं वह आयगा।।
सागर में पुतला नमक का, भेंजा पता कर लाइए, 
तब वह हि सागर बन गया ! क्या बोलता समझाईए ? ।।

१६७३
हूं तो कवी पर हूँ अशास्त्री, भावभक्ति हि से भरा।
अक्षर कहीं भूल हों पर, झूठा नहीं अंतर मेरा ।।
है लक्ष्य मेरा सत्य, उसका नृत्य करता हूँ सदा।
गाता और लिखता -बोलता, होता न गुरूपद से जुदा।।

१६७४
हर आदमी ही है कवी, जीवन बनाता काव्य से।
जैसी निगा वैसे हि वे, हो सव्य-से अपसव्य-से।।
संसार ही है काव्य यह, देखो, सुनो, करते रहो।
आसक्ति मत रखना कवी ! सहते रहो, बहते रहो ।।

१६७५
मेरी फकीरी ऐसि है, लिखती भि है, जगती भि है।
आसक्ति करती विश्व की,ओर सद्गुरू-भक्ती भि है।।
सब देश अपने बल रहें, दुश्मन न किसका हो कोई।
हो मित्रता जग में सदा, यहि भावना मेरी रही।।

धर्मसिद्धान्त और धर्मभ्रष्टता


१६७६
अजि ! विश्व -मानव को सुधरने, धर्मही आधार है।
हों भिन्न उनके नाम, पर सब एकही परिवार है।।
उसमें भि कुछही हैं, जो झूठ करके नाचते।
 वेही डुबोते है जगत, हम तो पुरा पहिचानते ॥


१६७७
गर गुंड ना होते धरम में, तो धरम यह स्वर्ग था ।
था एकही बनता सभी, इसमें जरा ना फर्क था ।।
पर अब तों इतना भ्रष्ट है, उससे चलों तो कष्ट है।
नास्तिक भी पुरवायगा, पर हर धरमही नष्ट हैं।।

१६७८
सारे धरम अब हैं दुकानें, पेटकी वर्चस्व की ।
सत्ता उसीसे प्राप्त करना ही, गरज सर्वस्व की ।।
बिरलाद ही रहते उन्हींमें, जो सहज सेवा करें ।
उनपर प्रभु की है दया, सुनले मेरे मन बावरे ! ।।

१६७९
कहते धरम लगती शरम, ना सत्य है ना ज्ञान है।
पोथीमें है वहही करो, नहिं तो मरो अनजान है ।।
मेरा तो दिल माने नहीं, मैं चाहता हूं सुधार हो।
सिद्धांत हों पक्के मगर, शुभ सत्य का निर्धार हो ॥।

भक्ति और परिश्रम


१६८०
कर्जा नहीं करना किसीका, बल्कि मजदूरी करो |
लादी हुई यह ऐंठ लेकर, चार जन में ना मरों ॥
वह ही सुखी है आदमी,ऋण-मुक्त और गुरू-भक्त हैं ।
नीरोग हैं तनु-मन सदा, वहि युक्त है और मुक्त है ॥

१६८१
ये यार ! तेरी भक्ति से, प्रभु की कृपा लाखों* बडी ।
 तू याद ही करता मगर, वह जिंदगी कर दे खड़ी ॥
हर वक्‍त तुझको देखता, कहिं कष्ट ना हो भक्त को ।
पर तू अगर झूठा मिला, तब काल चुसे रक्त को !।


१६८२
दुनियामें सारे मित्र हैं, पर स्वार्थ से प्रेमी बने।
निःस्वार्थ बिरला ही मिले, जो प्रेमिको प्रेमी गिने ।॥।
उपकार ही करता सदा, लेता नहीं अणुमात्र है ।
ईश्वर हि ऐसा मित्र है, या सद्गुरू सर्वत्र है।

१६८३
यह नेत्रका और नाक का, मुख का रहे या कान का।
सारा विषयही है कहा, बंधन हि होता प्राण का ॥
कर्मेद्रियाँ, ज्ञानेंद्रियाँ, जब आत्मकाही विषय हों ।
तब तो छुटेगी वासना, यहाँ भी रहो वहाँ भी रहो । ।

१६८४
तू एक करता याचना, प्रभु लाख करता भावना।
ऐसा समझकर काम कर, कभि हो न प्रभु की वंचना ।॥
सूबह सदा माध्यान्ह में, या रात में ही भजन कर।
उद्योग कर, अति कष्ट कर, तू है प्रभू के निकटतर।।

१६८५
दिल में रहे आलस सदा, और भक्त हूं मैं बोलता।
बिलकूल तू झूठा कहे, होती नहीं यह सत्यता ।।
जो भक्त है वह जागता, और काम सेवा का करे।
उसि पर प्रभू का प्रेम है, बल्के वहाँ पानी भरे। ।

राष्ट्रजीवन की रक्षा का मन्त्र

१६८६
धरती भि अब थरथर करे, इतना बढा है पाप यह।
अच्छे भि पीसे जा रहे, ऐसा बढा संताप यह ।।
गलती किसीकी हो रही, यह भी सभी नहिं जानते।
जाता नहीं पकडा कोई, भगवान ही पहिचानते ।


