मेरी जापान यात्रा
 *यात्राशिमिझू शहर* 
दिनांक २२ जुलाई १९५५


 *सुबह हो गई।* 
रात के नौ बजने के बराबर सोये हुए लोग एकदम जाग गये।
अभी यहाँ चार बजे है। बस घंटी बजने की ही देर, अब वे दौडे। कोई
कहाँ, कोई कहाँ काम को बटोरने दौडे।
किसी पर अपनी रहनसहन का बोझ नहीं। सब मिलके-कोई गद्दियाँ
उठाता, कोई मच्छरदानी निकालता, कोई मुँह धोने पानी देता, कोई स्नान
को पानी देता। अपनी बताई हुई सेवा को बिना जमादार के, खुशी से कर रहे है I
बस सबका हाथ-मुँह धोना हुआ। कमरे में आये। धोकर रखे हए अपने
ठीक कपडे को पहने और चले प्रार्थना में! जैसे कवायद करने जा रहे है। बड़ा
उल्लास!लडकियाँ और लडके... चाहे बडे हो या नौजवान, उल्लास बराबर!..
छोटे बच्चे को पीठ से बांधकर माँ चली है।....
प्रार्थना मंदिर के महाद्वार पर अपने आप जूतों की बड़ी सुंदरता से लैन 
लगाई है I


मेरी जापान यात्रा
 *यात्राशिमिझू शहर* 
दिनांक २२ जुलाई १९५५


 *सुबह हो गई।* 
रात के नौ बजने के बराबर सोये हुए लोग एकदम जाग गये।
अभी यहाँ चार बजे है। बस घंटी बजने की ही देर, अब वे दौडे। कोई
कहाँ, कोई कहाँ काम को बटोरने दौडे।
किसी पर अपनी रहनसहन का बोझ नहीं। सब मिलके-कोई गद्दियाँ
उठाता, कोई मच्छरदानी निकालता, कोई मुँह धोने पानी देता, कोई स्नान
को पानी देता। अपनी बताई हुई सेवा को बिना जमादार के, खुशी से कर रहे है I
बस सबका हाथ-मुँह धोना हुआ। कमरे में आये। धोकर रखे हए अपने
ठीक कपडे को पहने और चले प्रार्थना में! जैसे कवायद करने जा रहे है। बड़ा
उल्लास!लडकियाँ और लडके... चाहे बडे हो या नौजवान, उल्लास बराबर!..
छोटे बच्चे को पीठ से बांधकर माँ चली है।....
प्रार्थना मंदिर के महाद्वार पर अपने आप जूतों की बड़ी सुंदरता से लैन 
लगाई है I


मेरी जापान यात्रा
. अंदर जाकर बराबर एक शिस्त में बैठे... गुटनों पर एडी ऊँची
कर... सिर झुकाकर नमन करते हुए।

        सूचक आता है। आगे बैठकर प्रार्थना करने लगता है। बराबर उसी
स्वर में, तदाकार होकर हो रही है प्रार्थना! कोई अब किसी को पर्वाह नही
! जब तक प्रार्थना चलती है, कोई भी आवो, चाहे अपना हो या दुसरा ।।

.... बस हो गई प्रार्थना।।

प्रेसिडेंट (अनानाईकों धर्मसंस्था का अध्यक्ष) प्रार्थनावालों के तरफ
झुककर नमन करता है। साथ ही सब नमन करते है।
... अब उठे सब। अपना लकडे का खडाव पहनकर चले। जो भी
मिलता है उसको खडे से सिर झुकाकर नमस्ते करते जा रहे है। छोटा बडें
को, बड़ा छोटे को ! इनके सिर को तो फुरसत ही नहीं। जो देखा कि सिर
दोनों ने झुकाया।

अब गये अपने कमरे में।

... फिर चले नाश्ता करने। बिलकुल पौढे लगे हैं और नास्ता आ रहा
है। चपल, नौजवान, लडकियाँ देखने में अति संदर, धूभरी परोसगारी कर
रही है।
... अब बैठे। बाते करते जाते है : हँसते जाते है 

और नाश्ता करते
जाते है।

... अब हुआ नाश्ता I चले कमरे मे |


मेरी जापान यात्रा
अब निकले सफाई करने जो बची हुई है। हाथ में बडी सुंदर कूँची का
झाडू। किसी के हाथ कपडा, किसी के पास पानी, किसी के पास झटकने की
लकडी को बांधा छोटा कपडा। 

बस टोली टोली से घुसे किसी प्रार्थना मंदिर में, सभागृह में, कमरे में,
संडासघर में, स्नानघर में। हर चीज को धूनसे पोछ रहे हैं। वहाँ का एक एक
खंबा, लकडा, दीवार, खिडकी के दरवाजे... ऊँचे और छोटे, सब कुर्सिया,
टेबल हर चीज पर हाथ घुमाया जा रहा है। माने उसको पॉलिश किया जा रहा।
है। चमक रहा है वहाँ का कणकण और सारी वस्तुएँ।

.... अब फिर लौटकर चल
अपे कमरे में |

हाथ धोये। सफाई के कपडे पर दाग न पडें, इसलिए एक सफेद कपडा
बांधा था, उसको उतार लिया।

.... अब चले कोई खेती में काम करने, कोई सीखने को, कोई रसोई
को, कोई ऑफिस को, कोई उद्योग को, कोई पढने को। सब अपने अपने
काम से लगे है। किसी को किसी के पास फालतू बैठने को फरसत नहीं है।
चाहे मालंक हो या नौकर।

..... पता नहीं चलता कि मालक कौन और नौकर कौन ? सबका
ड्रेस बराबर। सबका आदर बराबर।

किसी के पास बड़ा दफ्तर तो किसी के पास छोटा! सारे ऑफिस में,
सभाघर में, सब कमरों में टेलिफोन लगे है।.... यह सब परस्पर को बडे पूरक।

.... अब ग्यारह बजे। भधाभध अपने स्थान छोडकर भोजन को निकले।
ऑफिस को बंद करने का कुछ काम नहीं...


मेरी जापान यात्रा
.... सब मिलकर परोसकर रखते है।

         सब मिलकर खाना खा रहे है। भले, उमदा फल रस से लबालब भरे
है। एक एक सेब, हमारे इधर का खरबूजा। एक एक टोमॅटो हाथ में नहीं
समाता। हर प्रकार की चीजे, मगर बडी से बडी। मानो वे भी बड़ी प्रसन्न है।
जैसे आदमी और स्त्रियाँ लाल, वैसे फल लसलसे हैं। ... सबके पास धर दिये
है।... अपने हाथ से काट रहे हैं। खा रहे है। हँस रहे हैं। कोई मच्छी _ माँस खा रहे है। डबलरोटी- वीजीटेबल।

... अब उठे। सब अपना और साथियों का बर्तन उठाके ले चले धोके
नल पर बड़ा ठंडा पानी। वेग बड़ा पानी में । बर्तन को उंगली लगाने का
नहीं। जहाँ नल पर धरा कि साफ।
बस, चले लौटकर अपने काम को! कोई खेती, कोई ऑफिस । खेतों में।
तो बैल का काम ही नहीं। जोरू और मर्द छोटे छोटे टुकड़ों में अपने ही हाथों
से बोते है। नल का पानी देते हैं। खाद देते है। घर के ही संडास का, मच्छी का
और भिन्न भिन्न तरह का कचरा निकालते है और उसको इतना सम्हालते है।
जैसे घर का लडका हो। क्या क्या उसको मंजा बनाते हैं! नीचे घास डालकर
उसको बढाते हैं। शौक से उसकी सेवा करते हैं और फसल निकलने पर पसीने
का निकला धन खुशी से बेचते हैं, खाते हैं और फिर घर को दूसरा धंधा भी ।
करते है।

घर घर में इलेक्ट्रीक के दीये; मगर पंखा देखो तो ग्रामोद्योग काम Iएक
बॉस की फिटभर कमची को आधा फडकाके उसके बारीक तार निकाले और
वे सूर्यकिरण की तरह आधे फैलाये। एक कागज ऊस पर चिपकाया।
डंडा भी वही और अच्छा पंखा भी वही। घर घर में देखो तो वहीं पखां!चाहे
मंदिर में जाओ, चाहे मीटिग में !पंखा मुझे तो इलेक्ट्रिक का नहीं दिखा I


मेरी जापान यात्रा

       उसी तरह कई उद्योग, जो घर घर में हाथों पर चलते हैं। सब घर के लोग
कारीगर! लकडा छीलेंगे तो मकान बनायेंगे। ... हर काम करेंगे।
... बस, बजे पाँच। निकले घर के बाहर। चले स्नान को।
एक एक स्नान-घर में पचासों लडके धडाधड नल का पानी ले रहे हैं और
बदन को मल रहे हैं। कोई नंगे, तो कोई पहने। लडकियों के स्नान-घर में।
लडकियाँ भी वैसी ही। उनमें पहिचाना ही नहीं जा रहा है कि कौन किस दर्जे
की हैं।

.... बस, हुआ स्नान। अपने जापानी ढंग की पतली और कफनी जैसी
पहनी कि आये कमरे में। कमरे में अपना लिबास ठीक किया कि चले प्रार्थना
में। जो मिले, सिर झुका रहे है। उसी तरह परस्पर का आदर भी बड़ा है। हर।
बात में धन्यवाद ! हर जगह में आदर, सबसे बात नम्रता की!
कोई किसी के कमरे में जायेंगे तो एकदम नहीं घुसेंगे। पूछेगे, " क्या मैं
आ सकता हूँ?" घरवाला कहता है-“आइये घर आपका ही है।" पहले
दोनों वंदन करेंगे और फिर इतने धीरेसे बोलेंगे, जैसे पती-पत्नी बात करते हो।
बडा प्रेम, बडी सरलता, बडा आदर, कुछ महत्व की बात हो तो बडी गंभीरता
से सोचेंगे और निर्णय लेकर फिर वापस जाते समय सब स्वयं झुकेंगे और
निकलेंगे।

