२०
व्रत धर्म तो चलता नहीं, ऐसा जमाना आगया।
सत् संगती मिलती नहीं, झूठा तमाशा छागया ।।
विश्वास कैसा धर सकूँ ? मनकी गती है जारकी।
कैसे मिलोगे ? जी प्रभू ! लागी लगन इस तारकी ।।
२१
गुजरान होती है नहीं-क्या आपकी रज धूलमें ? ।
हे नाथ ! हम अंधे बनें, बाँधे गये जग-भूलमें ।।
आशा तुम्हारी छोडकर, =लटकी खडी संसारकी।
कैसे मिलोगे ? लग रही, आशा अभी करतारकी।।
२२
साधू ऋषी मुनि ढूँढते, बनमें तुम्हारे दर्शको।
कैसा हमें निभवायगा, वह कष्ट लाखों वर्षको ?।।
है भी नहीं आयू बडी, ढूढूँ भगा किस पारकी ? ।
कैसे मिलोगे ? लग रही, आशा प्रभू दीदारकी ।।
२३
नहिं शास्त्रका-अभ्यास हमको, सत्समागम भी नहीं।
नहिं योगभी मालुम हमें, अर्चा न पूजा है कहीं।।
इच्छा हमारी है लगी, प्रभू ! आपके दीदारकी।
हे नाथ ! अब करुणा करो, आँधी कटे संसारकी ।।
२४
मैं होगया हूँ बावला, किसकी कहानी मान लूँ ? ।
सारे निराले शास्त्र है, किसका कहा सच जान लूँ ? ।।
मुझमें नही कुछ ज्ञान भी =चीन्ही-लियाऊँ-बातकी।
सब तर्फसे भोंभा भया, सूझे नहीं अधि या कमी ।।
२५
किसकी कहूँ? किसकी सहूँ?किसके रहूँ मैं संगमें ? ।
कुछभी न हमको सूझता, भूले पडे जग-ढंगमे ।।
संसार जब बनता नहीं-परमार्थ कैसा होयगा ?।
जाऊँ किधर ? कैसा करूँ, जिनसे भला मन भायगा ।।
२६
पंडीत बातोंमें फसे, धनवान धनमें है लगे।
साधू खुदीमें मस्त है, धनहीन दरदरमें भगे।।
किसको सुनाऊँ बात मै, कोऊ न सुनता अर्ज है।
हे नाथ! हूँ तुमरी शरण, तुमको सभीसे गर्ज है।।
२७
मालुम नहीं क्या हो गया?किस राहमें हम भुल गये? ।
करके प्रभो ! तुमरे चरणसे, दूर अबतक चल गये ।।
अब आखरी यह अर्ज है, मत =दूर-दर्शी कीजिये।
हम बालकोंपे हरघडी, अपनी दया भर दीजिये।।
२८
हे नाथ ! मेरी अर्ज है, भक्ती तुम्हारी दीजिये।
मुझसे अधमको आपके-चरणार लगवा लीजिये ।।
कुछभी नहीं मैं जानता, नहिं ज्ञान है नहिं ध्यान हैं।
राखो हमारी लाज प्रभु ! हम भूलमें हैरान हैं।।
२९
तू एक मेरा है प्रभो ! अरु हम तुम्हारे है सदा ।
भूलो नहीं फिरके कभी, हम दुःखसे हारे सदा ।।
बिछुरे गये हमभी कभी, मत दूर जाने दीजिये ।
तुम ब्रीद अपना जानके, मुझको चरण में लीजिये।।
३०
हे नाथ ! क्यों हो दूर हमसे ? क्या हमारा पाप है ? |
गर पापही आडा पडा, पर तू हमारा बाप है ।।
अपने बिरदको देखकर, इस पापसे दूर कीजिये ।
वह सत्य मारगकी हमें, हरदम खियायत दीजिये ।।
३१
अज्ञान-मय भव-धारसे, मैं चाहता हूँ तैरना ।
आवो गुरु मल्लाहजी ! करिये जरा भी देर ना ।।
है नाव मेरी भौरमें, चारों तरफ बहला रही।
गुरुदेव है मल्लाह, यह-यादी नजरमें छारही ।।
३२
