तो अन्न कहाँसे ग्रहण करेगा ? हठके मारे वैसाही भूखा - प्यासा पडा वह जगह सत्संग की थी । छोटेसे मन्दिरके सामने पेडकी में दिनभर भजन - कीर्तन , शंका - समाधान आदि कार्यक्रम हुआ करते है बडे  पहुॅचे हुए महात्मागण वहाँ आकर बैठते थें । ब्रह्मानंदकी लहरें उठाले थे । वह ब्राह्मणभी दिनभर रसीली चर्चा सुनता था । . वह अचानक जाग पडा तो सामनेके पेडतले एक अजीब दृश्य उसे दिखाई दिया । एक बार मैलागंदा और कालाकलूटा आदमी उसने देखा तो दिलमें डर पैदा हुआ उसे लगा कि कोई भूतपिशाच तो नहीं है ! फिरभी आँखें फाडफाडका देखता रहा । क्या देखा कि उस काले आदमीने दण्डवत् प्रणाम करके वहाँकी मिट्टीमें लोटपोट होनेको आरम्भ किया । फिर वह वहाँकी मिट्टी अपने बदनपर मलने लगा । घिसते - घिसते आधी रातमें उस धूलसे उसका शरीर चंद्रमाके जैसा चमकने लगा । इतनेमेंही एक सुंदर विमान उतरा और उसमें बैठकर वह आकाशमार्गसे चला गया ।
ब्राह्मण बडा आश्चर्यचकित हूआ कि आखिर यह सब क्या मामला है ! उसकी उत्सुकता बढी और उसने दूसरे दिनभी जागते हुये हालात देखनेका निश्चय किया । .दूसरी रातमें चुडेल जैसी एक कालीकलूटी औरत वहाँ आयी और उसीतरह वहाँकी  धूल अपने बदनमें घिसनेके बाद स्वर्गीय परीके समान चमकने लगी । वह भी विमानसे चली गयी । . . . तीसरी रातमें वैसीही दूसरी बाई ( स्त्री ) नजर पड़ी और उसकीभी वही हालत हुई । अब चौथी रातमें उसने पूरा पता लगानेका निश्चय किया और जो पुरुष वहाँ आया था वह जब विमानकी तरफ बढा तभी उसके पैर पकडकर ब्राह्मणने कहा - महाराज ! कौन है आप ? | वह पुरुष हँसा । उसने ब्राह्मणकी पीठपर हाथ फेरते हए कहा 


 -७- तीर्थों का तीर्थ - *सत्संग और कर्मठता *।
                    ( ता . २८ - ८ - १९३६ )
 उपासकों ! मेरा पूर्व विषय यह था कि सत्कर्म या सत्संग करतेवक्त दिलमें विकल्प या कुविचार हो तो वह आगे नही बढने देता । शुद्ध मनसे कर्मधर्मका आचरण करनेवालाही अधिकार पा सकता है । द्वेषकामादि विकाररहित , श्रद्धायुक्त और शांत हो तभी सत्संग , संतसेवा या सत्कर्म फलप्रद हो सकते हैं । जिसकी वृत्ति स्थिर न हो , सैंकडों सांसारिक


विषयवस्तुओंमें भटकती हो , वह पुरुष तीर्थधाम , मंदिरगुंफा या संतसंगमें घण्टों बैठकरभी रंचमात्र लाभ नहीं उठा सकता । वैसे तो सत्संग का एक एक क्षणभी लाभदायी होता है ; परन्तु चंचलचित्त पुरुषको वह ऊँचा लाभ नही मिल सकता ; जो निर्मल - निश्चल वृत्तिवाला पुरुष पा सकता है ।
सत्संगही क्या , समाधिमें भी चित्तशुद्धिरहित पुरुषको सच्चा लाभ मिलना - मनुष्यको असंभव होता है ।
मतलब यह कि सबसे पहले हम लोगोंको दुष्ट विकार , सांसारिक वासनाएँ आदि जरूर छोड देनी चाहिये । क्योंकि इन संसारकी वस्तुओंके लिये कि साथ तुम जितना हँसोगे उससे हजारगुना तुम्हें आखिर रोना पडेगा । और रणपरभी इन तुच्छ विषयोंसे मुँह मोडकर तुम निर्मल चित्तसे जितनाही सत्संग और सत्कर्म करोगे , उतनाही सच्चे सुख का मार्ग तय कर सकोगे । 
सदाचार - सत्कर्म और सत्संगसे चित्त शुद्ध होता है , लेकिन उसमेंभी विकल्पोंसे बचना निहायत जरूरी होता हैं । कामक्रोधादि विकार , तुच्छ कामनाएँ , झूठे हठ इनको हटाते रहना आवश्यक होता है । अपने कर्मपर विश्वास हो , नियमोंका हठ हो , लेकिन इनका रूपान्तर अभिमानमें नहीं होना चाहिए । मेराही कर्म उचित या मेरीही रीति श्रेष्ठ है ऐसा आग्रह या अहंकार उपयुक्त नहीं होता । वह निश्चयतकही मर्यादित हो और उसके साथ तारतम्यदृष्टि अवश्य हो । नही तो कर्मसे कर्मनिष्ठा नहीं - कर्मठता आती है । वक्त खाली कर्मठतासे उद्देश्यको हम भूल जाते हैं , जिससे महान हानि होतो है । 
दृष्टान्त सुनो ! एक बडा कर्मठ ब्राह्मण था । वह गंगाजीके किनारे रहता था । उसका व्रत था कि बिना गंगाजलके वह किसीभी कुए - तालाब - पोखर आदिका जल नही पीता था । एकबार उसे गाँवसे बारह कोसकी दूरीपर
किसी कामसे जाना पड़ा । वहाँ गंगा नही थी । दो दिनतक वह पानीभी नही