       अंदर के जुते दरवाजे तक ! बाहर जाने के जुते अलग। अत्यंत साधारण
लकडे में एक निवास लगाकर चप्पल बना लिया और चले। वैसे ही संडास के
अंदर के जुते (अर्थात खडाव) अलग। वे बाहर नहीं आयेंगे। बाहर के आदमी
को किवाड बजाने की जरूरत ही नहीं! पता ही चलता है कि कोई अंदर गया है |


मेरी जापान यात्रा
..… बस, अब हो गयी शाम l शाम को भोजन उसी तरह जैसे दिन में I

फिर चले घूमने  घाममे जैसे कबूतर जोडी जोडो निकलते है I बडे सुंदर दिखने में I मुख हमेशा हँसणेवाला बाल सँवारे हुएl कोई बगीचा जाये, कोई पहाडो में जाय I वॅहा क्यों किसके साथ बोली? यह सवाल ही बडे प्रेम से पति रहते भी दुसरे मित्र से वह हँसेंगी जैसे एक कुंटूब के ही लोग है |

......बस, चले वापस अपने कमरे में ! बडा सुदंर कमरा!से बिछाया हुआ। उसकी बारीक रेशा से बना हुआ मुलायम I
बिकाया है। उसे मुलायम | उसके नीचे तनस बिछाया है!  उसे मुलायम बनाकर ऊपर चटाई मढा दी है, जो बार बार निकालने का काम न पड़े।....अति स्वच्छ कमरा | कमरे में क्या धरा है,
दिखेगा नहीं। हर तस्मे में एक कमरा I उसको फ्रेम बनाकर पुट्टेसे मढाकर
खिचकने का दरवाजा बनाकर हर सामान ढॅंका दिया है I बाहर एक छोटा सुंदर टेबल, जो एक फिट का ऊंचा, चार फिट लंबा और ढाई फिटका चौडा, पॉलिश किया हुआ, ऊपर  एक चद्दर Iचारों और डे़ढ फिट की गद्धियाँ,आसन जैसे मुलायम वस्त्र डालकर रखी हैं। कोई आवे तो उस पर बैठIउसी टेबल पर अपनी जरूरी की फैटर, पॅड, पेन्सिंले और खुबसुरती के लिए एक
फुल की डंगाली रखने की काँच की चीज और वाद की चीज Iबाजु में कोई
परदेसी बैठने को दिक्कत जाती है तो एक-दो कुर्सिर्याँ। दीवारे बड़ी सुदंर I ऊँचाई सात फीट। ऊपर लकडे की पट्टीयाँ बिछी । अति स्वच्छ ।

.... एक प्रार्थना भवन, जिसको खाली रखा है। एक भगवान बुद्ध की
या किसी भी बड़े संत की तस्वीर ! फिर अंदा सब सामान !

.... अब वे सोने की तैयारी कर रहे है। एक कमरे का परदा खोला की है
उसमें पुरे कमरे की मच्छरदानी। चारों कोने में तानने को एक एक निवार
हाथ से बनाई रस्सी... उसको एक लटकन।


मेरी जापान यात्रा
.... अब वे सारे तानने लगे। पूरे *हॉल में एक ही मच्छरदानी लगाई। ..
बस पतली गद्दिया, स्वच्छ रखी हुई निकाली और पटपट बिछाई। ऊपर
चावल का भूसा भरी हुई सिरहानी। चद्दर रखी है। सोने के कपडे वहीं जो पैरसे
लेकर पूरे अंग में फंसे ऐसी कफनी कोट की तरह पतली पहन ली। औरत हो
या मर्द। बस अपनी अपनी रूम में सोये. दीया बंद है। दरवाजे खले है। एक
छोटे बल्ब वाली बत्ती जल रही है, जो अति शांत है।... बस व्यक्ति सबको
बोलंगे *गुड नाईट* (ओयासुमी नासाई) ओर सो जायेंगे। जापान में उसे कहते
है ?* नेरू* याने सोना।

बस् चारो और शांति । कोई किसी की नींद को खतरा नहीं करेगा चाहे ।
शहर क्यों न हो। ... सोने के समय बंद .... । स्मशानशांति फैलेंगी।

मित्रो !

मैने देखा; सोचा कि यह आदत उनको कितने दिन सिखाने से आई
होगी? मेरा तो यह ख्याल रहा कि वहाँ के नेता, धर्मगुरु और जवाबदार लोगों
ने पहले आदतें शुरु की होंगी। तभी तो सारे लोगों में फैली हैं। नहीं तो सबकी
उडानेवाली यही तो होते है जो बड़े कहे जाते हैं। वे, छोटे लोग करें तो करने
नहीं देते और खुद भी निकम्मे रहने से कर नहीं पाते। इसलिए यहाँ तो उन्ही के
दिल में पहले आया होगा। तब तो ये सारे लोग बम के जरिये नष्ट हो जाने पर
भी उतने ऊंचे उठे है कि पता ही नहीं चलता किसने इनको बिगाडा होगा !

छोटे-छोटे घर । छोटी-छोटी खेतियाँ। मनमाने पानी। समुद्र का साथ।
अन्न की पूर्ति के लिये मच्छियाँ या और भी कुछ प्राणी ! मैं उनसे पूछना
चाहता था कि,* क्यों भाई, तुम मच्छियाँ क्यों खाते हो* लेकिन पहले
पूछा कि, कहो, अगर मांसाहार देश में बंद करें तो अन्न की पूर्ति होगी?
तब एक ने कहा कि, महाराज, लोग भूखे मरेंगे। क्योंकि इतना अन्न हमारे
देश में नहीं होता। तब तो मुझे चुप रहना पड़ा।


मेरी जापान यात्रा

समुद्र के किनारे में सुदर पर्वत, विशाल वृक्ष और रंगमरगे फूलों से भो।
कितमा मनमोहक दृश्य है यहाँ का । मगर ये सब लोग उद्योगी है। इसलीए 
शोभा देता है। अगर ये लोग निकम्मे होते तो ये सब पर्वत और वृक्ष खाने को दौडने और यह समुद्र अपना विशाल मुख फैलाकर बैठता कि." आओ,
उद्योगही को मैं खाला हूँ।

... इस सुंदरता को कोई समझताही नहीं। तब तो सुंदरता का क्या
मतलब? भाई, आदमी जब चिता से निश्चित होता है, अन्न से , कपडे से, घर
से, शिक्षण से, आदर से जब उन्नत होता है तब ही ना सुंदरता का अनुभव
करता है। नहीं तो एक बीमार या भूखे को, या उद्योगहीन,कफल्ल को कहों
कि, “कितना सुंदर समुद्र और यहाँ की फूलभरी
क्यारीयाँ है I तब वह
कहेगा कि, “चुल्हे में डालो तुम्हारी सुंदरता। हमें तो पेट की पडी I आपको
तो सुंदरता दिखती है।"

में यह इसलिए कहा रहा हूँ कि, उद्योगशील देश ही सबका लाभ लेता
है और वह लेना लाजमी है। फिर भी चीज की कोई विशेषता तो होती ही है।
उसे कौन छिपायेगा? इसलिए मैने यहाँ का वर्णन किया है।

.... अब मैं यह सोच रहा है कि यहाँ के लोग अलग अलग प्रार्थना का ।
मंदिर और संप्रदाय क्यों नहीं बना बैठे है? तब मैने देखा कि, इनकी सबकी
दृष्टि राष्ट्रनिर्माण में ही अधिक लगने के कारण पंच और पक्ष में इनका ख्याल । कम गया। नहीं तो इनमें भी समझदार लोग कम नहीं है। अच्छे अच्छे विचारवान ।
है। बडी गंभीरता से सोचते रहते है। मगर जो एक दफा किसी ने आदत का
पहलू डाल दिया और उनके तत्व सब को मंजूर हुए, बस उसी के तरफ झुक गये। अब नये ढंग की उनको जरूरत नहीं लगी। और उनमें है भी कुछ पंथ,
मगर वे सिद्धान्त के है। ऐसा रहने से माला के लिए, तिलक के लिए और देवता


मेरी जापान यात्रा 

के लिए झगडे नहीं होते । वे अपना कार्य उन लोगों के तरफ सौपे है जो इसका विचार करें । वे धर्म को अपना बेपार नहीं मानते और न मानना चाहिए । ये धर्म भी राष्ट्र की तरक्की ही सोचता रहता है । इसलिए राज्य और धर्म एक साथ चलते हैं । मैं यह अभी तक पता नहीं कर सका कि धर्मनिर्णय से राज्य चलता है या राज्य के नीचे धर्म की नीति चलती है ।

. . . अगर सच्चे धर्मनिर्णय से राज्य चलता तो युद्ध की तैयारियाँ नहीं होती और यदि तैयारियाँ नहीं करते तो दूसरे भी इनके ऊपर बम नहीं डालते । क्योंकि जब पता चलता था कि ये द्रोह के लिए तैयार नहीं होते तब उन पर बम क्यों डालते ? अगर ऐसा रहता तो धर्म के सच्चे अर्थ का भी इनको पता चलता । मगर ये धर्म राज्य के हाथ जाने से इन सबको तैयारी करनी पड़ी और फिर सवाल आया कि ,  तुम बडे कि हम ?  अब यह सवाल दूसरा हो गया । मेरा तो कहना है कि जहाँ का धर्म अपनी धारणा के सिद्धान्त को भूल जाता है वहीं राज्य के मार्फत से चलता है और धर्म अलाहिदा और राज्य के निर्णय अलाहिदा होते तब तो सिर्फ लडना ही रहा जाता है । फिर शांति का कही और किसी को ठिकाना नहीं लगता है । . . . इसलिए ये लोग बड़े परेशान है ।

