११३
हे नर ! जरासे-पेटसे , चहूँदेश बहरा हो रहा ।
धीरज जरा नहिं पासमें घर घर मुखव्वा रो रहा ।।
पैदा हुआ जगमें जहाँ, तो दूध किसने दे दिया ?।
क्या वो न देगा अन्नभी, करके भरोसा ना किया ? ॥
११४
बिन कष्ट करता भी कहीं, भूखा मरा देखा नहीं ।
पर शांति तुझको है नहीं, विश्वास भी तो है नहीं ।।
करके लगी चिंता-बला, इस बुद्धिने तू गो लिया।
क्या वो न देगा अन्नभी, करके भरोसा ना किया ? ।।
११५
नर ! श्वान, सूकर जीव जन, ये हक्क अपना खा रहे ।
पर तू अभागी जीव है, तुझको भरोसा ना रहे ।।
मैं मैं समझकर दौडता, इस पेटसे बांधा गया।
क्या वो न देगा अन्नभी, करके भरोसा ना किया ?।।
११६
ऐसा प्रभू होकर धनी, उसको जरा नहि जानता।
करता नहीं उसका स्मरण, तू तान अपनी तानता ।।
थे बाप बुढे होगये, क्या पेटमें भर ले गया? ।
क्या वो न देगा अन्नभी, करके भरोसा ना किया ? ॥
११७
राजा रहे या रंक हो, इस पेटसे बाँधे गये। .
जोगी रहे, भोगी रहे, इसके लिये अंधे भये ।।
अपने करमको छोड़कर, झूठी खिलायत ले लिया ।
क्या वो न देगा अन्नभी, करके भरोसा ना किया ? ।।
११८
हीरे- सरीखी देह दी, हाथी सरीखे पाँव है ।
बलभीम-जैसे हाथ है, रांजा - सरीखा नांव है ।।
दस-इंद्रियाँ जहागीर दी, संतोष तोभी ना रहा।
क्या वो न देगा अन्नभी, करके भरोसा ना किया ?।।
११९
चिंता न कर किसकी कभी, तेरा तुझे मिल जायगा ।
यहाँ भी रहे, वहाँ भी रहे, चाहे वहाँ आजायगा |।
तुकड्या कहे,प्रभूक़ा स्मरण, करते सभी तू कर लिया।
कया वो न देगा अन्नभी, करके भरोसा ना किया ?।।
१२०
है भूल कितनी आदमी ! देता उन्हे नहिं मानता ।
दर दर फिरे टुकड़ा मंगे, वो क्या तुम्हें फिर जानता ?।।
गर माँगना हो भीख तो, ऐसी जगहमें माँगिये ।
फिरके भिखारी ना रहे, नितकी अमीरी लागिये।।
१२१
यजमान ऐसा कीजिये, जिसका जगतमें नाम हो ।
जो चाहे सो दिलवायगा,कहते फते सब काम हो ।।
अब आर्त-कपडे को बिछा,अरु भीख भक्ती माँगिये ।
महाराज ! इच्छा हो पुरी ऐसी पुकारी जागिये।।
१२२
अपना प्रभूको कर सदा, दुखिया न बन जग जालमें ।
जगमें न कुछभी राम है, जलबूंद ना जिहूँ थालमें ।।
बरखा लगी जलकी जभी, आता बहाते ओघसे ।
तू सत्य-ब्रतको प्राप्तकर, तब तृप्त होगा भोग से।।
१२३
बचपन गमाया गोदमें, अरु बालकोंमें खेलकर ।
तारुण्य खोया कामसें, नारी बचनको झेलकर ।।
धन मान ललनाके लिये, दौरे सभी तन जा रहा।
नहिं मूर्ख भजता रामको, शांती न पलभी पा रहा।।
१२४
ब़ुजरुक तनसे दिख रहे, चिंता- जवानी है भरी ।
तन हो गया है खोपडा, पर द्रोहता ऐंदा करी ।
बासों खटैया बिछगई, पर भी न शांती पासमें ।
नहिं मूर्ख भजता रामको,धन धन करे हर श्वासमें ।
१२५
धनको सदा रोता मगर, प्रभू-यादमें गर रोयगा।
तो शांति अक्षय पायगा, धन माल सब भर जायगा ॥
आँखों बढेगी रोशनी, कडं योजनोंतक देखने ।
घटके भितर प्रभू पायगा, रो यादमें जितना बने ।।
१२६
मत भोगकी इच्छा करे, यह भोग दुखकी खान है।
इस भोगके जंजालमें, कई हो गये हैरान है ।।
अपना भला यदि चाहता, निस्संग हो इन भोगसे।
कर सत्य हभूमा प्राप्त तू, हट जायगा सब रोगसे।।
१२७
मनके नचाये नच रहे, समझे नहीं क्या हो रहा ? ।
यह जिंदगी दिन चारकी, जाती रही फिर रो रहा ।।
नर मूढ ! अब तो ख्याल कर, अपना प्रभू कर लीजिये। कर प्रेमकी भकती सदा, बंधन न रहने दीजिये ।।
२२८
हशियार दिलको कर सदा, दुनिया -फिदा मत हो जरा।
यह कुछ नहीं रह जायगा, यह बात दिलमें बो जरा।।
नर ! सामने ही मर जले, कड़ बाप बूढ़े और भी ।
तो तू सदा रह जायगा, मत कर इसीका शोर भी ।।
१२९
यह कुछ नहीं रह जायगा, जब आखरी हो जायगी ।
तेरे लिये तो देह क्या ? थोड़ी जगह नहिं पायगी ।।
हे यार ! तेरा जीव तो, श्रमता रहेगा आसमें ।
गर मुक्त होना हो गडी ! भज राम तू हर श्वासमें ।।
१३०
बचते रहो इस लोकसे, पर-लोक जाना है तुम्हें।
यह मालमत्ता छोडकर, बासों उठाना है तुम्हें ।।
मंजील महलों फूँककर, कब्रों बिठाना हे तुम्हें।
तुकडया कहे यदि रखो, मोहोबत उठाना है तुम्हे।।
*भक्ति-पंथ*
१३१
(सवैया)
बिगडाहि नहीं यह देह सदा, बिगडाहि कहा करते ज्ञानी।
ज्ञानी न कहा करते बिगडा, यह झूँठनकी बक-सी बानी।।
बिगडाहि अजामिल था सबसे, बहु पाप भरे आखीर रहे।
प्रभू-नाम उचारत पुत्र हमिसे, सब पाप पड़े आखीर रहे।।
१३२
(सवैया)
मनुजा! बहु है अवकाश तुम्हे,मन धीर नहीं गमवा करिये।
जितनाभि बने उतनाहि सही, प्रभूसे प्रभुता अपनी धरिये।।
धरिये नर! एक घडी तबही,अरु एक घडी पुनि आध घडी।
मत धीर गमा अपनी नर ये, गुरुनाथ-दया रंगरेज खडी।।
१३४
( सवैया)
नर ! पंथ सुपंथ भला है वही, जिसमें प्रभू मंत्र सदा रटते।
कटते नित शांत-उदात घडी इक निश्चयसे न कभी हटते।।
दटते हरश्वास हूं श्यवास सदा,गटते प्रभु -प्रेम, भले नटते।
फटते सब कंटक काल कली,प्रभूके गुण जा घटसे उठते।।
१३४
(सवैया)
बहुबोल पिठा चलचाल मिठा,अपनी मिठवास सभी भरदे।
कर ख्याल मिठा सुन हाल मिठा,नर! वृत्ति कभी न जुदी करदे।।
बहुबार तुझे पडती अडियाँ, अपनी घडियाँ मत भूख कभी।
तुकड्या कहे प्रेम मिठा सबमें,वह देवधरम वश होत सभी।।
१३५
गुरुनाम की नैया हमें, भव - दुःख से तरवायगी ।
गुरुकी चरणरज ही हमें, मन - भौंर से हरवायगी।।
गुरु - प्रेमकी बरखा हमें, सत ज्ञानको बतलायगी।
गुरुकी कृपा हमको हमारे,- सूखमें मिलवायगी।।
१३६
छाया रहे गुरुका स्वरुप, हरदम हमारे नैनमें।
तो हम रहे. बे - चैनमें, तोभी समझते चैनमें ।।
होती रहे गुरुकी हमेशा, आँख हम - से बालपर।
तो माल क्या संसार है ? कूदे - चढेंगे हख्यालपर ।।
१३७
गुरुदेव की मर्जी भली, जिस राहसे मिल जायगी।
उस राहसे चलनी हमारे, हक्कमें मन भायगी ।।
फिर पाप हो या -पून हो, हमको नहीं कुछभी खबर ।
तो माल क्या संसार है? कूदे-चढेंगे ख्यालपर ।।
१३८
संसार का डर है उन्हें, जो भूलते गुरुदेव को ।
नहिं याद है उनको हजुर-हाजर पड़े संदेह को ।।
मोजूद है गुरुदेव तो, मत हो बसर धनमालपर ।
तो माल क्या संसार है ? कुदे-चढेंगे ख्यालपर ।।
१३९
लूटो मजा गुरुनाम की, ऐसी बखत ना आयगी ।
यह मालमत्ता यार ! इकदिन, खाकमें मिल जायगी ।।
अपने भलाईके लिये, सत-संग साधो जन्मभर।
तो माल क्या संसार हे ? कूदे-चढेंगे ख्यालपर ।।
१४०
बे-डर बनो, इस हाथ लेकर, सद्गुरुकी पादुका |
निर्भय रहो धोखा नहीं, किस बातके फिर जादु का ।।
न्हावो सदा गुरुकी चरण-रज को उठाकर शीसपर |
तो माल क्या संसार है ? कूदे-चढेंगे ख्यालपर ।।
१४१
गुरुदेवके नित ध्यानमें, लागी रहे मेरी लगन।
कुछ नहीं हूँ मांगता, इसमें रह हरदम मगन ।।
तुकडया कहे ऐसा जिसे, निश्चय हुआ अजमास्पर।
तो माल क्या संसार है, कुदे चढेंगे ख्यालपर।।
१५४
लूँ नरक में प्रभू-नाम तो, समझूं स्वर्गसे आगला।
गर स्वर्ग प्रभुनाम ना, तो नर्क ही मेरा भला।।
ऐसा भगत जो मानता, सच्चा उसीका प्रेम है।
सुख दुःख में भी नामका, छोड़े नहीं जो नेम है।।
१५५
जपता प्रभूका नाम जो, मनको किया करता अदा।
मन प्रेममें रंगवायके, प्रभुके उपर रहती फिदा।।
कोटी रुपैया माल दो, तो ना हटेगा शोरसे।
है इश्क जिसका मस्त वो, लागे प्रभू: रंग जोरसे ॥
१५६
प्रभू-नाम गानेमें जिसे, लागी समाधी आपही ।
नहिं खब्र अपने देहकी, आड़ा पडे यदि सापही ।।
ऐसा जिसे बैराग हो, हो प्रेम अपने रामका |
सौ लाखभी कोई करे, नहिं भक्त विषयों -कामका |
१५७
बिन त्याग हो कामादिका, यह स्थीर मन होता नही ।
जब स्थिर मन होता नहीं, तब प्रेमरस पाता नहीं ।।
बिन प्रेमके प्रभूकी कभी, तारी नजर लगती नहीं ।
तारी लगे बिन भक्ति की, यह वृत्तियाँ जगती नहीं ।।
१५८
जब इश्क पूरा जग गया,अरु ध्यान दिललमें लग गया ।
नहिं देश, कालरु कर्म है, सब नेम बंधन भग गया ।।
तुकड्या कहे लागी लगन, होवे मगन फिर ज्ञान में ।
है भक्ति -पथ निर्मल संदा,ले जाय निज सुख ठानमें ।।
१५९
केवल निरामय भावसे, जिनको प्रभू प्रेमा मिला ।
वह धन्य है ! जगमान्य है ! जिनका अहं सारा ढला।।
छे शास्त्र चारों वेद भी, उनकी जबाँ होते खडे ।
जो प्रेमसे गाते प्रभू, वह भक्त है सबसे बड़े।।
१६०
है भक्तकी महिमा बडी, कहते न बनती मूंहसे।
नहिं अंत उनका है किसे, जो है अलग इस दूँहसे।।
भगवान भी उन भक्तकी, महिमा सदा गाया केरे।
हर दुःखसे बचवायके, उनके उपर छाया करे।।
१६१
भगवान का यह वाक्य है, जब धर्म होता नष्ट है।
बढती अधर्मोकी छटा, होते भगत्को कष्ट है।।
तबही प्रगट होता हूं मैं, माया रचाकर आपनी।
करता हूँ पालन धर्मका, रख लाज भक्तोंकी बनी ।।
१६२
भजते प्रभुको भक्त जो,उन भक्त को भजते प्रभू ।
यह न्यायरीती देखिये, मत भूलिये प्यारे ! कभू ।।
जो है जिसीको चाहता, उसकोहि जन वह चाहता |
यह कृष्ण बतलावे जबाँ, मत भूलिये ऐसी मता।।
१६३
पाता पता प्रभुका जभी, अपना पता प्रभू लेयगा।
घर देयगा अपना प्रभू, जब आपना घर लेयगा।।
देगा प्रभू जहागीर पर, मनका खजाना छीन ले।
आजाद करवावे तुम्हें, जब नेक पूरी गीन ले।।
१६४
भगवान अपने भक्तका, यह हाल पहिले देखता ।
धनसे चढ़े गर गर्व तो, देता प्रथम दारिद्रता।।
गर स्त्रीयसे मोहा गया, तो कर्कशा दे साथमें ।
रोगी करे नित देहसे, फिरके उठाता हाथमें।।
१६५
भय क्रोधसे अति दर हो, नानात्व की हर आपदा।
जो चाहते प्रभूको सदा, तज मोह-माया सर्वदा।।
ऐसे परम गंभीर जन, होके पतित इस देह से।
मिलते प्रभूके रुपमें, टलते सभी संदेह से।।
१६६
पाया जिसे प्रभूका पता, *दुनिया-लता को छोडके ।
बैठा अमर होके वही, संसार-बंधन तोडके !।
विषसम विषय यह भासता, किंचित नहीं आसक्तता |
देखे जिधर प्रभूकी "सता, प्रभूके बिना नहिं भासता ॥।
१६७
ईश्वर-भजन के सामने, क्यो और दौलत माल है ? ।
भजते प्रभूको जो सदा, दौलत समझते बाल है।।
पर है बडाही यह कठिन, प्रभूका भजन कन्खार से ।
चाबे जबॉसे जो गडी, सो तर चुके संसार से ॥
१६८
सतियाँ वही कहलायगी, अपने पतीपर प्राण दे ।
नहिं अन्यको समझे कभी, यदि दर्श भी भगवान दे ।।
ऐसी जिन्होंकी प्रीयता, भगवानसे लागी रहे।
सोही पुरुष इस लोकमें, पर लोकमें त्यागी रहे ॥
१६९
नहिं गंध हो कुछ दामका, वहि भक्त है प्रभु-कामका |
कांता जिसे रुचती नहीं , वहि मार्ग पाया राम का ।।
भूले नहीं लोकेषणामे, ना जरा अभिमान है।
ऐसे परम भोले भगत्पर, दे प्रभूजी प्राण है ।।
१७०
गर इश्क है अल्लाह से, तो कुफ्र क्या इस्लाम क्या ।
कुछ भेद उनको है नहीं, दु:ख दर्द क्या आराम क्या ।।
लागी लगन जब मस्तकी, अपने खुदाकी राह में ।
तो माल क्या धनधाम है? है मस्त बे - परवाह में ।।
१७१
मजबूत है गर प्रेम तो, फिर नेमसे नाता नहीं ।
लागी लगन जब मस्तकी, फिर लौटके जाता नहीं ।।
हर वस्तुओंमे वोहि वो, चारों दिशामें भा रहा |
मजनू बना लेला-स्वरुप, तिहूँ भक्त -प्रेमा छा रहा ॥
१७२
आराम तनको है नहीं, नहिं गादि है नहिं लोड है।
भूमि-बिछाने में रहे, सब तोड़ तनके खोड है।।
जैसा मिले वैसा रहे, खाली न पलभी खो रहा।
मजनू बना लैला-स्वरुप, तिहूँ भक्त-प्रेमा छा रहा।।
१७३
नहिं जाग्रतीका भान है, नहिं स्वप्न में अवसान है।
बाहर -भीतरमें एकही, भाता जिसे संधान है।।
दुनिया नजर आती नहीं, हो मौत या जीना रहा।
मजनू बना लेला-स्वरुप, तिहूँ भक्त -प्रेमा छा रहा।।
१७४
नहिं कुफ्र नहिं इस्लाम है, नहिं नीच है नहिं ऊँच है।
राजा नहिं रंक है, सबसे किया दिल कूच है ।।
है मस्त-आशक रंग गया, रँगसे सदा रंग भा रहा।
मजनू बना लेला-स्वरुप, तिहूँ भक्त-प्रेमा छा रहा।।
१७५
चलता रहा चलता नहिं, गाता रहा नहिं गा रहा।
कहता रहा कहता नहिं, खाता रहा नहिं खा रहा।।
सब इश्क उसका एक है, देखो तहाँ अजमा रहा ।
मजनू बना लेला-स्वरुप, तिहूँ भक्त-प्रेमा छा रहा।।
१७६
नहिं कर्म है, नहिं धर्म है, नहिं शर्म है जनकी जिन्हें।
टहले सदा अलमस्त वों, नहिं रोशनी आँधी उन्हें।।
छाया नशा भरपूर उसमें, लौ-लहर फर्मा रहा।
मजनू बना लेला-स्वरुप, तिहूँ भक्त -प्रेमा छा रहा।।
१७७
नहिं मानता किसका कहा, अपना कभी छोडे नहीं ।
सर्दी रहे गर्मी रहे, दिल - शौकसे ओढे नहीं ।।
तुकड्या कहे, नहिं दीन है, नहिं काल उसको खा रहा।
मजनू बना लेला-स्वरुप, तिहूँ भक्त-प्रेमा छा रहा।।
१७८
पूजा करे अति प्रेमसे, अनुतापसे इंश्वर-भजन |
निष्काम है संतुष्ट है, भावे न माया अन्य जन ।।
अलमस्त हो फिर ध्यानमें, रंग जाय अपने ध्येयसे ।
वहि भक्त होता है पुरा, तब बंध डुटे स्नेहसे ॥
१७९
जो सुख हो या दुःख हो, दोनों बराबर मानता ।
चिंता-चिताको दूर कर, अपनी रहा पहिचानता ।।
जंजाल झूठा खेल है, संसारमें नहिं मग्न हो ।
कर रामका सुमरण सदा, अरु राममे, संलग्न हो ॥
१८०
शांती उन्हीने लूट ली, गुरुके कदम दिल धर चुके ।
सब मान अरु अपमानसे, सारी जहाँमे मर चुके ।।
जीते उसीमें है अगर, आनंदका संवाद हो ।
करते प्रभूकी याद फिर, बरबाद हो आबाद हो ॥
१८१
राजी रहो हकमें सदा, इच्छा खराबी छोड दो |
जैसा मिले जिस वक़्तमें, उसमें खुशी मन जोड दो ।।
झूठी जबाँसे बच रहो, अरु चाह सतकी जान लो |
प्रभू-नाममें हरदम लगो, अपना धरम पहिचान लो ॥
१८२
सीढी अगर चढना चहो, चढती पहिरयाँ डाल दो |
आगे बढाओ ज्ञानको, पहिला करम ओछाल दो ।।
खुद आँख अपनी खोलकर ,ऊँचे शिखर पे चढ चुको |
पूजा करो यह ठीक है, पर पुज्य गडपे गढ चुको ॥
१८३
जो इष्ट तेरा होयगा, उसका सदाही ध्यानकर ।
या कृष्ण को हरदम भजे या राम का सन्मान कर ।।
दोनों उसीके रुप है , तू भी उसीका अंश है।
उसमें सदा मिलना चहा, यहि भक्तका सारांश है ॥
१८४
नहिं इष्ट से विभक्त हो, यहि भक्तिका आचार है ।
नित प्रेम जिसका है लगा, यहि भक्तिका उपचार है ।।
पलभी नहीं खाली रहे, सब इष्ट भासे वंश है ।
नीचे उपर चारों दिशा, सब इष्टका ही अंश है ।।
१८५
शिव की सदा आराधना, शिव -मूर्तिका है चिंतवन ।
शिवके बिना नहिं वक्त भी, खाली रहे देखा, श्रवण ।।
सुनता वही, करता वही, कहता वही शिवका भजन |
सो धन्य है ! सो धन्य है ! मिलता उसे केलास -जन ।।
१८६
एकान्तका नित अनुचरण, आबाद-सा निश्चलपना |
निर्मोह -सा वेराग्य है, अरू सत्-असत्-सा जानना ।
मुखमें सदा शिव नाम है, अरु वृत्तियाँ निष्काम है ।
तुकड्या कहे उस भक्तकी, सबसे गती उपराम है ।।
१८७
सतनाम जपता नानका, मसजीदको घुमवालिया |
सत्नाम के "परतापसे, सब लोग शिख बनवालिया ।।
सत्नामही दे मंत्रको, अपना धरम रखवालिया ।
सत्नामकी डूबी लगा, बैकुंठका थल पालिया ।।
१८८
सुर,नर,मुनी,सब देवभी, गाते भजन जिनका सदा ।
सब शास्त्र वेदोंके सहित, करते स्तुती ही सर्वदा ।।
जो देवके देवाधिको भी, मान्यसे सन्मान्य है ।
ऐसे गुरु को जो भजे, फिर क्यों न होगा धन्य है ?।।
१८९
तसबरी मालक की हमेशा, दासके आँखी रहे ।
उसके चरित गुण चाहने, यह कर्ण नित बाकी रहे ।।
उसके प्रकाशोंके किरण, लेने हदय तैयार हो ।
घट -घट उसीके जोश का, तेजोजलित उरधार हो ॥
१९०
मन मोह लीनो शाम ने अब काम तो भाते नहीं ।
लागी लगन उस रुपमें, दिल प्रेम उछलाते नहीं ।।
जैसे दिपकको देखकर पातंग हट जाते नहीं ।
तुकड्या कहे आशक वही, जो दूह ठहराते नहीं।।
१९१
प्रात:समयमें ऊठकर, जो ध्यान धरता ईशका।
वो लोकमें तो मान्य पर, होता मुकुट शिव -शीशका ।।
प्रातः समय के हालको, जो संत खुद जाना करे।
वह संत पूरा जान लो, जो ब्रह्म रस छाना करे।।
१९२
पहली घडी है रोगकी, दूजी घडी है भोगकी।
तीजी घडी है चोरकी, चौथी घडी है थोरकी ।।
चौथे घडीमें जो कोई, प्रभू नामको जपता रहे।
वह धन्य होता है पुरुष, वहाँ काल ना टपता रहे।।
१९३
अपने हृदय-आकाश में, शोडष -कमलद॒ल-स्थान है।
वहाँ भक्तजन रमते सदा, करते प्रभूका ध्यान है।।
मनसे कियाकर कल्पना, मूर्ती किया करते खडी।
आनंदमय होते खुशी, जब ध्यानसे वृत्ती जडी।।
१९४
मुखडा सिरफ देखा करे, तो हास्य-मुरत सोहनी।
आनंदका ही ध्यान धर, देखे बदन मनमोहनी।।
आनंदका कर ध्यान ही, आनंदको पाते सदा।
आनंद में है. पहुँचते, आनंद समवाते सदा।।
१९५
नर ! ध्यान दे वह ध्यानमें, फिर ध्यान ना हो ध्यानमें ।
हो मस्त अपने स्थानमें, ना दूर हो फिर जानमें ।।
नहिं ध्यान-ध्याता -ध्येय भी , त्रिपुटी -परे-चढ जायगा।
यह ध्यानका है इश्क तेरा, तब सफल हो जायगा।।
१९६
है ध्यानका अतिरेक यह, ध्यानादिमें नहिं मग्न हो ।
नहिं ध्यान - ध्याता -ध्येय भी , त्रिपुटी -परे-संलग्न हो।
संलग्न हो अपनी जगह, जहँ वृत्ति न वृत्ति रहे।
वृत्ती वहाँ निवृत्त हो, यह भान ना वृत्ति रहे ॥
१९७
वह भक्त है वहि युक्त है,वहि मुक्त है जग-जाल से ।
आनंद में जो डट गया, वह छूट गया हर हाल से ।।
आनंदही आनंद फिर, यह भाव भी ना शेष है।
सम एकरस आनंदघन, नहिं राग है ना द्वेष है ।।
१९८
यहि भक्ति की निर्मल ध्वजा,यहि ज्ञानका खुद रंग है ।
यहि ध्येय सच्चे धर्मका, यहि योगियों की भंग है ।।
बाहर भितर जग ईश-मय, निर्द्वंद्व है सुखकंद है ।
तुकड्या कहे, नरदेह में, सच्चा यही स्वानंद है ।।
उद्बोधन
(आत्म -जागृति)
१९९
भ्रमता हवा कई जन्मतक, ऐसी जगहमें आगया ।
जहाँ ज्ञानकी खोली मिली, आनंद-खजाना पागया ।।
हे जीव ! अब तू धन्य है, तेरा करम - साफल्य है।
कर योग्य कारज इस जगह, तो शानशा के तुल्य है ।।
२००
अनमोल मानुज-जन्म है, लाखों करोडों जन्ममें ।
बडभाग से पाया हमें, कुछ पाप अरु कुछ पुण्यमें ।।
ऐसी अजब बूटी यहाँपर, प्राप्त है अप्राप्तमें ।
कर ज्ञान-संगत आदमी ! मिल ब्रह्मके खुद आप्तमें ।।
२०१
नर ! ख़ुद जरा नहिं खोजता, बुद्धी दिया तोभी भली |
नचता जगत् के नाच में, जैसी चली वेसी चली ।।
खोता अमोलिक संघियाँ, फिर ज्ञान कभहूं न पायगा |
पशुपक्षिके घर जायगा, फिर सार्थ क्या कमवायगा ? ॥
२०३
खुदही ख़ुदीका मित्र है, खुदीका शत्रू है।
ख़ुदही खुदीका राम है, ख़ुदसे खुदी विश्राम है।।
तब आपहीसे आपको, क्यों नर्क में गिरवा रहा ? ।
कर प्रेम सच्चा आत्मसे, पावे पता सुख है कहाँ ॥
२०२
सीखा हजारों हिकमती, तो क्या किया अपने लिये।
लाखों कमाया द्रव्य भी, तो क्या दिया अपने लिये ?।।
कोटी खिलाया आदमी, तो क्या रखा अपने लिये ? ।
गर आत्मसे लौ ही नहीं, तो कुछ नहीं अपने लिये ।।
२०४
अभिमानको अब छोड दे, हो रामका नित भक्त रे।
सब दूर कर यह कामना, सत्-ज्ञानसे हो युक्त रे ।।
कई बार प्यारे ! संत भी, उपदेश तुझको दे रहे ।
कितना कुटिल यह जीव है,जिसके विषय ना जा रहे ॥
२०५
स्वाराज्य के मंजील में, रहना तुझे भाता नहीं ।
भटके सदा इस मोह में, अपना स्वरुप पाता नहीं ।।
नौबद बजाकर संत भी, तुझको हमेशा कह रहे ।
हे यार ! तेरे कर्म में, ये पाप केसे बह रहे ? ॥
२०६
चल हट पिछाडी आदमी ! आगे कुवा में जायगा ।
खड्टा बडाही खोल है, वापिस नहीं फिर आयगा।।
क्या कैफ लीना है तुने, या याद सारी खो दिया।
यह कामना मंजील है, लौटे न फिर गर जो दिया ॥
२०७
जो जो गये आये नहीं, नहिं नाम है न निशान है ।
राजा रहे या रंक हो, बचता नहीं फिर प्राण है ।।
जोगी रहे, योगी रहे, या संत हो धनवंत हो ।
बलवान हो अनजान हो, "पढज्ञान हो कि महंत हो ।।
२०८
प्रतिसृष्टिकर्ता देव भी, इस कामने नंगा किया ।
मशहूर विश्वामित्र है, तपसे तपोबल पा लिया ।।