आवो गुरु महाराज ! अब, मत देर करिये औरभी।
है नाव मेरी डूबती, सम्हले न जाता 5 शोर भी ।।
सूझे नहीं कैसी करूं, अब आपकी भी आसना ।
गुरुदेव ! तुम सर्वज्ञ हो, है आखरी यह प्रार्थना ।।
३३
गुरुदेव ही है सर्वतर, रक्षा हमारी सोचने ।
हम तो भुले हैं धर्मको, नहिं कर्म भी थोडे बने ।।
चारों तरफसे शोर है, अपने अखाडे -पंथका।
बस, लाज है गुरुदेवको, है ब्रीदही वह संतका ।।
३४
महाराज ! हमसे ना बने, इतनी मजलको काटना ।
अवघड तुम्हारा घाट है, बनता न मन उच्चाटना ।।
कई सैकडों शत्रू लगे, पल पल कदममें रोकते ।
बस, आपकी किरपा बिना, कोऊ न =जीके-जीकते ।।
३५
हमसे जुदा प्रभु ! हो नहीं, फिरभी न हममें आपहो ।
क्योंकर मिलोगे आयके, जब दिल न मेरा साफ हो? ।।
जब पाक हम दिलके बने, तुमको नहीं फिर ढूँढना ।
हर नब्ज में, +मौजूद हो, नहिं चाहिये सर मुंडना ।।
३६
स्वामी ! हमारी अर्ज है, ऐसा अनुग्रह कीजिये।
निज-बोधसा हो अनुचरण, ऐसी कृपा भर दीजिये ।।
अपनी शरणमें लीजिये, त्रैताप सब हर दीजिये।
तुकड्या कहे, मुझे-से अधमको, पास अपने लीजिये ।।
३७
सर्वज्ञ हो प्रभु ! आपही, क्या आपसे छिपता रहँ? ।
मेरे करम के पापको, क्या मूंहसे तुमको कहूँ ?।।
नहिं ज्ञान है, नहिं ध्यान है, नहिं कर्म हैं, ना धर्म है।
जो होगई सो होगई, अब राखले जो शर्म है।।
३८
हे दीनबंधो ! आपकी, मैं किस तरह सेवा करूँ?।
मुझमें नहीं यह ज्ञान है, किसको तनँ, किसको धरूँ?॥
है मोहमाया जाल यह, हर वक्त आडा आरहा।
अब आपही रक्षा करो, नहिं तो जनम यह जा रहा ।
३९
लाचार है हम इस घडी, कुछ जोर भी चलता नहीं।
बनता नहीं हठयोग भी, कुछ ध्यान भी फलता नहीं।।
बनती नहीं भक्ती कभी, सब बातसे बीमार हैं।
हे दीनबंधो ! आपके, आये शरण अनिवार हैं।।
४०
प्रभु ! लीजिये अब हाथमें, मत दूर साँई ! कीजिये।
हम हैं बड़े ही पातकी, इस पापसे हर लीजिये ।।
पाये जनमही पापसे, अब मुक्त इनसे कर हमें।
बस, नाम तेरा दे सदा, तेरे कदममें धर हमें।।
४१
बाकी न रहने दो प्रभो ! जो कुछ हमारे दोष है।
आये शरण हम आपकी, इसमें हमे संतोष है।।
आँधी काटकर भ्रांतकी, निभ्रांत अब करदो हमें।
छोडो नहीं इस दासको, बस पासही धरदो हमें ।।
४२
महिमा तुम्हारी है बडी, तुमही जगतके आद हो ।
करते तुम्हीं, हरते तुम्ही, आजाद हो *आबाद हो ।।
अखत्यार तुम्हरे है सभी-लेना अगर देना भला ।
तो पास मुझको कर चुको, अज्ञान मेरा दो जला ।।
४३
हे नाथ ! ऐसी भीख दो, चिंता-दरिद्री जा भगे।
संतोष-सा धन दो जिसे, आशा पिछाडी ना लगे।।
हम और ना कुछ मांगते, खाने यदी तोटा पडे ।
पर द्रव्य ऐसा दीजिये, आशा दुराशा ना लडे ।।
४४