       यों तो इनकी दिनचर्या अपने देश के लिए अति सुंदर है । बड़े उद्योगी लोग । आदमी तो है ही मगर लडकियाँ भी बडी चपल । मैं तो देखकर आश्चर्यचकित हुआ कि इतनी कोमल बदन की और इतनी शान से अति सुंदर लडकियाँ इतना कठोर काम कैसी करती है और कितनी दिलचस्पी से लगी रहती है । जैसे कि उन्होंने उन लोगों की सेवा करने की स्कूल में शिक्षा ही ली हो । बूढों को साथ हो या नौजवानों के साथ , उतना ही प्रेम , उतना ही अदब , उतनी ही चपलता । . . . सबके लिए ।


जापान यात्रा
 
 *शिमिझू शहर*             दिनांक २३ जुलाई १९५५



बस् , परिषद का दिन निकला । सबके पास खबर पहुंच गई कि मेरा भाषण पहले होगा । फिर लगी देखने की धूमधाम । झुंड पर झंड ! दूसरे देखें , क्योंकि मुझ से बोल तो नहीं सकते थे । लेकिन देखते ही दिल बड़ा प्रसन्नसा दिखता था उनका ; क्योंकि मेरे इतना ऊंचा पूरा पहलवान और लंबी मूंछवाला सीधासादा कपडेवाला मै ही अकेला वहाँ था ।

         आज नौ बजे मुझे जानेके लिए बुलावा आया । पहले उनकी प्रार्थना मंदिर में अनानाई क्यों धर्मसंस्था के संस्थापक ( फौंडर ) श्री नाकानो का जन्मदिन था , इसीलिये प्रार्थना को हम गये । 

. . . बस् , अपनी अपनी कतार में बँडबाजावाले । प्रार्थना के पुजारी की भी एक लैन । वहाँ का अध्यक्ष भी अपनी शानदार ड्रेस  में । आम जापानी अपने खडाव जैसे जूतों को लैन में बाहर लगाकर अंदर बैठे थे । बड़ा कड़ा अनुशासन । जरा भी चूं चाँ नहीं ।

आते ही बाजू में हम सबको कुर्सियों पर बिठाया गया । उनकी । पूजा शुरू हुई । एक एक सामान को एक आदमी कवायत के ढंग पर भगवान ।
१०


मेरी जापान यात्रा 

और माता - पिता के स्थान पर और गुरू की परंपरा के स्थान पर रखता जाता है । एक सूचक सूचना करना है , तो बराबर उसी ने उठकर काम करना है ।

        हमने भी वैसे ही मंदिर में शुभ कामनाओं के साथ कुछ हरी डंगालियाँ ( Offering ) चढाई ।
 उनको बड़ी खुशी हुई ।

       यह प्रार्थना संस्थापक * नाकानो के जन्मदिन की थी । बाद , वहाँ जापानी लडकियों का पवित्र  डान्स  याने नाच हुआ । बड़ी ही श्रद्धापूर्वक सब लोग उसे देख रहे थे । सुना है , उनका यह रिवाज ही है । उनके  *डान्स * में हँसी मजाक वहाँ नहीं होती है ।

बाद , हम सब लोग बाहर आये ।

फिर परिषद जाना शुरू हुआ ।

* फौंडर * ने ( संस्थापक ) स्वागत का भाषण किया । बाद में मेरे भाषण और परिचय को शुरुआत हुई । अनानाईक्यों की पंचम विश्वधर्म परिषद का उद्घाटन मेरे भाषण से हुआ । मैं हिन्दी में बोला । बाद उसको इंग्लिश में बताया गया और बाद आम जापानी जनता को जापानी में बताया गया ।

       बस् , भाषण होते ही लोगों का प्रेम उमडा । मैं बच्चों की तरह उनके पास जाने लगा । बड़ा प्रेम ! मुझको भी वे एक जापानी ही समझने लगे ।
११


मेरी जापान यात्रा

 *शिमिझू शहर* 
दिनांक २४ जुलाई १९५५



      परिषद का दूसरा दिन ! सबके आग्रह से प्रथम मेरा भजन ! खंजरी । की आवाज शुरू हुई । बेचारे जगह की जगह डोलने लगे । हँसने लगे , नाचने भी लगे । तीन भजन मैंने कहे । मैं समझ रहा था कि ये हिन्दी तो जानते ही नहीं । फिर क्यों लंबा समय लें । भजन बंद करते ही तालियों की बड़ी कडकडाहट हुई ।
और सब खडे होकर कहने लगे , “ और एक ! और एक , महाराज ! ! " अमरिका की एक लेडी प्रोफेसर मिग काझार्ड ऊठकर कहती है , “ मैं नहीं बैठने दूंगी महाराज को । और एक कहने लगाओं ! "

        फिर दूसरे से भजन शुरु हुआ । तीन भजन कहे । पश्चात मेरा भाषण शुरु हुआ । बाद सबके भाषण होने लगे । सभागृह भरके बैठा था । सभी भाई सुशिक्षित !

. . . बस , अब सभा खत्म हुई । मैने देखा , कौन कौन से राष्ट्रों के निशान यहाँ लगे है । करीबन तीन राष्ट्रों के ध्वज इसमें लगे थे ।
 उनमें भारत का ध्वज मान की जगह पर था और बाद सबके ही लैन लैन में थे ।

       उस परिषद ने मुझे बड़े मान की जगह दी । मैं यह हमारे भारतीय । संस्कृति की शान मानता हूँ और श्रीगुरूदेव की कृपा ।
१२


मेरी जापान यात्रा

 *शिमिझू* 
दिनांक २५ जुलाई १९५५


परिषद तीन दिन चली । सुबह नौ बजे से बारह बजे तक , दोपहर को तीन से साढेपाँच तक । कभी छ : तक ।

      जैसे जैसे दिन जाते थे , वैसे वैसे मेरे बड़े ही प्रेमी वहाँ के लोग बने । रोज मेरे जीवन का नया परिचय दिया जाता था ।

. . . अब परिषद खत्म होते ही वहाँ के सेवकों ने और लडकियों ने वहाँ के सारे सामान को मिनटों में उठाना शुरू किया । नौकर नहीं और ठेकेदार नहीं । सब सेवक * अनानाई क्यों * धर्म - संस्था के थे ।
           ---------

 *कियुशू ,*
 दिनांक २६ जुलाई १९५५

......बस , हमारी तैयारी अब कियुशू की हुई । वहाँ से करीबन चार सौ मील वह स्थान था जहाँ हमें सबको जाना था । हमारे जाने के पहले ही हमारा सामान शिझ्युओं का पहुंच गया मालट्रक में ।
. . . हम सब चले । गाडी चलने लगी । क्या स्वच्छ गाडी ! जैसे कांच चमकता है । कहीं कूडाकचरा नहीं । बैठने से लगा कि हम विमान में ही बैठे हो ।
१३


मेरी जापान यात्रा 

अब मेरा ख्याल चला खेतियों के तरफ । क्या सुदंर खेती ! छोटे छोटे टूकडो बंटी है । लैन के साथ ! सब सिंचित । पानी जहाँ नहीं हो , वहाँ भी काश्तकार कंधे पर लाकर डाल रहा है । हर तरह की चीजे । जहाँ जगह मिले वहीं खेती फल और चावल की बहार । बडे बडे फल । लज्जतदार ! काम करनेवाले सिर में टोप लगाये , पैर मे रबड का जूता और मस्त काम कर रहे है । पहाडों को फोडकर भी खेतियाँ की है इन लोगों ने । जहाँ खेती , वहीं घर ।


.. .. बस् अब लगा स्टेशन कि , हमारे विश्वधर्म की पताकाएं लेकर लोग हर्ष भरे डोल रहे हैं । वहाँ के सब लोग मुझे आगे कर देते थे । बडा आनंद उमडता था । मेरा परिचय लोक पूछे और वे जापानी और अंग्रेजी में बतावें । मैं भी अब उनमें घुलमिल गया था । बड़े बड़े स्टेशनों पर वही हाल ।

. . . अब रास्ते में रेल समुद्र के अंदर से जाने का एक सुंदर रास्ता लगा जहाँ से इलेक्ट्रिक ट्रेन करीबन सात मिनट तक बडे वेग से जाती है । हमें बताया गया कि यह जापान के दोनों धुरियों को जोडने का रास्ता है , जिसमें | ऊपर समुद्र है और जमीन के अंदर से रेल जा रही । अंदर बत्तियाँ लगी थी । रेल का झनकार बडे से बजता था । मैने सिर झुकाकर बाहर देखा तब इतना ठंडा लगा कि मैं देख नहीं पाया । फिर भी अंदर मजबूत निर्माण हुआ दिखा । जैसे पुराने कीले की दीवारे हों पत्थरों की । उसमें से रेल बिजली के झकोरे से चलती थी । ( यह रेल होन्शू द्वीप से कियुशू द्वीप को जाती है I)
१४


मेरी जापान यात्रा
 *कियुशू* 
दिनांक २७ जुलाई १९५५


....... अब गये कियुशू । हजारों लोग स्वागत के लिए झंडे हिला रहे हैं और हम नीचे उतर के उनके मुलाकात करते बैठते हैं । . . . बस् , वहाँ भी वही आदतें । इ * अनानाईको * की वहाँ भी एक बड़ी शाखा । . . . . यहाँ का भी बडा सुंदर दृश्य था । . . . वहाँ का भी ।

          हमें सबसे ऊपर के कमरे में उतारा था । बडी हवा वहाँ ! अतराफका दूर का नजर पडता था । अतराफ के सारे समुद्र , पर्वत ! सूर्य के सुनहरे किरण समुद्र पर पड़ते थे । सारा जल एक सुन्ने की खदान के माफिक लगता था । बड़े सजीले वृक्ष ! . . . .