ब्रम्हर्षि कहलाया तभी, यह तापसी-अधिकार है।
वेदादिमें है सुत्र सो , कामादि से बेजार है ।।
२०९
अंगार जैसी जालती, जड वस्तुओंको खासकर ।
वैसी बुरी यह लालसा, खाती तनू आयुष्यभर ।।
जब तक न शांती-नीर हो, खुद ज्ञानके फूँवार का ।
जब तक न छोडे देहको, यदि देह हो खुब प्यारका ।।
२१०
रे शुर ! ऐसा शूर हो, बाँधा न जा इस काम में ।
पहिचान अपने ज्ञानको, चितको समादे राम में ।।
जब तू पलक भी रामके-बिन व्यर्थ ना छोडा करे ।
तो राम भी तेरे सदा, हर काम को दौड़ा करे ।।
२११
नर ! काम को मत याद कर, तू काम हेतू भूल जा ।
सत्-ज्ञान में ! लवलीन हो, बैराग के सँग डूल जा ।।
कभि भूलकर आडा गया, तो याद रख इस बातकी ।
सत् रूपसे मुक जायगा, पावे जगह अध:पातकी ।।
२१२
संसार मतलब का भरा, इनमें नहीं परमार्थता ।
मतलब -जमाना छोड दे, सत्-संगमे धर आर्तता ।।
निष्काम सेवा कर सदा, अरु आत्मका कर चिंतवन ।
अज्ञान सारा दे भगा, बेराग का कर अनुचरन ।।
२१३
रे ! ज्ञान तू है चाहता, तो ध्यान मत कर काम का |
सत-संग में जागर उन्हें, पूछो भजन उस राम का ।।
तू पेट के पीछे लगा, तो राम कैसा पायगा ।
धीरज -समुंदर डूब जा, तब ज्ञान- मोती पायगा।।
२१४
ममता -खराबी छोड दो, निस्संगसे टहले रहो ।
अपने प्रभू की याद में, हर श्वास से बहले रहो ।।
इस लोक के परलोक के, सब भोग को हर जा रहो ।
अलमस्त अपने आप में, धीरज-समुंदर न्हा रहो ।।
२१५
नर ! क्या तुझे नहिं ख्याल है, तेरा खजाना है कहाँ ।
क्यों भूल में भटका रहा ? होगा जहाँ जाना तहाँ ? ।।
नहिं चाह क्या तुझको ? भली -भाँती पिले धनमाल भी |
क्यों बावला घुमता सदा ? मत चल अडाणी चाल भी ।।
२१६
आनंद का अक्षय- खजाना, यार ! तेरे पास है ।
क्यों ढूँढता फिरता सदा, होता विषय का दास है ? ।।
दे छोड ऐसे रोग को, निर्मुक्त हो नित युक्त हो।
रह स्थीर अपने हक्क में, मत भोग में आसक्त हो ।।
२१७
आनंद अपने पास में, क्यों देखता बाहर गडी ।
नाहक ढंढोले धाम को, देखे किताबों को बडी ।।
आनंद तब ही पायगा, अभिमान से बच जायगा ।
अभिमान जब तक है बना,तो काहूँ ना सुख पायगा ।।
२१८
अभिमान करता देह का, किसके भरोसे यार ! तू ? ।
यह देह तो है मिट्टी का, मत कर कभी इततबार तू।।
इस देह में जो ब्रह्म है, वहि जान ले अभिमान कर ।
है ब्रह्म की सत्ता सभी इस भेद को पहिचान कर।।
२१९
अभिमान मत कर देहका, चंदरोज का पुतला मिला।
अच्छे बुरे यों कर्म से, जग में खड़ा गए भला ।।
गर खो दिया ऐसी घड़ी, तो वक्त फिर ना आयगा।
कर याद अपने आप की, भव-दुःख से छुट जायगा।।
२२०
लाखों किताबें याद कर, देता दिखाई भ्रांत सा।
खुब प्रेम से चर्चा करे, पर काम में रहता फँसा।।
मत भोग ऐसे भोग को, जो भोग फिर ले-आयगा।
कर याद अपने आप की, भव-दुःख से छुट जायगा।।
२२१
दौलत भली बटवा-दिया, पर द्रोहता नहिं बाँटता ।
मद लोभ के जंजाल में, दिन दिन-खुशी से थाटता ।।
दे छोड ऐसे भाव को, जो काल - घर बतलायगा ।
कर याद अपने आप की, भव-दुःख से छुट जायगा ।।
२२२
आगे हुआ तो क्या हुवा ? नहिं आगले को साधता |
करना रहा सो ना किया, झूठा हि बोझा लादता ।।
ऐसी किया कर साधना, आगे पिछे सम छायगा ।
कर याद अपने आप की, भव-दुःख से छुट जायगा।।
२२३
पूरब-कमाई-भाग से, मानव ! तुने तन ले लिया ।
कर नेक, नेकी से कमा, नहिं तो करी सो खो दिया ।।
तेरा हि तू करतार है हस हेत को मन भायगा ।
कर याद अपने आप की, भव-दुःख से छुट जायगा।।
२२४
अब छोड भ्रमणा देह की, तू देह का है देहिया ।
निर्भय सदा खुशियाल हो, दे त्याग झूठों की दया।।
तुकडया कहे, निश्चय करे बिन, कहुं ना सुख पायगा।
कर याद अपने आपकी, भव दुःख से छुट जाएगा ।।
२२५
है यार ! बेदो शास्त्र की, बातें कहाँ तक ठोकता ? ।
करता नहीं खुद अनुचरण, मन को जरा नहिं रोकता ।
चंदरोज की ऐसी नशा, इस भूल में गम जायगी ।
तब तूहि कह हमको स्वरुप -तादात्मता कब पायगी ?।।
२२६
इस जात से बे -जात हो, खुद-जात को पहिचान ले।
होगा भला जिस मार्ग से, वहि मार्ग अपने ध्यान ले ।।
मत फँस कभी रुढी पकर, बाँधा न जा इस मोह में ।
मोहब्बत रखेगा झूठ से, रह जागया इस लोह में ।।
२२७
आधीन मत हो पंथ के, तू पंथवाला है नहीं ।
स्वयमेव है तू पंथ से, ये पंथ सब माया कही ।।
अज्ञान के पट फोड़ने, इसकी किया करते नशा।
नहिं तो सदा तू मस्त है, मत पंथ की ले अवदशा।।
२२८,
रंगवा न कपड़े रंग से, रँग जायँगे खुद जंग से ।
तू गा भजन खूब ढंग से, डुल हो भजन के भंग से ।।
उस भंग की छाके नशा, जब ज्ञान उत्पत होयगा ।
तब तू सहज में आप ही, ख़ुद आत्म-में रंग जायगा ।।
२२९
रंग रे ! खुदी के रंग में, मत जा किसी के संग में ।
है क्या पड़ा उन ढंग में, जो इश्कबाजी भंग में ।।
गर खुदबख़ुद ही रंग है, तो क्यों भटकता संग है ? ।
सब त्याग दे ये ढंग है, रख आत्म ही की भंग है।।
२३0
हुशियार हो प्यारे ! जरा, कर मोह से उत्थान रे ।
सीधा हि सीधा पंथ ले, मत हो कहाँ हैरान रे ।।
चल छोड आशा स्वप्न की, यह नींद सारी दे भगा।
नहिं देर अब कुछ भी रही, यमराज तो पीछे लगा।।
२३१
कई लोग आगे बढ गये, कई तो शिखर पे चढ गये।
जमराज से कई लढ गये, स्वानद पद में गढ गये ।।
चल भाग तू भव -भौंर से, आगे नजर धर दे जरा ।
नहिं मौंज पाने की यहाँ खुद आत्म में भर दे जरा ।।
२३२
राजा शिखिध्वज, भरतरी, जडभरत .गोपीचंद भी ।
सब राजमहलों छोड़कर, बन में रमे स्वच्छंद थी ।।
इस धाम से जो हट गये, निज-धाम में है डट गये।
कलि काल बंधन कट गये, भ्रम जाल परदे फट गये ।।
२३३
निज-धाम की कर खोज तू, जैसी बने जिस राहसे ।
ना रुढि का हो दास तू, ना मर नकल के बाँह से ।।
सुविचार से रख पैर को, करता चला जा सैर को ।
वश हो कभी मत गैर को, मत कर किसीसे बेर को ।।
२३४
नहिं भेख से कुछ काम है,नहिं भेखसे कुछ द्रोह भी ।
अलमस्त तू निर्व्दंद्व है, चल छोड भ्रम संमोह भी ।।
ले आत्मका ही भेख तू, अरु आत्मका ही पंथ रे ।
तुकड्या कहे, हुशियार हो, तू एकमेव अनंत रे ।।
२३५
अदमी ! अगर तू जा रहा, क्या ध्येय तेरा हो गया ? ।
बिन ध्येयके तू आजतक में,कया किया,क्या ना किया ?।
जैसी हवा मिलती तुझे, वैसी पुतलियाँ भागती ।
ऐसा नहीं होना कभी, अच्छी न होगी फिर गती ।।
२३६
कुछ ध्येय अपना बाँध ले, अरु मार्ग चलने चालकर ।
कर सर यथा अभ्यास हो, जो छोड़ना वह डालकर ।।
अभ्यास के बिन ध्येय भी, इकदम कभी ना पायगा ।
छेकिन न सीधा जायगा, तो बीच गोता खायगा ।।
२३७
अभ्यास ही है मुख्यतर, साधन सुधरने आर्तका।
अभ्यास बिन लगता नहीं, मारग प्रभू-पद सूर्त का।।
नर ! ऊठ कर अभ्यास को, नियमीत रख यह आसना।
मत भूल अपने कार्य को, पल एक की कर ऐचना।।
२३८
अभ्यास सबका योग्य है, करते नहीं यह भूल है।
अभ्यास की रीती यही, करना विषय निर्मूल है।।
आठों प्रहर हो चिंतवन, मन वासना का हो दमन।
आचार अपना शुद्ध हो, गुरकी कृपा को कर जतन ।।
२३९
कर इंद्रियाँ काबीज तू, फिर ज्ञान-ध्यान पुकारना।
बिन इंद्रियाँ हो वश कभी, नहिं ज्ञान-तेज सुहावना।।
रख याद,ले बैराग +कर,अरु काम-बन को फूँक दे।
कर खाक माया -मोह को ,मत एक पल मनढूंक दे।।
२४०
कर्मेद्रियों को रोध कर, मन को विषय में छोड़ना ।
यह है महा ही दुष्टपन, है ढोंग अपना जोडना।।
नर ! याद रख, मनको कभी, विषयों तरफ चिंतायगा ।
तो आखरी फल पायगा, खुद ही नरक में जायगा ।।
२४१
जिसको नहीं बैराग हो, परमार्थ उसका है नहीं।
बैराग बिन परमार्थ यह, बातें बताना है सही।
हो साधकों के पास में, तो त्याग की पूरी छटा।
सो ही करेगा आखरी, परमार्थ की ऐसी छटा।।
२४२
जो स्वप्न में अपनी कियामत से नहीं जागा रहे ।
सो जागृती में आदमी, कैसा भला जागा रहे ? ।।
है जागता सोही पुरुष, जिसको खबर है मौत की ।
है सावधानी हर कदम, उसको खबर है ज्योतकी ।।
२४३
आलस्य ही दुर्गुण है, सब दुर्गुणोंके साथ में ।
करने न देता कर्म कुछ, आडा पड़े हर बात में ।।
सत्कर्म गर करने लगे, तो ख़ुद न जाने दे कभी ।
बैराग बिन हटता नहीं, साधन वही उसका सभी ॥
२४४
जाते प्रभूकी राह में, आती है आडी सिद्धियाँ।
वृत्ती न आगे जाने दे, कर दे भ्रमी सब बुद्धियाँ॥
जो ज्ञानका ले शस्त्र अरु, बेरागकी ले ढाल को ।
सो पार जाता है चला, सब तोड सिद्धी-जाल को ॥
२४५
जो भक्त प्रभुके हो गये, सो ना अडे सिद्धी लहे।
है तुच्छ जाने सिद्धियाँ, अपने निजात्मा में रहे ॥।
जो भूलकर इस मोह में, जादूगिरी में चट गये।
वे भक्त तो रहिये नहीं, परमात्म-पद से हट गये ।।
२४६
रे । मान आलस छोड दे, अरु कर्म में तैयार हो।
इच्छा न कर कशि कामकी, निष्काम हो हुशियार हो ॥
संकट अगर कुछ भी रहे, तो याद मत भूले कभी ।
तब पार बेडा होयगा, संशय न कर प्यारे ! कभी ।।
२४७
द्रोही हमेशा साथ हो, आपत्ति के आघात हो।
संगत सदा बे-जात हो, माधूकरी खैरात हो।।
ऐसी बखत में यार ! तू, अपना करम छोडे नहीं ।
तब धन्य है ! तब धन्य है ! लागी ध्वजा तेरी सही ।।
२४८
भाई ! डरो मत और से, हो साप से या जहर से ।
गिरी -घाट से, जल-लाटसे, बन-दाटसे या सुवर से ।।
बलके डरो मत शेर से, जंजीर से, तलवार से ।
लेकिन डरो मन-वार से, मनके प्रचारक धार से ।।
२४९
करता हूं मैं अब सोच पर, मन तो जरा समझे नहीं ।
क्या साधना साधूँ कहो ? बिलकूल भी उमजे नहीं ॥
कहिं नाम हो प्रभुका चला, वहाँपे जबर से ले चलूं।
तो नींद ही लगती उसे, क्या खैंच लूँ या ऐंच लू ॥
२५0
मनके भगे मत भाग रे ! मनका भरगाना छोड दे।
कर स्थीर अपने केंद्र में, हरदम उसीमें जोड दे ।।
मन जा भगे जिस वक्त में,ला खैंच के नित ध्यान में ।
जाने न दे किसी ओर भी, भटके न दे शैतान में ।।
२५९
शम दम बिना बनता नहीं, मनके गती को रोकना ।
सत्-संग बिन समझे नहीं, शम दम -हुशारी सीखना।।
हर इंद्रियों को रोधकर, शमवा गुरु के ध्यान में।
तुकड्या कहे, फिर मस्त हो, मत भूलना शैतान में ।।
२५२
यह काम ही शैतान है, मन को खींचाते जा रहा ।
पल-सुख की इच्छा करे, अरू आत्म-सुख गमवा रहा ।
अभ्यास हरदम चाहिये, मनके गती को रोकना ।
मन राम में रंगवाय के, फिर काम-शत्रु जीकना ॥
२५३
है काम बैरी ज्ञानका, आने न दे सत्-ध्यान को ।
भूला फिरावे जान को, हैरान करता प्राण को ।।
नर ! बे-भरोसा जानकर, इस झूठमें रंग जायगा।
लेकिन मजा ना पायगा, आखीर जम -संग जायगा ॥
२५४
है ज्ञान ढाँका भोग से, नर ! भोग अपना भूल जा ।
अरु मुक्त हो इस काम से, तो ज्ञान के संग डूल जा ॥
जब ज्ञान की ज्योती लगे, तेरी नजर में जागती ।
तब काम मद अरु मोह की, वृत्ती पलक में भागती।।
२५५
रे ! ज्ञान अपने पास है, जो +सूचना दे खास है।
पर हम विषय के दास हैं, नाहक भरे बनवास है।।
गर पास की जडियाँ घसी ,अरु दिल-दरद को दे दिया।
तो ज्ञान अपने पास हो भासों प्रगट होता भया।।
२५६
बिन शास्त्र के समझे नहीं, कोई इशारा ज्ञान का।
सब फस गये जग -जाल में, खाते झपाटा काम का ।।
जब मौत आखर आगयी, तब मार्ग कैसा पायगा।
अबसे करो अभ्यास हरदम, सद्गुरु बतलायगा।।
२५७
सत्-वाक्य को सुनते रहो, करते रहो खुद अनुचरण।
बैराग को धारण करो, देखो नजर अपना मरण ॥
फसना नहीं, जंजाल में, मनको हमेशा रोकना।
तुकड्या कहे, धोखा नहीं ,फिर काम सब अपना बना।
२५८
कर प्राप्त सत् को आदमी ! दे सत्यपर तू प्राण रे।
हर श्वास में जप सत्य ही, सत-रूप कर यह जान रे।।
क्या बोल में क्या चाल में ,क्या देख में बिन देखमें ।
सत् के सिवा व्यवहार ना, मनमें तथा हो लेखमें ।।
२५९
झूठे बिचारों को सदा, मत पास आने दो कभी।
होते जहर से जहर वो, खाते सदिच्छाएँ सभी ।।
जैसे न .सापोंकी कभी, घर में तुम्हारे राखते।
वैसे रहो, इस झूठको, तनसे सदा हि हंउचाकते।।
२६०
नर! पाप-पुन तो पास है, लाने न लगता दूरसे।
बढ़ना घटाना पास है, ले पूँढ कई मशहूर से।।
मनके मनेसे पुण्य है, -मनके मने है पाप भी।
निःशक जब मन होयगा, भुल जायगा खुद आपभी ।।
२६१
रमणीय है अपना बदन ऐसा जहाँ मन मानता ।
वह डूबता है जान लो, ख़ुद ही बड़ा-सा जानता ।।
रमणीयता तो इश्क है, उसका पुढारी मन कहा।
मनको जहाँ भेजो वहाँ, संसार ही उसका रहा।।
२६२
माया बडी है मोहनी, इस मोहमें फँस जायगा।
तो राज्य तेरा लूटकर, बरबाद वह बनवायगा।।
मत भूल ऐसे मोह में, तू आत्मका कर ध्यान रे।
साधू, ऋषी, मुनि, सद्गुरु, इनका कहा नित मान रे॥
२६३
रह लीन तू सत् की जगह, मत हो असत् में दीन रे।
गंभीर अपने हक्क में, रहना सदा लवलीन रे ॥
हो निर्विचल अध्यास से, भटके न तू मन-भौंर में ।
मनके पिछे मत भागना, कर लीन अपने ठौर में ।।
२६४
में दीन हूं में हीन हूं, ऐसा मगज में जानता ।
स्वातंत्र्य अपना छोड़कर, अंधी खियालत मानता ।।
अभिमान रखता हीनका,तो किस गती को जायगा ? ।
मत भूल अनुभव-हक्कको, नहिं तो पिछे भरमायगा ।।
२६५
अपनी गरज संसार है, संसारके नहिं हम कभी ।
ऐसा करो अभ्यास तो, यादी रहेगी हर जभी।।
अपना वही है कार्य कि, सत्-रूप को पहिचानना ।
सत् का अनुग्रह प्राप्त कर, अपने भरम को छानना।।
२६६
अभ्यास हरदम कर गडी ! संकल्प सारे देखना।
कामादि में नहिं मग्न हो, आते हि दिलसे फेंकना।।
निश्चय बढाना ज्ञानका, सब कामना को दे हटा।
रह स्थीर तू हरगीज ही, मन-भूल में जा जा डटा।।
२६७
अजि ! अव्वलों या आखरी ,तेरे कवन मा-बाप थे ?।
किस्मत कहाँ था कर्म का,कहाँ पून थे कहाँ पाप थे ? ॥
तू था कहांपर उस घड़ी, जब यह जहाँ बरबाद थी ।
ना थी जमीं अरु आसमाँ, सारी मजा आजाद थी ॥
२६८
इस रीत का कर ख्याल हरदम, दम सुना मत खो कभी।
इक राम ही रह जायगा, फिर यह फना होगा सभी ॥
जब कुछ नहीं मेरा यहाँ, तो आस किसकी कीजिये ?।
यह उ्सर तुम्हारे कदम में, हे नाथ ! लगवा लीजिये ।।
२६९
सब विश्व का करते प्रलय,मन भी विलय को पायगा।
आद्यंत में तो तत्व है, वह एक ही रह जायगा।॥।
अभ्यास ऐसा कर सदा, मन-संयमन होता रहे।
जहाँ विश्व का ही भान ना,फिर क्या किसे भोता रहे ?॥
२७०
तज कामका ही-काम तू, कर क्रोध ही पे क्रोध रे।
हर लोभ का ही लोभ तू, मद मोह को कर बोध रे।।
व्यवहार करता हो सही, व्यवहार का मत बन कभी ।
तुकड्या कहे, रख याद यह,करदे अमन यह मन सभी ।।
२७१
सम्हले नहीं गर मन जरा, तो न्याय से खुब दंड कर।
अल्पाअहारी बन सदा, मत इंद्रियों को संड कर।।
माधुकरी आहार कर, सब लाज तनकी छोड दे।
अपने प्रभूजी के लिये, चाहे हुशारी जोड दे ।।
२७२
जीवन बचाने खा सदा, रस-स्वाद को मत छी कभी ।
मत टेर खो वह शौकमें, दे त्याग इच्छाएँ सभी ।।
जिस वक्त में जो पायगा, उसपे अमल करना सदा।
मत भोगमें आसक्त हो, ऐसी रहन रहना सदा ।।
२७३
नित सत्वगुण-आहार कर, रज-तामसी मत ख कभी।
अपने जशन को भूल जा, परतंत्र ना बनना कभी।।
सत्-वस्तुका कर चिंतवन, सत् से सदा लागे रहो।
स्वातंत्रय -अविचल-प्राप्ति को, गुरु -ज्ञानसे जागे रहो ।।
२७४
हरदम करो शुद्धाचरण, निष्काम अपने को करो।
रुखा मिले, सुखा मिले, जैसा मिले दिलमें धरो ।
जो हो रहा सो ठीक है, ऐसी खियालत बान लो।
न्यारे रहो अज्ञानसे, माया-नटी पहिचान लो |।
२७५
साहब, निशाचर,गांजसी,इनका जिन्हे संग लग गया ।
उनका धरम सब भग गया,झूठा करम नित जग गया।
सोहबत न कर ऐसी कभी, मद काम के जंजाल की ।
यह ख्याल रख जिनके रहे-होगी गती बे- हाल की ॥
२७६
चहाडी छिनाली को सदा, कहता यही आनंद है।
अरु सत्यता के पास भी, रहता खडा नहिं मंद है।।
रे ! मान, ऐसे लोगका, मुखडा कभी नहिं देखना
उस देखने से भी मनुजका, पाप होता दो-गुना॥
२७७
बस मौन ले तू सर्वदा, झूठा नहीं बोले कभी।
चाहे भले फिर दु:ख हो, या प्राण जायेगा तभी ।।
ऐसा अगर निश्चय करे, तो जगत्-प्रेमी होयगा।
ईश्वर खुशी हो जायगा, बैकुंठ-पट खुलवायगा ।।
२७८
मत बाच ऐसे ग्रंथ को, जिनसे विषय होते खडे।
मत बैठ ऐसे लोकमें, जिन स्त्रेणता तनमें चढे।।
मत जा कभी ऐसी जगह, जहाँ प्रेम ना प्रभू-नामका ।
चाहे भले हो तीर्थ भी, कर त्याग ऐसे धामका ॥
२७९
जहाँ वृत्ति रहती स्थीर हो, उनको समझले धाम तू ।
जिस शब्दमें बैराग हो, उसको समझले नाम तू ॥
जिस स्फूर्तिसे शम दम बढे, वहि जानले सत्-ज्ञान तू ।
आनंद जो निष्काम हो, वहि जान खुद- पहिचान तू ॥
२८0
रहता समाजों में अगर, तो रख सभीका धाक तू ।
अरु है यदी नापाक तू, पर कर्म अच्छे चाख तू ॥
ढीला न रह इस लोक में, ये पोल फोल बनायेंगे ।
रे ! मर्द-सा कर आचरण, तो मर्द ही बन आयेंगे ।।
२८१
शांति, क्षमा नहिं चाहिये, उन साधकों के पास में ।
जो भूल जावेंगे अगर, माया-विषय के आस में ।।
सत्-कार्य में हो शांतता, तो ठीक उसका काम है ।
गर झूठमें भी शांति है, तो षंढ-जैसा नाम है ॥
२८२
शांती जरूरी चाहिये, उस शांतिके अवकाशगमें ।
सब वक्त शांती है भरी, तो पायगा फल नाश में ।।
व्यभिचार करने की अगर, हो संगती तो त्यागीये ।
शांती हटाकर क्रोध कर, सत-वस्तुओंपे जागिये ॥
२८३
नित सत्य-साही बोलना, हिंसा-रहित हो खेलना ।
उपकार को नहिं भूलना, यहि मार्गकी हो चालना ॥
अस्तेयता तो पास हो, अरु त्याग तो मन खास हो ।
सेवा करन को दास हो, यह भक्त का अभ्यास हो ॥
२८४
आचार ऐसा चाहिये, जिसका असर सुविचार पर ।
सुविचार सत् आचार से, तन मन बनेंगे शुद्धतर ॥
मन शुद्ध निश्चल बन गया, बहले नहीं वह तापसे ।
अभ्यासके आधारसे, मिल जायगा खुद आपसे ॥
२८५
जो आसका बाँधा पडा, सब काम अपने खो दिया ।
यहाँ से गया वहाँ से गया, नहिं साथमें कुछ भी लिया।।
नहिं स्वार्थ औ परमार्थ भी ,जबतक जगत् का ताप है।
जब ताप तीनों जायेंगे, ईश्वर बनेगा आप है।।
२८६
मनकी लगामों को सदा, खैंचे विचारी-राह में ।
बैरागको धारण करे, फँसता नहीं जो चाह में ।।
उल्टी नजर से देखता, जैसा कुदे जल मीन है।
वहिका सदा ईश्वर बना, दिन-रात ही आधीन है ।।
२८७
जो नैन की नैना जपे, अरु नैन में मशहूर है।
प्रभू दुह को लीना नहीं, आनंद में भरपूर है।।
नहिं स्वप्न को कभू जानता, अरु सज्जनों से लीन है।
वहिका सदा ईश्वर बना, दिन-रात ही आधीन है।।
२८८
बस छोड इच्छा काम की, जो राम में मन जोडता।
बस, लौ लगाकर नामकी -बूटी हमेशा ओढता ॥
न्हाता सदा उस नाम में, दिलको किया जिन साफ है।
तुकड्या कहे उस जीवका, ईश्वर बनेगा आप है।।
२८९
सत्-ग्रंथ, सत्-आचारसे, सत् -संगसे कर शुद्ध मन।
कर स्थीर प्रभूके ध्यान में, सु -विवेक से करके दमन ।।
जब निर्विषय दिल हो गया, अधिकार है अध्यात्ममे ।
तुकड्या कहे गुरुकी कृपासे, लो लगे शुद्धात्म में ।।
२९०
सुविवेक से वैराग्य हो, हो संयमन मनका सदा।
सुख दुःख में निश्चय रहे, अभ्यास-रत ही सर्वदा ॥
श्रृति संत-पद में भाव है, बढ़ता हमेशा पांव है।
तुकडया कहे स्वानंदकी, पावे निरामय छांव है।।
वेदान्त-बोध
२९१
ओंकार सबका बीज है, ओंकार सबका रूप है। .
ओंकार सबंही कार्य है, ओंकार ही अणु-रूप है।।
ओंकार ही ब्रह्मांड है, ओंकार ही यह पिंड है।
ओंकार बिन कोई नही, ओंकार ही परचंड है ।।
२९२
आकाश की सीमा नहीं, नहिं रंग है, नहिं रूप है ।
जो रूप है अरु रंग है, ये नेत्रके अनुरूप है।।
निश्चल वही-सा ब्रह्म है, *अध्यस्तता के बादमें।
अध्यस्त ही सब खेलता, दूही बना आझाद है।।
२९३.