कंगाल होनेकी मुझे, इच्छा लगी कई रोजसे ।
कहिं दे दिया कहिं खालिया, खाली हुआ नहिं बोझसे ।।
सब तो दिया जो पास था, फिरआसका जाता नहीं।
हे नाथ ! अब कंगाल कर, मैं खुदबखुद चाहता नहीं।।
४५
गौएं अगर देते रहो, तो शांति =बछवा दीजिये।
टटू अगर देना चहो, विवेक-ऐसा भेजिये ।।
जहागिर अगर देते हमें, स्वराज्य अविचल कीजिये।
इच्छा रहे तो दीजिये, नहिं तो मुझे खुद लीजिये।।
४६
सेवक तुम्हारा हूँ सदा, ऐसा हमें वरदान दो।
ये मोह ममतामें प्रभो ! मेरा मगज मत जाने दो।।
माया नटीको आपही, अपनी जगह रोको सदा ।
बस, ज्ञानके धारहँसे, हमको नहीं करना जुदा।।
४७
मर जाऊँगा संसारसे, जी-जाऊँगा परमार्थ में।
हट जाऊँगा सब स्वार्थ से. डट जाउँगा नित आर्त में ।।
ऐसा मरण मुझको प्रभो ! तुम शीघ्रही दे दीजिये।
करके अमर निजज्ञानसे, बंधन सभी हर लीजिये ।।
४८
मेरे सरीखे मुढ़को प्रभु, पास अपने कर लिया।
था भूलता संसारमें, उस भावसे तुम हर लिया।
बस, आखरी यह अर्ज है, जब प्राण यह जाता रहे।
तब दीनबंधो ! आपके, चरणारमें भाता रहे।।
४९
हे नाथ ! लाखों सर्पकी-अंगार होती अन्तमें।
तब कौन आवेगा भला, आडा वहाँ देहान्तमें? ॥
हमसे बने नहिं फिर वहाँ, प्रभु ! नाम लेना आपका।
ऐसी करो हमपे दया, भय दूर हो उस तापका।।
५०
तेरी हसेली मुरती, मेरी नजर भरदो सदा।
वह तान बन्सीकी मधुर, मेरे हृदय. धरदो सदा॥
करदो सदा मेरा बदन, नित दास्य-सा करदो सदा।
बस, आखरी यह चाहता, भव-बंधसे हरदो सदा ।।
५१
हर रोमसे तेरा भजन, हरवक्तमें करता रहँ।
हरपल तुम्हारे जोश के, आनंदमें जरता रहँ।।
यहि चाहता हूँ हरघडी, मत दूसरा कुछ दीजिये।
तुकड्या कहे यह अर्ज मेरी दीन-बंधू ! लीजिये।।
५२
मिल जायगा वहि खायेंगे, रुखी-सुखीको पायेंगे।
तेरा सदा गुण गायेंगे, बदनाम यही हो जायेंगे।
चाहे कहे फिर लोगभी- मत भीख किसको मांगिये।
उनके करूँगा कामपर, तुम्हरे-स्मरण नित जागिये ।।
५३
चाहे कहे जनलोक अब, हटता न मैं दरबार से ।
मर जाउँगा बल्के यहाँ, कह जाउँगा करतारसे ।।
कि, मैं तुम्हारी यादसे-बेजार होता था पडा।
परभी न तुम मुझको मिले,किसका गुन्हा सबसे बडा?।।
५४
दिल चष्म मेरा-हक रहे, हो जिंदगी बरबादभी।
सूरत-तुम्हारी आँख हो, हो आउँगा आबादभी ।।
गर यह नहीं गर वह नहि-तो क्या कमाने आगये?।
मानव-जनम को पागये, जमके सदनमें छा गये ।।
५५
पहुँचे हुये दरबारसे, खाली नहीं अब जायेंगे।
कुछ तो कराकर जायेंगे, या तो यहाँ मर जायेंगे ।।
हम हैं भिखारी दर्शके, तू है शहा दीदारका।
तन मन तुहीपर लुप्त है, है हक् यही इकरारका।।
५६
हिम्मत हमेशा रख पुरी, मैं दर्श तेरा पाउँगा।