  . . . हम वहाँ पहुंचे । . . . अब उस दिन हमें आराम . . . । छः बजे उनका हमारा भोजन . . . T . . . वही हाल भोजन का । सभी पदार्थ हैं उसमें । मांस , मच्छी , अंगुर की शराब , अंडे और हमारे लिए * वीजीटेबल *का सामान । हर तरह की साग । बडी सुंदर ! टमाटर , ककडी , सेब , संतरे का  ज्यूस  ( रस ) , खरबूजा , टरबूजा , डबलरोटी , केक , मक्खन ! लेकिन हमें तो उन्हीं के साथ अपना खाना पड़ा । हमने खाते समय उनके आग्रह से थोडा भाषण भी दिया ।

       आम तरह से उनमें यह भोजन चलता है । मगर जैसे और शराबी दूसरों को पकड़ के शराब पिलाते और अंडे खिलाते हैं , वैसे यहाँ हमने बिलकुल नहीं देखा । जो तुम्हें चाहिये वह लीजिये ।
१५


मेरी जापान यात्रा
 
*कियुशू ,* 
दिनांक २८ जुलाई १९५५






. . . मेरा आज भाषण और परिचय ! उसके पहले खंजरी का भजन ! भजन शुरू होते ही लोग ताली पर ताली बजा रहे थे । हँस रहे थे । बड़ी | चाव से सुन रहे थे । उस दिन मेरा ही भाषण और भजन और उसके अनुवाद में । समय गया ।

       दूसरे दिन फिर सबका । फिर राऊंड टेबल  हुई । मुझ से समाझने पूछा और मैंने उसका उत्तर दिया । प्रश्न भी अजीब थे , महाराज , आप जंगल में कैसे रहे थे ? आपकी माता - पिताने कैसे छोडा ? आप बिना लिखे - पढे । इतना कैसा समझ सकते है ? आपका शरीर तो बड़े पहलवान का है । आप । कितनी देर व्यायाम करते है ? हमारे जीवन को ईश्वर का रास्ता कैसा लगेगा । संसार में भूतबाधाएं हैं कि नहीं ? आपका क्या अनुभव है ? मैंने सब प्रश्नों का । हिंदी में उत्तर दिया और उसका जापानी में ठीक ढंग से अनुवाद किया गया । ।

       कुछ समय निकालकर हम उद्योगधंधे कैसे चलते है , यह देखने को । गये । तब मेरे साथ सेवामण्डल के सेवाधिकारी श्री तुकारामदादा और वहाँ के । संस्था के एक सेक्रेटरी  थे I
१६


मेरी जापान यात्रा

दिनांक २९ जुलाई १९५५



.... अब गये एक बड़े से बड़ा कारखाना देखने को, जहाँ पर हर
रोज के ८० हजार जूते तैयार होकर बाहर निकलते हैं। ... बस्, जाते ही सब
लोग मुझे देखने लगे कि यह बड़ी मूंछवाला लंबा- तगडा भाई कौन है ? मैं तो
सीधा काम से ही निकला और सब चीजे देख रहा था। हजारों लडकियाँ वहाँ।
काम कर रही थी। आदमी बहुत कम थे। एक लड़की के पास मैंने सबको देखने।
को रोका। वह बिना देखे काम कर रही थी। कितनी चपल! इतनी तेजी से वह
काम कर रही थी, माने यंत्र का हाथ हो। मैंने देखा उसको। ऐसा लगा जैसे
किसी राजा की महारानी हो देखने में; मगर एक कारखाने में बिजली जैसी
काम कर रही है। ... प्राय: सभी लडकियाँ उसी तरह काम करती थीं।


       हम एक घंटा सब देखकर लौटे। सबको धन्यवाद दिया। वापस
आते समय सेक्रेटरी से पूछा,  यह किसका कारखाना है? तब उन्होंने
बताया कि, यह सबके शेअर्स लेकर सहकारी तत्व के आधार पर बनाई हुई
कंपनी है। प्राय: यहाँ जापान में जितने उद्योगधंधे चलते है, बस सहकारी
योजना से चलते हैं। कुछ खेतियाँ भी चलती हैं; मगर बहुतेरे लोग खेती का
काम अपना अपना ही करते हैं।

... हम अब वापस अपनी जगह आये।
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मेरी जापान यात्रा



जापान -चित्रावली






शिविझड़े आङ्गोजित 
विश्वधर्क परिषद का उद्घाटन श्री ऋहाराज अपने
भावपूर्ण भजनद्वारा कर रहे है।
१८


मेरी जापान यात्रा
जापान-चित्रावली





खंजरी बजाने के प्रङ्गत्नशील वंदनीय माहाराज के साथी। प्रो.काझर्ड
भी खंजरी बजा रही है।

१९


मेरी जापान  यात्रा
 दिनाक ३० जुलाई १९५५
 *ह* मारी क्यूटो की तैयारी हुई।

   ... यह बड़ा भव्य

 विशाल शहर है। यह पुरानी राजधानी की जगह
है।... हम रेल से उतरते ही स्वागत हुआ।... चले!.... एक बस में बैठकर
चले। उस बस में जापानी लडकी बस चलने पर एक छोटा मायक्रोफोन लेकर 
बोलने लगी। सुना-वह उस मोटर की व्यवस्था के लिये ही रहती है। बस में वह
गाना कहें, हम सुनें। हमारा शहर कैसा सुंदर है, कौन से रास्ते कहाँ जाते है ,
कौन-कौनसी जगह देखने के काबिल है बता रही थी। ... हम सबका स्वागत
करती थी, कहती थी, *आप सब यहाँ आते हमें बड़ी खुशी हुई। हम आपका
स्वागत करते हैं। हमारे शहर में आप घुमिये। हमें विश्वधर्म परिषद का संदेश
देकर जाइयेगा।* यह कितनी  सुंदर व्यवस्था है कि सब लोग चाहे अलग
जगहों के हो, मगर ये अपने शहर के मिजवान मानकर बड़े सुंदर शब्दों में बोल
रही और प्लीज * प्लीज* (डोजो-डोजो) बोलकर बैठा रही है।

    ... हमको मात्सुकीची होटल में व्यवस्था के साथ उतारा गया,
जहाँ अलग अलग राष्ट्रों के अनुसार कमरे बनाये हुऐ हैं। ईस्टर्न और वेस्टर्न
पद्धति के। जापानी, अमरिकी, अंग्रेजी और भारतीय व्यवस्था के। उनमें सभी
रहनसहन वैसीही चलेगी। हम जापान में आये हैं तो जापानी व्यवस्था के कमरे
में ठहरना ही मुनासिब जान पड़ा।

यहाँ सुभाषचंद्र बोस की सेना के कमांडर से भी मेरी मुलाकात हुई।
बहुत ही अच्छा लडका था वह। इसी तरह कियुशू में भी मैंने एक मीटिंग
 
२०


मेरी जापान यात्रा

नौजवान लड़कों और लडकियों की ली थी। उनके प्रशनो का जवाब दिया I
और उनका ताल्लुक सेवामण्डल के साथ जमा दिया।

         उन्होंने पूछा कि, "क्या भारत में और भी ऐसे सेवक है जो अपनी
विश्वधर्म की भावना के लिये अपना जीवन अर्पित किये हुए हो?" मैने कहा।
कि, "सबसे ज्यादा लोग तो भारत में ही आपको मिलेंगे जो धर्म के लिये
अपना घरबार छोडकर घरघर में घुमते हुए मानवता, अहिंसा और सेवाभावना
का प्रचार कर रहे हैं। यों तो पुराने भी बहुत सारे साधुवेषी वहाँ इसी दृष्टिकोण
से घूमते थे, मगर वे अब कट्टरपंथी बन गये हैं। उन्होंने अपना धर्म राष्ट्रीयता से
अलग मान रखा है। वास्तव में ये पुराने सम्प्रदायवादी लोक तत्त्ववादी कैसे
बनेंगे, राष्ट्रीयताही सही धर्म और सेवा ही उसका मूलमन्त्र है यह किस प्रकार
कहेंगे, इसी काम के पीछे हम पडे हैं।" ऐसे कई प्रशनो के उत्तरद्वारा मैंने उनका
समाधान किया।

       ... हम जिस जापानी कमरे में ठहरे हैं, वह बडा ही साफसुथरा और
अन्य सभी कमरों से हम अच्छा समझते हैं। इसका एक कारण और भी है।
इस कमरे को देखकर मुझे पूज्य महात्मा गांधी की याद हो आती है। १९३६ में
जब मैं सेवाग्राम ठहरा था तब वहाँ भी इसी तरह की चटाइयों के जरिये उन्होंने
अपना सादासा कमरा सजाया था। उस वक्त वे भी ऐसेही जापानी पद्धति के
खडाव पहनते थे और छोटीसी गद्दी बिछाकर बैठेते थे।

         हम कमरें में ठहरकर साँस ही ले रहे थे कि वहाँ के सेवकों ने दूध,
कॉफी, फल आदि की तुरंत व्यवस्था की। खैर, खाना तो सभी जगह मिलता
है, मगर उनके देने का ढंग कुछ अलग होता है और इनके देने का ढंग कुछ
और ही है।

२१


मेरी जापान यात्रा
बस, मैंने दूध ले लिया और स्नान करने चला गया। वहाँ से आकर भोजन
किया और जरा सो गया। इतनी शान्ति से सुलाया उन्होंने कि क्या कॅहे। वहाँ
के आदमी जरूरी के वक्त भी बहुत धीरे-धीरे आवाज करते थे। जैसा कोई
बालक उन्हीं की गोद में सोया हुआ हो।

       सोकर उठा और लिखने बैठा। तीन-चार लेख लिख डाले और यह
सब वृत्तान्त भी लिख रहा हूँ। अब हाल में हम क्यूटों में है। कल यहाँ के सभी
मुख्य स्थानों और भगवान बुद्ध के प्राचीन स्थान को देखने चलेंगे।....
               ------------
 *क्यूटो* ,
दिनांक ३१ जुलाई १९५५



       आज हमें शहर के एक मंदिर का निमंत्रण था। इसलिये दस बजे
हम शहर गये थे। भोजन भी वहीं था। प्रथम हमें एक ऐसी जगह ले गये जहाँ पर
पिछली सन पैंतालीस की लड़ाई में करीब बीस हजार जापानी काटे गये थे |
उनकी याद में एक बहुत विशाल जगह में बुद्ध जैसी आकृति की सौ फिट की
विशाल मूर्ति बनाई है। उस देवता कानाम कुनान है। उसके पीछे एक विशाल
पर्वत है। वह पर्वत सूखा नहीं, हराभरा है। बडा  सजीला, बडा सुंदर है वह!
उसके सामने वह मूर्ति है। अंदर पोली है। उसमें बुद्ध के कंठ की अस्थियाँ  सोने
के एक सुंदर कुंडे में रखी है। इतना गंभीर और मनोहर स्थान है, यह मानो
आदमी का दिल वहाँ से हटने को नहीं होता!