लांबा नहीं, ओंदा नहीं, ऊंचा नहीं, नीचा नहीं ।
आजू नहीं, बाजू नहीं, छोटा नहीं, मोटा नहीं ॥
बाहर नहीं, भीतर नहीं, है भी नहीं ना भी नहीं।
सर्वत्र है परिपूर्ण है, ये ख्याल जिसमें है नहीं ।।
२९४
चारों दिशा में है भरा, तिहूँ कालमें जो पूर्ण है।
आनंत है, नित शांत है, सु- *उदांत है, निर्वर्ण है।।
तेजोजलित-चैतन्य है, स्व-स्वरुप अनुभव सिद्ध है।
तुकड्या उसे करके नमन, कहता सभी फिर बद्ध है ।।
२९५
बंधन सदा जी के लिये, निर्बंध आत्मा मुक्त है।
जो जानकर निकले गये, वह हो गये सब युक्त है।।
उनको न मरने की खबर, दुनिया नजर आती नहीं ।
है मस्त अपने आप में, माया झुठी भाती नहीं ।।
२९६
फंसना फसाना जीव का, आत्मा नहीं फस्ता कभी।
हटता नहीं, कटता नहीं, रोता नहीं, हसता कभी।।
अज्ञान -मयामात्र से,बंधन उसे जो भासता।
सो सर्व बंधन-युक्त है, नहिं आत्मसे कुछ वासता ॥
२९७
आत्मा सदा है एक रस, मरता नहीं, जीता नहीं ।
संसार के इस भोग को, तिल मात्र भी छुता नहीं ।।
सत्ता उसीकी छा रही, वह जीवके प्रतिबिंब से ।
आत्मा सदा निर्लेंप है, नाता नहीं उस बिंबसे ।।
२९८
है लिंब-आत्मा ब्रह्म ही, यह संत .श्रुति-सिद्धांत है।
तू है वही निर्लेप रे ! मत भूल, हो जा शान्त है।।
माया मृषा मत कर खडी , तू एकरस निर्मल सदा।
मत द्वैत का ले नामभी, तुझमें नहा हलचल सदा।।
२९९
तू ब्रम्ह है | तू ब्रम्ह है । संदेह इसमें है नहीं ।
पर जान ले अपना स्वरुप, भूले न मायामे कहीं ॥
माया- अविद्या- रूपसे, माया-रुपी तू भासता |
यह भास अपना छोड दे, यदि रूप अपना चाहता ।।
३००
यह मिश्रका बेपार है, न्यारेपना जो हों गया।
नारी- नटेश्वर - रंग बाजीगर, खुदी तू बन गया ||
यह खेल को पहिचानकर,फिर हक्क अपना जान ले ।
माया-नटी को छोड दे, फिर आपको पहिचान ले ||
३०१
पहिचान से मिल जा वहाँ,जिसको सदा पहिचानता।
मिलना बड़ाही दूर है, यह भेद बिरला छानता।।
जो मिल चुके पहिचानकर, वह मुक्तसे भी मुक्त है।
अधिकार होकर मुक्तका, जगके लिए सत्-युक्त है।।
३०२
नहिं स्थूल-सूक्ष्म-देह तू. कारण महाकारण नहीं।
तू देहका है देहिया, यह देह तुझमें है नहीं ।।
सबंध लगवा ले लिया, चित्-भास के संसर्ग से।
प्रतिभास अपना छोड दे, जा साक्षियों के मार्ग से ।।
३०३
तू जड नहिं, चेतन सदा, जडका तुझे जो भास है।
सो सर्व माया -मात्र है, तू सर्वथा निरभास है।।
साक्षी सदा इस क्षेत्र का, यह क्षेत्र तू तो है नहीं ।
सर्वज्ञ है तू सर्व-पर, यह क्षेत्र सब माया कही ॥
३०४
मैं देह हूँ मै जात हूँ, पंथ हूँ मत मानकर।
निर्भय सदा खुशियाली हो, मै आत्म हूँ यह जानकर ॥
दूहि-अविद्या को हटा, मायां पटा को फोड दे।
आनंद-रुप तू है खुदी, यह दुःख -भ्रमणा छोड दे ॥
३०५
जो ब्रम्ह मैं हूँ जानता फिर देहका अभिमान क्या ? ।
गर देह मैं हूँ मानता, तो -ब्रह्मका अहिसान क्या ? ।।
नहिं ब्रह्म है नहिं देह है, यह ब्रह्मा का आभास है।
आभास जब तक है बना , टूटे न दुख का त्रास है।।
३०६
सब त्राससे निर्मुक्त हो, आभास झूठा छोडकर।
कर सर वही अभ्यास रे ! इस दूहसे दिल मोडकर ।।
तू ब्रह्म है संशय-रहित पर ले पटा अभ्यास से ।
अभ्यास बिन निश्चय करे, फँस जायगा आभास से ।।
३०७
आनंदघन है आत्म तू, फँसना तुझे तो है नहीं।
नहि मुक्त होना भी तुझे, बंधन रहित तू मुक्त ही ।।
झूठा ही बंधन मानता, यह मानना मन का सदा।
सुख दुःख करके भासते, तू एकरस ही सर्वदा ॥
मनका मनाना छूट गया, फिर तूही तू सम एक है।
मन उठ गया तो एक है, मन मिट गया तो एक है।।
अज्ञान से सुख दुःख है, मन के मने से जीवन को।
तू जीव का अधिष्ठ है, नहीं लेश तुझे स्वयमेव को।।
३०९
अभ्यास है मनके लिये, तेरे लिये, कुछ है नहीं।
गर ना करे अभ्यास तो, सुख दुःख की नौबद वही ।।
अभ्यास करना चाहिये, सुख दुःख जबतक भासता।
जब भेद है दिलमे भरा, मै भाव है आभासता॥
३१0
वेदान्त अनुभव के लिये, अनुभव करे निःशंकता |
निःशंकता निर्भय करे, फिर है -न राजा रंकता।।
अभ्यासबिन होवे नहीं, हरगीज निश्चय शुद्ध रे ।
तुकड्या कहे पाता नहीं, तब तक वही स्वानंद रे ॥
वेदान्ताभ्यास
३११
है ही नहीं बस्ती जहाँ, ऐसी जगह में बास कर।
नहिं बोलने का योग है, ऐसी जबाँ अभ्यास कर ।।
पहुँचे नहीं जहाँ नैन भी, ऐसी नजर से देखना ।
तुकड्या कहे मिलता नहीं, उसको मिलाना सीखना ।।
३१२
जहाँ गम नहीं बस्ती जहाँ, ऐसी जगह में बास कर।
लागे बोलने का योग है, ऐसे नजर को पा रहे।।
साधे नहीं जहां साधना, ऐसी निशानी साध लो।
तुकडया कहे पाती नहीं, उस वस्तुओं का हाथ लो ।।
३१९
भाई प्रभू तो दूर है, नहिं आँख से कभू पायगा।
आँखे लगाकर जायगा, तब आखिया मन भायगा।।
वह आँखियों से दूर है, नहिं बुद्धि को भी है पता।
बुद्धी हटा दे चल चढो, धर धी उसे प्रभु चाहता ।।
३२०
अनुमान क्योंकर कर रहे ? प्रत्यक्ष- आँखी खोल लो।
अज्ञान-पडदा छोड दो,अपने स्व-रुप को तोल लो।।
अजि ! तोल लो निज-ज्ञान को, आँखी लगाकर तोल लो |
करते रहो खुद अनुचरण, मेरे प्रभू को मोल लो।।
३२१
आत्मा सिवा नहिं अन्य है,नजदीक कोई चीज भी ।
नजदीक ऐसा आत्म है, न अनात्म हो हरगीज भी ।।
जितना अनात्मा भासता, यह सब जुदा है आत्म से।
आत्मा निकट तो है भले, यह देखना भी आत्म से ।।
३२२
आत्मा न करना प्राप्त है, है प्राप्त ही वह सर्वदा।
अज्ञान से भासे नहीं, जिहूँ आप से रज है जुदा।।
भूले भुलैया लोक तो, वह आप से कहते बुरा।
नहिं आप होता है बुरा, तिहूँ आत्म ही रहता पुरा॥
3२३
बाहर-भितर गर एक है,तो आँख मिचके क्या किया ? ।
जो कुछ किया सो ना किया,अपना फरक बतला दिया।
जब ज्ञान की नैना खुले, बाहर-भितर जाना भुले।
अंदर बाहर सब एक है इस भेद के पडदे खुले।।
३२४
नजदीक से है दूर भी, है दूर से नजदीक वो ।
नर देखना ही देख ले, तू राह ऐसी सीख वो।।
देखा -दिखब्बा यार ही, मौजूद अपने पास में ।
खाली न घूमो ओर भी, देखो तरक हर श्वास में ।।
३२५
प्रभु ही सनातन एक है, बाकी बने सो क्या बने।
जो कुछ बने,उसके बने, अपने बने नहीं, क्या बने।
बनना बिगडना तत्व यह, है प्रकृति ही के आसरे ।
अभिमान करने को उन्हें, है प्रकृति ही संसास रे ! ॥
३२६
संसार है, अच्छा बुरा, यह कौन तन में मानता ?।
उसको हि मन कहते सदा, तू सोच गर यह जानता ॥
गर मन न माने स्वार्थ तो, बिलकूल जीव हि ब्रह्म है।
निर्द्वंद्व है ! स्वछंद है ! मन से मनाया बंध है।
३२७
संसार नाटक है पुरा, मन रंगता रंगभूमि में ।
कई लाख बदले पार्ट को,वृत्ती सहित हर कौमि में ।।
मरना जनमना, दुःख सुख, है हानि लाभ हि खेलना |
लेकिन न साक्षी भूलता, है एक- सा मत भूलना ।।
३२८
बंधन सभी अज्ञान है, तू बंध का साक्षी सदा ।
होता रहे घटता रहे, तेरा न कुछ होता कदा ।।
तू सर्वथा साक्षी रहे , इस साक्षता को जान ले।
प्रारब्ध है उपभोग को, तू सत्य को पहिचान ले ।।
३२९
जहाँ सत्य है वहाँ ज्ञान है, नहिं ज्ञान से सत् अन्यथा ।
जहाँ ज्ञान सत् मिल जात है, बह चित् कहावे सर्वथा॥
सत -ज्ञान में जब चित्त हो, आनंद होता है खडा।
तीनों मिले संयोग में, तब पूर्ण हो सत् का धडा ।।
३३०
सर्वत्र है प्रभू - रूप ही, सत्ता नहीं अन्यत्र है।
सन्मात्र है, चिन्मात्र है, अणुमात्र है, सुखमात्र है।।
प्रभू के बिना नहिं बोलना, नहिं चालना, ना हालना ।
बस, देख देखैया वही, इस तत्व को मत भूलना ॥
३३१
चैतन्य ही है सर्व था, चैतन्य बिन कोऊ नहीं।
यह विश्व सब चैतन्यमय, माया अबिद्या यों सही।।
दिखता सभी चैतन्य है, देखे सभी चैतन्य है।
यह तत्व पाँचों भी वही, त्रैगुण भी ना अन्य है।।
३३२
जग में जनार्दन है भरा, लेकिन नजर आता नहीं।
कई ढूँढते उसके लिये, जलदी पता पाता नहीं ।।
घट घट भरा कहती श्रुति, अरु संत का यों बोध रे।
प्रभू पास ही भरपूर है, तेराहि तू कर शोध रे।।
३३३
करता पता, किसका पता ? तेरा पता तो है नहीं ।
ना तू नहीं, ना मैं नही, है भी नहीं, ना भी नहीं ।।
जो है वहीं, है साँचतर, कहते रहो या ना कहो।
उसमें न होता भेद है, उसके लिये बस हाँ कहो ।।
३३४
निश्चल -परम -आनंद्घन -अविनाश आत्मा सर्वदा ।
हरएक वस्तूरूप है, ना है किसी से भी जुदा।।
ब्रम्हांड भर में पूर्ण है, नहिं पूर्ण से बाकी कहाँ ।
अध्यस्त के परिवर्त में, भासे नहीं देखा जहाँ ॥
३३५
रज्जू सरप-सम भासता, यह भास जैसा है वृथा।
तिहूँ ब्रह्म में जग देखना, यह देखना सारा वृथा ||
निज ब्रह्म के स्वाराज्य में, दुनिया न भाती है कभी ।
भाती उन्हीं के साथ वह, जब ब्रह्म देखा ना तभी।।
३३६
है देखने बिन देखना, निजरूप को प्यारे ! सदा।
खुद ही खुदी में मिल चुको, कुछ न हो न्यारे सदा।।
नहिं विश्व है, नहिं जीव है, जो है सभी भ्रम मात्र रे।
जो है-नहीं के है परे, बस तूहि तू सर्वत्र रे॥
३३७
संसार तो है ही नहीं, जो ज्ञान-धुन में लग गये ।
चारों भवन में जग गये, झूठे जगत् से भग गये ।।
दौलत उन्हीं को मिल गई, बैकुंठ की जहागिर खूली ।
सो तर गये, सो तर गये, जिनकी नजर खूली भली ।।
३३८
जिस नैन से है देखना, उस नैन को ही देख ले।
सब देखना ही भूलकर, अनुभव-परे निज-भेख ले।।
स्वानंद-पद में धुंद हो, सब धुंदि को भी भूल जा।
नहिं बंध है, ना मोक्ष है, सम एकरस में डूल जा ।।
३३९
है मुक्त होने की जिसे, पर्वा सदा जो बद्ध है।
गर बद्ध ही जो है नहीं, तब मुक्ति बिन आनंद है।।
आनंद॒ उसको भासता, आनंद के जो दूर है।
आनंद ही जब मिट गया, तब हो गया मशहूर है।।
३४०
मायामयी सब खेल है, बैकुंठ हो या मोक्ष हो ।
हो दृश्य या द्रष्टा सभी, हो ज्ञान या अपरोक्ष हो।।
त्रिपुटी जहाँतक शेष है, बाहर-भितर यह देश है।
तबतक बना ही क्लेश है, जबतक अहंपन लेश है।।
३४१
सब द्वैत को दे फूँक रे ! त्रिपुटी रहित हो निर्विचल |
नहिं भाव है, न अभाव है, सब एकरस हो जा अचल ॥
नहिं ज्ञान, ज्ञाता ज्ञेय भी, अनुभवपना नहिं शेष है।
तुकड्या कहे अलमस्त हो, होना ना होना क्लेश है।।
३४२
व्यतिरेक पहिले सीखना, चहूँ देह के पर आत्म से ।
अन्वयगती फिर लेखना, बाहर भितर परमात्म से ।।
तत् त्वम् असि को छानकर,निज आत्म-अनुसंधान कर ।
तुकड्या कहे फिर साम्यता, त्रिपुटी रहित पथ ध्यानकर ।।
३३७
संसार तो है ही नहीं, जो ज्ञान-धुन में लग गये ।
चारों भवन में जग गये, झूठे जगत् से भग गये ।।
दौलत उन्हीं को मिल गई, बैकुंठ की जहागिर खूली ।
सो तर गये, सो तर गये, जिनकी नजर खूली भली ।।
३३८
जिस नैन से है देखना, उस नैन को ही देख ले।
सब देखना ही भूलकर, अनुभव-परे निज-भेख ले।।
स्वानंद-पद में धुंद हो, सब धुंदि को भी भूल जा।
नहिं बंध है, ना मोक्ष है, सम एकरस में डूल जा ।।
३३९
है मुक्त होने की जिसे, पर्वा सदा जो बद्ध है।
गर बद्ध ही जो है नहीं, तब मुक्ति बिन आनंद है।।
आनंद॒ उसको भासता, आनंद के जो दूर है।
आनंद ही जब मिट गया, तब हो गया मशहूर है।।
३४०
मायामयी सब खेल है, बैकुंठ हो या मोक्ष हो ।
हो दृश्य या द्रष्टा सभी, हो ज्ञान या अपरोक्ष हो।।
त्रिपुटी जहाँतक शेष है, बाहर-भितर यह देश है।
तबतक बना ही क्लेश है, जबतक अहंपन लेश है।।
३४१
सब द्वैत को दे फूँक रे ! त्रिपुटी रहित हो निर्विचल |
नहिं भाव है, न अभाव है, सब एकरस हो जा अचल ॥
नहिं ज्ञान, ज्ञाता ज्ञेय भी, अनुभवपना नहिं शेष है।
तुकड्या कहे अलमस्त हो, होना ना होना क्लेश है।।
३४२
व्यतिरेक पहिले सीखना, चहूँ देह के पर आत्म से ।
अन्वयगती फिर लेखना, बाहर भितर परमात्म से ।।
तत् त्वम् असि को छानकर,निज आत्म-अनुसंधान कर ।
तुकड्या कहे फिर साम्यता, त्रिपुटी रहित पथ ध्यानकर ।।
३३७
संसार तो है ही नहीं, जो ज्ञान-धुन में लग गये ।
चारों भवन में जग गये, झूठे जगत् से भग गये ।।
दौलत उन्हीं को मिल गई, बैकुंठ की जहागिर खूली ।
सो तर गये, सो तर गये, जिनकी नजर खूली भली ।।
३३८
जिस नैन से है देखना, उस नैन को ही देख ले।
सब देखना ही भूलकर, अनुभव-परे निज-भेख ले।।
स्वानंद-पद में धुंद हो, सब धुंदि को भी भूल जा।
नहिं बंध है, ना मोक्ष है, सम एकरस में डूल जा ।।
३३९
है मुक्त होने की जिसे, पर्वा सदा जो बद्ध है।
गर बद्ध ही जो है नहीं, तब मुक्ति बिन आनंद है।।
आनंद॒ उसको भासता, आनंद के जो दूर है।
आनंद ही जब मिट गया, तब हो गया मशहूर है।।
३४०
मायामयी सब खेल है, बैकुंठ हो या मोक्ष हो ।
हो दृश्य या द्रष्टा सभी, हो ज्ञान या अपरोक्ष हो।।
त्रिपुटी जहाँतक शेष है, बाहर-भितर यह देश है।
तबतक बना ही क्लेश है, जबतक अहंपन लेश है।।
३४१
सब द्वैत को दे फूँक रे ! त्रिपुटी रहित हो निर्विचल |
नहिं भाव है, न अभाव है, सब एकरस हो जा अचल ॥
नहिं ज्ञान, ज्ञाता ज्ञेय भी, अनुभवपना नहिं शेष है।
तुकड्या कहे अलमस्त हो, होना ना होना क्लेश है।।
३४२
व्यतिरेक पहिले सीखना, चहूँ देह के पर आत्म से ।
अन्वयगती फिर लेखना, बाहर भितर परमात्म से ।।
तत् त्वम् असि को छानकर,निज आत्म-अनुसंधान कर ।
तुकड्या कहे फिर साम्यता, त्रिपुटी रहित पथ ध्यानकर ।।
३३७
संसार तो है ही नहीं, जो ज्ञान-धुन में लग गये ।
चारों भवन में जग गये, झूठे जगत् से भग गये ।।
दौलत उन्हीं को मिल गई, बैकुंठ की जहागिर खूली ।
सो तर गये, सो तर गये, जिनकी नजर खूली भली ।।
३३८
जिस नैन से है देखना, उस नैन को ही देख ले।
सब देखना ही भूलकर, अनुभव-परे निज-भेख ले।।
स्वानंद-पद में धुंद हो, सब धुंदि को भी भूल जा।
नहिं बंध है, ना मोक्ष है, सम एकरस में डूल जा ।।
३३९
है मुक्त होने की जिसे, पर्वा सदा जो बद्ध है।
गर बद्ध ही जो है नहीं, तब मुक्ति बिन आनंद है।।
आनंद॒ उसको भासता, आनंद के जो दूर है।
आनंद ही जब मिट गया, तब हो गया मशहूर है।।
३४०
मायामयी सब खेल है, बैकुंठ हो या मोक्ष हो ।
हो दृश्य या द्रष्टा सभी, हो ज्ञान या अपरोक्ष हो।।
त्रिपुटी जहाँतक शेष है, बाहर-भितर यह देश है।
तबतक बना ही क्लेश है, जबतक अहंपन लेश है।।
३४१
सब द्वैत को दे फूँक रे ! त्रिपुटी रहित हो निर्विचल |
नहिं भाव है, न अभाव है, सब एकरस हो जा अचल ॥
नहिं ज्ञान, ज्ञाता ज्ञेय भी, अनुभवपना नहिं शेष है।
तुकड्या कहे अलमस्त हो, होना ना होना क्लेश है।।
३४२
व्यतिरेक पहिले सीखना, चहूँ देह के पर आत्म से ।
अन्वयगती फिर लेखना, बाहर भितर परमात्म से ।।
तत् त्वम् असि को छानकर,निज आत्म-अनुसंधान कर ।
तुकड्या कहे फिर साम्यता, त्रिपुटी रहित पथ ध्यानकर ।।
३३७
संसार तो है ही नहीं, जो ज्ञान-धुन में लग गये ।
चारों भवन में जग गये, झूठे जगत् से भग गये ।।
दौलत उन्हीं को मिल गई, बैकुंठ की जहागिर खूली ।
सो तर गये, सो तर गये, जिनकी नजर खूली भली ।।
३३८
जिस नैन से है देखना, उस नैन को ही देख ले।
सब देखना ही भूलकर, अनुभव-परे निज-भेख ले।।
स्वानंद-पद में धुंद हो, सब धुंदि को भी भूल जा।
नहिं बंध है, ना मोक्ष है, सम एकरस में डूल जा ।।
३३९
है मुक्त होने की जिसे, पर्वा सदा जो बद्ध है ।
गर बद्ध ही जो है नहीं, तब मुक्ति बिन आनंद है।।
आनंद॒ उसको भासता, आनंद के जो दूर है ।
आनंद ही जब मिट गया, तब हो गया मशहूर है।।
३४०
मायामयी सब खेल है, बैकुंठ हो या मोक्ष हो ।
हो दृश्य या द्रष्टा सभी, हो ज्ञान या अपरोक्ष हो।।
त्रिपुटी जहाँतक शेष है, बाहर-भितर यह देश है।
तबतक बना ही क्लेश है, जबतक अहंपन लेश है।।
३४१
सब द्वैत को दे फूँक रे ! त्रिपुटी रहित हो निर्विचल |
नहिं भाव है, न अभाव है, सब एकरस हो जा अचल ॥
नहिं ज्ञान, ज्ञाता ज्ञेय भी, अनुभवपना नहिं शेष है।
तुकड्या कहे अलमस्त हो, होना ना होना क्लेश है।।
३४२
व्यतिरेक पहिले सीखना, चहूँ देह के पर आत्म से ।
अन्वयगती फिर लेखना, बाहर भितर परमात्म से ।।
तत् त्वम् असि को छानकर,निज आत्म-अनुसंधान कर ।
तुकड्या कहे फिर साम्यता, त्रिपुटी रहित पथ ध्यानकर ।।
आत्मानुसंधान
३४३
यह बन हमारा मित्र है, गंगा हमारी माँ बनी ।
पर्वत हमारी खोपडी, भक्ति हमारी है धनी ।।
जंगल -जनावर जिग्र हैं, चंदा सुरज है रोशनी ।
बस, कुछ नहीं अब चाहिये,हमको नहीं आगे *उनी ।।
३४४
गंगा-किनारे बैठकर, हर बूंद को देखा करूँ ।
हर बूँद के आधार में, ये वृत्तियाँ "लेखा करूँ ।।
ऊठे उठाते गंगा की, जैसी लहर मिटती रहे ।
वैसी हमारी वृत्तियाँ, सत - रूप में घटती रहे ॥
३४५
अलमस्त बूटी मिल गयी, दुनिया नजर से ढल गयी ।
अज्ञान-आंधी हल गयी ,निजज्ञान-बिजली फल गयी।।
सीधा ही सीधा जाऊँगा, वापिस नहिं फिर आऊँगा ।
हक में सदा रंग जाऊँगा, रंग में सदा मर जाऊँगा ।।
३४६
मिल जाऊँगा मिल जाऊँगा,वापिस नहिं अब आऊंगा।
वृत्ती विषय से खैचकर, सत् - रुप में समवाऊँगा ॥
समवाय के समवाय का -अभिमान भी नहिं लाऊंगा ।
तुकड्या कहे सब क्षेत्र को, क्षेत्र -ज्ञमें रंगवाऊँगा ।।
३४७
मायारुपी है क्षेत्र सब, इस क्षेत्र को में जानता ।
हैं दूर यह संघात से, मुझमें नहीं इसका पता |
बनता बिगडता खेल है, में साक्षि निश्चल देव हूँ।
सन्मात्र हूँ ! चिन्मात्र हूँ ! आनंदमय स्वयमेवर हूँ।।
३४८
स्वयमेव आत्मा सिद्ध है,तब सिद्ध मैं, किसको करूँ ? ।
नहिं बद्ध होता है कभी, छोडू किसे, किसको धरूँ ? ।।
मन बुद्धियाँ जो जड़ सदा चेतन नहीं बनती कभी |
चेतनपना-सी भासती, यह आत्म की सत्ता सभी ।।
३४९
इस बंध से हमसे नहीं, नाता कभी तिहूँ काल में ।
आये न हम संसार में, जखडे नहीं इस जाल में ।।
यह प्रकृति का ही धर्म है, बंधन तुम्हें जो भासता ।
मै नित्य आत्माराम हूँ ,नहिं बंधसे कुछ वासता ।।
३५0
इंद्रीयगण - बेपार के, आशक्षेप से संसार हैं।
संसार का न्यारे पना, मन का बना व्यवहार है।।
मन तो तरंग की बूंद है, है बुद्धि से सहवासता ।
मैं नित्य आत्माराम हैं नहिं बुद्धि से कुछ वासता ।।
३५१
अंतःकरण की रोशनी, है बुद्धि का चेतनपना ।
अंतःकरण प्रतिभास है, यह जीवपन जहाँ से बना ।।
इस जीव का रुप आद्य जो,सो ही हमारी साक्ष -ता ।
में नित्य आत्माराम हूँ नहिं बुद्धि से कुछ वासता।।
३५९
मेरे लिये नहिं साक्ष है, में साक्ष का भी साक्ष हैं।
सर्वज्ञ हूँ ! सर्वत्र हूँ ! , नहिं पक्ष, मै निरपेक्ष हूँ।।
बंधन सभी है बंध को, में आदमी अस्तित्वता ।
मैं नित्य आत्माराम हूँ नहिं आदि मध्यरु अंतता ॥
३५३
मेरे लिये नहिं बंध है, नहिं मोक्ष का भी है पता।
मुझसे न कोई भिन्न है, है दृश्य दर्शन ला पता ॥
मैं एकरस स्वानंदघन, नहिं जीव जग भी सर्वथा |
मै नित्य आत्माराम हूँ नहिं द्वेत जड-चेतन तथा॥
३५४ न
आधिष्ठ हूँ मैं निर्विचल, चारों भवन से दूर हूँ।
दूर से न्यारा सदा, स्वयमेव हूँ भरपूर हूँ ॥
तुकड्था कहे, कहना कहाँ ? जो है सभी मेरी लहर |
मैं नित्य आत्माराम हूँ इस भाव का भी ना जहर ||
रूपक
३५५
है नेम की निर्मल ध्वजा, अरु प्रेम-वीणा है मधुर ।
माला सुमन की मोहनी, देवल हृदय का शुद्धतर ॥
सोहं सहज ही कर भजन, नैवेद्य अर्पण ज्ञान से ।
स्वानंद्घन परमात्म को, वहि भक्त प्यारा प्राण से ।।
३५६
बैराग के बाजार में, दुनिया बिकाई ज्ञान ने ।
सौदा खरीदा भाव का, भक्ति लियी दिल छानने ॥
निष्काम के घर धर दिया, जितना लिया सामान है।
राँधा अनुभव थाल में, खाने गये निजधाम है।।
३५७
सुविचार-झडियों बीच में, संतोष-नांवे छा रही ।
खुब ज्ञान-गंगा बह रही, मद काम काँटी जा रही ॥
प्रित के फुवारे उड रहे, आनंद लाटें चढ रहे ।
मत्सर-मगर खुब लढ रहे, अनुभव-समुंदर बढ रहे।।
३५८
है बोध-झडियाँ बीच में, स्वानंद बरखा हो रही।
श्रद्धारुपी सत्पात्र को, निजज्ञान-जल से धो रही |
तिहूँताप सब ही मिट गये,स्थल काल बंधन कट गये।
संतोष बुलबुल शांतिमय, अनुभव सुंदर घट गये।।
३५९
हैं, ज्ञाररुप-आनंदबन, भक्ती-झरन से है फुला।
बैसाग का खत पहुँचते, अनुभव-अकाशों में चला ॥
सत् की सुगंधी आ रही, अरु आरतं-भृंगी छा रही।
तादात्म-परिपूर्णात्म की, कलियाँ झलक उठवा रही ॥
३६०
सत्प्रेम की गहरी लता, है शांति-मंडप पे चढी।
बैराग-कुंपन है सदा, शम दम विनय पाते बडी ॥
सत्-ध्यान-फूलों से भरी, है बोध का वर्षा चला।
सत्-चित्-सुखामृत-पूर्ण फल, जहाँ शांत -भूंगी कोयला ।।
३६१
है फूल फूला पर्स में, शौकत जमाने छा गईं।
उसकी सुगंधी लोक में, परलोक में मन भा रही ।।
उस फूल को जाने सभी, पर जड नहीं जिहूँ जानते ।
बिन बीज के यह फूल तो, देखे पड़े समशान थे।।
३६२
है ज्ञान के आकाश में, बादल जगत् का लापता |
घनदाट सत्ता छा रही, है शांति की घनशामता ॥
स्वानंद के तारे विमल, है भ्रांति-नैना मिट गईं।
तुकड्या कहे सब द्वैत की-जड झूठ माया कट गई ।।
योग -मार्ग
३६३
यह अन्नमय का कोश ही, आकार पिंड कहाय है।
अरु पंचप्राणादी सभी, यह प्राणमय कोशाय हे।।
कर्मेद्रियाँ मन-कोश हे, ज्ञानेंद्रियाँ विज्ञानमय ।
आनंदमय सुषुप्त है, यह पंच कोशों का विषय ।।
३६४
यह जीव जाग्रत के समय, आँखों -निशाना चाहता।
अरू स्वप्न के संधान में, कंठस्थ आके लाहता।।
सुषुप्त में हृदय-स्थ हो, सुख दुःख दोनों छोडता।
तुरिया-अवस्था में स्थिती, नाभी कमल से जोड़ता |।
३६५
आसक्त जागृत-रंग है, अरु स्वप्न का रँग शुभ्र है।
सुषुप्त बादल सी छटा, तुरिया निला पट अश्र है।।
केवल्य तो बिन रंग है, नहिं रंग है नहिं संग है।
तेजोजलीत निस्संग है, स्वयमेंव सिद्ध अभंग है।।
३६६
करते हि प्राणायाम जो, श्वासा उसाँसा रोध के।
लाते तलासी चक्र की, दल पाकलीयाँ शोध के ।।
षड्चक्र का कर भेद पाते, स्थान की गंभीरता ।
बैराग्य रखते पास में, यह प्राण-जय को सर्वथा ।।
३६७
कई तो प्रणव के नाद में, वृत्ति समाते ध्यान से।
अध-ऊर्ध्व करते आगमन, नादादिके संधान से।।
संधान साधे योग का, संयोग करते आत्म का।
मिलते कियाकर प्राण-जय, पाते पता शुद्धात्मका ।।
३६८
हरदम बरसती है झड़ी, सोहं जबाँ के बूंद से।
हर श्वास में लागा लगन, एकिस हजारों छेहुशे।।
जो योग अपना साधकर,इस मंत्र को जापा करे।
बिन कष्ट के भव सिंधु में, रहता हुआ प्राणी तरे।।
३६९
भरपूर गंगा बह रही, सोहं झलारी छा रही।
हर स्वास में उठती, लहर,संधि सुगंधि भा रही।।
आवो सभी भी न्हायेंगे, सोहं झलक में छायेंगे।
वो मय खुदी बन जायेंगे, अनुभव डूबी लगवायेंगे।।
३७०
हे री सखी ! कहँ क्या तुझे ? मेरे पती का आसना |
दिल ही न लौटे फिर कभी, आता कहीं उच्छवास ना ॥
आँखे न मिचने की खबर, जब दर्श होता यार से ।
बस तुच्छ दिखता खेल यह, मेरे पती के प्यार से ।।
३७१
मैं चढ गई हूँ घाट पे, जहाँपर त्रिकुट का थाट है।
जीवन -झरा झरता जहाँ, अरु ज्ञान बन घनदाट है।।
मेरी नजर नहिं लौटती, है जादुगर कोई यहाँ।
बस आ गई मुझको नशा, अब दिल न आने को तहाँ ॥
३७२
सूने महल में दीप की, झलकी नजर में आ रही।
सुरज कभी, तारे कभी, बिजली -झलारी छा रही ।।
रण के नगारे बज रहे, अर्गन मधुर-सी गा रही।
निजज्ञान की बरखा हूँ मैं, अनुभव -फुँवारी हो रही ॥
३७३
अर्गन सुहावन बज रही, तबला, कहीं है खंजरी |
बनसी सरंगी माधुरी, मुरदंग है अरु झंझरी ।।
नाना तरह के वाद्य में, चलता सरस है तंबरा।
आनंद का लगता झरा, अनहद नगारो में भरा ॥।
३७४
मैं जा रही हूँ री सखी ! अपने पिया के सेज पे।
जगमग जहाँ ज्योती रहे, बिन रातदिन नसंसेज पे ।।
जहाँ देह ना अरु बंगेह ना, नहिं स्थान है,ना ध्यान है।
ऐसी जगह मैं जा रही, जहाँ में न तू अवसान है ॥।
३७५
है योग तो ! सामर्थ्य की, आनंद की भी खान है।
पर है महा ही कष्टमय, कई हो गये हैरान है ।।
संकट हजारों रोकते, सहना बडा मुश्कील है।
योगी गिरे कई रोग में, कई भोग के मंजील है।।
३७६
पढके न बनता योग रे ! सच्चा गुरु ही चाहिये ।
कई प्राण जय में मर चुके, क्या कष्ट वह बतलाईये ।।
कई मूढ बन बन घुमते, कई रोग से बेजार है।
गुरु के बिना सब है कठिन, समझे न सच्चा सार है।।
३७७
हट-योग-साधन के लिये, बलवंत तन मन चाहिये।
बैराग अरु अभ्यास की, मजबूत शक्ती छाईये ।।
लोकेषणा, मद, सिद्धियाँ, सब तुच्छ हरदम ह्रलेखना ।
गुरु के चरण में लीन हो,निज आत्म-सुख को देखना ।।
३७८
ले हाथ धीरज-ढाल को, बैराग की तलवार ले।
अभ्यास का चिल्खत चढा,अरु चष्म-सारासार ले ।।
गुरु-ज्ञान की करके ध्वजा, चढ जा त्रिकुट के घाटपर।
तुकड्या कहे, गढ जीत ले,उस नाद बूंद झलाट पर ।।
३७९
यम नेम, आसन, प्राणजय, अरु युक्त प्रत्याहार है।
कर धारणा, धर ध्यान को, पा ले समाधी सार है।।
है चित्त वृत्ति निरोध को, यह योग की सीढी विमल।
फिर ज्ञान से लवलीन हो, निज आत्म-पद में निर्विचल।
३८0
यम नेम से तनु मन शुची, स्थिर होत आसन -बंधसे।
उठवाय कुंडलनी भली, सम प्राण के संबंध से ॥
षड़् चक्र का भेदन करे, बिजली गिरे, गरजे गगन ।
गटकाय अमृत-बूंद की, कर लीन जिन-पद में सधन।।
३८१
बिन ज्ञान के गर योग का, संपूर्ण मारग कर चुके।
सिद्धी हजारों भर चुके, कई वर्ष जीवन धर चुके।।
पर फोल ही वह जानिये, जबतक न आत्मानंद है।
लाखों ऋषी मुनी गिर चुके,बिन ज्ञान के सब मंद है।।
३७६
पढके न बनता योग रे ! सच्चा गुरु ही चाहिये ।
कई प्राण जय में मर चुके, क्या कष्ट वह बतलाईये ।।
कई मूढ बन बन घुमते, कई रोग से बेजार है ।
गुरु के बिना सब है कठिन, समझे न सच्चा सार है।।
३७७
हट-योग-साधन के लिये, बलवंत तन मन चाहिये।
बैराग अरु अभ्यास की, मजबूत शक्ती छाईये ।।
लोकेषणा, मद, सिद्धियाँ, सब तुच्छ हरदम ह्रलेखना ।
गुरु के चरण में लीन हो,निज आत्म-सुख को देखना।।
३७८
ले हाथ धीरज-ढाल को, बैराग की तलवार ले ।
अभ्यास का चिल्खत चढा,अरु चष्म-सारासार ले।।
गुरु-ज्ञान की करके ध्वजा, चढ जा त्रिकुट के घाटपर।
तुकड्या कहे, गढ जीत ले,उस नाद बूंद झलाट पर ।।
३७९
यम नेम, आसन, प्राणजय, अरु युक्त प्रत्याहार है ।
कर धारणा, धर ध्यान को, पा ले समाधी सार है ।।
है चित्त वृत्ति निरोध को, यह योग की सीढी विमल ।
फिर ज्ञान से लवलीन हो, निज आत्म-पद में निर्विचल।
३८0
यम नेम से तनु मन शुची, स्थिर होत आसन -बंधसे।
उठवाय कुंडलनी भली, सम प्राण के संबंध से ॥
षड़् चक्र का भेदन करे, बिजली गिरे, गरजे गगन ।
गटकाय अमृत-बूंद की, कर लीन जिन-पद में सधन।।
३८१
बिन ज्ञान के गर योग का, संपूर्ण मारग कर चुके।
सिद्धी हजारों भर चुके, कई वर्ष जीवन धर चुके।।
पर फोल ही वह जानिये, जबतक न आत्मानंद है।
लाखों ऋषी मुनी गिर चुके,बिन ज्ञान के सब मंद है।।
३८२
सत्- ध्यान कम मन रोधकर, संकल्प सारे छोडना ।
कर शून्य में वृत्ती विलय, फिर ज्ञान में चित जोड़ना ।।
त्रिपुटी -रहित निज-रूप में, लवलीन हो जाना सही ।
तुकड्या कहे, तब योग की, परिपूण युक्ती छा गई ।।
सम-दृष्टि
३८३
भाई ! हमारे मग्ज में, करना फकीरी की चलन ।
ना है किसीसे बैरता, अरु ना कोई है मित्रजन ।।
सब एक ही घरके बने, माँ-बाप सबका हे वही ।
किस्मत हमारे है जुदा, करके सजा यह हो रही ।।
३८४
अपनी जबाँ से क्या कहूँ ? क्या में किसी से दूर हूँ ? ।
क्या मार्ग मेरा है जुदा, तो आपसे न्यारा रहूँ ।।
है योंहि सुनते आ रहे, प्रभू तो सभी का एक है ।
फिर द्रोहता क्यों चाहिये ? वह बाप,हम सबलेक है।।
३८५
मैं ही चतुर मत मान तू, मत कर तनू-अभिमान तू ।
मत दुसरे कर तान तू, सब ही बराबर जान तू ॥
रे मुढ़ ! विद्या पा गई, तो किसलिये ? यह जान ले।
पसम-भाव सब में रख सदा,इस तत्व को नित छान ले
३८६
ससर्वज्ञ सबके पास है छोटा बडा फिर है कहाँ ? ।
गर है उजर छोटा बडा, तो किस रिती तुमने कहाँ ? ॥
अभिमान से जुदा हुआ ऐसा पुकारा शास्त्र का |
अभिमान अपना छोड दो, माया-अविद्या-अस्त्र का।।
३८७
ऐ मित्र ! तुम हम एक है, दूजा यहाँ कोई नहीं ।
लाखों मरे तो एक है, कई आगये तो एक ही ।।
जो पूर्ण है बह पूर्ण है, नहिं पूर्ण में है अन्यथा |
कई चल गये तो पूर्ण है, आये तभी भी पूर्णता ।।
३८८
मेरा स्वरुप ही हर जगह, हर वक्त में मौजूद है ।
फिर कुफ्र हो, इस्लाम हो, हमसे नहीं वह हजूद है ।।
यह भूल माया की जिन्हें, उनको जुदाई हो रही |
