-६-
भूमिका शुद्ध बनाओ ; यही सच्चा सत्संग !
( ता . २७ - ८ - १९३६ ) उपासकों ! कल का मेरा यही विषय था कि सद्गुरु पानेके लिए सत्शिष्य बननेकी आवश्यकता है । उसके लिए विश्वासपूर्वक संतशास्त्रवचन सुनकर उसपर अमल करना होगा । सदाचार - सुविचार सदभावनासेहि भूमिका शुद्ध हो सकती है और सन्त - वचनों का पालनही सत्संग है I रात दिन सन्तके साथ रहना यह सत्संग नहीं हो सकता । कहा _
*नलगे साधूचा शेजार । फुटे प्रेमाचा पाझर । । तुका म्हणे मैलागिरी । भुजंग येती अंगावरी । ।*

सन्तोंके साथ रहनेमें ही कोई विशेषता नहीं है ,आवश्यकता है अपने सब कुविकार नष्ट करने की । मैलागिरी चंदन के समान सुगंध स्वरूप बन जायेंगे तो सद्गुरुही भुजंगके जैसे अपने आप हमारी  ओर खींचे चले आयेंगे । यह बात मेरी नही है , खास संतश्रेष्ठ तुकाराम महाराजका यह वचन है । आप कहेंगे , सभी संत और ग्रंथ तो सत्संग करनाही सबसे ऊँचा मार्ग बताते हैं , तो आपको यहभी ध्यान में रखना होगा कि यहभी सन्तकी ही वाणी है ; किसी ऐरेगैरे की नहीं । मतलब कि जबतक हम कुविचार - दुर्व्यसनों को नही हटाते , अपने अंत : करन को शुद्ध नहीं करते , तबतक चाहे जितनी संत - संगति करनेसेभी कोई लाभ नही होता । सच्चा संतसंग है अंत : करण को पवित्र बनाना ।
* ज्याचे अंतःकरण शुद्ध । त्यासी करणे नलगे बोध । । *
जिसका अंत : करण शुद्ध होता है उसको एक - एक वचनसे ऐसा प्रकाश मिल सकता है कि लम्बे चौडे उपदेश की जरूरतही नहा रहती। उसके दिलमें अपने आप विचारपुष्प खिलने लगते हैं । अंत : करण शुद्ध करने का अर्थ है
संत - ग्रंथ - वचनोंसे अपना अंत : करण बोधरूप बना लेना       सदा चरन करते  हुए वृत्ति ऐसी बना लेना कि चौबीस घण्टोंमें कोई भी दुष्ट विचार या विकल्प उसमै पैदा न हो सके ॥


कई गुरुभक्त समझते है कि मैंने गुरुनाम लिया तो अब मैं जितना भी पाप करूँ सब भस्म हो जायगा । सद्गुरु संगतिसे , मैं कितना भी पापी क्यों न हूँ , जरूर तर जाऊँगा । अब मुझे दूसरे नीतिनियम या सदाचरण की क्या आवश्यकता ? मैं चाहे जितनाभी पापी या अनीतिमान भलेही रहूँ , क्या बिगडता है ? ऐसा समझकर अपनी वृत्तिको सुधारनेकी कोशिश न करनेवाला व्यक्ति जीवनभर भी संत - संगतिमें रहें या सेवा करें तो भी वह सब व्यर्थ हो जायेगा ।
हमें अपने उद्धारके लिए सबसे पहले आवश्यकता होती है मुमुक्षुत्व यानी आर्तभाव की । जब स्वाति का नक्षत्र बरसता है तब शुक्ति ( सीप ) यदि समुद्रमें छिपकर बैठेगी या अपना मुँह नही खोलेगी तो उसमें मोती किसतरह बन सकेगा ? वैसेही सद्गुरु जब सद्बोधकी वर्षा करते हैं ; उसवक्त अपना दिल यदि दूसरे चिंतनमें लगा रहेगा , या कुवासनाओं से भरा रहेगा , अर्थात् आर्ततासे बोधग्राही बना हुआ नही होगा , तो सच्चा लाभ कैसे मिल सकेगा ? इसलिए कम से कम आर्त तो हमें जरूर बननाही चाहिए । सदाचरण से अपनी भूमिका को शुद्ध बना लेना चाहिए ।
जमीन को अच्छी तरह तैयार किये बिना ठीक ढंग से फसल हाथ नहीं आ सकती यह सबको मालूम है । किसान भूमि को साफ सुथरा नही बनायेगा तब उसमें डाला हुआ बीज या तो कीडेमकौडे खा जायेंगे या पंछी उडा लेंगे । अंकुर भी अगर पैदा हुए तो घास - फूसके मारे दब जायेंगे । अर्थात् फल मिलना मुश्किल हो जायगा । उसीप्रकार अशुद्ध भूमिकावाले पुरुषके दिलमें गुरुबोध ठहर नही सकेगा । आचार - शुद्धि न हो तो वह बोध बीचमेंही विकृत हो जायगा । सैंकडों विकल्पोंसे दब जायगा जिससे ध्येय प्राप्ति सप्नवत बनी रहेगी ।