२२


मेरी जापान यात्रा 

उस मंदिर के और उस भुवन के जो अध्यक्ष है . उन्होंने स्वागत उन्होंने सब बताया । . . . .


        बाद , वहाँ की रचना देखी । सारा स्थान बिलकुल सादा मगर को सौंदर्यवान । बनाई काली रेती के कंकर बिच के रास्ते में और सफेद रत के कंकर बाजू के प्लॉट में ! . . . . विशाल मैदान था वह । मंदिर के पीछे जा जापानी मारे गये थे उनकी सूची और उसके चिन्ह हैं । बिलकुल अच्छे ढंग से रखे हैं वे l
 
         उसके बाद , हमें नजदीक ही , जहाँ भोजन दिया जानेवाला था वहाँ लाये । वहाँ भी बड़ी रमणीयता ! बीच में बुद्ध की मूर्ति | चमकदार ! . . . अतराफका शंगार ! . . . उसकी सभामंडप में भोजन को अलग अलग बैठाये । बड़ी देर लगती है इनके सामुदायिक भोजन को ! पहले तो संतरे के फलों में ठंडा बरफ भर के लाया , वह खिलाया । बाद , हम सबका परिचय हुआ । बाद , मेवा जैसी मिठाई आई । वह भी अजीब थी !

       पश्चात् भोजन ! लकडे की टाटी में लकडे की ही कटोरियाँ । और हाथ से खाना नहीं , उसको भी लकडी की दो कमचियाँ । . . . उसी से अब खाना है । वह मैने सीख लिया । . . .

. . . अब चला भोजन !

        मुझे लगा , यहाँ भी ये लोग माँस - मच्छी खाते होंगे , मगर वहाँ बिलकुल नहीं था । वे सब बुद्धधर्मी थे । . . . बडे सेवाभावी ! . . . दिखने में बड़े सुंदर , . . . काली काली पतली कफनियाँ पहने , . . . अंदर सफेद कपडा , . . . सफेद स्फटिक - सा बदन , . . . दुबला दुबला . . . ! वे ही परोसते थे हमें !
२३


मेरी जापान यात्रा

         भोजन में भी अलग अलग रीतियाँ ! हमें तो हिन्दुस्थान में कभी खाने नहीं मिला । मै तो बडा डरता था कि कहीं मच्छीभात या माँ आता है ; मगर कुछ नहीं था ।

    .. ..अब चला भोजन . . . और बातें भी ! . . . हर बात में सिः झुकाओ . . . हर आदमी आया कि सिर झुकाओ ! बेजार हुआ भाई यह सिः झुकान में मैं ! मगर उनको तो वही आदत !
बाद , हमें बुद्ध की एक - एक मूर्ति , उस स्थान की फोटो और उसले इतिहास की पुस्तिका दी गयी ।

     फिर , हम चले बस से !

    सारा शहर घूमे । कितना विशाल शहर ! कितना सौंदर्य भरा ! इस शहर चारों ओर वृक्ष , लता , पर्वत और जगह जगह भगवान बुद्ध के विशाल मंदिरों की राजमहल जैसी शोभा ।

       सारा शहर ही कला से भरा है यह । यह शहर एक म्युझियम ही है । कहीं काले आदमी तो सपने में भी नजर नहीं आये ।


. . . आज का रविवार था । सारे स्कुलों - कॉलेजों को छुट्टी होगी । जग जगह लडके और लडकियाँ के झुंड के झुंड नदियों पर तैरने को , तो मैदानों में खेलने को । लडकियाँ भी खूब खेलती हैं । छोटे छोटे बच्चों को तैरना सिखा देते हैं । . . . सारा शहर जगमगा गया है यह ।

       मैं नीचे उतरा कि लोगों की भीड देखने आती थी । लोग पूछताछ . . . . करते थे ।

. . . . बस् ! देखते देखते हम अपनी जगह आ गये । शहर की गल्ली  गल्ली बस में घूम आये । . . .
२४


मेरी जापान यात्रा

. . . . इतने विशाल मंदिर तो भारत में भी बहुत हैं मगर यह ढंग नहीं है । . . . . ज्यादा मंदिर लकडे के है । मगर इनका ढंग अच्छा दिखता है |

         इस शहर पर भगवान बुद्ध की बड़ी छाप पड़ी है । मुझे तो लगता था कि भारत में इस महापुरुष ने जन्म लिया , मगर सारा क्षेत्र इस जापान में ही रख गया है । कितने लोग इस महापुरुष को मानते है । मैं देखकर चकित हुआ हूँ । भारत में सबसे अधिक मानवता का प्रचार बुद्ध ने ही किया होगा , मगर समय बदलते रहता है । आज वहीं कुछ लोगों ने विपर्यास कर दिया है । ऐसा तो होता ही है । जब आत्मवान पुरुष जाता है , तब उसके चलानेवाले उतने ही होंगे ऐसा नहीं होता । इसलिये मैं कहता हूँ कि मार्गदर्शक आने दीजिये मगर उनका पंथ ना बनाइये । उससे धर्म में टुकडे बनते है , संप्रदाय बनता है । अब तो भी यह सांप्रदायिकता बनाना और बढाना दूर करके मानव उतना एक और उसके सिद्धान्त विश्व के तरफ जाने के और विश्व को सजाने के रहने चाहिये । मनुष्य गाँव के लिये , गाँव प्रांत के लिये , प्रांत देश के लिये , देश विश्व के लिये सहकारी बनना चाहिये । इनका रास्ता इतना सीधा बनना चाहिये कि कोई किसी के लिए विघातक न हो ।


. . . बस् ! अब मैंने आकर जरा आराम किया । बाद में लिखने बैठा । घडी में बजे हैं छः I

        अब मैं बाल बनाने के लिये नाई की दुकान में गया था । यहाँ नाई घर को नहीं आते । क्यों कि बाल बनाने का उनका ढंग और ही है । . . . दूकान में जाते ही देखा कि यहाँ सब तरफ कांच लगे हैं । प्रसन्न
वातावरण है । करीबन दस - बारह कुर्सियाँ लगी हैं । जगह जगह फुलों की कुंडिया रखी है I...
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मेरी जापान यात्रा

. . . मुझे जाते ही कुर्सी पर बिठाया गया । . . . और झट नाई ने आकर उस कुर्सी को लिटवाया । जैसे मैं सो गया हूँ । प्रथम साबू लगाकर फिर गरम पानी का कपडा लपेटा गया । थोडी देर तक रखा । फिर उसने आकर बाल बनाये । ऐसा लगता था , जैसा यह सिर्फ हाथ ही पोछ रहा हो । इतनी सफाई से चल रहा था उसका हाथ ! . . . झट उसने साबुन से हाथ धोकर एक प्रकार के बर्तन में ठंडा पानी लाया । ऐसा लगा , जैसे सोये आदमी को होश आया हो । अपनी साँस मेरे मुंह पर न पड़े इसलिये नाई ने अपने मुँहपर कपडा लपेटा हुआ था । जैसे डॉक्टर किसी का ऑपरेशन करने जा रहा हो ! उसका उस्तरा जंतुनाशक पानी में उबालकर ही रखा जाता है।

       बाल बनाना होने पर उसने सिर की मालिश की , जैसे सिरपर छोटा यंत्र चलाया हो ! . . . बड़े अदबसे उठाता है और प्लीज * ( डोजा ) करके रास्ता बताता है । नाई का खर्च तीन - साढे तीन रुपये लगता है ।

       आज रात के आठ बजे मुझे एक अंग्रेज प्रतिनिधि और तुकारामजी घूमने ले गये । मैंने सोचा , कुछ अच्छी जगह होगी ; मगर वे लोग टूकानों पर ही ठहरते गये । मैंने कहा ,  चलिये आगे ! * . . . वहाँ की दूकानों को देखा- चारों *
ओर गजब के विज्ञापन और दुनिया भर की चीजे दिखती थी । मगर मेरा दिल नहीं लगा । न तो व्यायाम होता था , क्योंकि साथ में अंग्रेज बुढा था | मैंने जल्दी की I हम लौट आये ।.... मै सो गया I
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मेरी जापान यात्रा 

 *क्यूटोसे मीनो प्रयाण ,* दिनांक १ अगस्त १९५५


 आज दिन मीनो जाने का !

       सारा हॉटेल मेरे लिये बड़ा प्रसन्न ! जैसे मैं उनके घरका ही , उनका भाई या सच्चा मित्र हूँ !

          आज मेरे लिये यहाँ की कुछ लड़कियाँ रूमाल तो कोई जापानी मिट्टी की बनाई गुडियाँ सजाकर दे रही हैं ! कोई हाथ मिलाते हैं । कोई कहते है , “ अब आप फिर कब आओगे ? " मैने कहा , " मेरा आना तो आप के प्रेम पर निर्भर है । यदि ऐसा कोई बडा प्रसंग आप करें तब मुझे बुलाईये । मैं तो सिर्फ पार्टी खाने के लिये पैदा नहीं हुआ हूँ । कम से कम विश्व के लिये मित्र बनने का प्रयत्न तो करता हूँ; मगर मैं तो विश्व का परचिय कर लूँ और मेरा परिचय उसको दे दूँ !"