हैं मस्त हम अपनी जगह, तो तू नहीं अरु मैं नहीं ।।
३८९
में द्रोहता किसकी करूँ ? गर आप ही सर्वत्र है ।
मौजूद है ! हर वक्त है ! अणुमात्र है ! चिन्मात्र है ।।
मेरा मही सो भासता, माया रुपी इस काँच पर ।
तुकड्या कहे, ऐसा करो -निश्चय, बनो फिरके निडर ।
३९०
जो है सभी मैं एक हूँ, मैं - तू पना भी झूठ है ।
सम एकरस परिपूर्ण ही, स्वानंद की लयलूट है ॥
समदृष्टि के अभ्यास से, कामादि होते लीन है ।
तुकड्या कहे बाहर भितर, आनंद ही स्वाधीन है ॥
ससार में सार
३९१
संसार करता जाऊँगा, परमार्थ भी नित पाऊँगा।
लूटूँ गरीबों की गुजर, कुछ दान भी दे-जाऊँगा ।।
करता रहेँ में पाप भी, पर पून में चित लाऊँगा ।
उसको गती नहिं पायगी, बेशक यही बतलाऊँगा ।।
३९२
निर्भय अगर होना चहो, तो दो थडी मत हो कभी ।
दे छोड माया-जाल को, झटकार इच्छायें सभी ॥
मजबूत मन को कर सदा, फिरके विषय ना पायेंगे ।
कुजकी -समझ को डार दे, निर्भय-गढी चढ जायँगे ।।
३९३
व्यवहार में नहिं ठीक तो, परमार्थ केसे कर सके? ।
परमार्थ गर ना कर सके, तो ज्ञान कैसे भर सके? ॥
गर ज्ञान ही ना भर सके, तो ध्येय केसे धर सके ? ।
इतना अगर नहिं ठीक तो, भव-सिंधु कैसे तर सके ? ॥
३९४
व्यवहार करता न्याय से, सुविचार सत् आचार से ।
परमार्थ-पथ पाता वही, ले सार ही संसार से ।।
सत्संग अरू भक्ति, दया, रखता सदा ही पास में ।
सो पार जाता है चला, फँसता नहीं जो आस में ।।
३९५
मत छोड भक्ती-पंथ को, मत छोड सत् आचार को ।
मत दूर कर बैराग को, रख सांच ही व्यवहार को ।।
अन्याय को मत छी कभी, हरदम उन्हें प्रतिकार दे।
बस, संत श्रेष्ठां के तले, अपनी मती निर्धार दे ॥
३९६
दुनिया भली -भाँती कहे, हो मूर्ख या हुशियार भी।
कोड न देता साथ फिर, भगते बगल के यार भी।।
रख याद सच्ची आदमी ! छूरी न छोडे ज्ञान की।
सीधा चला जा मार्ग से, मत बाँह धर अज्ञान की।।
३९७
मत पाप बुद्धी रख कभी, मत दुष्ट रखना आसना।
मत द्रोह कर गुरु संत से, मत काम्य की भर भावना ।।
नीती न छोडे शास्त्र की, प्रामाण्य मानो वेद को।
चालक वही है कर्म का, यह जान पूरे भेद को ।।
३९८
करतार ईश्वर साक्ष है, मैं पाप करता या नहीं ? ।
कुछ पून करता या नहीं ? सद्गुण धरता या नहीं ।।
विश्वास है गर गुप्त पर, क्यों साजता बहिरंग से ।
कर चष्म अपने साँच ही, निर्मल रहे निज अंग से।।
३९९
चलता इमानी से अगर, तो चीज पाती तीन है।
पहिले मिले सत्-प्रेम अरु, होती दया आधीन है।।
तीजे मिले औदार्यता, सब बरकती व्यवहार में ।
नर ! रख इमानी पास तो, तर जायगा संसार में ।।
४००
जिस हाल में तू होयगा, उसमें हि लाभ उठायगा।
गर सद्धिचारों से गडी ! अपना करम निभवायगा।।
जब झूठ है तेरी चलन, चाहे हजारों जोग ले।
पर भोग तो चूके नहीं, फिर लाख भी संजोग ले।।
४०१
दर्जी भया तो क्या हुवा ? क्या वह नहीं तर जायगा।
बेशक वही तर जायगा, गर काट को नहीं खायगा ॥
साँची नियत से कर्म कर, व्यवहार जो है साधता।
मेरे लिये वह धन्य है, सच्ची वही परमार्थता ।।
४०२
नौकर हवा तो कया हुवा ? रख नेक हर दम साच रे |
चोरी न कर, करुणा पकर,वद सत्य ही तज लाँच रे ||
तन को लगा दे काम में, मन राम में धरता रहे ।
हो लीन पर मत दीन हो, सत् ज्ञान को भरता रहे |।
४०३
बेपार भी करता रहे, चाणाक्षता के साथ में।
रख न्याय में हरदम नजर, मत जा असत के हाथ में ।।
जैसा पुरे वह ले नफा, दीन की कदर लेता रहे ।
करता रहे प्रभू का स्मरण, कभू झूठ ना देता रहे ।।
४०४
सत्ताधिकारी हो अगर, तो सत्यता नित पास धर ।
माता न जा, रख न्याय रे! लेता रहे दीन की कदर ।।
सामादि शासन पास हो, अरु सज्जनों का दास हो ।
सत् धर्म में उल्हास हो, झूठे जशन का नाश हो ।।
४०५
श्रीमंत हो या साहुगर, उनके लिये खुब पंथ है ।
देना सहारा दीन को, यह विश्व भी भगवंत है ।।
तेढी नजर को छोडकर, सत् न्याय नीती धर्म हो ।
मत दर्द हो मजदुर को, अरु भक्ति जिनका कर्म हो ।।
४०६
नर ! सत्यता धर पास में,अरु कर सभी व्यवहार को ।
चाहे भले चंभार हो, या और हो कुंभार को ।।
हो झाडुगर या धेड भी, हम को सही बह श्रेष्ठ है।
पर सत्य ना पाले कहीं, हो ऊँच भी तो भ्रष्ट है ।।
४०७
मत झूठ में ग्वाही भरो, या न्याय झूठा ना करो ।
अधिकार में मद ना धरो, या चाकरी में ना डरो।।
बेपार में ना हो असत, धनि या हकिम में हो कदर।
संसार में तब सार है, अपनी स्थिती में नेक धर।।
४०८
सतधर्म नीती से रहे, नेकी कभी नहिं छोडता।
संसार में नहिं मग्न हो, उपकार को नित दोडता।।
करता भजन अति प्रेम से, जितना बने साधे घडी।
सोही तरे संसार में, वह ही तपस्या हे बडी॥
४०९
मत बोल ब्रम्हज्ञान को, मत धर किसीके ध्यान को।
मत जा तिर्थ-निजधाम को,मत कर पुजा अरु स्नान को॥
रे कर गडी ! पहिले यही- झूठा कभी नहिं बोलना ।
सारे व्यसन को छोड्ना, बंधुत्व सबसे जोडना।।
४१०
आँखे लगाता है बडी-दिल में विषय-आशा बढी।
अभिमान से काया चढी-क्या हो गया पोथी पडी ?॥
रे शुद्ध कर दिल आदमी ! काहे करे सर बोडना?।
ले ज्ञान-झाडू हाथ अरु, बंधुत्व सबसे जोड़ना ।।
४११
काहे भगे नर ? तीर्थ में, गर शौक ही करता वहाँ।
मोटर फिडल, नाटक, सिनेमा ही सदा देखे तहाँ।
झूठा सदा व्यभिचार कर, पेसे उडाता जार में।
रे सत्-नियत रख आदमी, काशी मिले संसार में।।
४१२
बदनाम करता धाम को, जाता विषय के काम को।
पल भी न भजता राम को, खाता ही भक्ष हराम को।।
यह छोड़ दे चंचल-मती, जा संत के चरनार में।
रे सत्-नियत रख आदमी ! काशी मिले संसार में।।
४१३
नहिं स्नान संध्या घर करे, माथे न चंदन को धरे।
मुख धोन के पहिले भला ही, चाय पीने जा मरे।।
बीडी सिगारिट मुंह में, मत पी न रह बेकार में ।
रे सत नियत रख आदमी, काशी मिले संसार में।।
४१४
पढता न मुख गीता कभी,हे शास्त्र का तिट्कार ही।
ठमरी, तमाशा, लावणी, बहता इसीके भार ही ।।
कभू श्रेष्ट से ममता नहीं, जलता सदा छल-खार मे ।
रे सत - नियत रख आदमी ! काशी मिले संसार में ।।
४१५
साधू नयन में देखते, होती जलन-तिहू-ताल में।
मत्सर करे परिवार में, हो यार में या चार में ।।
गंदा रहे आचार में, जाता न पल सुविचार में ।
रे सत्-नियत सख आदमी ! काशी मिले संसार में॥
४१६
नहिं शुद्धता कुछ देह में, मल-मूत्र रहता अंग में।
धोने नही फुरसत बदन, नित टहलता है भंग में॥
जूव्वा शराबी मस्त पी, कर्जा किया घरदार में।
रे सत्-नियत रख आदमी ! काशी पिले संसार में ॥
४१७
ऐसे परम पापिष्ट नर, जाते जहाँ निज-धाम को ।
पाते नहीं आराम को, करे जमा हि हराम को ॥
काशी अगर जाना किसे, मन खास हो प्रभू तार में।
रे सत-नियत रख आदमी ! काशी मिले संसार में ॥
४१८
घर को नहीं पावित्रता, तो तीरथों में ना रहे।
बुद्धी नहीं सत्-ध्यान में, तो सत्-समागन क्या रहे?॥
तुकड्या कहे, पावे प्रभू, रख प्रेम ही मझँधार।
सत्-नियत रख आदमी ! काशी मिले संसार में।।
जन ही जनार्दन
४१९
मंदीर में क्या कर रहा ? आँखी लगाकर देखता ।
घंटी हलाकर देखता, मुंडी झुलाकर देखता।।
क्या है वहाँ पानी-फतर, भगवान उसमें है नहीं ।
वह भक्त के घर रब रहा, कर दीन की सेवा तुही ।।
४२०
यह कर्म करना ठीक हे, पर कर्म की पहिचान क्या? ।
जिस कर्म में नहिं धर्म हे, उस कर्म का अहिसान क्या ? ।।
है कर्म का यह धर्म, अपनी-साँच को पहिचानना ।
जगदीश ही जग रुप है, ऐसी खियालत बानना |
४२१
सेवा करो जड जीव की, विद्या पढावो अज्ञ को।
सब जीव में समता करो, यदि मानते सर्वज्ञ को।।
मैं ही भला, मेरा भला, ऐसा जहाँ पर कर्म है ।
वह कर्म तो कुछ हे नहीं, पर जान लो सब धर्म है ।।
४२२
अपनी भलाई सब करे, सब की भलाई ख्याल दे ।
यदि तू मरा तो ठीक है, किसको डुबाना डाल दे ।।
ऐसी समझ जब हो गयी, तब तू भलाई कर लिया ।
कुछ द्रोह मन में कर लिया,तो जो किया सो ना किया ।
४२३
ना हस किसी के दु:ख को, एक दिन दुखी तू होयगा ।
यह खेल खिलकत का सभी,भर खाक में मिल जायगा
गर दुसरां का कर भला, तेरा भला फिर होयगा ।
अपना सभी यह विश्व है इस ख्याल में चढ जायगा।।
४२४
छेडे गरीबों को सदा, पाले न कबह किव को ।
इईश्वर-पुजन के नाम पे, बलिदान देता जीव को ॥
अन्याय है यह घोर तम, ईश्वर खुशी नहिं होयगा।
भगवत्-स्वरुप सब जीव है, हो लीन सत्सुख पायगा ।।
४२५
पूजा करी अति थाटसे, पानी चढा फूलों चढा।
मंदीर से निकला हुवा, गाली बके हो भडभड़ा।।
मंदीर में खुब प्रेम है, पर जीव का दुश्मान है।
जाना नहीं सेवा-धरम, यह व्यर्थ ही अभीमान है॥
४२६
पूजा करे जगदीश की, तो पूज पहिले भाव को ।
श्रद्धा पकर, सब में प्रभू है , डाल देह-भाव को ।।
सबके बराबर प्रेम कर, कर द्रोहता-उत्थान रे।
सत्-प्रेम ही भगवान है, यह बात सच्ची जान रे ॥
४२७
गुजरान ऐसी कर सदा, किस जीव को दर्द हो ।
राजी रहे छोटा-बडा, बे-गर्ज हो या गर्ज हो ॥
जितना बने धर प्रेम दिल में, सब हमारे जान के।
तुम हम सभी यह विश्व है,लीला-स्वरुप भगवान के ।।
४२८
हिंसा कभी भी ना करो, मन से रहे या देह से।
हिंसा बडा ही पाप है, बचके रहो संदेह से॥
सच मूँह से नित बोलना, कडवी जबानी छोडना।
मेरा सभी यह विश्व है, यह ख्याल अपने जोड़ना ।।
४२९
पावित्रता मन में रखों , अरु हीत सबका चाह लो।
किसको बुरा मत बोलना,जग की हँसी को साह लो ॥
जो दीन है, धनहीन है, उनकी सदा सेवा करो।
तो साधना बिन राम का, घर बैठकर दर्शन करो॥
४३०
हर जीव को सन्मान दे, अभिमान से मत कह किसे ।
बंधुत्व रख हर जीव से, हो देश से पर - देश से ।।
सब जीव प्रभू के हैं बने ऐ आदमी ! यह ख्याल कर ।
उपकार ही करना सदा, ऐसी सदा की चाल कर।।
४३१
उपकार हरदम कीजिये, पीडा न किसको दिजिये ।
यह धर्म है सबके लिये, सब शास्त्र-मत सुन लिजिये।।
सब संत का मत है यही, हर जीव की करना दया ।
सोही पुरुष इस लोक में, सत् धर्म से मोटा भया।।
४३२
आलस्य मत कर भूल भी, सेवा करन को जीव की ।
हर जीव ही है ब्रम्ह रुप यह बातमी है शिव की ।।
चाहे सदाशिव लोक तो, संदेश उनका ध्यान दे।
अपने बराबर जान सब ,इस मंत्र को दिल ठान दे ।।
४३३
आदम-मजुरी देखकर, निष्काम कुछ तो दान कर।
गुरु संत के निज वाक्य को, प्यारे! हमेशा मान कर।।
बेदों तथा ये शास्त्र की, बातें भली अजमास कर।
तो पार बेड़ा होयगा, ऐसा सदा अभ्यास कर।।
४३४
बदला न ले किसि चीज का, करता रहे उपकार तू ।
हो बात में या जात में, सबसे समझ लें हार तू ॥
में नीच से भी नीच हूँ, ऐसी समझ मन मान लें।
तब चीज होता है जनम, यह बात सच्ची जान लें॥
४३५
प्रीती न कर कभू गर्ज से, हो आप्त से या लोक से |
गर प्रीत गर्जी होयगी, तो दु:ख होगा शोक से !।
नर ! प्रीत तो निष्काम कर, ये सब प्रभू के जानकर |
दुश्मन न रख तू एक भी, नित प्रेम की जड़ छानकर ।।
४३६
सत्-भाव से दो दान तो, कंका लखों के भार है।
लाखों बटो अभिमान से, नहिं एक कवडी -भार है ।।
ऐ मस्त! कर तू दान पर,आशा न कर फल मान की ।
सेवा समझकर दान दे, उद्धार होगी जान की ॥
४३७
जो कष्ट करते मान को, वह श्रेष्ठ भी फँस जात है।
फँसते नहीं वह कष्ट से, अपनी भलाई पात है ॥।
हे यार! तू कर कष्ट पर, मत भोग में आसक्त हो।
प्रभू-भक्ति की सेवा करन को,काम तज,अनुरक्त हो ।।
४३८
मत बोझ किस पर दे कभी, हो देह का या स्नेह का ।
उपकार ही करना सदा, हो कष्ट का या चाह का ।।
फिर सुख हो या दुःख हो, दोनों बराबर जानना ।
सब बोझ लेकर आप ही, अपना धरम है मानना ॥
४३९
रहता अलग संसार से, पर भी रहे संसार में ।
करता नहीं अपने लिये, करता हि पर-उपकार में ।।
जो जानता ऐसा धरम उपकार हो महापुण्य है ।
पर-पीडना यहि. पाप है सो भक्त शिरसामान्य है ।।
४४०
ऐसे पुरुष के दर्श से, मै मुक्त होता तूर्त ही ।
जहाँ दीन देखे आँख से, वहाँ दौड आता तूर्त ही ।।
सेवा करन को दीन की, जो देर ना पल भी करे |
भगवान भी उस भक्त की, महिमा सदा गाया करे ॥
४४१
जो कर्म होगा देह से, हो बित्त से या चित्त से |
सब विश्वमय व्यवहार हो, हर जीव ही सुख ले जिसे |
जन ही जनार्दन खास है, अपण उसे सब कर्म हो।
परमार्थ-सुख पाता वही, यहि यज्ञ गीता-धर्म हो ! ।।
४४२
बलवान होते है वही, जो दीन से भी नप्र है।
सेवा करे नित देश की, हक में रिझावे उम्र है।।
सब जीव को नित सौख्या हो ,ऐसा जिन्हों का प्रेम है।
तुकड्या कहे,उन श्रेष्ठ को, मेरा नमन सप्रेम हैं।।
सदाचार
४४३
नर ! गुण ऐसे चाहिये, कोई पुकारे नाम से।
चाहे सदा जन-लोक भी, दौरे सभी ही काम से॥
सत्कीर्ति मरने -बाद भी, लाखों पुकारे होयगी।
ऐसी कमाई कर सही, कीमत तभी ही पायगी।।
४४४
साँची रहन रख आदमी ! हो भीतरी या बाहरी।
साँचा सदा व्रत ले तभी, होगी पुनित यह वैखरी।।
साँचे पना ही कर श्रवण, हो कर्म सुनने साँच ही।
बिन साँच के मत रख जुदा,झूठी न रह दे आँच ही।।
४४५
मानुज गुन्हे को पात्र है, पर जो गुन्हे को बोलता।
रखता जबानी साँच ही, वहि ऊँच गड पे डोलता।।
सब दोष से निर्मुक्त हो, वहि आखरी फल पायगा।
गर दोष ना बतलायगा, तो डूब के मर जायगा।।
४४६
साफल्य करना है जनम, तो ख्याल रख इस बात में।
हिंसा न कर, अस्तेय धर,रख धीरता निज-ज्ञान में।।
रे आदमी ! मत वीर्य को, कोई जगह में डाल तू ।
भरके रखे गर थाल तु, होगा जगत् में लाल तू !
४४७
वाणी तथा मन से सदा, सीदा रहा कर लोक में।
तो मौत में यार ! तू, भूले नहीं फिर शोक में ॥
दुनिया चहेगी जन्म भर, कीर्ती रहेगी लोक में ।
यदि साँच मन वाणी करे, सुख पायगा पर-लोक में ।।
४४८
है पाप ऐसी चीज ! वह, क्षण में बताती सुख को ।
फल-भोग मिलता आन जब, आजन्म देती दुःख को॥
पूरी सताती यार ! जब, इन्कार भी लाखों करे ।
ब्याजों सहित लेती कमा, तू पाप फिर क्योंकर करे ? ॥
४४९
सब छोड दे कुविचार को, सुविचार का कर संच रे।
सुख का यही सत्पंथ है, मत झूठ रह दे ह्ररंच रे॥
धर सत्य का ही ध्येय तू, अरु सत्य ही साधन करे ।
होगा सफल नर जन्म यह,रख ख्याल में हर वक्त रे ॥
४५०
हो काम, क्रोधरु मान भी,हिंसा, असत्,पर युक्त हो ।
घर ना जले-सो अग्न हो, जो रोशनी-उपयुक्त हो ॥
जिहूँ धान्य-रक्षा के लिये, है युक्त काँटि खेत को ।
वैसे सभी कु-विचार भी, हो ध्येय-रक्षण-हेत को ।।
४५१
मैं क्रोध ही हूँ चाहता, जिन क्रोध में हो नीतिया।
बिन क्रोध के नीती नहीं, तो क्या पुरुष ऐसा जिया ? ॥
उससे भले बीमार है, तो ठीक है मर- खाट पे ।
गर सत्य ना रखता गडी, किस काम का सब थाट पे ॥
४५२
झूठा कपट करके कहीं, धन को कमाना छोड दे।
तेढी नजर से देखना, बूरी जबानी तोड दे ॥
निंदा किसी की ना करे, व्यभिचार-मारग खोड़ दे ।
सब के अलग रहता भया, प्रभू में सदा मन जोड दे ।।
४५३
खाना जरा खा नेक का, मत खा कभी बद नेक का ।
मत योग कर,बिन-भेख का,मत धन पचा संजोग का |
रे आदमी ! कर कष्ट को पचता सदा धन माल वो।
पावे हरामी का अगर, पूरा करे बे-हाल वो ॥
४५४
भक्ति करो पर काम भी-तो हाथ रहने दो भला।
गर ना करो कुछ काम ही, हो बंद खाने की कला ॥
कुछ पेट को तो चाहिये, ऐसी समझ को मानते।
तो काम भी करते रहो, यदि देह धर्म पछानते ॥
४५५
कर कष्ट हर दम आदमी ! हो पैर से या हाथ से।
तो खा कमाई शेर की, मिल जा उसीके जात से॥
गर मुफ्त का माँगे कहाँ, तो गीध सम हो जायगा।
नहिं सुख तो होगा कभी, पर दुःख में भरमायगा ॥
५५६
खाना पिना, रहना, पहनना, सात्विकी करना सभी ।
हो नेक हर दम साँच ही, मत झूठ से भूले कभी ॥
पावित्रता आचार में, दिल से वही संकल्प हो।
तब ही मिलेगा सत्य सुख, कुमती जहाँ नहिं अल्प हो ।।
४५७
भोजन नहीं यह यज्ञ है, ब्रह्माग्नि में है आहुती।
नर ! शुद्ध-चित सेवन करे, तब ब्रह्म ही होती मती ।।
ऐसी किया कर भावना, अर्पण किया कर ब्रह्म को ।
कर फेर भोजन प्रेम से, सत्-बुद्धि पावे धर्म को ॥
४५८
आठों प्रहर शुद्धाचरण, दिल शुद्ध करने के लिये ।
वह ही श्रवण वह ही कथन,खुद विश्व तरने के लिये ॥
प्रात:समय, भोजन-समय, निद्रा -समय औ हर घड़ी।
हो ईशका ही चिंतवन, यही ही तपस्या है बड़ी॥
४५९
जो श्रेष्ठ का सत्पंथ है, वह तू हमेशा ख्याल कर।
खुद कर वहीसा आचरण, झूठा करन सब डालकर |
व्यसन सब फूक दें, उपकार कर, तज लालसा |
व्यवहार कर सत-न्याय से,ईश्वर भजन की ले नशा ||
४६०
मत बांध रे ! मंदीर मठ, जो है उसीको ठीक कर |
कर जीर्ण का उद्धार तू, मत कर नवीनों की फिकर ।।
नर ! एक में तो ध्यान दे, निष्काम मारग छानकर |
नहिं तो फुकट जावे सभी ,यदि द्रव्य लाखों दान कर |।
४६१
ऐ दोस्त! क्यों चिल्ला रहा? झगडा-फिशादी छोड दे |
बहुमान्य जिनका कर्म है, अपनी रहा बहि जोड दे |
यह शूरता तेरी अलख के-पलख में गम जायगी ।
तो मिल बड़ों के साथ में, आबादि हर दम पायगी |।
४६२
भरके रखा माता उदर में, पिण्ड यह नव-मास भर |
करके रखा सुंदर स्वरुप, अंदर सभी तैयार कर ॥
दिल जान से कर कष्ट को,पैदा किया जग में जिन्हे ।
कितनी हमारी मूढता ? आखर न सुख दीना उन्हें ।।
४६३
नहिं दांत थे जब ओठ में, तब दूध को पिलवा दिया ।
अनजान थे खाने पिने, तब चोंच से खिलवा दिया ।।
नहिं याद थी दुनिया जबाँ, हर लब्ज से पढवा जिन्हे ।
कितनी हमारी मूढता ? आखर न सुख दीना उन्हें ।।
४६४
कर कष्ट दूसरों के सदा, विद्या पढाना कर दिया।
उपकार उसका है बडा, खुब अक्ल हम में भर दिया ।
काशी हमारी है वही, पावन किया गुरु से जिने।
कितनी हमारी मुढ़ता ? आखर न सुख दीना उन्हें ।।
४६५
भूले नहीं कभी यार तू, उनके कदम शिर मान कर।
हर दम भला वह चाहती, बालक हमारा जान कर।।
तुकदया कहे माता पिता,ईश्वर नहीं माना जिन्हें।
कितनी हमारी मूढता ? आखर न सुख दीना उन्हें ।।
४६६
माता, पिता, गुरु, देव, सज्जन से सदा ही नम है।
आचार में नित शुद्ध जिसकी, यों चली सब उम्र है ॥
फसता नही है वह कभी, किसी -दूष्ट के हथियार से ।
तुकड्या कहे वह तर गया, इस काम-लाटों -धार से ॥
निष्काम -कर्मयोग
४६७
पाया जनम कर्तव्य से, कर्तव्य हरदम हाथ ले।
मत रो कभी संचीत से, संचय-खजाना साथ ले ॥
जो होगया सो होगया, फल के उपर ना ख्याल कर ।
अपने उचित कर्तव्य को, शास्त्रोक्त रीती चाल कर ॥
४६८
संसार में नीती रखे, संसार है जो साधता।
आसक्त होता है नहीं, सो ही परम-पुरुषार्थता ॥
अपना -पराया एक है, ऐसी समझ मन मान कर ।
अपने उचित कर्तव्य को, शास्त्रोक्त रीती चाल कर ॥
४६९
पर्वा न कर सुख दुःख की, हो लाभ की या हान की।
लपटा रहे कर्तव्य से, दे त्याग इच्छा मान की ॥
कर्तव्य -भूमी साफ कर, सीधा चला जा न्याय से।
होगा सुखी संसार में, बच जायगा अन्याय से ॥
४७०
आसक्त मत हो कर्म में, अरु कर्म तो करता रहे।
करता रहे प्रभु का स्मरण, दुर्गुण से डरता रहे। |
निर्भय सदा सत्-संग धर, यदि जो बने सो दान कर ।
चिंता-चिता को भूल जा,यहि मार्ग अपना ध्यान कर ।।
४७१
यह मैं-हमारा मानना, यदि आड आता पाप है।
गर मैं नहीं हो आड तो, सब मिट गया संताप है।।
अभिमान मै का छोड दे,अरु ईश का सब मान ले।
तो मस्त हो प्रभु नाम में, अपनी जगह पहिचान ले ।।
४७२
गुरुदेव ही है सर्वतर, सबके बनाते है वही।
जितना हमें यह दिख रहा, गुरु के बिना सत्ता नहीं ।।
ऐसी किया कर भावना, तब शांति आवे पास है।
गर खुद करे अभिमान तू, होगा तनू का नाश है।।
४७४
करतार है प्रभु विश्व का, सत्ता उसीकी सब जगा।
क्यों आदमी ! भूला उसे, अभिमान में जाके लगा ।।
सब वस्तू है विश्वेश की, सुख दुःख सम जो भासती ।
अपने उचित कर्तव्य से, मिलती रहे जैसी मती ।।
४७४
मै और मेरा छोड दे, सत्ता प्रभु की जान कर ।
तेरे सहित यह विश्व सब, है ईशमय पहिचान कर ।।
कर्तापना को भूल जा, कुर्बान प्रभू से पूर्ण हो ।
निष्काम होकर कर्म कर, प्रभुरुपमय संपूर्ण हो ॥
४७५
हर हाल में रहता हुवा, आनंद अक्षय मानना ।
फिर सुख हो या दुःख हो, दोनों बराबर जानना ।।
कर्तव्य तन को है लगा, कर्तव्य से नाता नहीं।
तू सर्वथा निष्काम है, मरता नहीं, जीता नहीं ।।
४७६
गुजरी हुई मत ख्याल कर, मत रो कभी गुजरान को |
कर्तव्य कर निष्काम से, रख सर्वदा प्रभु ध्यान को।|
ऐसी अगर हो जिंदगी, तो सब कमाई पा गयी ।
घर बैठ मुक्ती आ गयी, सच्ची नियत मन भा गयी ।।
४७७
गीता सुनाती है हमें, आसक्त मत हो कर्म में।
अरु कर्म तो करते रहो, तब ही रहोगे धर्म में।।
जो नर अनासक्ती धरे, अरु कर्म -धारा जायगा।
कबहूँ न डूबी खायगा, आखिर प्रभु पद पायगा।|
४७८
जो कर्म ही करता नहीं, वह भी नहीं निष्काम है।
करते करम जो छोडता, वह भी नहीं निष्काम है।|
जब कर्म की आसक्तता, वह कर्म में ही ना रहे।
सो ही पुरुष है श्रेष्ठ यह, श्रीकृष्ण गीता में कहे।।
४७९
इंद्रीय मन स्वाधीन कर , जो आत्म में संलग्न है।
है धीर अरु गंभीर, निश्चल चित्त से प्रभु मग्न है॥
सो कर्म करता ही रहे, नहिं कर्म से कुछ बाध है।
नहिं कर्म-बाधे एक पल, सब बंध से आजाद है॥
४८0
अभिमान तन का है नहीं, आशा नहीं संसार की।
परिपूर्ण निश्चय हो गया, छाई नशा है सार की॥
कर्तापना ही चल गया, फिर कर्म ही निष्कर्म है।
आनंदमय निर्मल सदा ; यहिं योगहूँ का मर्म है॥
४८१
ज्ञानी, महात्मा, संत भी, सत्-कर्म को करते गए ।
क्रियमान भी यदी था नहीं, तो भी जगत हित को लहे।।
जब तक जीवन हैं ज्ञान का, तब तक कराम धरना ही है।
वह देखकर सब जान करे, यह बात अनुसरना ही है।।
४८२
नहिं सावधानी से सदा, ज्ञानी करेगा कर्म को |
तो अन्य बिगड़े जायेंगे, भले पड़ेंगे धर्म को ॥
ये श्रेष्ठ जन को श्रुत रहे, यह याद दी श्रीकृष्ण से ।
गीता बताती है यही, उपलब्ध अर्जुन-प्रश्न से ।।
४८३
कर्तव्य है ना कर्म से, फिर भी न त्यागे कर्म को |
है सहज वृत्ती कर्म हो, नहिं भूलते यह मर्म को ॥
जो श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ तर-श्रीकृष्ण यों कहते सदा |
अर्जुन ! करो निष्काम को, जनता करे तब सर्वदा ॥
४८४
निष्काम -निरहंकार से, सत् कर्म कर हरगीज ही ।
कर कर्म हरि-उद्देश्य से, या ईशमय निर्वीज ही ।।
शास्त्रानुकूल ले न्याय को,क्या कर्म ? कौन अकर्म है।
सीधा चला जा मार्ग से, यहि विश्व तारक धर्म है ।।
४८५
शास्त्रोक्त करना कर्म का, होता कठिन ही मान लो ।
समझे नहीं वह,क्या करे, किस किस तरह ? वह जान लो ।।
गहना गति गीता कहे, उन कर्म के संसर्ग को ।
बस ,सतगुरु बिन पार ना, उन गुह्म सर्ग-विसर्ग को ।।
४८६
अभिमान अरू आसक्ति ये, निर्मूल जब हो जाएगी।
सच्ची तभी निष्कर्मता, नीर्लेपता दिल छायगी।।
तुकडया कहे बिन ज्ञान के, नहीं योग आवे हाथ में।
बस सतगुरु बिन पार ना, नहीं मर्म साधे बात में।।
सत्संग -प्रकाश
४८७
ईश्वर मिलन की साधना,हमको बता दो जी ! कहीं |
इच्छा हमारी है मगर, मारग कहाँ दिखता नहीं ||
जो वह कहे हमरा बडा है, पंथ ईश्वर पाय को |
लेकिन गया तो कुछ नहीं,हम पा गये हि अपाय को ||
४८८
भावूक जनों ! इस भाव को, अंधे न राखे रख रहो |
सत् या असत् पहिचान लो, फिर भाव में जागे रहो ।|
जब नाव पत्थर की बनी, तब पार केसे जावोगे ? |
यहाँ भी नहीं, वहाँ भी नहीं, बिच मे अटक भरमावोगे |।
४८९
अदमी पिछे हर पंथ है, हर एक वृत्ती है जुदी।
मिलता न मेला एक से, तन को बडे कहते खुदी।।
साधु महंती गर्व में, रमते सदा कलि-काल में ।
लेकिन भला नहीं होयगा, ऐसी समझ के हाल में ।।
४९०
सब पंथ को देखा मगर, अभिमान ही रखते बड़ा ।
गुरुजी कहे मेरा बड़ा, चेला कहे मेरा बड़ा।।
नहीं जानते को है बड़ा ? क्या तू बड़ा, कया मै बड़ा ।
जो है बड़ा, अनुभव चढा, यह देह तम से ही पडा ॥
४९१
अपना भला समझे गाड़ी ! यदि झूठ ही तो है तभी।
दूजा अगर हो साँच भी, तो भी न कहता साँच भी।।
ऐसा जहाँ अभिमान है, उस धर्म से मै दूर हूँ ।
चाहे भले वह पंथ हो, इससे सदा मागदुर हूँ ।।
४९२
कइ जादूगर होते गुरु, फूँका किया करते सदा ।
ठाने ठुने बतलायके, दुनिया किया करते फिदा ॥
पर याद रखना भाईयों ! ये गुरु नहीं, गुरगुर्र हैं।
कुत्ते तभी कुछ ठीक है, पर ये लुबाडे -शूर हैं ॥
४९३
लाखों गुरु है जगत में, पर एक भी नहिं काम कां।
सब स्वारथों के आसरे, डंका बजाते नाम का ॥
विश्वास का गुरु एक हो, बाकी नहीं कुछ ध्यान दे ।
जो खास की पहचान दे , ऐसे गुरु पर जान दे ॥
४९४
सहवास बिन बनती नहीं, परतीत प्राणीमात्र से ।
सहवास ही है मुख्य तर, देता प्रचीती शास्त्र से ।|
हर एक अंतर-हेत भी, सहवास से पा जायगा ।
सहवास बिन प्रीती करे, तो आखरी दुःख पायगा ॥
साधुओं को सन्देश
४९५
मैं ना झुकाऊँ सर कभी, ये भेख बाहर देख कर |
सर को झुकारऊँ हर घडी, कुछ कर्म के उल्लेख पर ॥
जिसमें कहीं ना धर्म हो, अरु कर्म का है लापता ।
जोगी हुवा तो क्या हुवा ? जोगीपना नहिं जानता ॥
४९६
था तो गृहस्थी ठीक था, था प्रेम भूतों मात्र से ।
झूठा हि साधू हो गया, अन् जानते वह शास्त्र से ॥
दुनिया लगाकर के पिछे, सब दोष से मटका भरा।
पहला गृहस्थी ठीक था, साधू भया भटका मरा ॥
४९७
साधू हुवा तो क्या हुवा ?नहिं काम को जीता कभी।
नहिं काम है नहिं राम है, दिन फिक्र में जाते सभी।।
इस पेट के पीछे लगा दर दर भिखारी बन गया।
नहिं राम का सुमरन किया, कपडे रंगे साधू भया।।
४९८
भगवान तुमको पालता, भगवान से रहते छगे।
तुम तो विषय के जाल में, भूले पड़े बन के ठगे।।
नहिं काम भी पूरा करा, आखिर फकीरी ले लिया।
नहिं राम है,नहिं काम है,बिरथा जनम को खो दिया।।
४९९
सब लोक से सेवा करे, यह बोझ छाती जोडता।
शक्ति नहीं कुछ पास में, सब पाप माथे ओढता।।
है दुःखमय ये भोग, तुझको क्या ? सभी से भोवता।
रख याद सच्चे बात की, तेरा भला यदि चाहता ।।
५००
उपकार तो बनता नहीं, अरु भीख किसको माँगना।
मेरी समझ में है बडा ही, दोष सिर पे जानना।।
सेवा अगर बनती नहीं, तो राम की नित याद कर।
बह राम सब को दे रहा, देगा तुम्हें घर लाय कर।।
५०१
ऐ भेख के अभिमानवालों ! भेख परदा छोड़ दो।
मोजूद है वह यार साखी , दिल उसीमें जोड दो।।
मन को रंगावो ध्यान में, अरु ज्ञान से तल्लीन हो।
क्यों भूलते अपना करम ! बस धर्म में लवलीन हो।।
५०२
ये पंथ सबके योग्य है, पर द्रोहता बिच रोग है।
यह द्रोहता पीछे लगी, सबको लगाया भोग है।।
यह भोग अपना छोड दो, कर्तव्य से सादर रहो।
जो जोग सो उद्योग हो, पल भी नहिं बिछुडे रहो।।
५०३
साधूहि बनना चाहता, तो साध ऐसे ख्याल को ।
सब भोग अपने त्याग दे, कर दूर आशा-जाल को ।।
अपना -पराया भेद सब, अज्ञान-आँधी दे हटा |
हो चेतता बैराग से, सब रंग भंग को दे कटा ॥
५०४
साधूहि बनना चाहता, तो सत्य को मत भूलना |
यदि प्राण जाता तो सही, मत झूठ की कर पालना ॥
वाणी तथा मन काय से, सदसत् हमेशा जान कर |
कर सत्य पालन नित्य ही, मै सत्य हूँ यह मान कर ।।
५०५
साधूहि बनना चाहता, तो साधना ऐसी पकर |
अध्यस्त को कर बाद, अपने ईश को पहिचान कर ।।
लागे-लगो उस ज्ञान में, दूजा कभी ना ध्यान दे।
रंग जा ख़ुदी के भंग में, सबको वही रंग छान दे ।।
५०६
गंगा-किनारे जा रहो, फल -फूल सब दिन खा रहो।
फिर जीत हो, या हार हो, इस पार हो उस पार हो |।
प्रभु का स्मरण करते रहो, मद-काम से डरते रहो ।
करते रहो, साधू बनों, नहिं तो हुजर मरते रहो ।।
उपदेशकों को इशारा
५०७
है शिक्षकों की राह यह, खुद ही न झूठा बोलना ।
फिर शिष्य गण को मार दे, साँची नियत पट खोलना ||
घर के भले भाईं सभी, गर झूठा झूठा बोलते ।
तो बाल केसे साँच हो ? गर चाल झूठा छोलते ॥
५०८
बदनाम सबको फेर कर, पहिले तू ही बदनाम है ।
हे यार ! कर नीती ख़ुदी, क्यों हो रहा बे-फाम है ? ॥
खुद पाप तो छोडे नहीं, अरु ज्ञान सब को बोलता ।
करके नहीं सुनता जगत, यह बोल बिरला तोलता ॥
५०९
कैसे भला कोई सुने, यह ठाठ इनका देख के।
बातें सुनाते है भली, किसी जोगियों के भेख के ॥
खुद तो बुरा ही चष्म है, है शौक दुनिया झोंक का ।
करके भरोसा है नहीं, अब ऐसियों पे लोग का।।
५१०
अपना भला तो कर गडी ! सबका भला फिर होयगा ।
जब जानता नहिं खास को ,तो क्या किसीसे रोयगा ?