चाहे हजारों बन चुके, वापस नहीं अब आउँगा ।।
दरपे तुम्हारे ह्रकूँच बनके, मट्टिसम गिर जाउँगा।
मेरे जनमकों इसतरह, मारग सदा बतलाउँगा।।
५७
प्रभु ! आपही हो पास तो, फिर आस क्यों हो दुसरी? ।
लेकिन खबर मिलती नहीं, यह दूहिया किसने करी? ।।
मैं तो समझता प्रकृतिकाही, खेल है यह खेलना।
बस कुछ न करना है हमें, है सो उसीकी चालना ।।
५८
मेरी अदालत मानलो, प्रभू ! आपही हो न्याय जी।
गर आपका यह खेल है, तो क्या मेरा अन्याय जी? ।।
सबको बनाते आप हो, अच्छा बुरा फिर है कहाँ? ।
नहिं सौख्य है नहिं दुःख है, तेरा तमासा हो रहा ।।
५९
सत्ता रहे प्रभू ! आपकी, हम तो करे सेवा भली।
तनसे बने, मनसे बने, हो वाणिसे जैसी चली।।
बुद्धी दिलाना आपका, है काम साक्षी-रूपसे ।
हम तो समझते सब जगह-किरपा रहे खुदरूपसे ।।
६०
राजी रहो जिसमें प्रभो ! उसमें हमें आनंद है।
हम कुछ नहीं है चाहते, बस है वही स्वानंद है।।
हम जानते तुमरी दया-सबके लिये भरपूर है।
फिर दुःख क्यों कैसा करे? किस्मत यथाऽ मशहूर है।।
६१
गाया वही फिर गायेंगे, फिर फिर तुम्हें रिझवायेंगे।
रिझवायके रंग जायेंगे, रंगसे सदा बन जायेंगे।।
बनके अनुग्रह पायेंगे, उस मंत्रकी धुन छायेंगे।
ऐसी जडीको पायेंगे, पाते वही मिल जायेंगे।।
६२
अन्जान हम-से बालपर, गुरुदेवकी मर्जी रहे।
हम औरसे मारे गये, पर नाथके गर्जी रहे ।।
कुछभी न करना है हमें, सारी जहाँ ह्रबदनाम हो ।
तुकड्या कहे, गुरुदेव ! तेरे-नामका आराम हो ।।
चित्तोपदेश
६३
खोदा जमींका पेट भी, जडबूटियाँ भी खोद ली।
कुछ मोतियोंके लालचों, सागर डुबी भी शोध ली।।
धातू जलाकर देख ली, सब मंत्र करके बस गया।
कवडी मिली नहीं एक भी, तृष्णा-नदीमें फँस गया।।
६४
ऐ आँख ! जब तू धन्य है, मेरा प्रभू देखा करे।
ऐ कर्ण ! जब तू मान्य है, उसकी कथा =ऐका करे ।।
रसने ! जभी तू प्रीय है, प्रभुका स्मरण करती रहे।
गर ना करे ऐसी चलन, बेशक अभी मरती रहे ।।
६५
हे चित्तवृत्ते ! क्या तुझे, दिखता नहीं है आँखसे ?।
कितने गये कितने चले, सब मिल चुके है राखसे ।।
प्रत्यक्ष होके देखती, तो भी समझ भाती नहीं ?।
कितने जनमके पाप हैं, जो तू प्रभू गाती नहीं ? ।।
६६
पलकी नशाको चाखकर, अक्षय-रुचीको छोड़ना।
जो कर रहा तू काज यह, है पाप सरपे जोड़ना।
अब सुख है फिर दुःख है, भौंवर-सरस भरमायगा।
चढ़ना कठिन होगा तुझे, परदेशमें अटकायगा।।
६७
हे वृत्ति ! मत आधीन हो, इस इंद्रियोंके साथमें ।
तू स्थीर हो अपनी जगह, मिल जा खुदीकी जातमें ।।
पर-जात है ये लोग सब, तुझको यहाँ भटकायेंगे ।
चढ़ना कठिन होगा तुझे, परदेशमें अटकायेंगे ।।
६८
हे चित्तवृत्ते ! मित्रता, ऐसी जगहसे कर सदा ।
