सुधा-सिन्धु की लहरें (पूर्वार्ध)
-१- प्रेमभक्ति या योगादि साधन? (ता.२२-८-१९३६)
उपासकों! कल हमने सुना। भागवत में श्रीकृष्ण भगवान उद्धवसे कहते थे कि *मैं शमदम योगतपादि साधनोंसे किसीको प्राप्त होनेवाला नही हूँ। तुझे तो मैं प्रेमभक्तिसे प्रसन्न होकर प्राप्त होचुका हूँ।* लेकिन आजके भागवताध्यायमें भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि *मुझे प्राप्त होनेमें शमदम योगादि साधनोंकीभी आवश्यकता होती है* । इन दोनों बातों का मेल कैसे हो सकता है भला? भाई सुनो! हम ग्रंथों में देखते हैं कि वही भगवान श्रीकृष्ण कहीं तो योग का प्रतिपादन करते हैं और कहीं तो ज्ञानकी विशेषता बताते हैं। किसी एकको भक्तिकी महिमा सुनाते है और किसी दूसरे को तपस्याका मार्ग दिखाते हैं। इसका मतलब यही होता है कि ये सभी साधन ईश्वरप्राप्तिके लिए उचितही हैं; लेकिन अधिकारभेदसे इनकी आवश्यकता होती हैं। एक बात और। योगतपादि साधनोंसे प्रभुप्राप्ति नही होगी, इसका मतलब है भक्तिरहित योगादिसे नही होगी। वास्तवमें योगतपादि त्याज्य है ऐसा इसका अर्थ नहीं है। बल्कि भक्तिके लिएभी योगतपादिकी आवश्यकता होती है। भक्ति यानी सत्प्रेम, इसीसे ईश्वरकी प्राप्ति होगी। परंतु शमदमादिको छोडकर या चित्त एकाग्र करनेवाले योगसे रहित कोई खाली प्रेम करना चाहता हो तो इससे किसीको प्रभुप्राप्ति होनेवाली नही है। वैसेही बिना प्रेमभक्तिके योगादि महान साधनोंके लिए चाहे जितने कष्ट
उठानाभी व्यर्थही है।
सर्कस में अथवा कही तीर्थ या मेले में पैसोंके लिए चौरासी
योगासन कर दिखानेवाले कईं लोग आपने देखे होंगे। उनको अगर इस कसरत या कृतिसेही ईश्वर मिल जाता तो बेचारे भीख क्यों माँगते? फिर तो महात्माओंकी खदान निकल आती! सारांश यह कि कृति कितनीभी श्रेष्ठ क्यों न हो, उसमें अगर ईश्वरी प्रेम नही है तो वह सब व्यर्थही है।
इसीलिए, योगादि साधन तो जरूर हों, मगर ईश्वरी प्रेम के अधिष्ठानपर वे खडे हों। केवल प्रभु-उद्देश्यसे ही वे किये जायँ। रहस्य या मर्म जानकर कार्य करनाही सचमें कार्य करना कहा जाता है। बिना उद्देश्य जाने चाहे लाखभी तीर्थव्रत, तपदान या योगादि साधन किये गये हों तोभी कुछ नही हासिल होगा।
इसी बातपर मुझे एक (दृष्टान्त) घटना याद आती है। मारवाड
देश में किसी समय एक बहुरूपिया राजाका स्वाँग बनाकर सजधजके साथ एक नगरीके राजाके पास गया। कहने लगा- *सरकार! मैं राजा हूँ।* राजाने जवाब दिया- *हे पगले! तेरे जैसे बहुरूपिये ढोंगीराजाके भुलावेमें आनेवाला
मैं नही हूँ। मैं तुझे एक कौडी कीमतभी नहीं दे सकता।* सुनकर बहुरूपिया अभिमानसे भर गया और उस राजाका घमंड चूरचूर करनेका उसने दिलमें निश्चय किया। वह हिमालयकी गुंफाएँ ढूँढने लगा। किसी योगीमहात्मासे