अपनी नियत को खोज लो, करते रहो ऐसी चलन।
तो सबहि करने आयेंगे, है साँच का ऐसा दलन ॥
५११
मत संत का ले पार्ट तू, दोषी महा कप हो जायगा।
लाखों जनम में पाप ही के, आसरे भरमायगा ।।
जो साँच हो बतलाइये, तो मोक्ष का फल पाईये।
दोषी हुवा तो हर्ज क्या? झूठा नहीं कहवाइये ।।
५१२
मत कर अखाड़ा तू कहीं,मत शिष्यागन को कर जमा।
मत बांध मठ मढ़िया कहीं, मत दक्षिणा यहाँपे कमा ।।
निष्काम कर उपदेश को, सेवा समझ कर ईश की ।
सच्चा अनुग्रह कर सदा, चोरी न कर संदेश की ।।
५१३
नहिं तो कहीं ऐसा न हो, जग लोभ से भुलवायगा ।
खुद स्वार्थ में दिल डाल के,सबको पतन बतलायगा ।।
रे ! साँच कर अपनी जबां, अरु न्याय से उपदेश कर ।
कर नाश अपने मोह का, मत चाहडी लवलेश कर ।।
५१४
मत दुष्ट को कह दुष्ट तू, रख प्रेम उससे आदमी |
ला सुष्ट करने की तरह कर दूष्टता से वह कमी ।।
सहवास से जब दूष्टता, उसकी भली -भाँती गईं ।
तो दुष्ट कहने की उसे, कोई जरुरत ना रही ।।
५१५
मत रोक किसके भाव को, सीधा हि जाने दे भला ।
जिसमें जिसे मिलता प्रभू, वह मार्ग उसका है खुला ।।
मैं बोलता हैँ एक है, उसकी खुशी तो एक है ।
यह सोच करना चाहिये,प्रभु-रूप सच हि अनेक है।।
५१६
भोले भगत् के भक्ति की, निंदा न हो किसी ज्ञानि से ।
गर निंदियाँ करने लगे, तो भ्रष्ट होगा ज्ञान से ।।
उस भक्त के सत्कर्म को, पुष्टी बता दे भाव की ।
पाखंड नहिं कहना उसे, यदि हो गती सद्भाव की।।
५१७
कहना सभी का देखता, रहना नजर आता नहीं ।
रहने बिगर आचार से, कहना हमें भाता नहीं ।।
कहनी सहित रहनी रहे, सो भक्त सिरसामान्य है ।
कहता भला सिद्धान्त तो, होता नहीं कभु धन्य है।।
५१८
वेदान्त मुख से कह दिया,क्या वेद का भेदी बना ?
बिन भेद जाने वेद का, वेदान्त कहना है मना ।।
कहता जबानी ब्रह्म हूँ अरु कर्म सारे अन्य है ।
कहता यदि सिद्धान्त तो, होता नहीं कभु धन्य है।।
५९९
बतला न किसको आदमी ! करता रहे हर दम खुदी।
सब आप ही ले-लेयेंगे, ना वक्त हो कोई जुदी।।
तू खास सत्-हेतू पकर, अरू कार्य अपना कर सदा।
तो लोक भी माने कहा, यदि ठीक है तो सर्वदा।।
५२०
गर लोग को पढवाव तो, खुद भी करो ऐसी चलन ।
सो धन्य ! सिरसामान्य है ! करता चलन, धरता मनन ।।
निज ध्यास है जिनका लगा,निज आत्म प्राप्ती के लिये।
उनका पढाना योग्य है, अधिकार है उनको दिये।।
५२१
अपना करम करता नहीं, अरु दूसरे ना दे करन!
ऐसे पखंडी से कभी, ईश्वर ! न संगत दे धरन।।
संगत हमें उसकी सदा दे, जो करे खुद आचरण।
जिसके सदा सद्भाव से, हो आर्त का जलदी तरण।।
५२२
संगत उन्हीं की योग्य है, है योग्य उनका अनुसरण।
हो बोध, चलना, देखना, रहना, सभी करना ग्रहण ।।
काया-वचन-मन एकमय,मर्मज्ञ,जग -हित-बुद्धि है।
तुकड्या कहे उन श्रेष्ठ की, सेवा सुखामृत-सिद्धी है।।
संत और पहिचान
५२३
जो संत है वह संत की, कुंडी पिटाते है नहीं ।
सेवा सदा करते मगर, ऊँचे न बतलाते कहीं ।।
मैं हीन हैं, मैं दीन हूँ यों ही कहा करते सदा ।
अभिमान का लवलेश ना, वहि संत जानो सर्वदा ॥
५२४
मानी न हो साधू कभी, ना हो कठिन मन का कभी |
कंजू न हो धन का कभी,ना हो डरे रण का कभी ।।
हो धीर गंगा-सा भरा, शांती उदांती पास में ।
आपत्ति में जो धैर्य दे, सो साधू है विश्वास में ।।
५२५
निस्पृह सदा ऐसे रहे, जेसे जलों में कमल है।
गंदी न इच्छा हो कभी, हो ज्ञान जिनका विमल है ।।
एकान्त का हो आचरण, बंधन न हो किसि काम का |
हो राम की भक्ति सदा, सो निस्पृही है नाम का ।|
५२६
दरवेश पूरा है वहीं, चाहता नहीं धन माल को |
रखता सबूरी पास में, हर हाल को बे-हाल को ॥
मजदूर से मजदूर है, है बादशा से बादशा |
रहता अलग इस दूह से, दरवेश की ऐसी नशा |।
५२७
सबको भलासा भासता, नहिं पास रखता दंद्वता |
फँसता नहीं किसी मोह में, सबसे रहे स्वच्छंदता |।
है ध्येय जिसका एक ही, अपने प्रभूको जानना |
जो दीन दुबले रंक हैं, सेवा उन्हीं की बानना ।।
५२८
रहता फकीरी हाल मे, दिल बादशाही से भरा।
खाने नहीं मिलता कभी, हिम्मत सदा रखता पूरा।
नहीं देह पर कपड़ा मिले, पट्टे उपर रहता सदा।
पर मस्त है अपनी जगह, जो ज्ञान में रहता फिदा।।
५२९
है ज्ञान जिसको आत्म का,वह शांत अक्षय हो गया।
सब योग-यागों कर लिया,निज धाम अपने सो गया।।
नहिं वासना रहती खड़ी, संसार के यह जाल की ।
अविषय-विषय पाया उसे, टूटी प्रथा जग माल की ॥
५३0
क्या काम दुनिया में रहा ? जब शौक से मन धो लिये।
जिसने प्रभू के नाम में, तन-मन-वतन को खो दिये।।
जीते रहे तो ठीक है, यदि मर गये तो ठीक है।
अच्छे रहे तो ठीक है, दुःखी रहे तो ठीक है।।
७३९
दुनिया है गोली गेंद की, है खेल आशक छंद की।
बैठे न पद निर्द्वंद की, पहुँचे न घर आनंद की।।
जो भक्त हैं उस रुप के, समझे नहीं इस भोग को |
हैं मस्त अपने राम से, टाले न दम संजोग को ।।
५३२
भूमी बिछाना मस्त का, आकाश तंब दे रखा।
परकोट पर्वत का बना, सागर कुवा घट में लखा।।
बुझे नहीं मशयाल चंदा, और सूरज है खडा ।
सारी जहाँ में मस्त का, दौरा अलख गाजे बडा॥
५३३
चौदा भुवन, सातों तत्छा, तिहूँ लोक में देखा नहीं ।
चहुँ धाम, चौन्याशी पुरी, छे शास्त्र में लेखा नहीं ।।
देवल तथा मसजीद भी, ढूंढ पता ना पा गया ।
देखा वहाँ ही हर घडी, वह मस्त के घट छा गया ।।
५३४
संतुष्ट अपने आप में, नहिं मान है, अपमान है।
बंधन नहीं कामादि का, निर्मोह जिसकी जान है ॥
सब वासनाओं को हटा, निर्मूल बैठा स्वात्म में ।
भेदी न वृत्ती है कभी, पर-आत्म में अपरात्म में ।।
५३५
नहिं दुःख में उव्दिग्न हो, नहिं सुख में सुख मानता ।
भय क्रोधसे होके अलग, निवृत्तता दिल छानता ॥
ऐसे विवेकी धीर जो, बिरलाद कहँपे पाय है ।
पावे बडे ही भाग्य से, जो स्थितप्रज्ञ कहाय है ॥
५३६
तिलमात्र नहिं आसक्त जो,कोई अशाश्वत स्थान में ।
शुभ हो कहीं या हो अशुभ, बदले न अपने भान में ।।
शुभ में मजा नहिं मानता, अशुभे न दुख उठाय है ।
पावे बडे ही भाग्य से, जो स्थितप्रज्ञ कहाय है ॥
५३७
रुखी-सुखी को खायकर, गुजरान करने यों लगा |
फाटी चिंधडियाँ पहनके, प्रभु याद में हरदम जगा ।।
आशा नहीं किसि काम की, निष्काम हो बैठा भला ।
ऐसे फकीरों के लिये, है मोक्ष का दरगा खुला ॥
५३८,
माँगे नहीं, लेता नहीं, जो है उसी में मस्त है।
पीवे नहीं कुछ भी नशा, अरु आप मे अलमस्त है ॥
नहिं शत्रु है, नहिं मित्र है, सबसे सदा रहता मिला ।
ऐसे फकीरों के लिये, है मोक्ष का दरगा खुला ।।
५३९
सब जग उन्हीं को एक-सा, बस्ती रहे, जंगल रहे ।
सब काल उनको एक-सा, गर्मी रहे, सर्दी रहे ॥
सब लोक उनको एक-सा, छोटा रहे, या हो भल्ता ।
ऐसे फकीरों के लिये, है मोक्ष का दरगा खुला ॥
५४०
वहीं मोक्ष के साथी सदा, जो मुक्त बंधन से भये।
अपने लिए तो मर गए, जग के लिए जीते रहे।
करना नहीं उनको कहीं, अपना भला इस लोक में।
केवल बने उपकरवत,इस लोक में पर लोक में।।
५४१
करना नहीं, पाना नहीं, ना हैं विधी न निषेध है।
स्वच्छंद है ! निर्द्वंद है ! जिनको न बाँधे वेद है।।
पर भी जगत्-हित के लिये, रखते सदा सत् नेम है।
निष्काम से सत्कर्म कर, करते सभी का क्षेम है।।
५४२
है संत ईश्वर एक ही, नहीं कार्य उनका है जुदा ।
करते जगत की पालना, दुष्कर्म की हर आपदा ||
सत्धर्म की संस्थापना, जड जीव का हो उद्धरण !
तुकड्या कहे उन संत के, दिल से सदा पकडो चरण ।!
सत्संग महिमा
५४३
है संत दुनिया में जगे, तब ही रही दुनिया खडी |
उनके प्रतापों से अभी तक ही नहीं नीचे पड़ी ।।
कितना जगत् में पाप है, अंदाज के बाहर चला |
पर संतही का पून है, जो आज तक जग ना ढला॥
५४४
है वेद मेरे संतही, सब बोल वेदों की ऋचा |
जो हुक्म दे अपनी जबाँ, मै पालता हूँ जो सचा ।।
कर के अमल उन के उपर अनुभव हमें मिल जायगा।
विश्वास मेरा हे यही , सन्मार्ग संत बतायगा ।।
५४५
बडे भाग पाये आज मैं, सत् का समागम पा लिया ।
चहूँ धाम, चौन्याशी पुरी, सातों समुंदर नहा लिया ॥
जो कुछ करम के दोष थे, इस दर्श से ही टल गये ।
अज्ञान के ढग हल गये, निज ज्ञान के पट खुल गये ।।
५४६
वे संत मेरे प्राण है,वे संत मेरे जान है।
वे संत मेरा ज्ञान है, वे संत मेरा ध्यान है ॥
जिनके प्रभावी शब्द से, दिलका भरम सब हट गया |
था वज्र जैसा पाप भी, पल दर्श से ही कट गया ।।
५४७
जब बाण छूटे शब्द के, लागे हृदय थर-कापने |
हर रोम से ज्वाला उठे ख्यालात पहुँचे आपने ॥
ऐसी नशा जब हर घड़ी, सत् शब्द की मिल जायगी |
तब वज्र जैसे धीर की, वृत्ती प्रभू गुण गायगी ।।
५४८
हो बद्ध नास्तिक, आर्त भी, साधक, मुमुक्षू हो कहीं ।
सत्संग सबको योग्य है, जिससे चढे वृत्ती सही ।।
जिनके प्रभावी बोध से, जड़ जीव भी तर जाय है।
आनंद के उत्कर्ष से, सब विश्व ही भर जाय हे ॥
५४९
गंगा धुलावे पाप को, अरु ताप को वह चंद्रमा ।
विद्या करे बुद्धी विमल, संतोष कुछ देती रमा ॥
पर संत के सत्संग में, पूरे सभी मिल जाय है।
आनंदमय भगवान का, नुर आप ही खिल जाय है ॥
५५०
मिलना कठिन है संत का, बड़ भाग से पाते कहीं ।
गर पा गये संजोग से, तो संगती मिलती नहीं ।।
सत्-संग जिनको पा गया, तो जन्म का साफल्य है।
अधिकार क्या उनका कहूँ ? वह शानशा के तुल्य है ॥
५५१
आओ चलो मिल जायेंगे, सत जात है अपनी जहाँ ।
झूठे नहीं किसी काम के, भुलवायेंगे आखिर यहाँ । सत्संग सम ना संग है, कोई जगत में पाएगा ।
नर ! साँच जाती है वहीं, जो साँच घर पहुंचायगा।
५५२
पोथी पढ़ो, या वेद भी, हो शास्त्र भी, परच्छेद भी।
अन्वय अगर हो अर्थ भी, पढ़ स्वार्थ, या उच्छेद भी।
लाखों कवीता कर कभी, लघु व्याकरण के साथ हो।
बिन संत-संगत के किये, पाता नहीं कुछ हाथ हो ॥
५५३
देखी कितांबें लाख भी, वेदान्त ओ सिद्धान्त की |
तो भी मिले नहिं राह यह,यदी कष्ट हो बहु शांत की ॥
बिन सत्गुरु की हो दया, अनुभव कभी ना आयगा।
अनुभव उसीको पायगा, जो सत्गुरु गुण गायगा |।
५५४
अवधूत से भी दत्त को, चौबीस से अनुभव मिला |
तब और की है क्या कथा, अपरोक्ष को जाने भला ॥
बिन सत्गुरु की हो कृपा, नहिं पार कोऊ पायगा |
सारे जगत् के बीच में, सो ही रहा बतलायगा ॥
५५५
है पाँच बापों से बना, माया-नदी तब तिर गया ।
ना डर किसी का है उसे, वेकुंठ की जहागिर गया ।।
इक बाप तो है जन्म का, तिहूँ बाप हैं सस्कार के ।
है पाँचवा वह बाप जो, दे मंत्र कट भवधार के ॥
५५६
गुरु की कृपा बिन झुठ है, चाहे हजारों जोग ले |
स्वानंद तो नहिं पायगा, यदि भोग लाखों भोग ले ।।
गर शात होना है गड़ी ! मद-मोह भंडा फोड दे ।
गुरुबोध-अंजन प्राप्त कर, निज गुप्त हंडा जोड दे।।
५५७
भ्रम के किंवाडे खुल गये, अज्ञान के ढग हल गये।
उर के फँवारे चल गये, दूही-निशाने भुल गये ॥
बाकी नहीं कुछ भी रहा, वाकीफ-गड पे चढ़ चुके ।
गुरु की कृपा जब हो चुकी, साकी-मजा से लढ़ चुके ।।
५५८
इत शुन्य के उत शुन्य में, जो शुन्य की निज नैन है।
सौ नेन ही पावे जहाँ, वह धन्य है ! जग-मान्य है॥
फिर चेन को बाकी नहीं, साखी उसीने पा लिया ।
तुकड्या कहे, वह गुरुकृपाबिन, कोड ना दूजा दिया ॥
आर्त का कर्तव्य
५५९
गुरु नाम से क्या रो रहा ? अपनी भूमी तो साफ कर |
कर ग्रंथ पालन सत्य के,क्या देखता हि इधर उधर ॥
सीधा हि चल उस मार्ग से, जिस मार्ग से मोटे गये ।
अपना भला ही कर गडी ! गुरुनाथ जब आखीर है ।।
५६०
आचार अपना खोज लो, खुद बुद्धियों के बोध पर ।
सतशास्त्र की मर्जी तभी, होती रहे आचार पर ।।
होती दया प्रभू की तभी, जिन शास्त्र की मर्जी लिया |
गुरु की कृपा उनपे रहे, जिनपे प्रभू की है दया ॥
५६१
नियमित रहना चाहिये, आलस्य अपना छोड कर।
शुद्धाचरण करना सदा, दुर्गुण सारे खोड कर ।।
ये इंद्रियाँ स्वाधीन कर, अभ्यास हरदम कीजिये।
तब ही हमारे नाथ से, पूरी दया भर लीजिये ।।
५६२
सशय न कर प्यारे ! कभी,सतशास्त्र सुनने के लिए।
बाकी कहीं नहिं छोड़ना, वह राम रटने के लिए।
पलपल बिता यह जा रहा, इस बात पे तू ख्याल दे।
कर मस्त की सेवा सदा,नौकर न बन कोई लाल दे।।
५६३
हम पागलों के साथ में, आना नहीं प्यारे ! कभी ।
मुश्कील होगा किस घडी, खाना, पिना, रहना सभी ।
मेवा कहीं, मिष्टान्न है, खाने कहीं ना अन्न है।
जंगल कहीं बस्ती कहीं, ऐसा पडे संमन्न है।।
५६४
सहवास से भी मुख्य तर, सत् बोध पे करना अमल |
कर्तव्य अपना खोज कर, कर यत्न हरने चित्त-मल ॥
सीधा सुपथ यह छोड कर, खाली करे जो संगती ।
पाता न पुरा लाभ वह, मद मोहमय जिस की मती ||
५६५
संसार के भावी जनो, इस भाव पर नित ख्याल दो।
सारे अभवी कर्म को, अपने मगज से डाल दो।
करते रहो सत्संगती, जितनी बने इस वक्त में ।
फिरके मिले नहिं यह घडी,अब जोर है कुछ रक्त में ॥
५६६
बरखा बरसती है सदा, निज ज्ञान के झंझार की।
संसार के भावी जनों ! भीगो करो हुशियार की॥
ऐसी घडी नहिं आयगी, फिर तो गटारा साथ है।
नेकी करो बद से डरो, हरदम रखो खयालात है।।
५६७
न्हावो सदा गुरुज्ञान में, मैला धुला लो काम का ।
करके सदा दिल दाग को, छावों नशा उस राम का।।
जंजीर तोडो आस की, काटो व्यथा नव-मास की ।
टालो बला चौरयास की, हो लगन प्रभु उल्हास की।।
५६८
सत्संग हरदम साधिये, सत्संग का मिलना कठन।
सत्संग में नित जागिये, करना श्रवण आदी पठन।।
निंदा, प्रशंसा छोड़ कर, नित आर्तता को धारिये।
सत् के अनुग्रह प्राप्त कर, श्रद्धा पकर उच्चारिये।।
५६९
मानो बचन नित श्रेष्ठ का, तब श्रेष्ठ ही होती मती।
जैसी मती वैसी गती यह संत की है संमती।।
निर्धार सत् के वाक्य का, मत भूलना प्यारे ! कभी।
तब पार बेडा होयगा, सन्देह वह जावे सभी ॥
५७०
आनंद के दरबार में, नहिं हेतुओं से काम है।
गर काम होता हो खड़ा, मिलता नहीं आराम है।।
आराम को मिलवा रहो, तो जा बसो निष्काम है।
नित ज्ञान की चर्चा सुनों, पा जायगा विश्राम है॥
५७१
आनंद का सागर भरा, लहरा उठे खुद से भली।
नहाते रहो नित श्रवण से, खुलती रहे कलियों कली।।
हर एक कलीयों में भरा, अमृत जैसा प्रेम है।
उस प्रेम को छीते रहो, टूटे जगत् के नेम है।।
५७२.