धोखा नहीं फिर जन्मका, मरना नहीं आवे कदा।।
ऐसा अमर-पद प्राप्तकर, गुरुके चरणमें जाय कर ।
मिलजा गुरु-रजधूलमें, देखे न फिर उछलायकर ।।
६९
काहे न मन!तू मानता,क्या +कैफ तुझको आगया ? ।
पचता नहीं तेरा नशा, पलपल विषय मन भा गया ।।
कई संत साधू-वृंद जो, करते तपस्या-योग को।
निर्योग करवाता उसे, फिर भोगता खुद भोगको ।।
७०
ऐ बुद्धि ! अब हटजा जरा, पट खोलने दे प्रेमके।
बैठ अपनीही जगह, बंधन हटाकर नेमके ।।
निर्बंध तेजो रंगमे, मुझको चढ़ाने दे नशा ।
फिरके न वापस हूँ कभी, रखता हूँ ऐसी लालसा ।।
७१
ऐ दिल ! बडाई छोड दे, तू खास मेरी है लहर ।
हो लीन अपने केंद्रमें, यह छोड विषयों का जहर ।।
अस्तित्वसे नहिं भिन्न तू, यह भिन्न माया है मृषा ।
तुकड्या कहे, हो जा सुखी,यह छोड मृगजलकी तृषा ।।
वैराग्य-बोध
७२
रे मुसाफिर ! भागसे, मानव-जनमको पालिया।
अफसोस है की संगसे, तनको विषयमें खोदिया।।
कुछभी नहीं आखर किया, करना नहीं सो कर लिया।
क्यों रो रहा? अब साधले, नहिं तो जनम बिरथा गया।।
७३
झूठी जबानी बोलकर, जगमें *मुँहा काला करा।
तिरछी नजरसे देखकर, अंधा हुआ बन बावरा॥
बूरी जबानी कानसे, सुनते बुरा मन करलिया।
क्यों रो रहा? अब साधले, नहिं तो जनम बिरथा गया।।
७४
संसारमें क्या सौख्य था, हालत नजरमें आरही।
सुख तो कभी देखा नहीं, मरघट उमरकी छा रही।
चाचे हुये बूढे हुये, कई मरगये कुछ ना किया।
क्यों रो रहा? अब साधले, नहिं तो जनम बिरथा गया।।
७५
कहता जबानी औरकी, खुब ज्ञानकी चर्चा भली।
पर कर्मको जो देखता, अखियाँ बुराईसे भरी।
इब्लीस सारा काम कर, जगमें बढाई कर लिया।
क्यों रो रहा? अब साधले, नहिं तो जनम बिरथा गया।।
७६
होकर जहाँका-जानता, फिरभी झुठाई खा रहा।
इन्सान क्या हैवान है, जो झुठके सँग जा रहा ।।
बाकी जहाँतक दुर्मती, किसने भलाई ना किया।
क्यों रो रहा? अब साधले, नहिं तो जनम बिरथा गया।।
७७
रे ! जो गई सो चलगई, अब तो हुशारी हाथ ले।
क्या खौफ तुझको हो रहा?कुछ तो खियालत बात ले ।।
बदनाम मत हो जिंदगी-दो रोजकी आदम किया।
क्यों रो रहा? अब साधले, नहिं तो जनम बिरथा गया ।।
७८
हकमें सदा रँगजा =गडी ! मत धर्मको भूले कभी।
सत्को कभी नहिं छोडना, यह प्राण जाता हो तभी ।।
तुकड्या कहे, नहिं फेरके, ऐसी बखतको पालिया।
क्यों रो रहा ? अब साधले, नहिं तो जनम बिरथा गया ।।
७९
ऐ मित्र ! तू कमजोर है, बैराग धरने के लिये ।
करके फँसा इस मोहमें, चित्त काममें जखडे गये ।।
पर तू करमको भुल गया, जीवन वृथाही खो लिया।
तुकड्या कहे कुछ साधले, नहिं तो जनम बिरथा गया ।।
८०
निकला सुरज रहता नहीं, हरगिज छुपा वो जायगा।
