१२०२
राजी रहो तब तो मिले, उसमें हि होता लाभ है।
हर बात में ऐसा हि हैं, मर्जी ही ठीक जवाब है।
हठ से मिले, लठ से मिले, उसमें अगर दिल दूखता।
वह तो सफल होता नहीं, ऐसी हमारी मान्यता ।
हिन्दु धर्म का ह्रास
१२०३
हिन्दू धरम की दीनता का, अंत ही अब आयगा ।
कोई नहीं वाली उसे, बस सब अंधेरा छा गया ।।
पंडीत-साधू जागृती करने, अधूरे पड गये ।
श्रद्धारहित जनता बनाने में, निधर्मी बढ गये।।
१२०४
हिन्दू धरम का मान्यवर, विद्वान, भोगी हो गया।
धन के पिछे वह भागता, सब तेज अपना खो गया ।
पैसा मिले तब ही भजन, प्रवचन बिचारा कर रहा ।
परधर्मवाला संघटन से, जेब उनके भर रहा ।।
१२०५
कइ सैकडो हैं गाँव, ईसाई जहाँ हिंदू भये ।
वे ही प्रचारक बन गये, सब पेट पर बेचे गये।
परदेश का पैसा इन्हें, जब मोल लेने आ रहा ।
हिंदू धरम का धन तो, मदिरा के नशे में जा रहा ।।
१२०६
हिंदू धरम के देवता, अब हिंदुओं से रुढ गये।
कारण है इसका एक ही, श्रध्दारहित हिंदू भये ।।
कितने हि हिंदू धर्म के जन, धर्म छोडे जा रहे ।
हिंदू धरम के साधु तो, मठ में चकाचक खा रहे ।।
रामराज्य में गोवध
१२०७
हिंदू धरम की ही नहीं, गैया है भारत देश की।
उसके बिना फलती नहीं, खेती किसानी जोश की ।।
गोवंश का रक्षण यही, है भारती की सभ्यता।
गैया अगर कटती रहे, होगी फना मान्यता ।।
१२०८
बूढी अगर गैया कटे, तब माँ न ही क्योंकर कटे?।
उसका भी जीवन खत्म है, वह काल की गिनती रटे ।।
उपकार माँ का मानना है तो, गऊ भी मान लो।
उससे भी सेवा ही हुई, फिर क्यों उसी की जान लो? ।।
१२०९
सरकार जूतों के लिए, गौएँ कटाती है सुना।
परदेश को गोमाँस दे, धन की लिये दिल कामना ।
ऐसा ही गर सच हो कहीं, तो घाटे में बेपार है।
सम्हले नहीं जावेगी सत्ता, नाव फिर मँझधार है।।
१२१०
गैया कटे, मदिरा बढे, सीने-नटों का जोर हो ।
व्यभिचार भी खूला चले, घर घर भले घुसखोर हो ।।
गुंडा हि मर्द कहायगा, साधू पे पत्थर-गालियाँ ।
वाह रे तुम्हारा राज! फिर, रावण को भी लजवा दिया ।।
परावलम्बन ही परतन्त्रता है !
१२११
सोचा नहीं जाता कि अब, यह देश उतरेगा कहाँ ?
कर्जा हि कर्जा ले रहा, वापस नहीं वह जा रहा ।।
खाना भिखारी की तरह, हर साल माँगे देश यह।
इससे गुलामी क्या हटे? सोचो जरा उद्देश्य यह ।।
१२१२
सब माल परदेशी भरो, माँगो उन्हींको यंत्र भी।
उनकी सलाहें लो सदा, आदर्श लो उनका सभी॥
आजाद कहने की शरम भी, आयगी कुछ साल में।
ऐ भारतीयों! सोच लो, फँसना नहीं इस जाल में।।
१२१३
मैं जानता हूँ मुश्किलें, आती है सच्चे काम में ।
पर ख्याल होना चाहिए, भूलें न हम इस जाम में ।।
जितना भी अपने पैर पर, यह देश होता जायगा।
वह अंत मे सुख पायगा, स्वाधीन तब ही कहायगा।।
१२१४
अंग्रेजी ही हर बात में और साथ में भी जोड़ दी।
फिर तो गुलामी थी भली, क्यों जंजिरे ये तोड़ दी? ॥
आजाद होना था अगर, आजाद होकर ही रहो ।
हम भारती है बोलकर, अच्छे रहो, सच्चे रहो ।।
जातीयता से जाग जाओ!