आनंद का सागर सदा, देखे अमावस आर्त का।
जब आर्त होता हो खडा, चलता मजा सुख सूर्त का।।
लेना नहीं, देना नहीं, फिर ऐक्यता से काम है।
आनंद ही आनंद को, पाते बने बेफाम है।।
५७३
आनंद यह कैलास है, सत्संगती की टेकरी।
जिसकी चढ़े कई कल्पना, श्रद्धाहूँ से नीचे परी।।
देखा वहाँ इक शुद्ध ही, प्रेमा अरु सत् नाम है।
आगे चले जो नग्न हो, सो ही चले सत् ग्राम है॥
५७४
आनंद के मंजील में, जो द्रोह लेकर जा बसे।
यहाँ भी फसे, वहाँ भी फँसे,जहाँ वहाँ सदा जाते केसे।।
इक भाव को ले चल गये,वह काल का घर हल गये ।
मरना और जीना ढल गये, आनंद में ही मिल गये।।
५७५
आनंद का दरबार यों, आनंद से भरता रहे।
सत् नाम की चर्चा चले, अरु प्रेम : फूँ झरता रहे।।
जिसमें नहीं कुछ द्रोहता, अधिकार से ही काम है।
ऐसी जगह उस राम का, हरदम रहे विश्राम है।।
५७६
आनंद के घर वो गया, आनंद का नहिं भान है।
आबाद में रमता भया, निष्काम जिस का जान है।।
ऊँचा नहीं, नीचा नहीं, निर्द्वंद जिसका प्रेम है।
उस पूर्णता के प्रेम से, छुटे गये तन नेम है।।
५७७
आनंद के भंडार मे सत्-चित्त के पकवान है।
सुविचार की ताटी रखी, निर्मोह का आसान है।।
शुद्धात्मता भोजन करे, फिर दान शांती दाम है।
ऊँची जगह विश्राम है, जहाँ सतगुरु-निजधाम है।।
५७८
आनंद के दरबार का, उसको मजा खुब पा गया ।
जो ज्ञान-बुटी छा गया, अपरोक्ष में रमता भया।।
ब्रह्मात्म जी के भाव को,अजमा लिया जिन ठाम है।
तुकड्या कहे, उस धन्य को, मेरा सदाहि प्रणाम है।।
व्याख्याएं तथा न्याय
५७९
अदमी वही ठहरा गया, जो बंध से निर्मुक्त है।
है स्थीत अपने हक्क में ,स्वातंत्रय निश्चल-युक्त है ॥
किंचित नहीं परतंत्र है, भीतर रहे, बाहर रहे।
परतंत्र है जो भोग में, आदम कभी भी ना रहे ।।
५८०
सुख के लिये नित दौड़ता, अरु श्रेष्ठ आज्ञा मोडता |
सत् कर्म सारे छोड़ता, अभिमान तन का जोड़ता ॥
संसार में आसक्तता, व्यभिचार करता अनुचिता |
गुरु से रखे जो द्रोहता, यह ही समझिये मुर्खता ॥
५८१
गाँजा, चरस के आसरे, रहता हुवा करता नशा |
अपनी सदा ही तानता, घर में रखे नित अवदसा ॥
चोरी -चहाडी हरघडी, व्यसनी सदा करता गडी ।
खुद भी मरे कर स्वार्थता ,यहि मुर्खता प्यारे ! बडी ।।
५८२
सिद्धान्त मन से जोड़ता, सत्-ग्रंथ को नहिं जानता ।
बैराग के बिन न्यास की, ठूमरी-कविता बाँधता ।।
अज्ञान को चाहे सदा, सत्-ज्ञान को माने नही।
नित पेट की चिंता करे, है मुर्खता प्यारे ! यही ।।
५८३
उठता नहीं सूबो कभी, नहीं स्नान करता रोज भी।पहले पिया करता चहा, पीकर हिं मुँह धोता कभी ।।
मुँह में तमाखू की नली; धूँवार - जैसी जा रही।
है पाप काअवतार ही, मुख गालियाँ सब छा रही ।।
७८४
सुंदर वही है आदमी, जिसका हृदय-पट शुद्ध है।
तनु चाम का सुंदर नहीं, कु-विचार से जो बद्ध है।।
दिखता यदी हो शुश्र पर, अंतःकरण मैला रहा।
तो कुछ नहीं है काम का, संगत न कर उसकी कहाँ ॥
८८५
जीता यहाँ पर,कौन है ? मृत-सा सभी जग भासता |
नीचे-उपर चारों दिशा, नहिं जीत की उल्हासता ॥
जीते यहाँ वहि बन गये, जो मौत को पहिचानते।
मरना नहीं, जीना नहीं इस ज्ञान को नित छानते ॥
५८६
बलवान है वह ही गडी, जिसमें न चिंता रोग हो ।
लेता गरीबों की कदर, जिसका क्षमा उद्योग हो ।|
बिछुडे नहीं पल भी कभी, इस मोह के जंजाल में ।
हरदम रहे अलमस्त वह, हो हाल में, बे-हाल में ।।
५८७
संतोष-सा धन है नहीं, सारे जमाने बीच में ।
निर्धन वही है भासता, फँसता दुराशा-कीच में ।।
चिंता -गरीबी यार! जब से, मग्ज तेरे भर गई।
धनमालमत्ता ले गई, संतोष धीरज खा गई ।।
५८८
मोटा हुवा तो क्या हुवा ? मोटेपना नहिं पास में ।
लूटे गरीबों की गुजर, है बे-कदर हर श्वास में ॥
अपना भला ज्यों चाहता, तो दुसरों की ले दया।
तुकड्या कहे वह लोक में, परलोक में मोटा भया ।।
५८९
संसार में सो मर्द है, डरता नहीं संसार को ।
साची नियत रखता सदा, साचा करे व्यवहार को ॥
फिर दुःख हो या सुख हो, सब ज्ञान से देता जला।
रहता अलग आसक्तियों से, सो मुझे दिखता भला |।
५९०
है आप्त से भी आप्त वह, जो सत्य को बतलायेंगे ।
झूठे करम को छोड कर, सच की रहा चालवायेंगे ।।
है एक ही घर के सभी, गर झूठ बतलावे धड़ा ।
सो आप्त ना यह “शत्रु है, जिन संग से दुर्गुण बढ़ा ।।
५९१
हाँजी न कर किसकी कभी,नित सत्य व्रत को प्राप्त हो।
राजा रहे या रंक हो, या और भी तन आप्त हो ॥
हाँजी उसीकी कर सदा, जो झूठ से बचवायगा |
माया-नटी से छोड कर, सत्-रुप में मिलवायगा ।।
५९२
कीमत नहीं है द्रव्य में, बलवान में, या जान में ।
कीमत नहीं इन्सान में, या मान में, सन्मान में ।।
लगती है कीमत ज्ञान से, सत्-ध्यान से,निर्बान से ।
सुविचार से आचार से, या नीति के व्यवहार से ॥
५९३
नहिं धन्य होता है पुरुष, ना धन्य होता देह है।
ना धन्य होती वासना, ना धन्य होता स्नेह है ।।
ना धन्य होता मान है, ना धन्य होता जान है।
है धन्य वह,सत् ज्ञान है,जहाँ सत् स्वरुप का ध्यान है।।
५९४
सबसे हि मीठ बोलना, में जानता हू पून है ।
कडवी जबानी बोलना, यह पाप सब से दून है ।।
नर ! दोष मत रख जीव में, ये दोषमय है इंद्रियाँ ।
जिव तो निरामय अंश है, जाने वही गुरु की दया ।।
५९५
अंधी हमारी आँख है, बहिरे हमारे कान है ।
कड़वा हमारा मुँह है, अरु दिल सदा शैतान है।।
जबतक नही दी चीन्हा धरम,तब तक सभी तन व्यर्थ, है।
सच धर्म धरते हाथ में, सब देह मन ये सार्थ है ।।
५९६
है मुँह का भूषण यही, सत् ज्ञान जग को बोलना।
है नेत्र का भूषण यही, गुरुचरण देखे डोलना ।।
है हाथ का भूषण यही, उपकार करना दीन से ।
सब देह का भूषण यही, रहना जगत् में लीन से।।
५९७
नर ! एक पल भी स्थीर ना, ऐसी भरी है मूढ़ता ।
क्या स्नान करके होयगा ? मन तो घडी पल ढूँढता।।
तो स्नान ऐसा साध ले मन स्थीर निर्मल होयगा ।
सत्संग के जलबूंद से, अक्षय पुनित हो जायगा।।
५९८
तीरथ अगर न्हावो भले, तो साफ मन को कीजिये।
बिन साफ मन हो, तीरथों की बूँद सर ना लीजिये ।।
क्यों दोष देते तीर्थ पे ? मन तो विषय को चाहता ।
क्या कर सके तीरथ भला ? दिल इश्कबाजी लाहता ॥
५९९
दे चित्त जिसका शुद्ध तो,फिर बोध का क्या काम है ?।
लागी लगन प्रभु की जिन्हें,फिर खोजना क्या धाम है।।
सब तीर्थ उसके साथ में, सब देव उसके पास है।
रिद्धि अरु सिद्धी सभी, बनते उन्हींके दास है।।
६००
है देव की पूजा यही, उनके चरित को जानना ।
करना अमल उस बात पर,सच बात में दिल बानना ।।
मिलवायके सतग्रंथ को, करना श्रवण सत्पंथ को।
वैसा अमल करना सदा, अरु लीन होना संत को ।।
६०१
संध्या सभी को हो रही, संधि न जाने एक भी।
संधी अगर जाने लगे, तो तार टूटे ना कभी।।
तिहू-काल की संध्या करेसे, मन जरा ना स्थिर हो।
संधी अगर जानो भली, तिहू लोक में बानबिर हो।।
६०२
प्रभु ध्यान ही है शुभ शकुन ,ध्याते फते सब काम है।
खाली न जावे वार यह, मंगल, प्रभु के नाम है ।।
उठ रे गड़ी ! क्या देखता ? घट तो भरा रख प्रेम का ।
तुकड्या कहे होजा सुखी, सब तोड बंधन नेम का ।।
६०३
वेदान्त ऐसा है नहीं, कर्तव्य की हानी करे।
वेदान्त ऐसा है नहीं, संस्कार- हिरसानी करे।।
वेदान्त का नहिं अर्थ यह, मत उन्नती अपनी करो।
वेदान्त कहता सब करो, लेकिन करनपन ना धरो ।।
६०४
मेरी चलन तो है यही, सब ही जगह में घूमना |
जिस चीज से होता भला, वह चीज वहाँ से चूमना ।।
हो धर्म, या पर-धर्म भी, हानी नहीं करना कभी ।
नर ! सीख सच्चे ज्ञान को, अपना -पराया हो तभी ।।
६०५
जब मित्र तू खुद ही बने, तब बेर ना कोई करे।
तू ही रखेगा बेर तो, फिर दुष्मनी लाखों धरे ।।
इस ज्ञान को अब सीख कर,सत् ही रखा कर भावना |
तब भाव रखते लोक भी, यह बात ना होगी मना ।।
६०६
ऐसा न किसका काम है, जिसको न पल आराम है।
दिन रात विषयों बीच में, रहता सदा बेफाम है ।।
है श्वान सूकर वह तभी, बेवक्त ना भटका करे ।
पर, नर महा ही नीच है, दिन-रात विषयों में मरे ।।
६०७
दिल चाहता है यह करू ईश्वर निराला ही करे ।
मिलता न मेला एक में, जिससे भरोसा मन धरे ।।
मैं मैं किया पर कुछ नहीं, जो होनहारा ही हुवा ।
तकदीर ना टलते किसे, है कुदरती ऐसी हवा ।।
६०८
हर फूल फूले साथ में, किस्मत सभी के है जुदा।
लाखों चढे प्रभु पाद पर, कई तो पडे धरनी अदा॥
कईं तो प्रभु के भक्त को, माला चढाने जा रहे।
किस्मत किसी के यों रहे, प्रेतादिकों पर छा रहें॥
६०९
गर भाग में कुछ है नहीं, तो यत्न करके छोड दो।
कुछ भी मिले नहिं आखरी, आशा हजारों जोड़ दो ॥
करते रहो कई जन्म तक, तो हक्क में फल पायेंगे |
आधे इधर, आधे उधर, करके मजा ना पायेंगे ।
६१०
नेकी करूं तो नेक है, बदियाँ करू बदनाम हूँ ।
मारुं किसे मर जाऊंगा, जो जो करूं वहिं ठाम हूँ।
अच्छा करूं तो ऊँच हू, बूरा करू तो नीच हू ।
हमरे करम से आप ही, मै नीच हूँ, या ऊँच हूँ ॥
६११
प्यारे ! सभी की है गती, जैसा करे जो कर्म को।
जाना जहा है आप को, वैसा पकड़ लो धर्म को।
यह न्याय का भंडार है, जो नर्क हो, या स्वर्ग हो।
पावे जगह वैसी तुम्हे, जैसा मिले संसर्ग हो।।
६१२
गुण-कर्म के अनुसार ही, होता जनम सुख-दुःख का।
चारों बरण पावे उन्हें, व्यभिचार हो जिन रुख का।
यह अंत में होता पुरा, संजोग गुण औ कर्म का।
आगे जनम पावे वहीं, हो धर्म का अन् अधर्म का।।
६१३
इस जीव के गुण कर्म से, ये चार जाती बन गई।
अंडज, जरायुज, उद्भिजी, श्वेदज, यही चारों भई।
जिस जिव के जो कर्म हो, उस खान में वह जायगा।
अपने करम के न्याय से,चारो जगह भरमायगा।।
६१४
मेरे-तुम्हारे जन्म ये, कई बार दूनिया में भये।
बिलकुल यादी है नहीं, थे कौन गा हो के |
जो जानता कई जन्म को, वहि छानता सतज्ञान को ।
भटका कभी फिरता नहीं,पाता प्रभू-गुंण-ध्यान को ॥
६१५
धनवान होता है वही, निष्काम देता दान को।
लेता गरीबों की कदर, चढता वही है मान को ॥
गज-राज पे चढता वही, सत् धूल में मिल जायगा।
तुकड्या कहे वह तर गया, जो सत्गुरु-गुण गायगा।।
६१६
धन -द्रव्य सूमों का कभी, लगता न अच्छी राह में ।
या तो जले अंगार में, या चोर पकड़े बाँह में ।।
इनसे अगर बच जायगा, तो राज दंडा पायगा।
सत् में कभी ना जायगा, गर सूम का धन होयगा।।
६१७
इस शास्त्र का मै क्या करूँ ? गर प्रेम जो लगता नहीं ।
इस कर्म का मै क्या करूँ ? गर नेम जो लगता नहीं ।।
इस ज्ञान का मै क्या करूँ ? अज्ञान जो भगता नहीं ।
इस ध्यान का मै क्या करूँ ? चंचलपना डगता नहीं ।।
६१८
जिसको नहीं है बोध तो,गुरु-ज्ञान भी क्या कर सके ?।
करता नहीं जो अनुचरण, सत्-संग में क्या भर सके ।।
जाता नहीं प्रभू की शरण, तो कष्ट कैसे हर सके ?।
जाने नहीं गुरु-ज्ञान तो, भव-सिंधु कैसे तर सके? ॥
६१९
श्रद्धाबिना बातें अगर-पोथी पढा तो क्या हुवा ? ।
शम-दम बिना हटयोग या-व्रत से कढा तो क्या हुवा ?॥
जाने बिना सत-ज्ञान,जग में -खुब बढा तो क्या हुवा।
अनुभव बिना,सत्-संग में, जाके लडा तो क्या हुवा ?।।
६२०
इतना पढ़ा के क्या किया ? गर खुद पढ़ा तो है नहीं।
पढ़ भी गया तो क्या किया ? पढ केनकढा तो है नहीं ॥ कढ भी गया क्रियमाण से, अनुभव लडढा तो है नहीं।
यदि लढ गया अनुभव हि से, हक में गढ़ा तो है नहीं ।।
६२१
अजि!जो फँसे जग-आस में, अरु काम के आधीन है।
इस देह का अभिमान धर, अरु प्रेम के स्वाधीन हैं ।।
है गर्व विद्या का जिसे, अरु जात का अभिमान है।
चाहे करे कछु सैकडों, तारे न अपनी जान हैं॥
६२२
है वाद का वादी बना, छुटा न जिसका मान है।
नित ज्ञान की चर्चा करे, पर कर्म का नहिं ध्यान है।।
सत् प्रेम की भक्ती नहीं, अरु कष्ट में हैरान है।
चाहे करे कछु सैंकडो, तारे न अपनी जान है॥
६२३
है जोग का जोगी बना, जोगीपना नहिं जानता ।
है ध्यान का ध्यानी बना, अरु ध्यान को नहिं मानता ॥
है भोग का भोगी बना, नहिं भोग की पहिचान है।
चाहे करे कछु सेंकडो, तारे न अपनी जान है ॥
६२४
है त्याग का त्यागी बना, जागा नहीं प्रभू राम में।
है जाग का जागी बना, लागा नहीं निज-धाम में ।।
निज-धाम में रहता भया, कीनी नहीं पहिचान है।
चाहे करे कछु सेंकडो, तारे न अपनी जान है॥
६२५
है संग का संगी बना, नहिं संग करना याद है।
है याद का यादी बना, नहिं याद में आबाद है॥
आबाद में रहता भया, आबाद का नहिं भान है।
चाहे करे कछु सैकड़ों, तारे न अपनी जान है।।
६२६
है ज्ञान का ज्ञानी बना, नहिं ज्ञेय को सीखा कभी ।
वहिं में गुजारा कर रहा, आगे नहीं चलता कभी।।
तुकड्या कहे यहि बात से, फँसवा दिया तन प्राण है।
चाहे करे कछु सेंकडो, तारे न अपनी जान है॥
सनातन - धर्म
६२७
सब का धरम तो है यही, सत् औ असत् पहचानना।
हिंसा कभी नहीं मानना, अस्तेय-ब्रत को जानना।।
रख ब्रह्मचयों को सदा, अरु द्रोह ना करना कदा।
उपकार करना दीन पे, यहि धर्म-व्याख्या सर्वदा।।
६२८
है धर्म सब का एक ही ऐसा मन कहते सदा।
फिर दंभ क्योंकर चाहिये, मेरा धरम मोटा सदा।।
हो सत्य, अरु हिंसा-रहित, अस्तेय, ब्रह्मश्चर्य से।
रहता सदा अपरिग्रही, यहि धर्म बोला आर्य से।।
६२९
जीवित हमारा है यही-निज ज्ञान को पहिचानना।
सब भोग से निर्मुक्त हो, प्रभू के गुणार्णव मानना ।।
छोटे रहे, बुढे रहे, वानस्थ हो, बलवान हो।
अपने उचित कर्तव्य की, हरदम उन्हें पहिचान हो।।
६३०
सबकी करे जो धारणा, वहिं धर्म-ईश्वर-खास है।
उसके मिलन की साधना,बहि धर्म-पथ अभ्यास है।।
जग-सौख्य मोक्षानंद को, पथ है सनातन धर्म ही।
तुकड्या कहे बिन धर्म के, होगी फना सारी मही।।
वर्णाश्रम-धर्म
६३१
शम, दम, क्षमा ,शांती,दया, हैं सहज जिन के पास में |
आर्जव स्वयम् है शीलता, अरु सत्य है हर श्वास में।
ऐसा जिन्होंका नेम हैं, बिन योग्य नहिं माँगे जरा |
है मंत्रवत् वह देवता, ब्राह्मण वही जानो पुरां ॥
६३२
भगवान भी उनकी सदा, सेवा किया करते सुना।
बह धन्य ब्राह्मण -देवता, जिनको न धन की याचना |
दिन-रात ही प्रभु-कर्म में, उनकी उमर बीती गई |
शांति, क्षमा, शम, दम,दया बस कामना यों ही रही |
६३३
है शूर क्षत्री-वंश ही, रण में थरारे काल भी।
लौटे न लाखों से कभी, होगा अकेला बाल भी ॥
जैसे सुरज निकला सुना, अँधियार लगता भागने |
वैसे चमकता तेज क्षत्री- वंश ही ऐसा बने |
६३४
बलवान जिनका बाहुबल, स्फुरता सदा रण बाज पे |
आँखे सदा घुमती रहे, कहाँ दूष्ट की सँसाज पे ।
है कर्ण जिनके ऊँच ही, सुनने ध्वनि कटु नाद के।
कर्कश रहे रण में सदा, जो शूर है आजाद के।।
६३५
मद-गज करोड़ों आ रहे, कड़ लाख बीरों साथ में ।
भाले, कट्यारी, जंबिया, हथियार सब ही हाथ में ।
आँखों दिया जब शूर के, धडके नहीं छाती जरा।
छोडे न हिम्मत रोम भी, सो शूर होता है पूरा।।
६३६
रण-गर्जना सुन शूर की, पृथ्वी करे डवडोल ही।
आकाश कडकडता रहे, निकले जबाँ से बोल ही॥
अधिकार ऐसा हो तभी, जो नम्र है सत्-धर्म से।
सो शूर पूरा जानिये, भूले न अपने कर्म से॥
६३७
डरता न मरने को कभी, यदि प्राण भी छूटे कहीं।
सत् के लिये झूरे सदा, बस आसना यों ही रही॥
मन को जरा नहिं छोडता, अन्याय के संसर्ग में।
खाने यदी कुछ ना रहा, जावे न गंदे वर्ग में॥
६३८
वह शूर तो है ही नहीं, रक्षा न करता दीन के।
सेवा करे नहिं देश की, धन चूसता है छीन के।।
बिन ज्ञान के लढता सदा, अन्याय का ले पक्ष को।
वह शूर ना है, क्रूर हैं, खाता हरामी भक्ष्य को।।
६३९
मत शूर ऐसा हो कभी -सत् के उपर हल्ला करे।
ऐसा अगर कुछ भी करे, तो शुर-बुद्धी ही मरे॥
होगा बडा ही पार फिर, भोगे न भोगे जाय है।
सत् का अनुग्रह प्राप्त कर,तब ही तो शूर कहाय है॥
६४०
कर ख्याल पहिले शुर का,जिन की जगत् कीर्ति भरी।
अपने लिये भूखे रहे, पर संतकी की चाकरी॥
थे शूर ही पे भार कर, भिक्षुक, जोगी सर्व ही।
पर शूर लौटे ना कहीं, दे सर्व को सुख ही जही।।
६४१
वहि वैश्य है,व्यवहार में, -स्वाभाविकी अति दक्षता।
आर्जव,दया, उद्योग-तत्पर, सत्य अरू चाणाक्षता।।
है शूद्र का कर्तव्य यह-सेवा सदा करना भली।
हो सत्य, प्रेमरू तुष्टता, यही आर्य से नीति चली।।
६४२
है दुष्ठ जिन का आचरण, वह वर्ण के बाहर सदा।
चाहे भले हो ऊँच जाती, ब्राह्म या क्षत्री यदा॥
शासन उन्हीं को कीजिये, जो धर्म-जाती मोडते।
धन के छिये गुरगुर करे, अपना करम सब छोड़ते।।
६४३
खुद ब्रह्मचर्या के लिये, न नैष्ठीकता ही चाहिये।
खाना, पिना, सोना तथा आलस्य ना मन भाइये।।
वेदाध्ययन तो चाहिये, सत् कर्म के उपचार को।।
सेवा करे गुरु की सदा, सोही धजे आचार को ॥
६४४
हो ब्रहमचारी की यही, आदत हमेशा लोक में।
ना वह फँसे जग-मोह में, नाचे न कोई शौक में।।
एकान्त का ही अनुसरण, एकान्त ही हो बैठना।
हो त्याग अच्छा पास में, दिल में विषय का देठ ना।
६४५
खुद ब्रह्मचयों के लिये, वानस्त या सन्यास को।
है वर्ज स्त्री से क्रीडना, या बोलना मुख-हास को॥
एकान्त या लोकान्त में, स्त्री-संग उस का वर्ज है।
है रीत शास्त्रों से यही, अभ्यासियों का फर्ज है।।
६४६
है ब्रह्चारी भी भला, वानस्त या संन्यास है।
सबसे गृहस्थी है ऊँचा, उसको सभी की आस है॥
अपना सभी कर कर्म को, रक्षा करे जो तीन की।
सो ही गृहस्थी है पुरा, उसपे न टोली रीण की।।
६४७
जो ब्रह्मचारी है सही ? वह ना करे संसार को ।
यदि कर रहा संसार को, करता पशु व्यवहार को॥
जो एक पत्नी के सिवा, माता सभी को जानता ।
बह ब्रम्हचारी है पुरा, मेरा यही दिल मानता ।।
६४८
संन्यास लेना सर्व ने, ऐसा नहीं अधिकार है।
जिसने न जीती इंद्रियाँ, संन्यासि में वह जार है॥
बैराग से भरपूर है, अरु ज्ञान से मशहुर है।
निर्वासना ही नूर है, संन्यास सो मंजूर है ॥
६४९
जग के नचे खुब नाचता, कहता लिया संन्यास है।
खाता सदा मिष्टान्न को,नहिं कर्म का कुछ न्यास है॥
भीतर भरी है वासना, विषयों तथा धन, दार की।
बिलकुल नहीं संन्यास वह,आशा जिसे व्यवहार की ।।
६५०
निज धर्म के अनुरुप जो, सत्-कर्म को करता रहे।
नहिं मोह हे परधर्म का, नहिं द्वेष भी धरता रहे।।
बाहर-भीतर है एक-सा, नहिं दंभ कुछ भरता रहे।
तुकड्या कहे वहि तर गया, जो हक्क में मरता रहे।।
रुढि और धर्म
६५१
है धर्म छूवा-छूत में, है खान में, या पान में।
ऐसा न माने नर ! कभी, मत भूल ये अनजान में।।
यह तो पड़ी है रुढियाँ, कंई रोज से चलती रही।
बस, है यही मेरा धरम मत भूल के कहना कहीं।।
६५२
है धर्म सच्चा शील में, है सत्य में, अस्तेय में।
है शौच, ब्रहमश्चर्य में, अरु आत्म-रुप के स्नेह में।।
यह तो कभी नहिं सोचता, करता फजुलों की गही।
बस, है यही मेरा धरम मत भूल के कहना कही।।
६५३
रुढी सनातन है नहीं, बदले समय-अनुसार है ।
स्थल, काल आदिक भेद से, बन जाय सार असार है ॥
पर तत्व जो हैं सत्य के, वह धर्म तू जाना नहीं।
बस, हैं यही मेरा धरम मत भूल के कहना कही ॥
६५४
सुविवेक-बुद्धी प्राप्त कर, सत्-ग्रंथ अरु सत्संग से।
कर खोज सत्यासत्य की, माता न जा हठ-भंग से ॥
नवमत रहे, या हो रुढी, ले सत्य चुन चुन के सही।
बस, है यही मेरा धरम मत भूल .के कहना कहीं ॥
प्रस्तुत कलि-काल
६५५
हठयोग क्या बनता अभी,सत्-जुग जमाना चल गया ।
निश्चय सभी के ढल गये,बिरलाद किसको फल गया।
राज वही, परजा वही, साधु कयामत हल गये ।
अब नाम के सारे रहे, अपने करम को भुल गयें॥।
६५६
कलयुग की छाई छटा, जब से फरक होता गया।
आगे जमाना दूर है, क्या था, अरु क्या हो गया॥
देखे पिछे की बात को, तो आज ही कुछ ना रहा।
अब नाम के सारे रहे, झूठा पसारा छा रहा ॥
६५७
आचार तो दिखता नहीं, आचार्य के भी पास में।
तो पंडितो की क्या कथा ? नहिं सत्य दिखता खास में।
ब्राम्हण अरु क्षत्रीय वर्णाश्रम -पिछाना ना रहा ।।
बस शुद्रदू का ठाठ है, अरु शुद्र परचा छा रहा ।।
६५८
करनी कहाँ,जाती कहाँ ? कहाँ धर्म,कहाँ व्यवसाय है ?
नाता कहाँ, संथा कहाँ ? कहाँ उम्र, कहाँसे ब्याह है ?।।
नहिं एक भी है तौल पर, पर बात मुख में रह गई।
मेरा धरम, मेरा धरम यह आसना खाली रही ।।
६५९
अध्यात्म-विद्या देखकर, अपना भला सब कर रहे।
अध्यात्मवाले मस्त तो, निज ज्ञान ही में मर रहे।।
कितनी हमारी भूल है ? धन तो हमारे पास में ।
पर हम शिकारी हो गये, बाँधे गये पर-दास्य में ।।
६६०
नहिं चोर को भी चोर कह, ऐसा जमाना आ गया।
तो क्या करूँ में आचरण ? झूठा तमासा छा गया ।।
सच बोलना भी पाप है, ऐसा मुरख जन मानते ।
ऐसे निराले. जगत् को, ज्ञानी सदा ही छानते ।।
६६१
अपनी गपें सब छोड़ते, अरु श्रेष्ठ के पथ मोडते।
ऐसे न जन अब चाहिये, जो मान पे ही दौडते ॥
कितना भला नुकसान है, अब देश के इस रंग का।
यादी रखो बूरा हि है, जब प्रेम ना सत्संग का।।
६६२
नहिं काम है अब मौज का, सच का बतैया चाहिये ।
नहिं तो बढेगा पापही, मुश्कील है मन भाइये ॥
कोई अनुभव दे सके, तो वेद को दे आगिया।
तब ही भला अब होयगा, नहिं तो जगत् भूला गया।
६६३
चलती हुई रूढी हमें, इस वक्त आडी आ रही।
ऐसी समझ जो मानता, उसकी मजा सब जा रही।।
गर चीज करना हो जनम, तो आँख अपनी खोलिये।
जैसा पटे सत्-ज्ञान में, वैसा कराकर बोलिये ! ।।
६६४
हरदास आया गाँव में, खुब नाचता, दुनिया ठगे।
ख़ुब बोलबाला हो रहा, सब लोग ही भूले”नगे ||
कहा गजल अरु दादरा, कई लावणी, कड़ मोहनी।
पूरा तमासा कर रहा, नवसीख की अच्छी बनी ॥
६६५
हरएक जोगी ऊठता, करता खुदी के शास्त्र है।
भरता झुठाई पास की, डाले मोहब्बत-अस्त्र है॥
ऐसे तितंबे से भला, कैसा चले जग एकसा।
बस, कुछ न सूझे यार! अब, ईश्वर करे सो एक-सा।
६६६
सच में न दिल जगता प्रभो ! इस काल के संसार में।
रहना भक्ता कैसा उचित, नीती न जिस व्यवहार में |
सब द्रव्य के लोभी गडी, जितने नजर में आ रहे।
तुकड्या कहे बिरला कहाँ, तेरा गडी मिलता रहे।।
प्रभू से अर्ज
६६७
प्रभु ! भक्त की महिमा, भलीभाँती सुनाते थे हमें।
मम भक्त मुझसे हैं बडे, यों कह बनाते थे हमें ।
जो भक्त मुझको चाहते, उसको सदा मै चाहता ।
ऐसे बताते थे मुझे, मैं भक्त का दुःख साहता।
६६८
प्रभु ! द्रौपदी के दुख में, आये बडे ही धाय के।
कैसा निभाया काज वह, दी लाज सब बचवाय के।
जो आज नंगी बाइयाँ, फाटी चिथडियाँ ओढ़ते।
क्या खबर तुमको है नहीं ? तुम ख्याल उनका छोड़ते।
६६९
धनवान से धनवान भी, अपनी भूमी को देखता।
कुछ हो कसर, कम-बेश तो, अपनी दया भर फेकता।
प्रभु ! है तुम्हारी जिंदगी, तो क्यों भला भुखी मरे ? ।
कुछ तो किया कर ख्याल अब,बस प्राण आशा में भरे।
६७०
ग्लानी भई जब धर्म की, तब मैं खड़ा हूँ बोलते।
अब क्या हुवा, होने रहा ? नहिं रुप अपना खोलते ॥
पर-धर्मवाले शूर तो, छाती तलक भी आ रहे।
अब आप की ही है रहा, नहिं तो मरण को पा गये ॥
६७१
किसने कहा था नाथ, तू ? मैं देखता हूँ भूल ये।
पूरा करे कंगाल जब, होता तरस ढलढूल ये।।
तारे बड़े पर ख्याल तो, वह तारना नहिं मानते ।
तारे हमीं-से मूढ तो, उस नाथ को ही जानते ।।
६७२
मेरी समझ में है नहीं, वह आपका क्या नेम हैं ? ।
कितना सहन करना भला, दुख का उठाकर क्षेम है।।
भारत भला भूखों मरे, बिलकूल खाने है नहीं।
अब आप के वह वाक्य की, पूरी रहा बाकी रही।।
६७३
है दोष के भंडार हम, निर्दोष अब कर दो हमें।
तेरे चरण के आसरे, दिंन-रात ही धर दो हमे।।
कर दो हमें प्रभु ! एक -सा; निर्द्वंद अपने रूप में।
बस, भक्ति दे अपनी सदा, भटका न अब जग-धूरे में।।
६७४
मंजूर हो गर अर्ज तो, आवो पुकारे हो रहीं।
बूरी खियालत है पड़ी, सर पे जुतैया छा रही।
तुकड्या कहे नहिं हक्क कुछ,खाने-पिने की लाज है।
है दीन-बंधो ! अर्ज की, सुन-सुन जरा आवाज है।।
गौ-रक्षण
६७५
श्रीकृष्ण के हो भक्त तो, मानों उन्हीं का यों कहा ।
परत दर्द दो गौ कों कभी उनके बचन में यों कहा ॥
जब मानते हो बचन को, मत भूलना गो को कभी ।
सेवा करो जितनी बने, गोपाल -हो जावो तभी ॥
६७६
गो है प्रभू की आतमा, है प्राण से भी प्राण वो ।
नर ! सोच दिल में खूब यह,मत बेच गो की जान वो ॥
परधर्मियों को बेचकर, गौएँ अगर कट जायगी ।
तो याद रख ! तेरी भी इज्जत, आखरी फट जायगी ॥
६७७
ऐ हिंदुओ ! प्रिय गाय को, मत कत्लखाना बेचना ।
हिंदू धरम में संत ने, अरु देव ने कर दी मना ॥
गर तोड़कर उनका बचन, तुम द्रव्य को हरषाओगे |
तो बालबच्चों के सहित, अपना हकिया फल पावोगे ।।
६७८
जो दुसरे को दु:ख दे, दुखिया वही हो जात हैं।
जो सुख देना चाहता, तो ख़ुद सुखी बन जात है ।।
गर यार ! तेरे हाथ से, गौएँ कतल-घर जायगी |
तो याद रख यह जिंदगी, भर धूल में हर जायगी ॥
६७९
जब भक्त हो श्रीकृष्ण के, तो मानलो उनका कहा ।
पालो गऊं को प्रेम से, गोपाल हो जावो तहाँ ॥
प्रभू तो गऊं की जानसे, सेवा सुनाते हैं तुम्हें ।
गौएँ चराकर के खुदी, जाहिर जनाते है तुम्हें ॥
६८0
श्रीकृष्ण, शिव, अवधूत भी, गो -पालना करते सदा।
गौतम, वसिष्ठादिक ऋषी, सेवक बना करते सदा।।
पांडव तथा भरताहि भी धर राजे उन्हें कर बन थे |
है विश्व-माता गो सदा , यह बेद में गुण-गान थे।।
६८१
रे ! हाय ! भारत की गती, कैसी दशा यह हो गई?।
खाने नहीं है अन्न भी, सब वासना खाली रही॥
इसका पता गौएँ मुझको लगा, है एक ही कारण बड़ा।
जाती है गौएँ कत्ल में, यह पाप ही जब से बढ़ा।।
६८२
ऐ हिंद के प्यारे सुपूतो ! फिर्याद मेरी मान लो।
वह प्रीय गौ को बेचना, यहि पाप है पहिचान लो।।
जाती कसाबों की जगह, तब शाप देती दुःख से।
तुम भी मरोगे भूख से, मुझको बिकातें सुख से ।।
६८३
कट जायगी गौ मौत - में, तब याद तुमरी लेयगी।
कर प्रार्थना प्रभू से, तुम्हें अपना किया फल देयगी।।
किसी जीव को मत बेच भाई ! तू कसाबों को कभी।
सेवा सदा कर जो बने, सुख पायगा आखिर जभी।।
६८४
धन तो कमाती रांड भी, व्यभिचार करके जार से।
तू क्या मरेगा द्रव्यबिन ? सेवा करे उपकार से।।
सेवा किया गौ-जीव की, पाई कमाई लाख है।
बेची अगर धन के लिये, पावे जगह नापाके है।।
६८५
गर बेचने की आश हो, तो ऐसियो को बेचना।
चारा मिले उसके लिये,संतुष्ट हो उन आतमा।।
सेवा करे जो गाय की, उसको भले तू बेच दे।
पर-धर्मियों को बेच मत, मत कूल अपना बेच दे ।।
६८६
प्यारा हमें वह हिंदु है, सेवा करे गो-जीव की।
कर्कश रहे नित दूष्ट से, बाहें छुडा गो-जीव की ॥।
पीता गऊ का दूध अरु, माखन सदा अपने लिये।
तुकड्या कहे, वह धन्य है ! है शीलवत् अपने लिये ।।
बोध सार
६८७
मत दिल दुखा किसका कभी,तेरा हि दिल दुख जायगा ।
यह याद रख तेरा किया, तुझको भुगतना आयगा ॥
रख साफ अपनी आतमा, हर जीवजूवों के लिये।
तो तू सुखी हो जायगा, इस तीन भूवों के लिये ।।
६८८
जिस कर्म से वृत्ति मलिन हो, वह सभी तू डालना ।
जिससे विमल-निश्चल-कुशल-मन हो वही पथ पालना ॥
पावित्रता, सुविवेकता, निष्ठाहि साधन-सार है।
कर एक प्रभू ही के लिये, परमार्थ या संसार है॥
६८९
नजदीक है ईश्वर सदा, नर ! तू किधर है देखता ? ।
जो देखना नहिं सीखता, भलती हि बातें ठोकता ॥
जा पूछ संतों से कहीं, नजदीक, में वह है कहाँ ।
ले ज्ञान-दीपक हाथ में, कर खोज ईश्वर है जहाँ ॥
६९०
मत फँस जगत् के शौक में ,मत फँस जगत के प्रेम में ।
सीधा चला जा मार्ग से, रह मस्त अपने नेम में ।।
जब वृत्तियों को रोककर, निज केंद्र में मिलवायगा ।
सारी जहाँ वश होयगी, आनंद का पद पायगा।।
प्रभु-महिमा तथा विनय
६९१
सब ही करे, कुछ ना करे, ऐसा करे जो सो प्रभू |
लाखों करे, लाखों हरे, ऐसा करे जो सो प्रभू।।
करने करनको ना करे, ऐसा करे, जो सो प्रभू।
खुद ही करे न करे, ऐसा करे जो सो प्रभू।
६९२
ऐसा न बाजीगर कभी -देखा, दिखाने आयगा।
खुद ही बने सब खेल अरु, खुद ही उन्हें नचवायगा।।
खुद ही तमाशा कर रहा, ख़ुद ही मजा मनवा रहा।
पेदा करे सब आप ही, अरू आप में समवा रहा।।
६९३
नाटक जगत का कर दिया, पारट अजब भरवायके।
हर जीव को न्यारा किया, गुण से गुणी मिरवायके।।
पच्चीस रस को भर दिया, तैयार कीना देह को।
खुद आप है न्यारा भरा, होकर भगत् के स्नेह को।।
६९४
सरदार तेरे-सा प्रभो ! मुझको नजर आया नहीं।
बेपार तेरे -सा प्रभो ! मेंने कभी पाया नहीं।।
इक सीड़ियों की चीट पे, लाखों -करोडों वस्त्र दे।
उस द्रौपदी के ब्याज को, बस वस्त्र का ही आस्त्र दे॥
६९५
थे मूठभर चावल धरे, सुवर्ण-पुरिया दान दी।
दल एक तुलसी के धरे, दुनिया सभी कुर्बान दी।।
ऐसा नहीं देखा कभी, कोई भला सरदार है।
सब सेठ में तु ही प्रभो ! रखता हि सच बेपार है॥
६९६
बुजरुग तुमसे कौन है, सारे जगत में भी भला ? ।
पैदा करैया आप हो, माया गुणै-गुण की कला॥
सब के अनादी आप हो, पूरे सनातन-रूप ही।
है आद, मध्यरू अंत में, तेरी सभी सत्ता सही।।
६९७
मृतवत् सभी जग भासता, गर आप ना होते प्रभु !।
सत्ता तुम्हारी है सभी, देखा अचेत् चेता जभू ॥
माया-नटी के जाल का, परदा सभी फहला टिया।
इस भेद से बाँधे गया, शैतान में बहला दिया।।
६९८
सब की सुरत को कर दिया,तेरी सुरत क्यों छिप गई ?