तो यार । तेराही जनम, है सो मरन पहुँचायगा ।।
रवि चंद्र मंडल आसमाँ, सब ये +फना हो जायगा।
तो हूचीथडोंकी देह तेरी, तू कहाँ रखवायगा? ॥ दिल ! बडाई छोड दे, तू खास मेरी है लहर ।
हो लीन अपने केंद्रमें, यह छोड विषयों का जहर ।।
अस्तित्वसे नहिं भिन्न तू, यह भिन्न माया है मृषा ।
तुकड्या कहे, हो जा सुखी,यह छोड मृगजलकी तृषा ।।
वैराग्य-बोध
७२
रे मुसाफिर ! भागसे, मानव-जनमको पालिया।
अफसोस है की संगसे, तनको विषयमें खोदिया।।
कुछभी नहीं आखर किया, करना नहीं सो कर लिया।
क्यों रो रहा? अब साधले, नहिं तो जनम बिरथा गया।।
७३
झूठी जबानी बोलकर, जगमें *मुँहा काला करा।
तिरछी नजरसे देखकर, अंधा हुआ बन बावरा॥
बूरी जबानी कानसे, सुनते बुरा मन करलिया।
क्यों रो रहा? अब साधले, नहिं तो जनम बिरथा गया।।
७४
संसारमें क्या सौख्य था, हालत नजरमें आरही।
सुख तो कभी देखा नहीं, मरघट उमरकी छा रही।
चाचे हुये बूढे हुये, कई मरगये कुछ ना किया।
क्यों रो रहा? अब साधले, नहिं तो जनम बिरथा गया।।
७५
कहता जबानी औरकी, खुब ज्ञानकी चर्चा भली।
पर कर्मको जो देखता, अखियाँ बुराईसे भरी।
इब्लीस सारा काम कर, जगमें बढाई कर लिया।
क्यों रो रहा? अब साधले, नहिं तो जनम बिरथा गया।।
७६
होकर जहाँका-जानता, फिरभी झुठाई खा रहा।
इन्सान क्या हैवान है, जो झुठके सँग जा रहा ।।
बाकी जहाँतक दुर्मती, किसने भलाई ना किया।
क्यों रो रहा? अब साधले, नहिं तो जनम बिरथा गया।।
७७
रे ! जो गई सो चलगई, अब तो हुशारी हाथ ले।
क्या खौफ तुझको हो रहा?कुछ तो खियालत बात ले ।।
बदनाम मत हो जिंदगी-दो रोजकी आदम किया।
क्यों रो रहा? अब साधले, नहिं तो जनम बिरथा गया ।।
७८
हकमें सदा रँगजा =गडी ! मत धर्मको भूले कभी।
सत्को कभी नहिं छोडना, यह प्राण जाता हो तभी ।।
तुकड्या कहे, नहिं फेरके, ऐसी बखतको पालिया।
क्यों रो रहा ? अब साधले, नहिं तो जनम बिरथा गया ।।
७९
ऐ मित्र ! तू कमजोर है, बैराग धरने के लिये ।
करके फँसा इस मोहमें, चित्त काममें जखडे गये ।।
पर तू करमको भुल गया, जीवन वृथाही खो लिया।
तुकड्या कहे कुछ साधले, नहिं तो जनम बिरथा गया ।।
८०
निकला सुरज रहता नहीं, हरगिज छुपा वो जायगा।
तो यार । तेराही जनम, है सो मरन पहुँचायगा ।।
रवि चंद्र मंडल आसमाँ, सब ये +फना हो जायगा।
तो हू चीथडोंकी देह तेरी, तू कहाँ रखवायगा? ॥
८१
कुछ दिन वही रह जायेंगे-जिसने किया कुछ नाम है।
यह संत ऋषियों वाक्य कीर्ती, देखिये सब आम है ।।
जिसने किया नहि पुण्य भी, अरु सत् नहीं कमवायगा।
तो चीथडोंकी देह तेरी, तू कहाँ रखवायगा? ।।
८२
सूरत हजारों चलगई, कीरत न जावेगी कहीं।