तब वे सुनकर बड़े प्रसन्न हुये ।

. . . अब हम अल्पोहार करके बैठे हैं । साढे दस बजे बस आनेवाली है । वहाँ के लडके सब सामान बाँधकर दरवाजे के सामने रख रहे हैं । कोई मुझसे मिल रहा है । मैं सिर्फ मेरे चेहरे के भावों से और हाथों के इशारों से ही उनको समझाता था । बीच- बिच में मेरे साथ का सुभाषचंद्र बोस के साथ रहा  हुआ शिवचरणसिंह विरीक नाम का भाई समझा देता था । कभी भाई तुकारामजी समझाते थे ।
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जापान यात्रा

.....बस् अब आई बस ! . . . हम चले ! . . मिस्टर ई. कर्क, लेडी मिस फ्रान्सिस काझर्ड और भी दिगर देशों के भाई बम
में चले I स्टेशन पर पहुंचाने के लिये काफी जनता आई । . . . मुझे देखा और उन्होंने ऊंचे उठाकर हिलाये । कोई झंडे बतान
सकर हिलाये । कोई झंडे बताने लगे , हिलाने लगे । मैं भी उनसे मिलकर रेल में बैठा ।


.....चली रेल ! . . . ११ बजकर १९ मिनट पर ! रास्ते में गोफो नामक शहर में स्वागत हुआ ( २ - २८ बजे )

    बाद , बस से मीनो गये।


 *मीनो* 
दिनांक १ अगस्त १९५५

     अब आये मीनो मे !

       . . यहाँ भी उतरते ही स्वागत ! . . . फिर बैठे बस में ! . . . चले जा रहे हैं । पहाडी में छोटे छोटे देहात लग रहे हैं । बडी सुंदर खेती ! जलाबंब पानी ! सुंदर छोटे गाँव ! बडे सुधरे छोटे - बडे लडके ! कहीं अस्वच्छता और गंदगी का ठिकाना नहीं । न कही जगह है , जो खाली पडी हो ! पाँच फिट का भी टुकडा क्यों न हो , वहाँ भी फल - फूल ! सड़कों के दोनों किनारे बैंगन हैं , कही टमाटर है , तो कही अंजीर है । . . . सारा हरा ही हरा ! उनके ये दिन गरमी के समझे जाते हैं । मगर पता ही नहीं सुखी खेती का । मानो शीतकाल ही चल रहा है I
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मेरी जापान यात्रा
..... कितने इनके घर सजीले है । पैसे तो कम लगे , लकडे तो टेढेटाढे है , मगर सौंदर्य और कला इनके नसनस में भरी है । बिना पॉलिश किया हुआ लकडा भी ऐसी जगह बिठा लेंगे मानो उसकी वहाँ शोभा ही है ! बास की टटियाँ ! कागज चिपकाकर खिड़कियाँ . . . । दरवाजे के लिये संकल का पता नहीं । इधर घुमावो तो सीधा जाता । उधर सरकावों तो सीधा चलता ! मगर बड़ा सुंदर !

. . . बस् अब आये अनानाईक्यों शाखा में ! वहाँ की शाखा नयी ही खोली थी । जाते ही पहले एक छोटी सुंदर टोकनी में एक रुमाल गीला करके रख दिया जाता है । सिर झुकाते जाते हैं । कहते हैं -  लीजिये । आपको गरमी का त्रास हुआ होगा । मुंह पोछिये ! 

.......बाद , संतरे का रस , कॉफी , चाय , जो लगे ले लीजिये ।

. . . . उधर प्रार्थना की तैयारी ! 
. . . . . हम झट् उठे और प्रार्थना में बैठे ।

          बाद , हमें एक सुंदर जगह के हॉटेल में ठहरने लाया । उस जगह को * देखकर तो मै बड़ा आश्चर्य करने लगा । जैसे बदरीनाथ , केदारनाथ है , वैसी ही यह जगह है । उसमें यह हॉटेल पहाडी में है । उसमें प्राकृतिक चीजों से कमरे बनाये हैं । गोल पत्थरों की दीवारें , गोल पत्थरों के रास्ते , सीधे सादे लकडियों के कमरे , मगर संदरता बडी और मजबूती भी बड़ी । सब जगह नीचे - ऊपर लकडे की पट्टियाँ । जहाँ वहाँ नल , संडास , स्नानघर ! सामने बडी नदी । नदी । के किनारे ही एक विशाल नहर ! पीछे विशाल पर्वत ।

. . आज यहाँ आतशबाजी होनेवाली है । रात को हमें भी यहाँ के मेयर ले जानेवाले हैं देखने को । 
२९


मेरी जापान यात्रा

...... बस हमे उसके ऊपर के कमरे में ठहरे । सारा विशाल द्रश्य यस से दिखता है । सबसे ही अधिक मेरे ऊपर प्रेम है इनका ! . . अब मैने देखा कि लडके तैर रहे हैं । झट्र निकला । बड़ा गहरा पानी था । लंबे दूर से लडके कूदियाँ डालते थे । वहाँ मुझसे रहा नहीं गया । मैंने भी एक कूदी मार दी । सारे लडके हैरत करने लगे । . . . देखने लगे । . . . . मेरे मित्र बने . . . .


. . . अब फिर भोजन का बुलावा !
तोरण
. . . सब गये हम ! . . वही भोजन , जो हमेशा उनमें होता है । अंगूर शराब , मांस - मच्छी और शाकाहारी खाना भी टेबल पर रखा हुआ रहता है । जिसको जो लगता उसे लेकर हरेक व्यक्ति बैठता है । . . . जिनको वीजीटेबल चाहिये ये वैसा लेकर बैठे । कोई शराब लेकर खडे हुये और कहने लगे , हमारी परिषद की वह आखिर के रोज की पार्टी है । इसकी सफलता में हम भोजन करने लगे है । " तब मैं बोला , " सफलता शराब में नहीं है ; वह दिल से दिल मिलने में मिली है । अगर खाने - पीने से सफलता मिलती तो लोग और देश आपस में खा - पीकर भी क्यों लड़ते ? हम तो दिल से दिल मिलाने के भोजन कर रहे हैं । भोजन हमारा निमित्त है । साध्य हमारा दिल मिलाना है । "

      तब सब लोग हैसकर खडे हुये और कहने लगे , " व्हेरी गुड ! व्हेरी
नाईस ! "

      यह पार्टी वहाँ के मेयर द्वारा दी गई थी ।

. . . बाद , मेयर आकर हमें आतशबाजी देखने ले गये । . . . एक बड़ी पहाडी में ऊंची टेकडी पर । वहाँ मोटर भी बड़ी धोखे में थी । दोनों तरफ बड़ी खाई , बड़ी गहराई । बीच में मोटर इतनी ही जगह । जहाँ बाजू में आदमी भी न चल सकें ।
३०


मेरी जापान यात्रा मार

... वहाँ सुंदर जगह बनाकर कुर्सिया डाली थी। हम सब बैठे
वहाँ! रात के आठ बज गये थे। सबने नदी के मैदान में अपनी अपनी
आतशबाजी के संघ बना रखे थे। दीपक का शृंगार किया था। ऊंचे ऊंचे
तोरण सजाये थे।

   बस्, चली अब आतशबाजी।

पहले एक छोटी सी आवाज हुई। उसमें से एक तारा आसमान में
गया। वहाँ उसने बड़ी आवाज दी। उस समय प्रखर प्रकाश दिया। उसके
किरण चमकते थे। सूर्यकिरण जैसे! तेजदार फूल मालूम पड़ते थे। उन फुलों
के किनारों पर हरित वर्ण दिखाई देता था। प्रकाश की दो लडियाँ उस तार में
से निकलती हुई दिखती थी।

   .... ऐसा आतशबाजी का अजीब प्रकाश दिखने में आया। मैंने
अभी तक भौतिक जगत् का यह ढंग देखा नहीं था। मुझे चाचरी मुद्रा से
दिखनेवाले प्रकाश के सुंदर भवन का अनुभव है। बस् वैसा उसमें मुझे एकदम
दिखाई दिया। इतना ही कि, इस आतशबाजी में उसका मध्य नहीं मिल
सका। क्योंकि मध्य का गोलाकार नील रंग का पाया जाना मुद्रा में संभव
होता है। और जब सहस्रदल खुलता है तब तो इसके कई लाख गुना प्रकाश
होता है। परंतु वह इतनी प्रखरता प्रकटित नहीं करता; शान्त रहता है।...

   ... फिर भी यह आतशबाजी अति सुंदर थी। हम पर्वत पर बैठे थे।
वहाँ से बड़ा ही रमणीय दृश्य दिखता था!

... मैने एक घंटे तक देखा। बाद, हम पैदल चले आये। रास्ता
" कठिन! पर्वत से उतरना पड़ता था। कहीं कहीं आदमी जाने के लिये
लकड़ी के पूल बांधे थे।
३१


मेरी जापान यात्रा 

बाद आराम के लिये बैठे।

मुझे एक छोटा नमूनेदार घर देखना था। वहाँ से तुकारामजी को लेकर देखने गया I....

      छोटी सी जगह में इतने इंतजाम और इतनी सुंदरता से ये लोग
मकान तैयार करते है। बडा सिंपल ! नीचे भी तकडा, ऊपर भी लकडा!
छोटे छोटे कमरे, ऊपर कवेलू! दीवारों को बाँस का कूड़ा और उसके ऊपर
मिट्टी और सीमेंट लगाकर सुंदर बना लेते हैं... उसका नक्शा मैंने लाया।

       बाद, हम परिषद के समारोप को गये।

       मेरा भाषण और भजन हुआ। यह कार्यक्रम खास कर जाहीर तौर
पर मीनो शहर के मेयर ने रखा था। मेरा भजन लोगों ने बड़ी चाब से सुना।
समाज अच्छा था। चुने चुने लोग थे।

       बस, विश्वधर्म परिषद समाप्त!... आभार-प्रदर्शन!...
बाद भोजन!

     मीनो को सजनों ने हमें जापानी खिलौना दिया। नोटबुक भी दिया।
कलात्मकता है दोनों में !