कई लाख चीजें दिख रही,लेकिन न तू दिखता कहीं।।
इतना तुझे क्यों डर भला ?छिप छिप रहा किस दूर में।
कुछ तो नजर कर देख, हम-कैसे फसे जग भूर में।।
६९९
किसके खुशी को कर दिया दुनिया -पसारा सौर का ?।
हर एक नट न्यारा बना, मिलता न मेला तौर का।।
हर जीव में झलकी भरी, माया-पटा को डार के।
हे यार ! तू क्यों छिप गया न्यारा रहे संसार के ?।।
७००
जंगल सजीला कर दिया, क्या बाग से भी बाग है।
सुंदर फुलारी फुल रही, लगते खुदी से लाग है।॥।
अपने ऋतू पर वृक्ष सब, करते सदा व्यवहार है।
रमता न तू इस बाग में, देखा न नूर-उजार है।।
७०१
कई मंदिरों में शीस धर, निर्वाण करते भाव से।
कई योग कर प्राणादि से, दम को खिंचाते डाव से।।
कई पंच-अग्नी साधकर, अंगारमें रहते खडे।
ख़ुलते नहीं है द्वार प्रभू ! कितने मढ़ाऊ से मढ़े।।
७०२
मैं ढूँढता हुँ दूर में, मंदीर में, मस्जीद में ।
एकान्त में, लोकान्त में, कुछ ज्ञानियों के जीद में ।।
वाहवा अजब है खेल यह,कितनी घडी छुपना भला।
आओ दरस दे दो हमें, कर लो मुझे अपना भला।।
७०३
तेरे जगत का ला-पता, तेरी सुरत का ला-पता।
तेरी मुरत का ला-पता, तेरी किरत का ला-पता॥
हरगीज दिखती है मगर, झूठी दिखाई दे रही।
छूपा कहाँ दिलदार ! तू ? है तो नहीं मुझमें कहीं ? ।।
७०४
गर विश्व में रहता न तू, तो सब मृतक होते प्रभो ! ।
रहती न मर्यादा कहीं, सब ही पृथक होते प्रभो ।।
गर सूत्र मणिगण में नहीं, होगी गती फिर क्या भला ?
है खास में आधार तू, यह विश्व तेरी है कला।।
७०५
प्रभू ! आपको वहि जानते, जिसपे तुम्हारी है दया ।
तेरी कृपाबिन और ना, कोई जने जाने-गया।।
यह जीव तो है अज्ञ-सा, नित भोग में फँसवायगा।
तेरी कृपाबिन कोउ का, नहिं पार बेडा होयगा।।
७०६
नाना स्वरुप से आप ही, नट के नटे हो जी प्रभू! ।
नहिं भिन्न तुम से है कहीं, दिखता मुझे देखा कभू।।
सब में तुम्हीं हो व्याप्त पर, अध्यस्त तुम से है जुदा ।
अध्यस्त अंशाअंश है, नहिं आप हो न्यारे कदा॥
७0७
मैं क्या करूं ! अरू क्या हरूँ ? गर तूहि सब में व्याप्त है।
सूनी नहीं कोई जगह, जहाँ पर न तेरा आप्त है।।
अध्यस्त से भाता नहीं, तेरा कहाँपर नूर है ।
अध्यस्त छूटा जायगा, तब तूहि तू भरपूर है।।
७०८ .
मौजूद हो हर नब्ज में, तब तो हमें क्या देखना? ।
देखें कहां ? देखा वही-जहाँ देखना होता फना ।।
यह देखने के बाद में, सो अंत में अरु आद में ।
जल -थल भरा आबाद में -आजाद में-हर नाद में ।।
७०९
स्वयमेव-सिद्ध प्रकाश में, अँधियार संभवता नहीं ।
वैसा तुम्हारे स्थान पर, अज्ञान-पट रहता रहीं ।।
जो मूल की गड चढ चुके, वह लोटकर आता नहीं।
है घाट यह अवघड प्रभो ! जलदी खबर पाता नहीं ।।
७१०
निष्काम-आनंद का झरा, बहता जिनों के नूर से।
वहि आप की सत्ता प्रभो ! पाती है आँश हुजूर से ।।
सब बंध से अति दूर जो, निर्द्वंद आत्माराम है।
तुकड्या कहे मिलता उसे, जो बन चुका निष्काम है।।
७११
कितनी करूं तारीफ में ? मेरी अकल चलती नहीं ।
हर चीज के आनंद से ये वृत्तियाँ ढलती नहीं ।।
हर चीज में अपनी छटा, पल-पल नसों में भर दिया ।
तुकड्या कहे, तू धन्य है ! परचंड लीला कर दिया ।।
७१२
सूने महल को यार ! तूने साज से सजवा दिया ।
पुंगी-सरीसे बाँस को, हर तान से बजवा दिया ॥
खत के सरीसे भूमि को, ज्योति स्वरुप बनवा दिया ।
तुकड्या सरीके मुढको, प्रभू ! नाम में मनवा लिया ॥
७१३
मुश्किल नहीं तुमको कहीं,मिथ्या नचाना सत्य सा !
मूका बृहस्पति जीत ले, जडजीव को कृतकृत्य-सा ।
पंगू कुदे मेरा-शिखर, अंधा अलख-पद को लखे ।
तुकड्या कहे तेरी कृपा से, हो अघट भी बन सके।।
७१९
सृष्टी वही, दृष्टि वही, वहि दृष्टीका आधार भी।
वहि खेल है, वहि मेल है, वहि मेल का बलदार भी।।
खुद में खुदी नटता वही, नहिं एकता, ना अन्यता।
माया नहीं, ना है जगत् आनंदघन चैतन्यता ।।
७२०
ना मैं-पना ना तू-पना , वाणी परा भी बंद है।
ॐ तत्सदिती है एकरस, अवलंब बिन स्वच्छंद है ।।
यह बोलना भी मौज है, शाखा-शशी, सम गोण्यता।
माया नहीं, ना है जगत् आनंदघन चैतन्यता ।।
७२१
स्वानंद-सागर एकरस में, स्फूर्ति लहरे खेलती।
बरखा फुँवारे-शब्द की, खुद में खुदी ही झेलती।।
तुकड्या कहे समरस हुई, परिपूर्ण पाई धन्यता ।
माया नहीं, ना है जगत् आनंदघन चैतन्यता |।
दिव्य गुरु - भक्ति
७२२
गुरुभक्त के मुखसे सदा, झरते श्रुति स्मृति वेद है।
छह शास्त्र अरु सदग्रंथ सब, स्फुरते उसेहि अभेद है।
जाना न पड़ता सिखने, पढ़नी न पड़ती पोथियाँ ।
सेवा गुरुकी जो करे, उसने सभी तीरथ किया ।।
७२३
जो धर्म, अर्थ औ काम ये, मोक्षादि सब पुरुषार्थ है।
गुरुभक्त को मिलते सभी, सेवा उसीकी सार्थ है।।
अनुभव खुदी आता उसे, गुरुकी कृपाका पात्र है।
सच्चा अनुग्रह भी मिले, तब मित्रही सब मित्र है।।
७२४
आज्ञा गुरुकी प्राप्त कर, हरकाम करता जायगा।
धोखा नहीं उसको कभी, शुभ कामना फल पायगा |।
नीर्मोहि गुरु शुपाया अगर, तब जन्मका साफल्य है।
पुरुषार्थ चारों प्राप्त कर, वह शहन्शाह के तुल्य है ॥
७२५
गुरुकी निगा ही मोक्ष है, गुरुवाक्यही है संपदा ।
सेवा गुरुकी जो करे, पाता नहीं वह आपदा ।।
सब संकटोपर मात करनेकी उसे शक्ति मिले।
गर मौत भी आवे तभी, आनंदही फूले फले ॥
७२६
गुरुकी कोई निंदा करे, तब चुप्प कर समझाइये ।
सच बात को बतलाईये, या तो वहाँसे जाइये ॥
गुरुभक्त नहिं सहता कभी, चुगली गुरुकी एक भी ।
प्रतिकार करता जो बने, यदि जान जाती हो तभी ॥
७२७
गुरुवाक्यही है मंत्रजपतप, यज्ञ-यागादिक सभी ।
गुरुदेव सबसे श्रेष्ठ है, यह मानते देवादि भी ॥
गुरुदेव नहिं है जात भी, ना पंथ भी ना देह भी ।
गुरुग्यानही अपरोक्ष है, अनुभव-खजाना है सभी ॥
७२८
जो पंथ पंथहि बोलता, सच ग्यानको नहिं खोलता ।
गुरुभक्ति उसको ना मिली, मेरा यही दिल बोलता ॥
गुरुभक्त तो सेवा करे, अति नम्र प्राणीमात्रसे ।
गिनता न जाति - अजातिको, निर्मक रहे सर्वत्रसे ॥
७२९
गुरु मूरती है चंद्रमा, सेवक चकोर समान है।
गुरुग्यान अमृतसे भी बढकर, है उद्धारे प्राण है ।।
पारस करे लोहा कनक, पर भेद रखता है तभी ।
कर दे गुरु अपनेही सम, यदि हो कृपा गुरुकी कभी ॥
७३0 कि
गुरुभेद खोले आत्मका, संसार-सार बता सके ।
गुरुके बिना कोई नहीं, सतग्यान ध्यान भि दे सके।।
महिमा गुरुकी है बडी, सब ग्रंथ-मंथन कर लिया ।
सच्चा गुर सिलना कठिन; चाहे भले हो तप किया ।।
सत्कर्मही सतशास्त्र है ।
७३१
सत्शास्त्रका अनुभव, हमारे काम यों नहिं आयगा ।
जबतक न होगा चित्त निश्चल, योही सब रह जायगा।
इसके लिये खुदकी तयारी, चाहिये बतलाइये ।
खाली पठनपाठन कथनसे, कुछ नहीं बन पाईये ।।
७३२
हो बोझ अपना क्यों किसीपर, अर्थका या देहका ।
निष्काम सबका क्षेत्र हो, व्यवहार हो सब सनेहका ।
परमार्थका नहिं अर्थ यह, जो दुसरोंपरही जिओ ।
खाओ पिओ पर-कष्टसे, यह पाप है क्यों ना कहो ? ।।
७३३
सीधे रही सादे रहो, निर्मल हृदय करके रहो ।
अपना कमाओ कष्ट करके, मित्र बनकर ही जिओ ॥
संगत नहीं करना किसीकी, छल कपटवाली कहीं ।
श्रद्धा रखो पर अंधता नही, यह खबर रखना सही ॥
७३४
अजि ! दूसरोंके बोझ लेकर, तुम नहीं तर जाओगे ।
अनुभव जहाँतक खुद न लोगे, अंतमें पछताओगे ॥
यदि संत हो तो क्या हुआ और पंथ हो तो क्या हुआ ?।
जबतक न आत्मा ऊँच होगी, कोई ना देगा दुआ।।
७३५
कही लादकर बोझा गधेपर, शास्त्रका अरु बेदका ।
हाथी न वह कहलायगा, यहि तो विषय है खेदका ॥
जबतक न हम ऊँचे उठे, मनसे तथा सतकर्मसे ।
तबतक न कोई साथ दे, वाकिफ रहो इस वर्म से ॥
७३६
है हरघडीही राम कहना, यह बडप्पन तो महा ।
पर छल कपट चुगली न छोडी,तो भजन कैसे रहा ?।।
है इसलिये कहना हमारा, नम्रही सबसे रहो।
सीधे रहो सादे रहो, फिर रामका सुमरण कहो ॥
७३७
यह वेद कहता,शास्त्र कहता, संत कहते क्यों कहे ?।
क्यों तूहि ना कहता सही ? विश्वास तुझको ना रहे ॥
तेरी गवाही बोल सच, तेरा वहाँ क्या स्थान है ।
गर तू उसे जाने नहीं, फिर क्यों करे हेरान है ? ॥
दुर्जनताके रागरंग
७३८
तू भक्त बन या पातकी, जो है सही कह दे वही ।
बाहर-भितर का भेद मत रख, तब तेरी बानी रही ॥
तू पातकी कहते डरे, और पाप तो छोडे नहीं ।
ऐसी दगाबाजीको जनता, क्यों भला बोले सही ॥।
७३९
इन्सान तो बनता नहीं, पर संत कहनेको मरे ।
कुछ पाप तो छोडे नहीं, पर पापिया कहते डरे ॥
कबतक चलेगी बात यह ? भगवान सबही जानता ।
पूरा समझले यार ! तू, न फँसा किसीकी मान्यता ॥
७४०
भारी बना मंदर-बगीचा, देखने को सब चले।
अपना न देखा पाप तो, फिर क्यों चले कैसे चले ?॥
फिर तो तमाशा देखना, इसमें औ उसमें भेद क्या ? ।
जिसने न धोया दिल बुरा, उसको तिरथ औ बेद क्या ?।।
७४१
निंदाही जिनका धर्म है, चुगलीही जिनका कर्म है।
सत्कार्यसे वंचित सदा, दूषणही जिनके वर्म है।।
इसके सिवा पल एक भी, जाना बडा मुश्किल है।
मनसोक्त करना पापही, तो दुर्जनोंका शील हे।।
७४२
रुचती नहीं किसकी बडाई, और किसकी वंदना।
मेरे बराबर कौन है ? कहनाहि उसका घर बना।।
कभि संतसाधूसे नमे नहिं, मुफ्तका खावे सदा।
अभिमानका पर्वत बढा, उसपरही चरता है गधा।।
७४३
नित कष्टही देता, पडोसीसे नहीं कभु प्रेम है।
क्रोधाग्नि जलताही रहे, चुकता न उसका नेम है ।।
मेरी गिनो, मुझसे झुको, मेरीही वाहवा सब कहो ।
खाओ पिओ अपनेहि घर दुर्जन कहे, मेरे रहो ॥
७४४
अति कुशल होती दुष्ट बुद्धी, स्पष्ट तो दिखती नहीं।
पर कष्ट देती आदमीको , मार्गसे जाओ कहीं।।
वैसीही दुर्जन-संगती, करती सु-जनका नाश है।
फाँसा पड़े इस दुष्टका, जिन्दाही बनता लाश हे।।
७४५
सत्कर्म कोसों दूर है, व्यभिचार घरमें पालता।
व्यसनी, गंजेटी, दुष्ठ नरको ही मिलेगी मान्यता।
धन गर्वसे उन्मत्त हो, आँखे चढी रहती सदा।
बकताहि रहता हरघडी , नहिं दुर्जनोंमें सत्यता।।
७४६
यदि वेद अरु कुछ शास्त्र पढता,कंठी माला भी धरी ।
पूजा बड़ी लंबी करे, पर दुष्ट बुद्धी है भरी ।।
मैं संत हूँ और मंडलेश्वर भी स्वयं बन जाऊँगा।
अभिमान के मारे चढे, दुर्जन उन्हें बतलाऊँगा ॥
७४७
अच्छी रही किसकी वहाँपर, जा बिगाडे फूट कर ।
घरमें नहीं धेला, मगर सब धन जमावे लूटकर ॥
अमृत जहाँ हो जहर डाले, दुष्ट नरका काम है।
पल भी न जाता संत- संगत, ना भजे कभु राम है ॥
अतिथिदेवो भव
७४८
आया हुआ अतिथी उसे, सन्मान देना धर्म है।
सेवा उचित करना न रखना, दिल जरा भी शर्म है ।।
चाहे भले छोटा रहे, हो जात या बेजातही।
सत्कर्म मानव का यही, दुत्कारना अतिथी नहीं ।।
७४९
आया अतीथी प्रेमसे, आदर उसे सादर करो ।
वह नीच है या ऊँच है, दिलमें अहंता ना भरो॥
फल फूल देकर जो बने, सतसंग उससे सीख लो।
सम प्रेमही उसपर करो, उसको ढलाओ ना ढलो ।।
७५०
होता गुरुवत ही अतीथी, प्रेमसे सन्मान दो ।
छोटा बडा नहिं देखना, फलफूलका ही दान दो ॥
जो दर्दकी बातें करे, दिलसे उसे सुन लीजिये ।
जितना बने सहयोग दे, संतुष्ट उसको कीजिये ॥
७५१
हम भी अतीथी हो कहीं, नहिं बोझ किसपर डालना ।
सबको खुशी हो इस तरह, अपने नियमको पालना ।।
घर-काम जैसे घर करें, वैसेही उसके घर करो।
दूजा न समझे वह हमें, ऐसी रहन सादर करो ।।
७५२
यदि शत्रुमें सद्गुण रहे, तारीफ करनी चाहिये ।
दुर्गुण दिखाई दे अगर, मुंहतोड बात सुनाइये।।
घर आगया अपने कहीं, कुछ बोलना वह चाहता |
सन्मान उसको दीजिये, सच बोलिये धर नम्रता।।
७५३
यदि संत हो या ब्राह्मणादिक, वेश्य या क्षत्रिय कहीं |
आया अतीथी शूद्र भी, अव्हेरना उसको नहीं ।।
सेवक समझकर मान दो, जो योग्य हो पूजा करो ।
फल फूल अपनेही बराबर दो, नहीं दूजा करो ॥
७५४
घर आगया कोई अतीथी, तो उसे सुंदर लगे।
ऐसी रहन अपनी रहे, आदर्शता सबमें जगे।।
हर चीज निर्मल स्वच्छ है, और ठीक ढंगसे है रखी |
छोटे-बडे सब प्रेम करते, ना दिखे कोई दुखी ।।
७५५
भोजन समय आया अतिथी, साथ उसका भी करो |
फल फूल दो जितना बने, सद्भावसे आगे धरो॥
वह देखता हम खा रहे, यह सभ्यतासे भिन्न है।
आओ,सभी मिल पायेंगे कहना बडा शुभ चिन्ह है।।
७५६
आये महात्मा घर कहीं, वे चाहते वैसा करो ।
उनके व्रतोंमें विघ्न हो, ऐसा मगजमें ना धरो॥
जो साधु है वह साधुत्तासमही सदा इच्छा करे ।
जो संतकों भाता उसीके, योग्यही भिक्षा करे।।
७५७
यदिं दुःखदायी हो अतीथी, सह सके उतना सहे।
सहने नहीं जो योग्य तो, मीठी जबाँ उससे कहे ।
सात्विक घरोंमें भी अगर, वह माँस-मदिरा चाहता ।
निर्भय बनो उससे कहो, होगी यहाँ नहिं तृप्तता ।।
विद्या विनयेन शोभते
७५८
विद्याविनयसंपन्नही, पाते प्रतिष्ठा देशमें।
चाहे भले धनहीन हों, या हो किसी भी भेषमें ।।
सबंध जाति अजातिका, कुछ भी यहाँपर है नहीं ।
जो विनयशील सुबुद्ध हो, उससेही झुकती है मही।।
७५९
विद्या तभी भूषण बने, जिसमें विनय भर जायगा ।
गर नम्रता और शील नहिं, तो ज्ञानि भी गिर जायगा ॥
जिसको न जनताकी कदर, पंडीत भी क्या कामका ? ।
योगी हुवा तो क्या हुआ? जिसमें भजन नहिं रामका ।।
७६०
सुंदर सजीला देह है, धनसे लबालब घर भरा |
दलबलसहित घूमे सदा, है बालबच्चोंसे पुरा ॥
पर क्या करें विद्या नहीं, ना विनय है, ना ज्ञान है।
बिन वृक्षके पर्वतसरीखा, भासता शैतान है ॥
७६१
विद्वान वह होता पूरा,जनजीवमें समरस बने ।
माने न अपनेको बड़ा, सच बात छोटे की गिने।।
वक्तव्य भी यदि दे कहीं, तो विनय उसके साथ है।
आचारसे संपन्न जिसकी,प्रिय लगती बात है।।
७६२
संकट भलेही आय फिर भी, धैर्यसे गंभीर है।
या मूर्ख चाहे छल करे, पर शांतिका खंबीर है ॥
बोले किसीसे जब कहीं, तो विनयको भूले नहीं ।
सत्शक्तिका आधार है, विद्वान पूरा है वही ॥
७६३
विद्यागुणी नररत्नही, लिखता तथा पढता सदा |
हरदम सुजनसे पूछता, अति नग्र हो बढता सदा ॥
पूरा न अपनेको कभी, माने न जाने ज्ञानसे ।
विद्याविनयसंपन्नही, पाता प्रतिष्ठा मानसे ॥
७६४
जिसपर सरस्वतिकी कृपा, लक्ष्मी उसीसे दूर है ।
विद्वान या पंडित रहे, पर तन फटे ही चीर है ॥
चाहे भले धन ना रहे, विद्वान घबडाता नहीं।
वह आत्म-शांति चखे सदा, धनसे झुका जाता नहीं॥
इन्सानियत और सेवाधर्म
७६५
गुजरी बिमारीको लपेटा, फेर क्यों तनपे भले ?।
रे ! आजके भी रोग उससे, कम नहीं आगे चले ॥
इसकी दवाई ढूढ ले, इन्सान बन इन्सान-सा ।
चंदन लपेटे क्यों फिरे ? मनकी लगाकर अवदसा॥
७६६
हाथी मिला तो मैं चढ़ूँ, सत्ता मिली तो में बढ़ूँ ।
यह क्यों नहीं कहता कि मैं भी देशके खातिर लढुँ।।
जाऊँ गरीबोंके घरोंपर, उनकी सेवाके लिये।
पर तू पडा रहता सदा, बस माँस-मदिरा के लिये ॥
७६७
लाखों जुदी बीमारियाँ, एकी दवा कैसे चले ? ।
वैसी प्रकृतियाँ भिन्न है, एकी रहा कैसे मिले ? ॥
तब जो जिसे सधता वही, करना भलाईके लिये।
पर लक्ष एकहिं हो जगतमें, हम भले बनकर जिये।।
७६८
कोई फिरे घरही लिये और कोइ साथीके लिये।
कोई फिरे मतपक्षके और पंथ -जातीके लिये।।
अपने बनाकर गुट सभी जन, दायरेमें फँस गये।
सबका भला हो जगतमें , यह कहनेवाले कया हुये ? ।।
७६९
मंदरमें दोड़े जा रहे, भगवानको छोडे चले।
सब पंथही चिल्ला रहे, सच तत्वको मोडे चले ।।
कया दीन दु:खी दिख नहीं पाते तुम्हें संसारमें ? ।
सेवा बिना इनकी किये, काशी कहाँ बाजारमें ? ।।
७७०
मैं धर्मकों भी मानता, अरु पंथको भी मानता।
हर संतको भी मानता, अरहंतको भी मानता।।
मेरा मगर मतलब कहीं, इन पंथ-संतॉंसे नहीं।
है सत्य सबका एकही, ईश्वर भी सबका एकही।।
७७१
कबतक रहे संसारमें ? कुछ सोचलो यह तो जरा।
साठी हुई काठी लगी, तोभी न दिल निकले पुरा।।
लडकोंके लडके भी भये, सब दाँत भी गिरने लगे।
सेवा नहीं करता धरमकी, कब करें मर जायेंगे ? ॥
७७२
हर आदमीपर कर्ज है, सेवा करे घरबारकी।
वैसी धरमकी, देशकी, अपने सभी परिवारकी ॥
ऐसा नहीं है जी! सभी दिन भोगमेंही चूर हो।
इन्सान वह है ही नहीं, घरसे कभू ना दूर हो॥
७७३
अकसर हमारी जिंदगीके, लोग सेवक ना बने ।
ना धर्मसे ना कर्मसे, ना कष्ट करनेमें चुने ॥
बेकार ऐसी जिंदगी, उससे पशू क्या हैं बुरे ? ।
सब काम आते देशके, कुछ भी नहीं उनका उरे।।
७७४
हाथी चले, घोडा चले, राजा चले और दल चले ।
सबही चले अपनी कुवतपर,कौन नहीं कहता चले ?।।
यहाँ सब चलाचलही मची, रहती जनमसे मौत तक |
जो ना चले और ना ढले, वहि ब्रह्म है खोजो पृथक ।।
मालिक तथा मजदूर
७७५
ऐ चढ मिजाजो ! नौकरोंको, क्यों घृणासे देखते ? ।
धन है तुम्हारे पास करके, नीच उसको लेखते ।।
ना याद तुमको है यही, धन रक्तपर किसके बढा ? ।
अजि? पेटपर" ये खून देते, करके सरपर छत चढा ॥
७७६
मजदूर ना हा कहना उसे, है मददगार सहकारका |
अच्छी जबाँसे बोल लो, मुँह खोलकर भी प्यारका ।।
अजि ! काम भी भरपूर लो, और दाम भी भरपूर दो ।
भरपूरही इज्जत रखो, तब धन छनाछन ले चखो ।।
७७७
अखत्यार जीवन है तुम्हारा, जिन श्रमीकोंके उपर |
उनकोहि ठुकराते सदा, और बोलते हो बेकदर ।।
है आह उनकी आगही, तुमको वहीं जलवायगी ।
एक दिन यही होगा कि तुमसे, वहहि बदला पायगी ।।
७७८
यह भाग्य है जो तुमसरीखे, लोग दूनियामें रहे।
जो साथ सबको ले चले, नीचा और ऊँच ना कहे।।
है कौन नौकर और मालिक? हम सभी सहकारी हैं।
दोनों कमाओ और खाओ, बस यही बलीहारी है।।
७७९
रगरगमें जिनकी मालकीकी, है नशा छाई हुई ।
जूते पुछाते नौकरोंसे, और ठुकराते सही ॥
तो कया इन्हें मालूम नहीं, कि उनके भी दिन आयेंगे ।
अच्छे रखो, अच्छे कहो, तबही सदा सुख पायेंगे ॥
७८०
दीपक जलाते घी - अत्तरके, देवताके धाम में |
मजदूरको देते नहीं, भरपेट भी कुछ काममें ॥
भूखा, दरीद्री द्वारपर, मुँह फाडकर रोता खडा।
भगवान क्या है बेवकुफ, देगा तुम्हें मुक्ती-घडा? ॥
७८१
रे! प्रेमसेही काम लो, इज्जत करो मजदूरकी |
वे भी तो अपने भाई है, सोचो जरा तो दूरकी॥
भारत हमारा एक है, हम है सभी भी भारती ।
मिलके रहो मिलकर करो,मालिक और नौकर आरती।
७८२
हाँ जी ! इसे मैं मानता हूँ, काम है सबके जुदा ।
है बुद्धि किसकी, हाथ किसके, यंत्र किसके है जुदा ॥
पर एक सबमें है परिश्रम, जिस तरह कूवत बढ़े ।
सब साथ आदरसे रहो, खाओ जिओ मत हो चढे ॥
७८३
यदि मैं किसीसे प्रेम कर लूँ, तो मुझे प्रेमी कहे।
गर दुश्मनी होगी किसीसे, हम भी दुश्यन बन गये।।
इसही लिये कहता हूं मैं, मिल-जुलके काटों जिंदगी।
अपना बिगड़ता है कहाँ ? यदि सबसे करलू बंदगी।।
७८४
सेवाहि करवा लो किसीसे, पर न तुम सेवा करो ।
तब याद रखना एक दिन, यह पाप साराही भरो ॥
देते रहो लेते रहो, दोनों बराबर पाओगे।
देते रहो पर लो नहीं, तबही तो साधु कहाओगे।।
धर्मकी पहचान क्या ?