जबतक जमी है दिख रही, तबतक हजुरतही रही ।।
करता नहीं प्रभु-यादभी, नहिं दान कुछभी देयगा।
तो चीथडोंकी देह तेरी, तू कहाँ रखवायगा? ।।
८३
नाहक जनमको पा लिया, आता नहीं तो ठीक था।
कुछ भी नहीं आकर किया, आया नहीं-सा दीखता।।
पर, पाप माथेपे लदा, दुनिया-तमासा देखकर।
तुकड्या कहे, हुशियार हो, गुरुनाम लेना सीखकर।।
८४
नर ! कान ऐसे खो दिये, फिर कान कैसे पायगा? ।
जब कान यह नहिं पायगा, कैसा तुझे सुने आयगा? ॥
जो कुछ सुनेगा आज सुन, ऐसी घडी ना आयगी।
सुंदर-सजीली देह यह, एकदिन धुली बनजायगी।।
८५
यह नैन अब अंधी भई, तब नैन कैसी आयगी? ।
जब नैन यह नहिं आयगी, मूरत नजर कब छायगी? ।।
तो आजही खुब देखले, संधी न ऐसी आयगी।
सुंदर-सजीली देह यह, एकदिन धुली बनजायगी ।।
८६
मेरुसरीखा नाक यह, बहुबार फिरके नायगा।
सुश्वास कैसा पायगा? नक्टा खुदी बन जायगा।।
जो कुछ सुगंधीको चहो, तो साधले, सध जायगी।
सुंदर-सजीली देह यह, इकदिन धुली बनजायगी।।
८७
साजा हुआ मृत-देह यह, जब खाकमें मिल जायगा।
तब यार ! तेरे हाथसे, क्या बन सके, बनवायगा? ||
जो कुछ बने सो आज कर, या दानकर या ध्यानकर ।
तुकड्या कहे, होजा सुखी, मत जीवको हैरानकर ।।
८८
दिनभर टहलता भूलमें, पलभी न भजता रामको।
नेकी करे नहिं कष्टकी, मरता सदा आरामको ।
जब देह तेरा मट्टीमें +इत्तफाकसे गिर जायगा।
तो यार ! तूही कह हमें, आराम कैसा पायगा? ।।
८९
पलभी नहीं जागा रहे, सब दिनहि सोता है गडी।
क्यों खो रहा ऐसी घडी? अवसर नहीं फिरके बडी।।
जो कुछ करे सो आज कर, कल तो भरोसा है नहीं।
किस्मत किसीके हाथ है-तो नींद तेरी हो रही?।।
९०
रजनी निकट आने लगी, भानू छिपा है जा रहा।
फिर क्या करेगा यार ! तू, अँधिया जहाँपर छा रहा।।
जो कुछ करे तो आज कर, कलकी घडी होगी कभी?।
जब गर्भकी मढिया पडे, तो क्या प्रभू गावे तभी? ।।
९१
बीती गई सो ठीक थी, आगे घडी बलवान है।
आदम! रहो हुशियार हो, पीछे बडा शैतान है।।
हरएक पलको खा रहा, अब तो मुसाफिर ! ख्याल दे।
जैसा बने प्रभू-नाम ले, झुठी खियालत डाल दे।।
९२
रे मुसाफिर ! सोचकर, कितने घडी मुक्काम है? ।
क्या वक्त तेरे हाथ है, करके फसा बेफाम है?॥
कितने गये, कितने चले, नहिं पा चुके आराम है।
कर ख्याल यह हर दम पे दम, भजले प्रभूका नाम है।।
९३
बेहोश मत होना मुसाफिर ! उठ यहाँ से भाग जा।
तू किस भरोसे बैठता ? प्रभू यादमें अब लाग जा।।
यह चोरकी नगरी बसी, धनमाल तेरा खायेंगे।
नाहक जनम भटकायेंगे, सब सत्य लुट ले जायेंगे।।
९४
रे आदमी ! चल उठ अभी, घरको लगी अंगार है।
सोता कहाँपर यार ! तू, यह छोड दे दरबार है।।
यह सुख ना पर दुःख है हमशहूर से पूँछे कहीं।