        आज तक भिन्न भिन्न शहरों में विश्वधर्म परिषद का काम चला।
देखना भी हुआ। अब हम समय पर टोकियो की विश्वशांति परिषद को रवाना
हो रहे है।

         निकलते समय सब लोग बाहर आकर मिले। ... हम छोटी मोटर
में बैठे और वहाँ से टोकियो की रेल पर चले।
३३


मेरी जापान यात्रा 
 *टोकियो* 
दिनांक ३ अगस्त १९५६


      सुबह पाँच- सवा पाँच हुये होंगे, गाडी टोकियो में ठहरी।

       हमने इन लोगों को पत्र दिया था कि, आपको तकलीफ लेने के
काम नहीं है। हम सीधे आ जायेंगे।

.... आकर इंटरनैशनल हाऊस में ठहरे। सब सेक्रेटरी लोग मिलने 
आये। स्वागत के उपरान्त संतरे का रस दिया। .. स्नानविधि करने स्नानगृर
में गये। .... आठ बजते ही अल्पाहार की तैयारी थी। ... भारतीय भाइयों
को हमारा पता लगा था। जलपान के समय वे सब आकर मिले..... नई 
परिषद के लिये आये हुये प्रतिनिधि और दर्शक दूरदूर से देख रहे थे कि यह
कौन मूंछवाला और तगडा आदमी आया है!

        नौ बजे मैं कार्यक्रम में सम्मिलित हुआ। ... मेरा परिचय इंग्लिश
और जापानी में दिया गया। परिचय देनेवाले भाई ने मुझे नागपुर में देखा था
और उसकी पढाई बनारस में हुई थी।

       परिषद में मेरा दस मिनट भाषण हुआ। सर्व धर्म नजदीक नजदीक
आकर परस्पर में प्रेम कैसे करेंगे, इस विषय पर मैंने विचार प्रकट किये। मैंन ।
कहा, “आप लोग समय आने पर मित्रता और धर्मस्नेह जोडने जा रहे हो।
जबसे मुझे होश आया, तबसे मैंने यही काम किया। पच्चीस वर्षों से यही काम
३४


मेरी जापान यात्रा

कर रहा हूँ। उसी के लिये गुरुदेव सेवामंडल की निर्मिति मैंने की।*...आदि
आदि!
दस मिनट ही भाषण हुआ। परन्तु सब लोग एकदम तालियाँ बजाने लगे और
प्रसन्न ह्दय से देखने लगे।

       बीच में दस मिनट की छुट्टी हुई। तब तो पूछो ही मत! मेरे पास भीड
लगी। अपना पता देने और हमारा लेने लोग दौडे!... लेन-देन का यह काम
मैने तुकारामजी को सौप दिया।

         बाद, फिर बैठे।

प्रत्येक प्रस्ताव पर मैं कुछ न कुछ बोला। प्रत्येक बात को मैंने ठीक
तरह से समझा लिया।

    .. बस् भोजन का समय हुआ। हम सब भोजन के लिये चले।
यह *हाऊस * सार्वजनिक व्यक्ति का सच्चा विश्राम-स्थान है। ... दो- दो
चार-चार कुर्सियाँ और बीच में टेबल !....

        जाकर बैठे कि एक लड़की और सेक्रेटरी आकर पूछते है प्लीज!
आपको क्या चाहिये?*

         हम गये उस समय यादगारी का तख्ता वे लोग लाये। दिल्ली पार्लमेंट
के एक भाई हमे वहाँ मिले। वे भी हमारे साथ बैठे।

    ... बड़ी स्वच्छता!... मुझे तुकारामजी कहने लगे, महाराज,
यहाँ की सारी व्यवस्था के रंग अपने सेवामण्डल के ढंग के ही हैं। आपने ये
कहाँ से वहाँ लाये थे? और विषय भी वही निकले जो आप हमेशा कहते हो!
आपका अनुशासन, जुते रखने की पद्धति, बैठना-उठना अनेक बातों में
समानता है। यह आपने कहाँ से लाया था?
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मेरी जापान यात्रा 

      मैंने कहा," भाई, जब हृदय सेवा के तरफ दौडता है, तब ये सारी  बातें और समाज संगठन की ओर दिल बढता है, तब यह ठीकठाकी अपने आप समझती ही है। यह सीखना नहीं पडता Iसीखना पडता है |
प्रेम करना, समाज को अपनाना, सबके सिद्धान्त समझाना I और मैं दूसरा 
करता ही क्या हूँ?"

      इतना बोलने पर तुकारामजी हँस गये I कहने लगे" अब तो आप यहाँ गुरुदेव सेवामण्डल के ही प्रस्ताव पास कर रहे।"

        भोजन बाद हम अपने कमरे में आराम करने गये।

... आधा घंटा नहीं होगा, तो दो बजे फिर ऊठकर मीटींग मे जाने लगे I
 
       बीच में कलकत्ता के प्रोफेसर श्रीचक्रवर्ति व त्रिपुरारी मिले। उन्होने पुछा,
"महाराज, आप भारत की कौनसी जगह से आये?"

"अमरावती के पास अपना आश्रम है," मैंने कहा।

" कौंडण्यपूर उपर ही है क्या?" उनका प्रश्न!

"मेरे आश्रम में पाँच सात मील पड़ता है," मेरा उत्तर!

वह बेचारा बडा प्रसन्न होकर पूढने लगा, “महाराज, अब उस
पुण्यभूमिका क्या हाल है? उस भूमिका महाभारत में और भारतीय संस्कृति
महा नाम है।"

मैने कहा, "भाई, यह स्थान तो बड़ा ही जीर्ण हो गया है। मगर,
हमने प्रयत्न शुरू किया है उनके जीर्णोद्वार का!"
३६


मेरी जापान यात्रा

"हम उधर जरूर आवेंगे!” श्री चक्रवर्ति ने कहा।

... फिर चले मीटिंग में!

.... जाते ही मेरा नाम लेकर कहा गया कि इस धर्मनिर्णय समिति में
महाराज को लेने का हमने तय किया है।

सबने तालियाँ बजाई और काम शुरू हुआ।

           मैं देख रहा था। ... भारत से आये हुए प्रतिनिधि वहाँ इतनी बड़ी महत्वपूर्ण
चर्चा में उपस्थित नहीं थे। ... जरा दुख हुआ। ... और मैंने तुकारामजी से
कहा भी, "भाई, ये लोग यहाँ आये क्यों? भोजन के समय दिखते, मोटर के
समय दिखते, हँसी मजाक में दिखते। परंतु जहाँ असली चर्चा चलती है, वहाँ
तो बेचारे कहाँ जाते मालूम नहीं!"

तुकारामजी ने कहा," दूसरी समिति में गये होंगे।"

         मैने कहा, "वहाँ भी है या नहीं, मुझे विश्वास नहीं है। शायद होंगे
भी।... इसका कारण यह भी हो सकता है कि उनके ऊपर अब कोई आपत्ति
नहीं है। जिनके ऊपर बीती है वे सब अपना ठिकाना लगाने को भी तो यहाँ
आये होंगे। मगर ये देखिये। यह तो शाश्वत सिद्धान्त लगाने का समय है।
इसीलिये यहाँ रहना चाहिये।"

      मीटिंग में कुछ प्रस्तावों पर चर्चा हुई।

         मुझे और चार भाईयों के तरफ वहाँ के विचारविनिमय का (ड्राफ्टींग
कमिटीका) काम दिया गया।।

    हम लोग वहीं बैठे। भोजन भी चलता था और लिखना-बोलना भी।

.... वहाँ की हमारी योजना पूरी हुई।

३७


मेरी जापान यात्रा


..... वहाँ भिन्न भिन्न विभाग (सेक्शन्स) थे! सब
था वे हमारी समिती के सामने पढाये गये।

              मेरे दिमाग में नहीं उतरे
मैने कहा, यहाँ की हर बात जब तक मेरे दिमाख में नहीं उतरेगी
तब तक मेरा समाधान नहीं होगा।

प्रत्येक बात जापानी में, इंग्लिश में और तुकारामजी हिंदी में यो
समझा देते थे।

         मुझे जैचने पर मैं कहता था, अब ठीक है।
यह सब दस बजे तक चला।

.., हम अपने कमरे में गये।

.... बस्, अब दिन भर का लिखना है।

          कितने लोग मुझे मिलने आये। लेकिन मैं तो उनसे बोल नहीं सकता
था। तुकारामजी ही मुझे समझा देते थे और मेरा उनको बताते थे।

... जापान की एक संत बाई मिलने आई। उसने कहा, आप
जापान में आये हैं, इसका पता सारे जापान में हो गया है। समा
गया है। समाचार पत्रों में
फोटो देखा, चरित्र पढ़ा। मैं आपसे मिलने आई।

मै उतना बड़ा आदमी नहीं है, जितना आपने सुना है।
मगर हाँ, सेवा की लगन दिल में है।*


         उसका परिचय एक भाई ने करा दिया, यह सारे राष्ट्रो में घुमकर
आई है। व्याख्यान में बड़ी ही मशहूर बाई है। बीमारों की बीमारी भी दुर 
करती है।*
३८


मेरी जापान यात्रा


..... वहाँ भिन्न भिन्न विभाग (सेक्शन्स) थे! सब
था वे हमारी समिती के सामने पढाये गये।

              मेरे दिमाग में नहीं उतरे
मैने कहा, यहाँ की हर बात जब तक मेरे दिमाख में नहीं उतरेगी
तब तक मेरा समाधान नहीं होगा।

प्रत्येक बात जापानी में, इंग्लिश में और तुकारामजी हिंदी में यो
समझा देते थे।

         मुझे जैचने पर मैं कहता था, अब ठीक है।
यह सब दस बजे तक चला।

.., हम अपने कमरे में गये।

.... बस्, अब दिन भर का लिखना है।

          कितने लोग मुझे मिलने आये। लेकिन मैं तो उनसे बोल नहीं सकता
था। तुकारामजी ही मुझे समझा देते थे और मेरा उनको बताते थे।

... जापान की एक संत बाई मिलने आई। उसने कहा, आप
जापान में आये हैं, इसका पता सारे जापान में हो गया है। समा
गया है। समाचार पत्रों में
फोटो देखा, चरित्र पढ़ा। मैं आपसे मिलने आई।