७८५
यह कौन कह सकता कि तुमने,धर्मसे क्या पा लिया ?।
किसका भला जगमें किया,या तो किसीको ठग लिया ? ॥
इस धरम -परदेके पिछे, कितने ऋषीमुनि हैं पड़े ।
और धर्मके ही नामपर, कई डाकू-खूनी भी खड़े ।।
७८६
जो शास्त्र रखता पासमें पंडीतही कहते उसे।
जो शस्त्र हाथोंमें रखे, सब वीर ही कहते उसे ।।
पर पास रखना हाथ रखना, यह बडप्पन है नहीं ।
जो वक़्तपर बोले करे, वह वीर पंडीत है सही ॥
७८७
ऐ धर्मवानो! साधुओं! सोचो तुम्हारे कौन है ? ।
आज्ञा तुम्हारी मानते, वही ना तुम्हारे हो गये? ॥
फिर पूछ लो इस धर्म खातिर, कौन जलने आयेंगे ?।
गर ना पडेंगे काम तब तो तुमको भी मरवायेंगे ।।
७८८
मैं तो सदा यूँ ही कहूँगा, घृणितसे कर लो घृणा ।
तुम तो सिरफ जातिहि समझकर,कर दिया करते मना ॥
भगवान भी तो कर्म देखे, प्रेम देखे मोहते ।
तुम तो गधे होकर भी ऊँची जात करकेही छुते ॥
७८९
निष्काम प्रेमहि भक्ति है, वैराग्य है अरु ज्ञान है।
जब कामना मुँह फाडती, तब जानना शैतान है ॥
ऐसे नरोंमें धर्म क्या, बिन वर्मकेही आयगा ?।
संतोष जब नर पायगा, तबही सुखी बन जायगा ॥
दया-दान का विवेक
७९०
हमने कमाया लाख भी, और दे दिया लाखो सभी ।
है फाक बैठे आज भी, दिलमें नहीं है लाज भी ॥
क्योंकी लिया उपकारको, बाँटा भी पर उपकारको ।
हम है अकिंचन मुक्त है, खेले चलें उस पारको ॥
७९१
जो आयगा बाँटा सभी, फिर माँगने का पाप क्या? ।
सारे हि अपने हो गये, फिर रह गया संताप क्या ? ॥
जब जर नहीं तब डर कहाँ ? सत्ता न तब संगर कहां ?
आसक्ति ना तो घर कहाँ ? इच्छा न तो मरमर कहाँ ?।
७९२
जिसकी दया में स्वार्थ है, वह तो दया नहिं ढोंग है ।
अपने बडप्पन का प्रदर्शन ही, इसीका रंग है ॥
सच्ची दया करुणा से लिपटी, प्रेम है निष्काम है।
बदला नहीं वह चाहती, ऐसी दया बेदाम है ॥
७९३
जिस पर दया की जाय,वह यदि खाय पलटी साँप है ।
है काम उसको दंड देना, बस यही इन्साफ है ॥
अजि! यह कहाँकी है दया ? जो समय देखे सिर चढे ।उस पर दया करना नहीं, जो पाप करने को बढे ॥
७८९
निष्काम प्रेमहि भक्ति है, वैराग्य है अरु ज्ञान है।
जब कामना मुँह फाडती, तब जानना शैतान है ॥
ऐसे नरोंमें धर्म क्या, बिन वर्मकेही आयगा ?।
संतोष जब नर पायगा, तबही सुखी बन जायगा ॥
दया-दान का विवेक
७९०
हमने कमाया लाख भी, और दे दिया लाखो सभी ।
है फाक बैठे आज भी, दिलमें नहीं है लाज भी ॥
क्योंकी लिया उपकारको, बाँटा भी पर उपकारको ।
हम है अकिंचन मुक्त है, खेले चलें उस पारको ॥
७९१
जो आयगा बाँटा सभी, फिर माँगने का पाप क्या ? ।
सारे हि अपने हो गये, फिर रह गया संताप क्या ? ॥
जब जर नहीं तब डर कहाँ ? सत्ता न तब संगर कहां ?
आसक्ति ना तो घर कहाँ ? इच्छा न तो मरमर कहाँ ?॥
७९२
जिसकी दया में स्वार्थ है, वह तो दया नहिं ढोंग है ।
अपने बडप्पन का प्रदर्शन ही, इसीका रंग है ॥
सच्ची दया करुणा से लिपटी, प्रेम है निष्काम है।
बदला नहीं वह चाहती, ऐसी दया बेदाम है ॥।
७९३
जिस पर दया की जाय,वह यदि खाय पलटी साँप है ।
है काम उसको दंड देना, बस यही इन्साफ है ॥
अजि ! यह कहाँकी है दया ? जो समय देखे सिर चढे ।उस पर दया करना नहीं, जो पाप करने को बढे ॥
७९४
हरदम दया करना यही, जिसपर चढेगा रोग है।
वह आप और साथी सभी को, लायगा ही भोग है॥
कमजोर है जो घर चलाने और शासन क्या करे ? ।
वह आप भी मर जायगा और देश को भी ले मरे ॥
७९५
उसको दया तारक बने, जो फिर बुराई ना करे।
अनुताप से सुधरे जो अपनी, भक्ति नीतिहि ले धरे ॥
विश्वास जिसका आगया, उस पर दया करना सही ।
जो साँप के सम पलटता, उसकी दया करना नहीं ।।
७९६
अजि ! दुष्ट को तो दंड देना ही, दया का अर्थ है।
बचने दिया तब फिर उपद्रव, ले उठाना व्यर्थ है।।
जिसको चलाना घर नहीं, ना देश अरु ना धर्म भी ।
वह तो भले सब दिन दया करता रहे किसपर कभी ॥
७९७
ईश्वर भी हम पर क्यों दया,करता अगर हम दोषि है।
बेशक हमें शासन करे, जो हम कभी फिर ना सहे ॥
हम हैं स्वभाव हि से बुरे, तब जिंदगी कैसी चले ?।
वह दंड देकर ही सुधारे, तबहि हम होंगे भले ॥
७९८
वाह रे ! दया सिर पर चढी, निर्दोष के सीने खडी |
आश्चर्य होता है हमें, हम भूलकर बेठे बड़ी ॥
ऐसा न आवेगा समय, करके हुशारी सीखिये |
किसको न धोखा दीजिये, पर भूल भी ना कीजिये ॥
७९९
जो पाप भी करता रहे, फिर भी दयाको माँगता।
अजि ! हाथ दोनों जोड़ता, और कान को भी मरोड़ता।
झुकझुक सदा बातें करे, पर द्वेष तो छोडे नहीं ।
ऐसे अधम का मुँह न देखो,घर न आने दो कहीं ।।
८00
दोषी अगर हो सत्य तुम, भोगो सजा जो भी मिले ।
और मुक्त हो जाओ भले, फिर बोझ सर से जा टले॥
नहिं तो तुम्हारा दिल सदा, तुमको हि तोड़े खायगा।
कोई दया कर जायगा, दानत नहीं सुधरायगा ।।
८0१
अजि! क्यों किसीसे याचना,करके दया को माँगना ? ।
यह आतमा निर्भय हमारा, दीन दु:खी बोलना ? ॥
हक से रहो, हक ही कहो, हक ही सभी का ताज है।
झूठा करो नहीं काम कुछ, तब तो बनो महाराज है।।
८०२
जिसकी गिरी नीयत तथा जो पाप का भंडार हैं।
अपने व्यसन की पूर्ति को, बेचे सभी घरदार है ।।
उसको खिलाना या पिलाना, यह दया नहिं दोष है।
चाहे मरे, मरना हि उसका, मानना संतोष हे ।।
८०३
भाषण दिये प्रवचन किये,और भजन-कीर्तन भी किये ।
पर लोग सुनकर घर गये,कुछ भी अमल नहिं कर गये।।
वहि बात लाखों बार दुहराने लगे तो क्या हुआ ? ।
दुनिया तो रोटी के लिये ही, बोलती है वाहवा ! ।।
हैवान, इन्सान और भगवान
८०४
जब पेट भूखा ही पडा,तब ग्यान क्या अरु ध्यान क्या?
दिल ही नहीं लगती किसी में,मान क्या सन्मान क्या ?।
इसही लिये मै कह रहा हु आद्य चिंता दूर हो ।
उद्योग हो कोई भले, बस काम तो भरपूर हो ।।
८0५
पर कष्ट करना, पेट भरना, क्या यही सब है पुरा ? ।
अजि ! मानवों की बुद्धि से तो यह अधूरा ही धरा।।
यह पेट तो भरना ही है, पर ग्यान होना आत्म का ।
सेवा-धरम,नीति,प्रभू की,भक्ति का और मुक्ति का ॥
८0६
खाना पिना सोना मजा करना पशू भी जानते ।
मानव-जनम कुछ और है, बिरले इसे पहिचानते ।।
चिर सत्य क्या अरु नित्य कया ?वह है कहाँ ? कैसे मिले ?।
इसको समझकर रम गये, वे ही कहे जाते भले ।।
८0७
अपना हि हक खाते रहो, पर बात तो सीधी करो।
धनपे किसी के दृष्टि अपनी, लूटने की क्यों धरो ।।
सबको भला बोले तभी, अपना भला हो जायगा।
मेरा भला ही गर कहे, शैतान बन मर जायगा॥
८0८
मनके नचाये नाचते, पागल हि कहते है उन्हें।
मनको विचारों से रखेगा, बस वही मानव बने ॥
जिनका विचार हि ग्यान है, वे संत कहलाते सदा ।
जो कह सके वहि कर सके, अवतार की है मान्यता ।।
वाणी की मधुर वीणा
८०९
किसको कहे अच्छा बूरा ? हम भी तो कुछ अच्छे नहीं।
कितनी गरीबी जगत में, हम पार कर सकते नहीं।।
जितना बने सत्कर्म करना ही हमारा फर्ज है।
निंदा न हो हमसे किसीकी की, हे प्रभू! यहि अर्ज है।।
८१0
यदि बात सच्ची ही रही, तो भी न कटुता से कहो।
प्रिय बोलना ही सीख लो, सबसे भलाई से रहो।।
अपने करम के फल सभीको ही मिले, मिल जायेंगे।
भगवान कुछ सोया नहीं, जो कुछ किया वहि पायेंगे ।।
८११
बिगडा सभी ही बोलते, पर कौन सुधरेगा इसे ?।
है बुद्धि किसको ? आज से, कर जायेंगे हम ही इसे ।।
जो आँख के ही सामने, झूठा कपट कर जायगा।
हम नाम उसका बोल देंगे, वह हमें नहिं भायगा ! ॥
८१२
सबका हि वीणा बोलता, अपने स्वरों के साथ में।
जैसी जिसे हो वासना, वैसा बजाता हाथ में ।।
है कौन जो सुधरा सके, फूटे और टूटे तार को ?।
भगवान ही गर कर सके, तोही लगे उस पार को ।।
८१३
स्वर गुनगुनाते है सभी, पर शब्द बिरले खोलते।
कई बड़बड़ाते शब्द भी, पर बोल बिरले बोलते।।
है बोलनेवाले मगर, वह ताल सबको है नहीं।
जो ताल दे अरु बोल दे, बिरलाद है प्यारे! कहीं।।
सबमें सत्यदर्शन
८१४
किसका ये दर्शन कर रहे हो,हाड का या माँस का ?।
यह देह तो मुरदा हि है, इसमें है जीवन स्वास का ||
उस स्वास के अंदर बसा, वहि प्यार करने योग्य है।
उससे नजर मिलवा सको, तब ही मिलेगा सौख्य है॥
८१५
अजि ! हर किसम के लोग हैं और हर किसम के भोग है ।
सबको सभी मिलते नहीं, मिलते वहीं संजोग है ॥
कहिं एक है कहिं एक, फीका ही पड़ेगा रंग है।
सब रंग ही मिलते जहाँ, वहि जानिये सत्संग है ॥
८१६
है धूप तो सब में लगा, जो दम में दम बूझे नहीं ।
किसकी सुगंधी और है, किसमें तो दुर्गधी रही ।।
जो सबसे करता प्यार उसका, धूप सब ही चाहते ।
जो पेट को ही मर रहा, ना देखते ना साहते ॥
८१७
बीमार मै हूँ यार कबका, रोग से बेचैन हूँ ।
दुनिया भले दिखती मगर, मैं तो खुदी बिन नैन हूँ ॥
गर आँख मुझको थी कहीं, तो ब्रह्म कैसे छूपता ? ।
सबमें हि पाता राम और हराम होता लापता ॥
उन्नति ही सच्चा स्वार्थ है !
८१८
हर जीव अपने स्वार्थ को ही, ढूँढता और मुँडता ।
सहि स्वार्थ भी जाने नहीं, अज्ञान में ही गूँडता ॥
लाखों कमाता घर बसाता, जोरु-लडके साथ में ।
पर छोड़कर जाता सभी, रहना न कुछ भी हाथ में ॥
८१९
मरमर करोगे कष्ट पर, कितना कमाया आज तक ?।
सत्मार्ग को पकड़ा नहीं, सब तो गमाई लाज तक ॥
अबतों भी जागो यार ! अपनी, उन्नती को साध लो |
बेकार कर जीवन सभी , यमराज के मत हाथ दो ॥
८२०
यह झुंड सी गर्दी कहाँ से, किस लिये आयी यहाँ ? ।
सनिये कुछ सत्संग,नहिं तो लाभ कैसे क्या हुआ ? ।।
सुनकर न जाओ कुछ करो भी, तब तो पाओगे मजा।
अनुभव परख लो ज्ञान का, तब तो छुटे जम की सजा।।
८२१
लाखों जमा है आदमी, अति शांति से बैठे वहाँ ! ।
वे देखते हैं भजन सुनने, कब मिलेगा ? वाहवा ! ॥
मूझको खुशी इसमें नहीं, वे कया सुने सुर-ताल को।
मैं चाहता हूँ लोग सुधरे, छोड बूरी चाल को ॥
८२२
कितने बसे है घर हमारे, मित्र के सद्भाव से ।
पर काम के कितने वहाँ, बोला न जाता नाम से।।
हम कुछ कहें वे कुछ करें, ऐसाही चलता आ रहा।
हमही हुए बदनाम, साथी उन्नती नहिं पा रहा ॥
लोग और हम
८२३
फिर मार लगने पर हि लगता, दर्द होता जोर से।
वैसा हि भूखा और मरता, जी न पाता कौर से ।।
जोभी दरिद्री हो ! उसे ही और घेरे आपदा।
पैसों पे पैसा जोर करता, बस यही दिखता सदा।।
८२४
हम तो हसेंगे ही सदा , जो आयगा उसके लिये।
चाहे भले रोकर कहे, या वह खुशी होकर कहे।।
हर बात के पीछे हि हम तो, प्रेम से समझायेंगे।
सुन तो रहा हूँ यार ! गम से ही सभी दिन जायेंगे।।
८२५
वेदान्त तुम तो कह रहे, पर पेटवाला भी कहे।
बीमार भी तो कह रहा, और हँसनेवाला भी कहे ।।
सबकोहि उत्तर एक है, कम से कहो गम से रहो।
आये हुए दिन जायेंगे, अनुभव करो जम के रहो ॥
८२६
हमको लगे मीठी मिठाई, कोई उससे खिन्न है।
कारण इसी के साथ है, सबकी रुची ही भिन्न है।।
किसको तो कडवा नींब भी, मीठा लगे या मिर्च दो ।
जिसकी जबाँ विकृत हुई, कडवा हि उस पर सींच दो ॥
८२७
तुम ढूँढते जिसको कहीं, वह ढूँढता है ना तुम्हें ?।
जिसकी बुराई तुम करो, वह भी बुरा देखे तुम्हें ॥
फिर तुम हि अच्छा क्यों न देखो ? सब तुम्हें अच्छा कहें ।
रक्षा करो हर जीव की, रक्षक हमारे सब रहे ॥
८२८
तुम मित्र बन जाओगे पहले, फिर रहे शत्रुत्व कया? |
जोभी मिले सब मित्र होंगे, शत्रु क्या और मित्र क्या ?।
कारण है इसका एक ही, हम तो पुरे निष्काम है।
अच्छा करो तो राम है, बुरा करो तो राम है।।
८२९
बूंदे हि जल की मिल गयी तो बाढ़ आती है बडी ।
चाहे बहा दे गाँव खेती, झाड-झुर्मट हो खडी ।।
वैसी ही ताकत खून में है, संघटन यदि हो खडा ! ।
अच्छा करे तो बड़ा या नाश चाहे तो बड़ा ।।
देश-सुधार की समस्या
८३०
अब जाती पर नहिं कर्म अपने, हो ख़ुशी वह ही करें ।
जो भी सधे करते रहें, यह पेट कैसा भी भरे ॥
ऐसा जमाना आ गया, सब मुफ्त खाना चाहते।
कैसा जियेगा देश? शासन भी करेगा क्या फते ? ॥
८३१
गर हैं स्वदेश सुधारना, तो साधुओं से ही करो ।
मंत्री-महामंत्री सभी, आदर्श जीवन आचरो ॥
सब ही ढकेले लोग पर, खुद पर न कोई ध्यान दे ।
तब देश सुधरेगा नहीं, चाहे कोई व्याख्यान दे ॥
८३२
हम लिख रहें तो क्या हुआ ?लिखना हि हमको रोग है।
कैसे अमल में ला सके, मिलता नहीं संजोग है।।
अब तो यही आशा बढ़ी, हम करके कुछ दिखलायेंगे ।
तब ही फलेगी भक्ति यह, जब लोक कुछ सुधरायेंगे ।।
८३३
चलते रहो चाहे अकेले, फिर भी पर्वा ना करो।
अपना हृदय ही साक्ष दे, वहि है कृपा दिल में धरो ॥
संकट भले ही मार्ग रोके, दिल में घबडाना नहीं ।
संघर्ष -मय जीवन सदा ही, यश कमाता है सही ॥
८३४
खाना नहीं अच्छा रहा, सबमें मिलावट है मिली ।
कड़ रोग उससे बढ रहे, यह साक्ष लाखों की चली ।।
ये ग्रामवाले भी नहीं, अपना घरेलूपन सधे ।
सब भागते है शहर में, वह माल चाहे भ्रष्ट दे ॥
८३५
दानी नहीं हूँ मैं; मुझे लोकेषणा का रोग है ।
करके लुटाता हूँ सदा, जो प्राप्त होता भोग है ।।
ऐसे भी दाता खूब हैं, जो मान को मरते सदा।
मनमें जरा नहिं कदर है,करुणा नहीं सो है गधा ।।
८३६
जो कदर जाने आदमी की, वह कहीं धेला भी हें।
तो दान उसका यश दिलाता, चाहे जल पेला भी दे॥
लो बे-कदर की नोट सौ की,तो भी वह फलती नहीं ।
लाती बला ही जिंदगी में, एक दिन रहती नहीं।।
८३७
चाहे कोई अस्मान भी, काबू में ले तो क्या हुआ ? ।
नीयत तो होती दम दिखाने, की ही मन में वाहवा ! ।।
उसके लिये भगवान ने भी, वीर पैदा ही किया।
पलमें करेगा खाक वह, मालूम नहिं किसने किया।।
८३८
रे मर्द ! तेरी ऊँच गर्दन, क्यों किसे मर्दन करे।
तू जानता तो हे नहीं, तुझको भी बरगन में धरे॥
जबके बिमारी घर करेगी, सर करेगी आखरी।
जो हो कमाई सब गमाई, यह ही होगा सुन मेरी ॥
८३९
घर में नहीं माता पिता, बस हो तुम्ही जोरू मरद।
लड़का हवाले नौकरों के, है नहीं जिनको दरद।।
उन स्कूलवालों को तो कोई, धर्म ही नहीं बोलते ।
यहाँ के नहीं, वहाँ के नहीं, बस बाल बच्चे खेलते ।।
८४०
ऐसा नहीं देखा सुना, जिसमें कोई अवगुण नहीं।
पर प्रश्न ऐसा है हमारा, कुछ तो सद्गुण हो सही।।
सद्गुण कहीं ज्यादा रहे, वह ही सभी को प्रिय है।
सतकार्य करता है सदा, रहता नहीं निष्क्रिय है।।
८४१
गज की हमेशा चाल को, गध्धे कभी पाते नहीं ।
कुत्ते भले हो भूंकते, पर बीच वे आते नहीं ॥
पर शेर ऐसी शक्ति है, जो कुशल होता खेल में ।
करके वही राजा कहा जाता है जंगल-मेल में ।।
८४२
वाहवा तमासा खूब है, जो वह सभी बिगडा कहे ।
खुद को सभी है छोड़ते, और पाप दुसरों पे बहे ।।
तुम तो कहो कितने हो अच्छे ?क्या तुम्हें दिखता नहीं ?।
कुछ कर दिखाओ बाद बोलो,लोग तब समझे सही ॥
८४३
झगडा-तमाशा देखने को, भागता दिल शौक से ।
कोई मिटाते है नहीं, बल्के बढाते खौफ से ।।
ऐसी चली दुनिया बढी, शैतानी घर में आ गयी |
ईश्वर-भजन या प्रार्थना, सब भूलती ही जा रही ।।
भगवान की सत्ता
८४४
आते हो तो आजाओ ना, यह खेल देखो तो सही ।
छाया नशा कलजूग का, किसका किसे भाता नहीं ।।
क्यों आदमीपर जोर देकर, भूल उसकी ही कहो ? ।
सत्ता तुम्हारे हाथ है, और तुम सदा न्यारे रहो ? ॥
८४५
क्या राम ही तू ही सही, अल्ला-खुदा तू है नहीं ?।
क्या येशु प्रभू भगवान है, और बुद्ध भी तू है नहीं ? ॥
अरहंत ही ईश्वर बना, झरतुष्ट्र तू कया कर है नहीं।
तू कौन है जिसने पछाना, वह कहे सबमें तुही।।
८४६
हे नाथ! सब है हाथ तेरे, साथ तब हमने किया।
जब सत्य -सागर में गये तब कोन गीने नाद्दीया ? ।।
हूँ कौन तज दे शान्ति को, और मोह-मद में डूबता ?।
तेरे सिवा किसको ठिकाना है लगा? तूही बता।।
८४७
सारे नगर में शोर है, अवतार पैदा हो गया ।
मुझको बडी आयी हँसी, भगवान कैसे दो भया ?।।
जो अवतरे सबही तो ये, भगवान के ही रुप हैं।
कोई बडे -छोटे रहे, यह दिव्यता का माप है।।
८४८
गाना कहाँ तक गाऊँ मै ? भगवान तो रीझे नहीं ।
मेरी समझ तो है यही, पथ दूसरा बूझे नहीं ।।
हाँ एक गलती है मेरी, मन भागता चोफेर है।
उसके लिये मै क्या करूँ, मालुम नहीं क्या देर है ?।।
८४९
अंधेर है चारों तरफ, पर एक घर जलता दिया।
भगवान सबका साक्षि है, अच्छा किया बूरा किया।।
सबको बराबर देखकर, वह न्याय देता है सही।
देरी हुई तो हर्ज क्या ? पर भूल तो जाता नहीं।।
मानवी कर्तव्य
८५०
अपनी गरज के वासते, कोई भी जोडे हाथ है।
पर दूसरों के भी लिये, रखना वही सी बात है।।
किसकाभी बिगडा हो कोई, सहकार देना है उसे।
है धर्म मानवका कहा, नहिं भूलना कोई इसे ।।
८५१
कपडे रंगा तो क्या हुआ ? मन तो रंगा नहिं राम में ।
माला घरी तो क्या हुआ ? काला भरा सब काम में ॥
चंदन लगा तो क्या हुआ ? वंदन करे नहीं प्रेम से ।
मंदिर बना तो क्या हुआ ? पूजा चले नहिं नेम से ॥
८५२
लिख्खा पढा तो है सही, पर नम्रता सेवा नहीं ।
खाना हि सबका चाहता, पर पास का देता नहीं ॥
तकदीर की बासी लँगोटी, कब तलक रोटी रहे ।
जब धर्म की सेवा करे, तब ही तो ताजी लो कहे ।
८५३
जितना किया थोडा हि है, आशा नहीं है छूटती ।
वह और बढती जा रही है, हर घडी ही ऊठती ॥
यह देह तो खोखा हुआ, बस दाँत गिरते जा रहे ।
कचरा हुआ है बाल का, पर राम मुख ना आ रहे ॥
८५४
नहिं ख्याल आता है मुझे, दुनिया बडा कहती किसे ?।
सत्ता मिले या धन मिले, पायी जवानी भी जिसे ॥
ख़ुब बाल बच्चे हो गये, साथी मिले तो क्या हुये ? ।
सेवा विनय जिसमें नहीं, उसमें बडप्पन ना रहे ॥
८५५
मरना हि है तो जा मरो, पर साथ कुछ तो ले चलो ।
धन, देह सब रह जायगा, फिर हाथ ही खाली मलो ।।
ये जोरु-लडके, मित्र सारे, सब यहीं रह जायेंगे ।
सतकर्म, कीर्ती, आत्मशुद्धी, साथ प्यारे! आयेंगे ॥
सूत्रधार की मर्जी
८५६
यह मन बड़ा शैतान है, अपनी ही बातें तानता ।
तुम क्या करो, क्या ना करो,उसको जरा नहिं मानता।
अपनी ही करता हर घडी, कुछ ज्ञान हो या ध्यान हो ।
हम तो बडे बेजार है, कैसे करें काबू कहो ? ।।
८५७
अर्जी मेरी मर्जी तेरी, तू कर वही मंजूर है ।
विश्वास मेरा है पुरा, सब ही करेगा हजूर है ।।
हम पूतले है नाम के , तू ही नचावनहार है।
नहिं कौन तुझको जानता? तेरा सही बेपार है।।
८५८
यह हम नहीं कहते है यारो! हमसे कहवाता कोई ।
क्या तुमको लगता हम ही करते ?कर दिखाओ तो सही ।।
सोचा है कुछ होता है कुछ, सारा जमाना बोलता ।
मरना कोई नहिं चाहता, पर कौन उसको टालता ?॥
८५९
भगवान ने ही रच दिया, नाटक यह आदी-अंत तक ।
वैसा चलेगा मिनिट से, तो अरब-खरबों वर्ष तक ||
कुछ भी फरक होता नहीं, चाहे करोगे लाख भी।
सबके रंगे ही वेश होंगे, पाक भी नापाक भी ॥
८६०
मैं सोचता हूँ और कुछ भगवान सोचे और ही।
झूठा हूँ मै, भगवान सच, मेरा चले नहिं जोर ही ॥
इतनाहि मुझको सीखना है, सब प्रभू की है दया ।
अच्छा हुआ तो भी दया, बूरा हुआ तो भी दया।।
१
मंगल नाम तुम्हार प्रभू ! जो गावे मंगल होत सदा ।
अमंगलहारि कृपा तुम्हारी,जो चाहत दिलको धोत सदा ।|
तुम आद अनाद सुमगल हो,अरु रुप तुम्हार निरामय है ।
तुकड्या कहे जो भजता तुमको, नित पावत मंगल निर्भय है ।।
(हरिगीत-छंद)
२
मंगल स्वरुप तो आप हो, हम तो तुम्हारे दास है ।
तुम्हरी कृपा मंगल करे-ऐसा रहे अभ्यास है ।।
यहि चाहते मंगलकरण ! नित ख्याल हमको दीजिये ।
हे सद्गुरो ! हम बालकोंपर, नैन-बरखा कीजिये ॥
३
मेरे परम आनंदघन, कैवल्यदानी हो तुम्ही ।
तुम बीन शांती ना हमें, दिलकी निशानी हो तुम्ही॥
बस जन्मका साफल्य है, तेरे दरस दीदारसे l
चाहे गुरु के चरण जो, सो ही तरे भव-धारसे ।।
१
मंगल नाम तुम्हार प्रभू ! जो गावे मंगल होत सदा ।
अमंगलहारि कृपा तुम्हारी,जो चाहत दिलको धोत सदा ।|
तुम आद अनाद सुमगल हो,अरु रुप तुम्हार निरामय है ।
तुकड्या कहे जो भजता तुमको,नित पावत मंगल निर्भय है ।।
(हरिगीत-छंद)
२
मंगल स्वरुप तो आप हो, हम तो तुम्हारे दास है ।
तुम्हरी कृपा मंगल करे-ऐसा रहे अभ्यास है ।।
यहि चाहते मंगलकरण ! नित ख्याल हमको दीजिये ।
हे सद्गुरो ! हम बालकोंपर, नैन-बरखा कीजिये ॥
३
मेरे परम आनंदघन, कैवल्यदानी हो तुम्ही ।
तुम बीन शांती ना हमें, दिलकी निशानी हो तुम्ही॥
बस जन्मका साफल्य है, तेरे दरस दीदारसे l
चाहे गुरु के चरण जो, सो ही तरे भव-धारसे ।।
३७६
पढके न बनता योग रे ! सच्चा गुरु ही चाहिये।॥
कई प्राण जय में मर चुके, क्या कष्ट वह बतलाईये ।।
कई मूढ बन बन घुमते, कई रोग से बेजार है।
गुरु के बिना सब है कठिन, समझे न सच्चा सार है।।
३७७
हट-योग-साधन के लिये, बलवंत तन मन चाहिये।
बैराग अरु अभ्यास की, मजबूत शक्ती छाईये ।।
लोकेषणा, मद, सिद्धियाँ, सब तुच्छ हरदम ह्रलेखना ।
गुरु के चरण में लीन हो,निज आत्म-सुख को देखना ।।
३७८
ले हाथ धीरज-ढाल को, बैराग की तलवार ले।
अभ्यास का चिल्खत चढा,अरु चष्म-सारासार ले।।
गुरु-ज्ञान की करके ध्वजा, चढ जा त्रिकुट के घाटपर ।
तुकड्या कहे, गढ जीत ले,उस नाद बूंद झलाट पर ।।
३७९
यम नेम, आसन, प्राणजय, अरु युक्त प्रत्याहार है।
कर धारणा, धर ध्यान को, पा ले समाधी सार है।।
है चित्त वृत्ति निरोध को, यह योग की सीढी विमल।
फिर ज्ञान से लवलीन हो, निज आत्म-पद में निर्विचल ॥
३८0
यम नेम से तनु मन शुची, स्थिर होत आसन -बंधसे।
उठवाय कुंडलनी भली, सम प्राण के संबंध से ॥।
षड़् चक्र का भेदन करे, बिजली गिरे, गरजे गगन ।
गटकाय अमृत-बूंद की, कर लीन जिन-पद में सधन।॥।
३८१
बिन ज्ञान के गर योग का, संपूर्ण मारग कर चुके।
सिद्धी हजारों भर चुके, कई वर्ष जीवन धर चुके।।
पर फोल ही वह जानिये, जबतक न आत्मानंद है।
लाखों ऋषी मुनी गिर चुके,बिन ज्ञान के सब मंद है।।
३७६
पढके न बनता योग रे ! सच्चा गुरु ही चाहिये।॥
कई प्राण जय में मर चुके, क्या कष्ट वह बतलाईये ।।
कई मूढ बन बन घुमते, कई रोग से बेजार है।
गुरु के बिना सब है कठिन, समझे न सच्चा सार है।।
३७७
हट-योग-साधन के लिये, बलवंत तन मन चाहिये।
बैराग अरु अभ्यास की, मजबूत शक्ती छाईये ।।
लोकेषणा, मद, सिद्धियाँ, सब तुच्छ हरदम ह्रलेखना ।
गुरु के चरण में लीन हो,निज आत्म-सुख को देखना ।।
३७८
ले हाथ धीरज-ढाल को, बैराग की तलवार ले।
अभ्यास का चिल्खत चढा,अरु चष्म-सारासार ले।।
गुरु-ज्ञान की करके ध्वजा, चढ जा त्रिकुट के घाटपर ।
तुकड्या कहे, गढ जीत ले,उस नाद बूंद झलाट पर ।।
३७९
यम नेम, आसन, प्राणजय, अरु युक्त प्रत्याहार है।
कर धारणा, धर ध्यान को, पा ले समाधी सार है।।
है चित्त वृत्ति निरोध को, यह योग की सीढी विमल।
फिर ज्ञान से लवलीन हो, निज आत्म-पद में निर्विचल ॥
३८0
यम नेम से तनु मन शुची, स्थिर होत आसन -बंधसे।
उठवाय कुंडलनी भली, सम प्राण के संबंध से ॥।
षड़् चक्र का भेदन करे, बिजली गिरे, गरजे गगन ।
गटकाय अमृत-बूंद की, कर लीन जिन-पद में सधन।॥।
३८१
बिन ज्ञान के गर योग का, संपूर्ण मारग कर चुके।
सिद्धी हजारों भर चुके, कई वर्ष जीवन धर चुके।।
पर फोल ही वह जानिये, जबतक न आत्मानंद है।
लाखों ऋषी मुनी गिर चुके,बिन ज्ञान के सब मंद है।।