- ४- सद्गुरुपद तथा निष्ठाका स्वरूप
( ता . २५ - ८ - १९३६ )
उपासकों ! कलका विषय यह था कि जो योग्य रीती विश्वासपूर्वक सत्संगति करता है वह जल्दीही भवसागर से पार होकर प्रभुस्वरूपको पा लेता है । श्रीकृष्ण उद्धवजीसे कहते हैं - *भाई सुन । सन्त प्राप्तिही मेरी प्राप्ति है । सन्त और मैं इनमें भेद नहीं है । बल्कि* सन्त हमारी आतमा हम सन्तनके प्राण * ऐसी एकरूपता हममें है । सन्त का मतलब है मुझे प्राप्त हुए भक्त । उनमें और मुझमें वैत कहाँ ? *
* जब आशिकपर आशिक वह सनम होता है । तब दोनों का रूतबा एकी रकम होता हैं । ।*
यानी भक्त जब भगवानकी भक्तिमें पूरी तरह समरस हो जाता है तब वह भगवानसे अलग नहीं रह सकता । वह तो स्वयं भगवानही बनता है । देखिए , एक सादीसी अल्लीभी ध्यास के बलपर भ्रमर बन जाती है । तो भक्त भगवान क्यों न बनेगा भला ? जो जिसका भजन - चिंतन या ध्यान करता है , वह उसीके रूपमें रंग जाता है वही रूप बन जाता है । उसकी वृत्तिमेंही नही , आचार - विचारमें बल्कि शरीरावयवमें भी उसीकी छटा तैरने लगती है । इसीको कहते हैं स्वरूपता ! इसतरह भगवद्रूप बने सन्तकी सेवासे उद्धार होना तो सहज बात है ।
सन्त ही सद्गुरुपदको प्राप्त होते हैं । इसका कारण एकही है कि भ्रांतिमें पडकर चक्कर खानेवाले जीवको जो सन्त मूल स्वरूपकी भगवद्पकी पहिचान देकर पूर्ण शांतिको प्राप्त करा देते हैं , उन्हींको
*सद्गुरू* कहा जाता है । संसारके विषय में वैराग्य उत्पन्न कर झुठी बातोंसे चाहते हूए , अंधेरेको हटाकर सच्चे मार्गसे बढ़ाते हुए , जो संत परमात्मध्येयको प्राप्त करा देते हैं उन्हीको सद्गुरु पदवी प्राप्त होती हैं । *गुरू* शब्द का अर्थ यही निकलता है कि अंधेरेमें उजाला पैदा करनेवाला , सगणरूपिणी मायासे बढाकर निर्गुण परमात्मातक पहुँचानेवाला ! जो जीवोंको विकारी उपाधिसे छुडाकर अविनाशी परमात्मरूप बना देते हैं , वेही है * गुरू * या सद्गुरू ! *
मित्रों ! गुरू किसी संसार - व्यवहार - व्यापारके लिए या टंटे - बखेडे और सट्टेबट्टेके लिए नहीं होते । अन्य चीजें देकर हमारा समाधान करना यह गुरुका काम नहीं है । हमें गुरुसे नाशमान पदार्थों की प्राप्ति या उन्नति नही पानी है । खाली एकही चीज हमें गुरुसे प्राप्त करनी है - वह है परमात्माकी प्राप्ति ! और बारीकीसे देखा जाय तो परमात्माकी प्राप्तिभी उनसे साध्य करनेकी जरूरत नहीं है , क्योंकि वह तो प्राप्तही है । परन्तु भ्रांतिवश हमें उसका अनुभव नही होता , इसलिए उसके सही ज्ञानकी आवश्यकता है और वह सच्चा ज्ञानही हमें गुरुसे पा लेना है । इसीसे *गुरू* यह सार्थ नाम उसे दिया गया है ।