१६८७
अग्नी लगी घर में तो क्या, रोने हि से बुझ जायगी? ।
कुछ तो करोगे या नहीं ? वर्षा उपर से आयगी? ॥
दौडो, पुकारो लोग को, सारे मिलो तब घर बचे ।
वैसे हि जलते देश को, जागो करो जैसा जँचे ॥

१६८८
तुम मर गये हो यार ! तुम में आत्मबल की है कमी ।
डर-डर के कैसा कर सको ? यह चोर की बस्ती जमी ॥
ऊठो, करो आवाज, चारों ओर से घेरा करो ।
नहिं तो धरम खतरे में है, जाओ लडो, नहिं तो मरो ॥।

१६८९
थोडा करोगे संगठन, तब चोर बोले जाओगे ।
पूरा हि जागृत देश हो, तब राज्य भी कर पाओगे ।॥
रीत दुनिया की यही, बलवान सो राजा बने ।
लाठी उसीकी भैंस होती, भूलना नहिं है तुम्हें ।।

१६९०
हाथी भी चलता है तो क्या ? हम भी तो चलते हैं सही ।
अपनी हकूमत को किसीने भी कहीं रोका नहीं ॥
पर एक ही तो बात है, आडे न हों किसके कहीं।
अपना किया फल साथ लो, तुमको कहीं धोखा नहीं । ।

१६९१
यदि तू बड़ा होगा तभी, छोडे नहीं छोटेपना ।
रहना सदा ही नम्र, और सेवा हो मंत्र हि आपना ॥
खर्चा न कर, जिंदगी सुधर,बच जाय तो कुछ दान दे।
तब तो बडप्पन टिक सकेगा, इस कथन पर ध्यान दे।॥


कृपा के लिये कष्ट करो !

१६९२
हर बात में ही कष्ट हैं, बिन कष्ट के क्या होयगा ? ।
खाना-पिना, चलना-निरखना, यह भि कष्ट करायगा ।।
सब कष्ट सह सकते मगर, प्रभु-नाम में ना कष्ट हो ।
बिन कष्ट के ही प्रभु मिले, ऐसी समझ ही नष्ट हो ।

१६९३
सुविचार-दिपक बुझ गया, फिर तैल-दिपक क्या करे? ।
बिजली का दीपक हो तभी, अग्यान वहाँ से क्यों डरे? ॥
डरना हि हो अग्यान तो, सत् संग को दिल में धरो।
पीछे हटाओ मोह को, और काम को बाजू करो । ।

१६९४
अर्जी भली हो लाख, पर मर्जी बिना क्या होयगा ? ।
गर्जी यही तो चाहता, पूरा हि मेरा होयगा ||
मर्जी भी देखे गर्जी को, अलगर्जी तो यह है नहीं ।
नहिं तो कृपा भी कर चुके, पर आलसी सोया यहीं । ।

१६९५
रोता फुटाने के लिए, और मोति को ठुकरा रहा।
वाह रे ! अजब है आदमी, सारी उमर ही खो रहा ।।
तू कष्ट ही करता तो फिर, क्यों ऊँच इच्छा ना करे? ।
अच्छा हूँ मैं, सेवा करू, और लोग सब ही हो मेरे।।

१६९६
यह ग्यान दूसरों का कभी, अच्छा करे यह ना जँचे ।
खुद ठोकरें लग जायँगी, तब ही हमारे दिल बसे ॥
ऐसी हि जग की आज तक के, रीत है और प्रीत है।
सामान है बाजार में, पर चाहूँ सो हि उचीत है।


मनो विजय में मुक्ति

१६९७
घोडे पे स्वारी कर सकूँ, करके खडा मैदान में।
घोडा हि मुझ पर चढ गया, तब हो गया नादान मैं।॥
फिर सोचकर वापस गया, ताकत बढा ली जोर से।
घोडे पे चढना हो नहीं सकता, कहा कमजोर से।।

१६९८
चंचल है मन-घोडा बड़ा, स्वारी न सब ही कर सके।
जो शक्ति ले बैराग की, वहि पैर उस पर धर सके ॥
कमजोर हो साधन करे, उलट हि सब हो जायगा।
मन ही उसी पर स्वार हो, तब भोग रोग सतायगा।॥

१६९९
वाह रे ! गंजेटी साधुओ ! धुव्वा उडाया देह का।
सारा समय बरबाद कर, पर्वत किया सन्देह का ॥
गरचे विधायक कार्य में, रहते लगे दिन दिन कभी।
तब तो तुम्हें सर पर ही रखता, देश भारत यह सभी॥

१७००
छोड़ा सभी घरबार भी, छोडा सभी परिवार भी।
छोडे मुलुख ओर मित्र सारा और कारोबार भी॥
बल्के बदन के वस्त्र भी, और पा सके शस्त्रास्त्र भी।
छोडा नहीं अहंकार तो, मुक्ती न पावेगी कभी ॥

१७०१
हमने किया, हमने किया मत बोल मन में लो कभी।
नहिं तो जनम को पात्र होगा, ख्याल रखना यह सभी॥
प्रभु का हि है, प्रभु का हि है,यह हम तो सेवा कर रहे।
इच्छा-अनिच्छा कुछ नहीं, लीला-स्वरूप ही जी रहे ।।