क्या मौत तेरी आगई, करके -पलट होता नहीं?।।
९५
हुशियार हो हुशियार हो, अब तो गडी ! हुशियार हो ।
है चोरकी बस्ती यहाँ, हृइसपारसे उसपार हो।।
सोना नहीं पलभी कभी, धन मालमत्ता जायगी।
कोई न दौडेगा यहाँ, किसको कदर नहिं आयगी।।
९६
दुनिया-तमासोंसे गडी ! कर कूच अपने प्रीतको।
उठ जाग आलस-नींदसे, मत भूल माया- मीतको ।।
जितना तुझे यह दिख रहा, तेरे लिये कुछ है नहीं।
तुकड्या कहे भज राम तू, है आखरी साथी वही ।।
९७
दुनिया-तमासा देखकर, क्यों यार ! दिल बहला रहा।
पीछे बड़ा यमराज है, पाया मजा सब खा रहा ।।
आदम गई सब जिंदगी, यह धूल में मिल जायगी।
कर याद गुरुके नामकी, तो शांति अक्षय पायगी।।
९८
अभिमान मत कर आदमी ! मै ही भला, मेरा भला।
कुछ सोच अपने मग्जमें, किसका अहं जगमें चला ।।
रावण-सरीखे शूरकी, मुंडी जमीमें घुसगई।
भर जिंदगीका नाश हो, सब बात आखर फँसगई।
९९
जगके नचे मत नाच रे ! कुछ साच तो अपना बना ।
क्या भूलता इस भोगमें ? दिन दोय में होगा फना।।
है स्वारथी सारा जगत्, तेरा गडी कोई नहीं।
कर एक ईश्वरका भजन, मत भूल दुनियामें कहीं।।
१००
संसारके इस भोगमें, कोई सुखी ना बन गया।
यह साक्ष सबकी हो रही है, मैं गया मेरा गया।
तो यार ! क्यों इस फंदमें, तू जानकर दुःख भोगता।
कर साथमें प्रभुका-भजन, गर मोक्ष है तू चाहता ।।
१०१
है राजरोशन् दिख रहा, दुनिया-तमासा आँखसे ।
कई आरहे, कई जारहे, कई छिपगये जम-धाकसे ।।
यह कालका घर है बना, यह जीव-जनका हजैल है।
जो ना करे प्रभूका स्मरण, वो जारहे जम =गैल है ।।
१०२
ईश्वर-भजनकी लाज है, करके नहीं कर ठोकते ।
निर्लज्ज होकर विषयमें, लाखों रुपैया झोंकते ॥
ऐसे अधमके मानको, ईश्वर सदा देखा करे ।
पूरा नरकमें डालके, अंधार-बन लेखा करे ।।
१०३
प्यारे ! बड़ाही कष्ट है, जम-हाथमें मत जा कभी ।
भोगे पतन चौरासके, रख याद कहनेकी अभी ।।
झुठी नहीं यह +बातमी, उस गर्भका दुख घोर है।
नेकी करो, नेकी करो नहिं तो बड़ा जम भौंर है ।।
१०४
नर ! मानको मरता सदा, अरु कर्म अपने छोड़ता।
पलभी नहीं शांती रखे, जगके कहे दिल खोड़ता ।।
पर एक दिन वह आयगा, जब जगत ना अरु मान ना।
तब क्या करेगा आखरी? जमके सिवा कुछ ध्यान ना ।।
१०५
आये अकेले जगतमें, फिरभी अकेले जावोगे ।
नहिं संग कोई आयगा, तनभी नहीं ले जावोगे ।।
यह जीव है जब जायगा, तब वासना ले जायगा ।
झूठा न करना ख्याल कब, नहि तो ह पिछु भरमायगा ।।
१०६
चाहे भले यह जन कहे, तू साच मत भूले कभी।
कर प्रेम ईश्वरसे सदा, तब शांती यों मिलती सभी ।।
गर एक ना सच होयगा, तो आखरी मर जायगा ।
दुनिया डुबा देगी समझ, इस भेदमें भरमायागा ।।