१२१५
यह जातियों की विकृती ही, बीच में दीवार है।
रोडा हुई उन्नती में, फँस गयी मँझधार है ।।
जब तक न इनको एक होना, कोई भी सिखलायगा।
तब तक तो भारत का सदा ही हास होता जायगा।।
१२१६
देखो समय ने खा लिया पलटा, सम्हलता है नहीं।
जो ऊँच माने थे यहाँ, वह अब ठिकाने है नहीं।
जिसको हि हमने नीच समझा था,किसी गत काल में ।
वह उठ गये, उन्नत हुए, तुम देख लो फिलहाल में ।।
१२१७
किसि कौम को नीचे दबाने की तो हद होती भला।
इन्सान है वह जानता, आगे कदम की भी कला।।
तुम भूल खाओ फेर भी, ऊँचे ही कहलाने लगो ।
पागल कहेंगे सब तुम्हें, तुम सत्करम से ही जगो।।
प्रभु-प्राप्ति का पथ
१२१८
गंगा किनारे घाट हो, वैसा तुम्हारा देह है।
न्हाओ इसी को साथ लेकर, जब मिटे संदेह है।।
डूबी लगाओ प्रेम की, शांतीभरा जल पायगा।
सब षड्रिपू धुल जायेंगे, फिर आत्म-अनुभव आयगा।।
१२१९
निश्चय न होगा बुद्धि का,तब सब किया निष्फल रहे।
हे आदमी! निश्चय औ श्रद्धाही से सबमें बल रहे।
यह जीव जब दोनों के मिलने पर ही करता कार्य है।
निश्चय करो, श्रद्धा धरो, तब पाओगे सब शौर्य है।।
१२२०
सब रंग तुझमें ही भरे, जो चाहता सो खोज ले।
मन-बुद्धि को साथी बना, फिर पास ही हर चीज ले।।
हे जीव! तू ही सर्व कर्ता है न भूले बात को।
छोडे अविद्या, अज्ञता, तब ही मिले प्रभू-साथ को।
मुर्दे जगा दूँ शब्द से !
१२२१
मैं शब्द की खैरात हूँ, सब शब्द मेरे पास है।
मुर्दे जगा दूँ शब्द से, होता अशुभ का -हास है।
मैं नहिं किसे पहिचानता, मुँह देख के नहिं बोलता।
सत् क्या, असत् क्या सोचकर ही बात अपनी खोलता।
१२२२
झगडो भले कितना हि मुझसे, शांत हूँ मैं सर्वदा।
हँसता हूँ मैं नाटक तुम्हारा, देखकर मन से सदा!।
अरे! तुम नहीं झगडे तुम्हें वह तो किसिने सूझ दी।
यह जानकर ही मुझको उसने, प्रेम की यह बूझ दी ।।
१२२३
अजि! प्रेम का पत्थर ही हमने, मारना सीखा भला ।
लगता किसे वह चोट बन, यह तो प्रभू जाने कला॥
कई सैकडों को लग गया,और जीव उनका जग गया।
मुझको नहीं इसका पता,जब लग गया,तब लग गया ।।
१२२४
पूछो न मुझसे मैंने किनको, शक्ति दी या मुक्ति दी? ।
बिलकुल नहीं मैं जानता, मैंने तो केवल युक्ति दी।
कुछ शब्द मुख में स्फुर गये, अच्छे रहो, सच्चे रहो ।
श्रद्धा रही जिनकी बडी, उनसे ही अपना दिल कहो।।
भोजन और स्थान
१२२५
गर भीख ही है माँगनी, तब कष्ट क्यों नहिं साधते?।
जीते परस्वाधीन होकर, मान अपना छोडते ॥
इन्सान का यह जन्म मिलता है नहीं हर पल घडी।
क्यों भीख माँगे पतन पाते? काम कर खाओ गडी!।।
१२२६
जल की जहाँ भरमार थी, वहाँ बूंदभर पानी नहीं।
सारे पडे हैं खेत सूने, जल नहीं, खाने नहीं।।
जहाँ रेतियों की ढेर थी, पहाडी औ पत्थर थे पडे ।
वहाँ बाढ से घर बह रहे, प्रभु के तमासे हैं खडे ।।
१२२७
इज्जत बगल में मारकर, हम हैं खडे बाजार में
चावल में कंकर डालते, पानी मिलाते दूध में।।
हर चीज में करते मिलावट, बेचते कुछ बाँटते।
ऐसी दुकानें खास मरने को ही, मानो थाटते? ॥
१२२८
सुंदर बना है घर, मगर संडास की चलती हवा।
सोते नहीं बनता वहाँ, वाह रे जगह की वाहवा! ॥
उससे ही अच्छी झोपडी, दुर्गंध उसमें है नहीं।
चारों तरफ है फूल, फल, राजी हमारी है वहीं।।
१२२९
कितना भी कर लो धन जमा,आशा अधिक ही माँगती।
खर्चो ! अगर सत् काम को, तो और खर्चा चाहती।।
दोनों भी बंदर ही बनाकर, गम नहीं धरते कभी।
सच्चा गुरु का पुत्र वह, जो बाँटता इच्छा सभी ।।
१२३०
खल कामियों की भी कभी, बुद्धी न होगी भ्रष्ट है।
ऐसे भी होते स्थान, हमने जो दिखाये स्पष्ट हैं।।
जाते ही मन को मोड देते, नाम जपने के लिए।
बैराग होता, ग्यान होता, स्थान ऐसे भी रहे ।।
शुध्दाचरण और नाम जप
१२३१
भारी खुशी है आज हमको, सन्त आये गाँव में।
चारों तरफ है स्वच्छता, और शुद्धता सद्भाव में ।।
सज्जन औ दुर्जन भी सभी, भाई समझकर एक हैं।
सत् संगती का लाभ यह, जाहीर है और नेक है।।
१२३२
कइ चोर भी होते उजागार, नाम जपने के लिए।
वे जानते हैं, चोरि का प्रतिबंध क्या जप के लिए? ।।
चोरी बनी व्यवहार है, और नाम तो परमार्थ है।
ऐसी समझसे ही उन्होंने, जान खो दी व्यर्थ है ।।