मिलकर दो साल उसने योग-समाधिका अभ्यास किया। जब लगातार तीन महिनोंतक समाधि टिकानेका अभ्यास साध्य हुआ तब वह बहरुपिया साधुवेषमें उसी पुराने राजाकी नगरीमें आकर एक देवलमें ठहरा।
वह साधु वहाँ तीन महिनोंके लिए समाधि लगाकर बैठ गया, तो
लोगोंमें बात फैल गयी। डॉक्टरोंसे भी परीक्षा की गयी। सभीका विश्वास बैठ गया और चारों ओर कीर्ति फैलने लगी। राजाभी दर्शन कर गया। तीन महिनोंके बाद जब समाधिसे उत्थान हो गया तो राजाने बडे सम्मानसे उसकी शोभायात्रा निकाली और उसे अपने राजमहलमें लाकर रक्खा।
राजाने धूमधामसे बडा स्वागत किया और पदस्पर्श करके उसे
सिंहासनपर बिठाया। वह जटाधारी योगीराज बोला- *राजश्री! मुझे आपने पहिचाना है क्या?* राजा नम्रतासे बोला- *महाराज! आप तो साक्षात्प परमेश्वरी विभूति है। भला आपका पार मुझजैसे अनजान जीव को कैसे
लगेगा?* उसपर वह साधु हँसते हुए कहने लगा- *सरकार! मैं वही बहुरूपिया हूँ, जिसने राजाका (स्वाँग) रूप बनाया था। आपको शरण में लानेके उद्देश्यसेही मैंने योगसाधना करके समाधिका यह अभ्यास साध लिया
है। मेरी मनोकामना आज सफल हो गयी।*...
इसका अर्थ यह निकलता है कि, जबतक कोई क्षुद्र आकांक्षा
दिल में लेकर बडासे बडा साधन किया जाता है तबतक ईश्वरप्राप्ति होना असम्भव है। साधनोंका उद्दिष्ट जानेबिना और अपनी क्षुद्र वृत्तिको शुद्ध किये बिना किसीभी साधन से सत्यलाभ नही हो सकता। करकेही भगवान्श्री कृष्ण कहते है- *प्यारे उद्धव! मैं तुझे मिल गया हूँ वह कोई योगादि
साधनोंसे नही, तो प्रेमभक्तिसेहो (भगवान) मिल गया हूँ।* क्योंकि भक्तिही साधनोंका उद्दिष्ट है। परमेश्वर-प्राप्तिकी प्रीती अगर न रहें तो सिर्फ हजारो कठिनतर साधनोंसे प्रभुका मिलना संभव नही। इसलिए योगादि कोईभी साधन भक्तिपूर्वकही साध लेना चाहिए।
मित्रों! साधनही क्या, हरवक्त किये जानेवाले अपने सभी कर्मभी सावधानीसे उद्दिष्ट ख्यालमें रखकर करते जाना चाहिए। यहाँ दूरदूरसे
आपलोग चातुर्मासके लिए आये हैं यह केवल खेलमौज या नाटकी बर्तावके लिए तो नही आये हैं। इसलिए यहाँ जोभी कार्यक्रम, आचार या कर्तव्य करना है वह सब ईश्वर प्रीत्यर्थही करना होगा। ऊपरी दिखावा न करते हुये सभी इंद्रियोंको शुद्ध बर्तावकी आदत डालना, इसीके लिए यह अभ्यास-काल प्राप्त हुआ है। तो प्रभुप्रेमपूर्वक शमादि साधन बडीही
सावधानीसे अमलमें लाने चाहिए।
वृत्तीको शुद्ध बनानेका साधन यह है कि, आज अपनेसे कितने दोष हुए हैं यह सोचकर कल इनमें से कम, परसों उससेभी कम-इसतरह उन दोषोंको कम-कम करनेका निश्चय और उसपर अमल बडी सावधानीसे करते रहना चाहिए। साथही अनुतापपूर्वक ईश्वरभक्तिमें दिल रमाना चाहिए।
फिर तो ईश्वरप्राप्ति निश्चयसे हो सकेगी। यही उद्दिष्ट अगर आप सब लोगोंके ख्यालमेंही नहीं, आचारमेंभी हरवक्त रहेगा, तभी यहाँ आनेका सच्चा सार्थक हो सकता है!