जो बडे शास्त्रपारंगत हों उन्हें हम विद्वान या पंडित कहते हैं । जो सभी बातोंमें कुशल हो उन्हें हम चतुर कहते हैं । जो दूसरे - दूसरे कर्मोमें प्रवीण हों उन्हें हम ऐसेही भिन्न - भिन्न नाम देते हैं । मगर सही अर्थों में हम उनको *गुरू* का पद नही दे सकते । वैसे तो तरह - तरहकी विद्याएँ अथवा कलाएँ सिखानेवालों को भी *गुरू* कहा जाता है परन्तु वे हैं विद्यागुरू ! उन्हें सद्गुरु कोई नही कहेगा । *सद्गुरु* यह नाम बिना शुद्ध स्वरूपानुभव प्राप्त करानेवाले किसीकोभी नही दिया जाता ।
ऐसे सद्गुरुके पाससे हमें लेना क्या है ? - तो केवल विशुध्द परमात्मरूपका ज्ञान ! यही धन वह दे सकता है ; और यह धन ऐसा जो आत्यंतिक अविनाशी सुखकी कुंजी कहा जाता है । यह ज्ञानधनही सच्चा परमार्थ है ! इस परमात्मसुखकी प्राप्तिके लिए अन्य सभी कामनाएँ छोडकर प्रेम तथा विश्वासपूर्वक हमें सद्गुरु की सेवा करनी चाहिए । इस सेवासे तो हमें परमात्मरूपताही प्राप्त होगी । लेकिन यह सेवा दिखावे की न हो . . एकनिष्ठ भावकी हो । ऐसे एकनिष्ठ प्रेमभावके बिना कितनेही साधन किये या ठाठबाट से भजन - पूजन कियें तोभी सच्चा लाभ हासिल नही हो सकता ।
दृष्टान्त सुनिए , एक राजा था । बडेही ठाठबाटसे वह शिव - भक्ति करता था । हाथी - घोडे , सोना - चांदी , पालकी - अब्दागिरी ऐसे वैभवके साथ हर श्रावण सोमवारको वह बाजे बजाते हुए शिवमंदिर जाता था । गंगाके किनारे प्रसन्न वनश्रीसे सुशोभित था वह मंदिर । वहाँके निसर्गका पवित्र प्रभाव दिल को सात्त्विकतासे भर देता था और निर्मल प्रेमभाव मनमें उछलने लगता था । लेकिन राजा उस निसर्गको अपने रजोगुणी वैभवके रंगसे विकृत बना देता था । खैर , जिसके पास सहजतासे जोभी उपलब्ध हो उसीसे अपने भगवानकी पूजा करनेका अधिकार सबको है । उसी धर्मका पालन राजा कर रहा था । ऐसे वैभवशाली पूजाविधिसे राजाने दो बार शिवजीकी सेवा की ।
उसी नगरीके निकट एक गाँव में एक दुबलापतला आदिमजाति भक्त रहा करता था । फटे चीथडोंवाला वह दरिद्र भक्त हर सोमवारके दिन गंगास्नान करके अपने तंबेमें जल भर लेता और नजदीकक पत्थरपर चुनखडी घिसकर एक दोने में उसे लेते हुए उसीसे शंकरजीका पूजा करता । लेकिन आश्चर्य यह कि शिवजी बडे खुश दिखायी देते |
तीसरे सोमवारको पार्वतीने शंकरजीसे पूछा - महाराज ! राजाके - अर्चनविधिके समय कुछभी ख्याल न देते हुए आप आँखें मूंद लेते और उस मैलेकुचैले दरिद्र भक्तकी पूजा लेते समय तो बडे प्रसन्न नजर आते ; इसका कारण क्या है ? भोलेनाथ शिव बोले - *पार्वती ! मेरी प्रसन्नता पूजाके ठाठबाट या आडम्बर पर आधारित नहीं होती । पूजादि साहित्यसे की जानेवाली उपासना तो बहिरंग हआ करती है । वह तो होती है त्याग और प्रेम सिखानेके लिए ही , इसलिए मैं उसे त्याज्य नहीं मानता परंतु वास्तविक उपासना तो सच्चा प्रेमभावही है । इस कसौ- टीपर वह गरीब भक्त खरा उतरनेवाला है , इसीसे मैं खुश रहता हूँ । पार्वती बोली - महाराज ! इतना खर्चा करनेवाला और कष्ट उठाकर आनेवाला राजा प्रेमीभक्त कैसे नही होगा ? मुझे तो शंका मालूम होती है । शिवजी बोले - *ठीक है । अगले वक्त हम परीक्षा लेंगे ।*
