-५- निष्काम श्रद्धाकी शक्ति
     ( ता . २६ - ८ - १९३६ ) 

उपासकों ! मेरा कलका विषय तो आपके ख्यालमें होगाही . लेकिन जो सज्जन नये आये हुए हैं उनके लिए जरा सूचित करना चाहता हूँ । संसारसागरसे पार उतर जाने तथा साक्षात् परमेश्वर को पानेके लिए एक सत्संग या सद्गुरु - भजनही काफी है । लेकिन संतसंगति , हरिभक्ति या योगतप आदि सभी बातोंमें आवश्यकता होती है दृढ विश्वासकी । बिना विश्वासके कोई कुछभी लाभ नहीं उठा सकेगा । उद्धारकें लिए तो विश्वासही मूलाधार होता है । जो गुरुवचनपर विश्वासपूर्वक अमल करेगा वही परमात्मरूपको पा सकेगा । श्रद्धावान पुरुष के लिए तो ईश्वर हरजगह हरघडी मौजूद रहता है । लेकिन श्रद्धा सही हो - विश्वास सच्चा हो । सच्चा विश्वास वही है , जिसमें क्षुद्र कामनाओंका वास नहीं रहता ।
जो व्यक्ति सांसारिक सुखदुख - लाभहानी आदिसे संबंधित इच्छाओंको लेकर अपने नाशमान विषयोंको बढानेके लिए , स्त्री - पुत्र धन आदिको पानेके लिए या रोग - भोग मिटानेकी वासनाओंमें जकडतें हुए संत - सद्गुरु या ईश्वरका बडा विश्वासी बनेगा - भजन करनेवाला होगा , उसे मैं सच्चा विश्वासी नहीं कह सकता । अशाश्वत पदार्थोंकी चाहतको छोडता हुआ जो शाश्वतकी कामनासे दृढ श्रद्धापूर्वक शरण होता है , वही पूरा विश्वासी या सच्चा भक्त कहा जाता है । नाशमान पदार्थोंकी इच्छा रखनेवाले पुरुष को भगवानकी प्राप्ति होही नहीं सकती ; क्योंकि उसके लिए तो नाशमान विषय पदार्थही भगवान है । साथही उसे लालच


दिखानेवाले ढोंगी जादूगरही उसके लिए सद्गुरु बन जाते हैं, जो अन्तम धोखा देते हैं। अविनाशी चीजकी इच्छा रखनेवालेको कौन भुलावा दे सकता है? सदगुरु तो केवल अविनाशी सच्चिदानंद आत्मरूपकी प्राप्ति अपने विशुद्ध बोधद्वारा कर दिया करते है। इसके अलावा उनके पास जाकर दूसरी चीजें माँगना, यही सबसे बढकर मूर्खता है। क्योंकि यह सब संसार।
कालगतिसे परिवर्तित होनेवाला क्षणभंगुर है। आज एक चीज मिल जायेगी तो कल दूसरी नष्ट हो जायेगी। यह खेल कभी रुकनेवाला नही है। फिर अविनाशी पदको छोडकर ऐसी तुच्छ विनाशी वस्तुओंके या सुख-दुखके लिए सद्गुरुपर बोझ डालना यह कहाँकी बुद्धिमानी है? यह तो सरासर अपने आपको फँसानाही है।
           सज्जनों! पूरे विश्वासके साथ सद्गुरु-सेवामें तत्पर रहना, उनके बोधवचन ग्रहण करना और उसी मुताबिक जीवन पवित्र बनाना यही मुक्तिमार्ग की वास्तविक सीढी है। दिलमें दुर्विचारोंको पालते हुए भलेही कोई ठाठबाटसे भजन-पूजन करता हो या तन-मन-धन अर्पण करनेकी
डींग मारता हो, परन्तु उसकी कीमत नाटक के पार्टसे अधिक नही होती। दूषित आचरण और दिखावटी विश्वाससे उद्धार नही हो सकता। बल्कि सदाचार, सद्विचार तथा शुद्ध विश्वासके मार्गपर बढनेवाला कोई भोलाभालाभी भक्त क्यों न हो, वह जरूर ऊँचा उठ सकता है; परमात्माको प्रिय हो सकता है।

ऐसे सच्चे विश्वासी पुरुषके लिए “सद्गुरु कैसे होते? उन्हें कैसे
पहिचाना जाता? क्या भजनपूजन आदि करनेकी जरूरत पडती?" इत्यादि। सवालभी कोई मायना नहीं रखतें। विशुद्ध श्रद्धाशील यानी ईश्वरप्राप्तिका