इसलिये सबसे पहले अपने आपसे यानी सत दृष्टिसे , शास्त्रोचित आचरणसे , संतसेवा और बोधसे अपने सब विकल्प को हटाना बहुत जरूरी है । क्योंकि , विकल्प - दुर्विचार अध : पतन की और ले जाते हैं । हम देखते हैं कि कई वर्षों तक तपस्या करनेवाले महान पुण्यवानऔर बडे - बडे ज्ञानीभी विकल्पसेही पथभ्रष्ट हो चुके हैं । यह दुर्दशामें पहुँचा देनेवाला बडा प्रभावशाली शत्रु है |                      दुष्टान्त सुनिए ! एक जोगी था । सर्वस्व त्याग करके वह योग साधना करता था । कई दिनोंके बाद उसके पवित्र संस्कारों में काम वासनाका बुरा संस्कार उदित हुआ , लेकीन लोकलाजके मारे वह अपनी दुष्ट इच्छाओको प्रकट नही कर सका | दिल तो बडा भ्रान्तसा बन गया था । इसी अवस्थामे उसका देहावसान हुआ और पूर्व पुण्यके योगसे *शुचिनां श्रीमतां योगभ्रष्टोऽभिजायते * इस वचनानुसार वह एक महाराजाके घर जन्म पाया I
राजा बननेपर उसने मनचाहा विषयोपभोग किया लेकिन उसके कुछ पूर्व दुष्टकर्म फिर आडे आ गयें । उसके पास एक बडाही सुंदर घोडा बेचने को आया था । उसे देखतेही राजा मुग्ध हो गया । उसे खरीदकर व रोजान अपने दिलमें हवाई कीले बनाने लगा कि अब मैं कितना खुशनसीबहु Iइसपर बैठकर मैं बडीही सुंदर सफर ( सैर ) करूँगा , दुनियाभरकी हवा देख  लूँगा ।  और इसी इरादेसे वह सजधजके  उसपर सँवार हो गया ।
अचानकही घोडा बौरा गया । दुःसंस्कारोंसे मलीन हुई बुद्धि
इंद्रियोंको नही रोक सकती वैसेही राजा घोडेपर काबू नही पा सका | भीषण अरण्यमें सरपट दौडताही चला गया । राजा घबडा गया , भयभित हो गया । जान बचानेकी नीयतसे एक पेड़ की डंगाल को हाथोंमें  


मै पकडकर वह लटक गया । घोडा भागता चला गया और राजा निचे गिर पडा । गिरतेही वह बेहोश हो गया ।
होशमें आया तो धूप चटक गयी थी । खाने - पिनेकी याद सताने लगी । चला भटकता हुआ । जहाँ मनुष्य तो क्या , पंछीभी नहीं दिखते थे , ऐसा वह अरण्य था । लेकिन चलते चलते एक बाई ( स्त्री ) उसके नजर आयी । नजदीक जाकर राजा बोला - *कुछ खानेको मिलेगा क्या ? * बाईने
( लडकीने ) शर्त बोल दी कि *बिना मुझसे शादी किये कुछभी मिलनेवाला  नही । * सवाल आया - * तुम हो कौन ? * जवाब मिला - * मैं मेहतरानी हूँ । 
बाप ने मुझे इसलिए घरसे निकाल दिया कि मैं अपना पती खुद खोजकर लाऊँ ।  भ्रान्त राजा भूखको बर्दास्त न कर सका और शादीके लिए तैयार हुआ । उस लडकीने कई दिनोंके बासे टूकडे उसे दे दियें । 
राजा उसके साथ एक देहातमें गया , शादी हुई और एक छोटीसी  झोपडीमें रहकर वह भंगीकामसे गुजारा करने लगा । अपना राजापन तो वह भूलही गया था । कईं संतानें हुई और मेहतरका काम अधिक बढ़ गया । वह रोजाना पैखाने साफ करते - करते उसका दिल ऊब गया था । कुछ पूर्व हूँ । संस्कारोंका उदय होनेसे उसे पछतावा हो रहा था कि - * ईश्वर ! क्या मैं  बडाही पापी हूँ जो तूने यह गंदा काम मेरे मत्थे मढ़ दिया ? * . . . वह ! पश्चात्तापसे रोता कलपता था । तो एक दिन उसके सामने उसका घोडा आकर खडा हुआ । राजाको अपना पूर्वाधिकार स्मरण हो आया । फिर बडेही
 आनंदसे वह उस घोडेपर बैठकर अपनी राजधानीको चला गया ।   अब इस दृष्टान्त को द्राष्टान्त में ले लेंगे । यह जीवात्मा पहले में राजा जैसा था । जब वह मन - घोडेपर सँवार होकर विषयबनमें घूमने लगा


तब अपनेको भूल गया और कुसंस्कारमयी बुद्धिरूपी मेहतरानीके चंगुल में फँस गया । परिणाम यह हुआ कि उसे नर्कवास भोगने की अवस्था प्राप्त हुई । कई दिनोंके पश्चात्तापसे कुसंस्कार कमजोर होतेही विवेकरूपी घोडा उसे मिल गया और तब यह जीव रास्ता तय करके अपने विशुद्ध स्वस नही निजधाम को प्राप्त हुआ ।
 मित्रों ! कहनेका तात्पर्य यह कि विकल्प यानी दुःसंस्कार मनुष्यको  बडी बुरी अवस्थामें पहुँचा देते हैं । उनको दबाकर विवेक को प्राप्त किये बिना उसका सच्चा ध्येय या परमात्मरूप उसे कभी नहीं मिल सकता l इसलिए आर्त या साधक को बडी सावधानी रखनी चाहिए कि चौबीस घण्टोंमें कभीभी विकल्प खडे न हों । इसके लिए अपने आचरणपरभी  सावधानीसे अंकुश लगाते रहना चाहिए । तभी चित्त शुद्ध होकर गुरुकपासे  सत्यध्येयकी प्राप्ति हो सकेगी । निश्चय करोगे तो कोई बात असम्भव नहीं रहेगी ।

-