आखरी सोमवार था । बडेही सजधज के साथ आकर राजाने शुचिर्भूत ब्राह्मणोंद्वारा धूमधडाकेसे विधिपूर्वक पूजा आरंभ की । इतनेमें ऐसा लगा कि मानो तूफान आगया हो । भगवान शंकरजीका वह पुरातन विशाल मंदिर कुछ हिलने लगा । ऊपरसे गडगडाहट होने लगी । बाजूकी दिवाल भी गिरने लगी । बडे बडे पत्थर धमाकेके साथ ढहने लगे । सभी घबडा
गयें , सबके दिल काँप उठे । राजाने हुक्म फर्माया - * सबके सब देवलसे बाहर आजाओ । यह देवल गिर रहा है , गिरने दो । जान बची तो दूसरा इससे भी अच्छा देवल बना लेंगे । भगवान सभी जगह है । घरमें भी तो पूजा हो सकती है ।*.
राजा बाजेगाजेके साथ राजमहलकी तरफ लौट पडा । थोडीही देरमें वह गरीब उपासक अपने नित्यक्रमानुसार गीले कपडोंसेही मंदिरमें पहूंचा ।
मंदिरके ऊपरी भागमें पहलेसे अधिक गडगडाह होने लगी । वह भोला भक्त रोता हुआ एकदम पिंडीसे लिपट गया । बचानेके लिए घबडाकर रो रहा था ? नहीं , हरगीज नहीं ! भक्त को बिना भगवानके अपने प्राणकीभी पर्वाह नहीं होती । वह तो सिर्फ अपने उपाय भगवानके * शिवलिंग * की रक्षा के लिएही रो रहा था । रोते हुए वह हमेशासे दुगुनी आवाजमें प्रार्थना करने लगा था कि - *हे भगवन् ! यह देवल गिरेगा तो आप लुप्त हो जायेंगे , फिर मुझे सहारा कहाँ मिलेगा ? प्रभो ! मैं किसकी पूजा करूँगा ? चाहे सो हो , लेकिन मैं यहाँसे नही हठ सकता । परन्तु ईश्वर । मेरे इस तनिकसे देहाच्छादनसे आपकी रक्षा कैसे हो सकेगी ? कुछभी हो . आपके साथ मैं भी यहीं दब जाऊँगा । *.
उस भोले भक्तके ये निश्चयपूर्ण प्रेमोद्गार सुनतेही पार्वती समेत शंकरजी एकदम प्रकट होगये । भक्त की प्रेमावस्था पूर्ण होनेके बाद भगवान उससे दूर कैसे रह सकते भला ? उस भोले भक्त को अभयदान और समाधान देते हुए शंकरजी , पार्वतीसे कहने लगें - * देवी ! उस सकाम राजाके चंचल प्रेम से मेरे इस भोले भक्तका निष्काम प्रेम तथा विश्वास कितना ऊँचा और दृढ है , जरा देखलो ! मैं वैभवोंसे मोहित या प्रभावित होनेवाला नहीं हूँ , मैं तो केवल विशुद्ध प्रेमही चाहता हूँ । बताओ सेवा किस कामकी ? *
भाइयों ! जो कोई जिस हालतमें हो उसने उसी अवस्थाके मुताबिक सेवा करनी चाहिए ; लेकिन अपनी वृत्ति एकनिष्ठ , शुद्ध प्रेमयुक्त तथा सुदृढ बना लेनी चाहिए - तभी परमात्मप्राप्ति होगी । मतलब यह कि ऐसी निर्मल तथा निश्चल वृत्तिसे सद्गुरु - सेवा करोगे तभी तुम अपने सत्य सुखस्वरूप ध्येयको प्राप्त कर सकते हो ।