लिए आर्त हआ वह पुरुष हरजगहसे उचित लाभही उठा लेता है । एकलव्यके समान वह मिट्टीके गुरुसेभी ज्ञान पा सकता है । उसका विश्वास भलेही अंधविश्वास हो , तोभी ईश्वर उसके लिए उसीजगह अपना रूप प्रकट कर देता है । विश्वाससे विशुद्ध और प्रबल हुई भावना तो असत्सेभी सत् का लाभ पा सकती है ; फिर सत्संगति या सत्गुरुसे सत्यफल क्यों न पा सकेगी ?
दृष्टान्त सुनिए ! एक गुरु महाराज थे , जिनके अनगिनत शिष्य थे । हररोज सैकडों शिष्योंको मंत्र देना उनका कार्यही बना था । बडेबडे अमीर उमराव , राजा - महाराजा उनके शिष्य थे । बडा जबरदस्त प्रारब्ध था उनका , जो वैभवके साथ खेलता था । आचारभी पवित्र था , पर संस्कार कुछ विचित्र थें । धनवान शिष्योंने उनकी शोभायात्रा निकाली थी । उसीवक्त एक गरीब किसान वहाँ आकर भक्तिके साथ शरणागत हुआ । वह विनीत भावसे बोला - * स्वामीजी ! मैं अनपढ और दीनहीन हूँ । कृपा करके मुझे कोई मंतर दीजिए । गुरुमहाराज उपहासकी दृष्टिसे बोले - अरे ! कुछ हाथी - घोडा या दपटा - नारियल नही लाया ? * वह बोला - * स्वामीजी ! मैं बड़ा पापी हैं , जिससे कंगाल बना हूँ । लेकिन दो - तीन प्याज , कुछ कोथमीर और मिरचियाँ मैंने खेतसे लायी हैं , जो आपके चरणोंमें अर्पण करता हूँ । *
गुरुमहाराजने पीछा छुड़ाते हुए कहा - * हाँ ठीक है । ये प्याज , मिर्च , कोथमिरही तुम्हारे लिए मंत्र है , अब जाओ । * सुनतेही अतीव हर्षसे नमस्कार करके वह कूदता हुआ चल पडा । उसे लगा , धन्य मेरा तकदीर कि आज ऐसे बडेसे बडे सद्गुरु मुझे मिल गये । तबसे * प्याज - मिर्च कोथमीर * यही मंत्र वह अत्यंत विश्वासपूर्वक जपने लगा और प्रेमसे सदगुरुका ध्यान सहजतासे करने लगा । दिन - दिन उसका दिल अधिक पवित्र


होने लगा , उसका आत्मबल बढ़ने लगा । 
कुछ वर्षों बाद वेही गुरुमहाराज उस गाँव के निकट आये जोरोंपर थी और नदीमें बाढ आगयी थी । काले बादल अभीभी साथ बरस रहे थे । शाम हो रही थी । गुरुमहाराजने चिल्लाते हए गाँव कहा - अरे भाई ! कोई जाकर मेरे बडे - बडे शिष्योंको हमारे आनेकी खबर कर दो । मैं बड़ी मुश्किलमें फँस गया हूँ । *गाँव में खबर फैल गयी । मगर धनवान शिष्योंने सोचा कल गुरु महाराज को पालखीमें बिठाकर घर लायेंगे | परन्तु अब इस बरसातकी रातमें हम कैसे जा सकतें है ? कोई बोले . *अजी । गुरु महाराज तो शक्ति के सागर है , उनको डर किस बातका ? भवसागरसे तरानेवाले महापुरुषको तुच्छ नदीकी बाढ कैसे रोक सकती है ? *
गुरुमहाराजकी खबर जब उस भोले किसानने सुनी तो उनके दर्शनके लिए वह लालायित हो उठा । दौड पडा उनको लाने के लिए । नदीमें बाढ थी . पर गुरुमहाराजका नाम लेकर उसमें अपनी कंबल डाल दी और आत्मबलकी धुनमें बिना डोंगीकेही वह तैरता हुआ दूसरे किनारे जाने लगा । गुरुमहाराजके पैर पकडकर कहने लगा - * स्वामीजी ! मैं आपकाही चेला हूँ । चलिए मेरी पीठपर बैठकर । गुरुमहाराज आश्चर्यचकित हो गये । पुछताछसे उन्हें पता । चला कि उपहास से मैंने जिस किसान को *प्याज , मिर्च , कोथमिर का मंत्र दिया था , वही यह सच्चा विश्वासी पुरुष आज इतना आत्मबलयुक्त हो  चुका है । धन्य हैं इस भोले भगतकी ! और मेर वे लक्ष्मीपुत्र शिष्य , वह । तो बेकारके टटूही निकलें ! इस भावनाके आतेही गुरुमहाराज ने उस भोले भक्तको सच्चे दिलसे उल्हासके साथ वरदान दे दिया । 
मित्रों ! यह सब सच्चे विश्वासका फल है । सच्ची श्रद्धासे जो 


शिष्य शुद्धचित्त हो जाता है , उसका गुरू भलेही अनधिकारी हो , फिरभी वह शिष्य सही लाभ अवश्य उठा लेता है । अन्यथा , गुरू कितनाभी ऊँचा हो , आत्मबोध देनेवाला हो , लेकिन शिष्य दर्विकारी या मलीन विश्वासी रहें तो कुछभी लाभ पल्ले नहीं पड़ता । बड़े से बडे गुरुकी सेवामें चौबीसों घण्टे यदि कोई बिताता हो लेकिन अपने व्यसनों या विकारोंको जराभी काबूमें नहीं ला सकता तो सब व्यर्थही है । इसलिए सबसे पहले हमें अपनी भूमिकाको शुद्ध बनाना होगा । शुद्ध भूमिका या शुद्ध चित्तवाले पुरुषको तो सद्गुरुकी खोजमें इधर - उधर घूमनेकी भी जरूरत नही होती । गुरुही घरबैठे उसके पास स्वयं चलकर आ जाता है । लेकिन भूमिका शुद्ध कैसे की जाय , यही हमें सबसे पहले देखना चाहिए । उसके लिए पवित्र आचरण , सत्य न्यायोचित व्यवहार , व्यसनोंका त्याग , सज्जनोंका सहवास , गुरुदेवके बारेमें सच्चा विश्वास , सत्शास्त्रोंका पठन - मनन येही मंत्र हमें पहले सीखने चाहिए - अमल में लाने चाहिए । चित्तशुद्धिका यही साधन है । आप अगर इस मार्गपर कदम बढायेंगे तो गरुकी खोजबिन या पहिचान करने में दिन बितानेकी जरूरत नहीं रहेगी । यही उद्धारका उत्तम रास्ता है , जिससे ध्येयप्राप्ति अवश्य हो सकती है ।
             
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