सत्संगियों ! सावधान ! ! 
                        ( ता . २४ - ८ - १९३६ ).                                                   उपासकों ! कलका विषय आपके ख्यालमें होगा । वह था बिना उद्देश्य साधे चाहे जितनीभी संत - संगति करो , कुछभी लाभ नहीं होगा ।
उद्देश्यका मतलब यह किसन्तोंके बोधवचन सुनकर उनपर अमल करता तभी सतसंगका फल मिल सकता है । संतोंके वचन चातक जैसे झेलते रहना चाहिए , उसपर मनन करना चाहिए और वैसाही आचरण करना चाहिए : सच्चा संतसंग तभी हो सकता है । जैसा गेंद खेलनेवाला ऊपरी उसे झेल - झेलकर आनंद का अनुभव करता है , वैसीही यह बात है । निश्चयसे परम आनंद वह पाता है , जो सन्तवचन में रममाण होता है ।
     लेकिन इसमेंभी तारतम्य दृष्टिकी आवश्यकता होती है कि सन्तके किस वचनको ग्रहण करें ! एकसाथ सभी बातें ग्रहण करेंगे तो बडी गडबडी मच जायगी । क्योंकि उनके वचन भिन्न - भिन्न अधिकारके लोगोंके लिए । विभिन्न हुआ करते है । अवस्थाभेदसे भी उनके वचन एक दूसरेसे भिन्न प्रकारसे दिखाई देते हैं । इसलिए अपनी - अपनी वृत्तिके अधिकारसे , हंसकी न्यायी सद्सद्विवेक बुद्धिसे जो वचन समुचित जान पडते हो वेही चुनचुनके विश्वासपूर्वक ग्रहण करने चाहिए ।
        अपने अधिकारको न देखते हुए यदि तुम उनके सभी भाषण या आचरणको ग्रहण करनेकी कोशिश करोगे अथवा उनके समान बननेकी इच्छासे उनकी नकल उतारोगे , तो वह बात लाभकारी नही हो सकती । क्योंकी संतपुरुष अपनी सहज वृत्तिके साथ अनेकविध क्रीडाएँ कर सकते हैं । किसी तरहका आग्रह या बंधन न होनेसे वें अपनी स्वानंद मस्तीमें कभी खेलते . कभी नंगे घूमते , कभी चैनकी बन्सी बजाते या अन्य चेष्टाएँ कर सकते हैं । लेकिन आश्चर्य यह कि अपनी स्वरूपस्थितिका सदैव भान बना रहने के कारण कोईभी बात उन्हें बाधक नहीं होती । परन्तु तुमभी अगर उनके साथ वैसीही खेलक्रीडा या हँसीमजाक करने लगे तो अपने पर्वस्वभाव परिपुष्ट बनाकर डूब  जाओगे , इसलिए अपने अधिकारानुसारही उनके


सदवचन या सदाचरणको ग्रहण करना तुम्हारा सच्चा कर्तव्य हो सकता है । समुंदर में जिसतरह मगर - मच्छादि हजारों जलचर खेलते हैं , उसीतरह सन्तजीवनमें आर्त - जिज्ञासु - अर्थार्थी - बद्ध आदि सुष्ट - दुष्ट सभी जन आश्रय लेते हैं । सन्त उन सभीको खाद्य देते हैं और हर एक के साथ अलग अलग बर्ताव करते हुए उन सबको सत्यपथपर लानेका अपने अनोखे ढंगसे प्रयास करते हैं । उनका यह कार्य देखकर हमको यह नहीं सोचना चाहिए कि हमारे साथ भी उनका आचरण या संभाषण उसी मुताबिक क्यों न हो ?    

                          मित्रों ! सन्त तो बोधका महासमुद्र होते हैं । परन्तु हर एक व्यक्तिको अपने पात्रके अनुसारही उसमेंसे जल ग्रहण करना उचित होगा । सन्तका बोध व्यापक दृष्टिसे किया जाता है । पिछेके आदमीसे बात करेंगे लेकिन देखेंगे दूसरीही तरफ । किसीको उपदेश करना हो तो करेंगे तीसरेकोही । क्योंकि उनकी दृष्टि जीवसृष्टिसे परे हो जानेसे वे सभी को जान सकते हैं । उनकी एक बाजूमें आर्त , दूसरी बगलमें साधक , तीसरी तरफ कोई दुष्ट व्यभिचारी , इसतरह न जाने कितने प्रकारके लोग निकटस्थ होकर रहते हैं और उन सबको वे अधिकारानुरूप खाद्य दिया करते हैं । उनमेंसे अपने अधिकारोचित बातही हमें चुन लेनी चाहिए । और अगर उनका वचन हमारी समझमें नहीं आया तो दूसरे जानकार आदमीसे समझा लेना चाहिए अथवा प्रत्यक्षतः उन्हीको शंका निवेदन कर समाधान करा लेना चाहिए । जो बात समझती न हो उसे एकदम अविश्वासकी दृष्टिसे नही देखना चाहिए ।

बडी विचित्र बात यह है कि , सत्संगति तो तारक हुआ करती है , परन्तु कभी कभी वही मारक बन जाती है । ऐसा तभी होता है जब सत्संगी व्यक्ति अपना अधिकार न देखते हुए सन्तके साथ मनमाना बर्ताव करने लगता है । किसीने ठीकही कहा है-


*राजा , जोगी , अगन , जल , इनकी उलटी रीत ।                             बचते रहो परशरामजी , थोडी राखो प्रीत । । *
    यहाँ प्रीत का मतलब हैं मर्यादा । ऐसी जगहोंपर अगर मर्यादा छोड दी जाय तो निश्चयही विनाश हो सकता है । इसलिए मर्यादा पालन करना अर्थात् नियमयुक्त बर्ताव करना यह बात सत्संगमें आवश्यक होती है| सन्तोंका खानपान या उनका अनशन यह हमारे लिए सही मानेमें ग्रहण करनेयोग्य चीज नही होती । उनकी जूठन खानेसे भी फायदा नही हो सकता I  सच्चा लाभ वही पाता है , जो उनके सद्बोधको दृढ विश्वाससे ग्रहण करते हुए अमलमें लाता है । वैसे तो सभी लोग सन्तवचनोंका पाठ करते हैं , उपदेशसूत्र औरोंकोभी बताते है ; परन्तु जबतक वे उनका मर्म नही जानते और उन्हे निष्ठापूर्वक आचरणमें नही लाते तबतक सही लाभ पाही नही सकते । इसी बातपर एक दृष्टान्त याद आता है , सुनिए ।
       एक पटेल किसी महात्माके पास जाकर विनयपूर्वक आर्तभावसे कहने लगा - *महाराज ! इस त्रिविध तापसे भरे महाभयंकर भवसागरसे तरने तथा आत्मस्वरूप पानेके लिए मुझे कोई उचित उपाय बताइए । *महात्माने क्षणैक देखकर उसे *राम* मंत्रका उपदेश किया । हर्षित होकर प्रणाम करते हुए वह पटेल *राम* मंत्र जपते - जपते मार्ग तय करने लगा । एक जगह उसने देखा कि मंदिरके सामने धूपमें पडे हुए कईं लंगडे - लूले और अंधे तडप - तडपकर एक - एक पैसा माँगते हुए रामनाम जप रहें हैं । पटेल को शंका हुई कि , इतने रोते - कलपते ये अपाहिज छाती पीटपीटकर *राम - राम* कहते हैं फिरभी एक कौडी इन्हें नहीं मिलती । फिर इस *राम* मंत्र के बलपर भवसागरका बिकट घाट मैं कैसे पार कर सकूँगा भला ? 


सोचते हुए वह फिर उस महात्माके पास गया और उसने सारी बात बता दी । श्रेष्ठ - जनोंकी समझा देनेकी कला भी अजीबही होती है । उस महात्माने पटेलको एक मणि देकर कहा कि , *भाई ! पहले बाजारमे जाकर इसकी खाली कीमत लगाके लौट आ । * आज्ञा पाकर वह गया । बाजारसे वापिस आनेपर उसने महात्मासे कहा - *महाराज ! आलू बेचनेवाला , कपडोंका बेपारी , सुनार तथा जौहरी इन्होंने क्रमश : तीन आलू , पचीस रुपये , पाँच हजार रुपये तथा एक लाख रुपये ऐसी इस मणिकी कीमत लगायी है । आखिर ऐसा फर्क क्यों ?*
          महात्मा बोले - भाई ! जो जितना जानकार होता है उतनीही कीमत वह लगाता है । वस्तु एक होनेपरभी दृष्टिभेदसे अलग - अलग मूल्य आँका जाता है । रामनामके बारेमेंभी यही बात हम देखते हैं । कोई तो इस नामके भरोसे अपनी इच्छानुसार सिर्फ पेट भर सकता है । कोई शूरवीर इसीके बलपर शत्रुको जीत सकता है ; कोई तपस्वी इसीके सहारे रामके दर्शन कर सकता है ; तो कोई महात्मा इसी रामनामसे ब्रह्मसाक्षात्कार कर लेता है । फल मिलता है हमारी अपनी पात्रताके अनुसार ! 
    मित्रों ! सन्तके वचन ऐसेही रत्नसमान होते हैं , जिनका मोल अपार है । उनमें से अपनी - अपनी वृत्तिके अनुसार श्रद्धापूर्वक अर्थ ग्रहण कर उसे आचरणमें लाना , यही सच्चा कर्तव्य है । इसीमें सत्संगतिका रहस्य निहित है । इसप्रकार संतसंग करना यह तो मेराही संग करना है , ऐसा श्रीकृष्ण भगवानने उद्धवके निमित्त भागवतमें घोषित किया है ।उसीको ख्याल में रखकर हरवक्त पैर आगे डालना चाहिए ।
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