मै उतना बड़ा आदमी नहीं है, जितना आपने सुना है।
मगर हाँ, सेवा की लगन दिल में है।*


         उसका परिचय एक भाई ने करा दिया, यह सारे राष्ट्रो में घुमकर
आई है। व्याख्यान में बड़ी ही मशहूर बाई है। बीमारों की बीमारी भी दुर 
करती है।*
३८


मेरी जापान यात्रा


..... वहाँ भिन्न भिन्न विभाग (सेक्शन्स) थे! सब
था वे हमारी समिती के सामने पढाये गये।

              मेरे दिमाग में नहीं उतरे
मैने कहा, यहाँ की हर बात जब तक मेरे दिमाख में नहीं उतरेगी
तब तक मेरा समाधान नहीं होगा।

प्रत्येक बात जापानी में, इंग्लिश में और तुकारामजी हिंदी में यो
समझा देते थे।

         मुझे जैचने पर मैं कहता था, अब ठीक है।
यह सब दस बजे तक चला।

.., हम अपने कमरे में गये।

.... बस्, अब दिन भर का लिखना है।

          कितने लोग मुझे मिलने आये। लेकिन मैं तो उनसे बोल नहीं सकता
था। तुकारामजी ही मुझे समझा देते थे और मेरा उनको बताते थे।

... जापान की एक संत बाई मिलने आई। उसने कहा, आप
जापान में आये हैं, इसका पता सारे जापान में हो गया है। समा
गया है। समाचार पत्रों में
फोटो देखा, चरित्र पढ़ा। मैं आपसे मिलने आई।

"मै उतना बड़ा आदमी नहीं है, जितना आपने सुना है।
मगर हाँ, सेवा की लगन दिल में है।


         उसका परिचय एक भाई ने करा दिया, यह सारे राष्ट्रो में घुमकर
आई है। व्याख्यान में बड़ी ही मशहूर बाई है। बीमारों की बीमारी भी दुर 
करती है।
३८


मेरी जापान यात्रा

          तब मैने पूछा  क्या, दवा से करती है या मानसिक प्रयोग से?"

      उसने कहा, मानसिक प्रयोग से।

        मुझे अच्छा लगा। मैने हँसते हँसते कहा, बाई हमारे विश्व की
मानवता को बड़ी बीमारी लगी है। क्या आप उसे ठीक करने के लिये।
प्रयत्न नहीं करोगी? अगर हो तो आओ हमारे साथ। अकेली क्यों रहती
हो?"

       तब उसने कहा, यह काम तो आप ही कर सकते हैं। मैं तो
साथ दे सकती हूँ।

      बस् गये कमरे में और कुछ लिखकर सोना है।...

    ... कमरा अकेले का था।... वहीं पानी, वहीं बिस्तर।...

सोने के पहले गुरुमहाराज की याद आई, आडकोजी महाराज,
तू इस अल्हड लड़के से, बेहुदे लडके से, अनपढ़ लडके से क्या क्या करा
लेगा, तेरा तू ही जान बाबा! मैं तो समझता हूँ कि मेरे ख्वाब में भी नहीं था
कि, मैं विश्वशांति या विश्वधर्म परिषद की समिति में जाकर और वहाँ धर्म
का काम सेवामण्डल के तत्त्वों के अनुसार करू, कराऊ।

           ... बस्, जरा ध्यान करके सो गया I...….
३९


मेरी जापान यात्रा


 *टोकियो* 
दिनांक ४ अगस्त१९५५



      आज सुबह स्नानविधि के बाद ध्यान किया और यह सब लिखने बैठा।

.... आगे क्या होता, फिर लिखूगा।

       अब जलपान को गया था। कुछ लोग कहने लगे, क्या भजन नहीं
होगा।"

        मैने कहा, अगर समय रहा तो वे लोग व्यवस्था करेंगे। उन्होंने मेरा
भजन ओसाका मे रखा है। आप वहाँ आइये।"

... ऐसी ही बातचीत में नौ बजते हैं।...

....मीटिंग में गये।

   दो मिनट की प्रार्थना हुई।

बाद, हम लोगों ने जो ड्राफ्टस रात को बनाये थे. पढने में आये।
.... हर चीज पर सारे राष्ट्रों के मत लेकर प्रस्ताव स्वीकृत किये जाते थे।

... बडा मतभेद! आपस में ही जापानियों के झगडे!
४०


मेरी जापान यात्रा

मैने एक लड़के से कहा, " तू बोल कि भाई हम लोग झगडा सुनने नहीं
आये। हमारा समय क्यो बरबाद करते हो?"

       फिर एक प्रोफेसर ने यह बात सभा को बताई।

... काम आगे बढा। ऐसे बहुत प्रस्ताव पास हुये। बारह बजे तक
यह चला।

      बाद, भोजन हुआ।

          समाचारपत्रों के प्रतिनिधि और कार्यकर्ता लोग मेरे पास आकर बैठे।
प्रश्न पर प्रश्न पूछने लगे। मैंने भी उत्तरों का भंडार खोल दिया।

        ऐसा करते करते दो बजने को दस मिनट बाकी रहे। तब थोडा कमरे
में गया और दो मिनट लेटकर ध्यान किया। गुरुदेव से प्रार्थना की, “यहाँ तो न
मुझे भाषा आती और न मेरा ज्यादा परिचय है। तब मैं इनको क्या कहूंगा? अब
तो तुम्हें ही मेरे दिल में बैठना पडेगा।"

... बस् , उठा और चला मीटिंग में।

        खुला अधिवेशन था। काफी प्रस्तावों के बाद, आचार्य नामक कार्यकर्ता
ने पंडित जवाहरलालजी का पंचशील प्रस्ताव रखा। उसके विरोध में दो-चार ही
व्यक्ति थे; मगर बडा सताया उन्होंने! प्रस्ताव पास नहीं होने देते थे।

      तब मैंने आचार्य से कहा, "एक तो प्रस्ताव रखना नहीं था और
रखा तो अब वापस लेना ही नहीं। वह पंडितजी की नहीं, हमारे देश की बात ।
रहेगी!"

       इस विषय पर एक घंटा बडी खलबली मची। तब हमने सभापति।
को समझाया। राजनीति की दृष्टी छोडकर पंचशील तत्त्वों को मान्यता देने में
४१


मेरी जापान यात्रा

हमारी सभा धार्मिकताका ही रक्षण करती है, इस बात पर मैंने जोर दिया।
पंचशील सिद्धान्त में बताई हुई हर बात में विश्वशान्ति की दृष्टि है और हमारी
सभा भी यही चाहती है। पंचशील पंडितजी का नहीं, विश्व का है! अंत:
वह इस सभा का भी विषय हो सकता है...

      मेरे इन विचारों से सभा सहमत हुई। प्रस्ताव स्वीकृत हुआ।

          अगर प्रस्ताव अस्वीकृत होने का मौका आता, तो मैं वहाँ से उठ
जाता और कहता कि, "तुम लोग पक्षपाती हो।"

तो भी मैने भाषण में बोलने का संकल्प करके रखा।...
फिर प्रस्ताव होने लगे।

       .समारोप करने के लिये अध्यक्ष ने मुझे कहा। पहले मेरा परिचय
दिया गया।

        .. जब मैं खड़ा हुआ तब मेरी भी वही हालत हुई जैसे स्वामी
विवेकानंद की होती है!.. मुझमें एक निर्भय शक्ति ने प्रवेश किया।... भाषण
का जोश बढा। ताली पर ताली पड़ी। लोगों ने के दिल खुल गये।

        वह भाषण सुनकर अध्यक्ष ने कहा, "हम लोगों ने जो भाषण अभी
सुना है, वही इस परिषद का सार है। हमारे दिल पर गहरा असर हुआ है।"

         ग्रीस के प्रतिनिधि ने कहा, “यही है सच्चा भाषण! सच्चे विचार
इन्हीं को कहते है।"

... आभार प्रदर्शन हुआ और जापानी प्रार्थना होकर परिषद
समाप्त हुई। मैं उठने लगा तब झुंड के झुंड मेरे तरफ आये। हाथ मिलाने लगे।
मैं तो भाषा नहीं जानता था। तुकारामजी को और हिंदी जाननेवाले एक दो
४१


मेरी जापान यात्रा

हमारी सभा धार्मिकताका ही रक्षण करती है, इस बात पर मैंने जोर दिया।
पंचशील सिद्धान्त में बताई हुई हर बात में विश्वशान्ति की दृष्टि है और हमारी
सभा भी यही चाहती है। पंचशील पंडितजी का नहीं, विश्व का है! अंत:
वह इस सभा का भी विषय हो सकता है...

      मेरे इन विचारों से सभा सहमत हुई। प्रस्ताव स्वीकृत हुआ।

          अगर प्रस्ताव अस्वीकृत होने का मौका आता, तो मैं वहाँ से उठ
जाता और कहता कि, "तुम लोग पक्षपाती हो।"

तो भी मैने भाषण में बोलने का संकल्प करके रखा।...
फिर प्रस्ताव होने लगे।

       .समारोप करने के लिये अध्यक्ष ने मुझे कहा। पहले मेरा परिचय
दिया गया।

        .. जब मैं खड़ा हुआ तब मेरी भी वही हालत हुई जैसे स्वामी
विवेकानंद की होती है!.. मुझमें एक निर्भय शक्ति ने प्रवेश किया।... भाषण
का जोश बढा। ताली पर ताली पड़ी। लोगों ने के दिल खुल गये।

        वह भाषण सुनकर अध्यक्ष ने कहा, हम लोगों ने जो भाषण अभी
सुना है, वही इस परिषद का सार है। हमारे दिल पर गहरा असर हुआ है।"

         ग्रीस के प्रतिनिधि ने कहा, यही है सच्चा भाषण! सच्चे विचार
इन्हीं को कहते है।

... आभार प्रदर्शन हुआ और जापानी प्रार्थना होकर परिषद
समाप्त हुई। मैं उठने लगा तब झुंड के झुंड मेरे तरफ आये। हाथ मिलाने लगे।
मैं तो भाषा नहीं जानता था। तुकारामजी को और हिंदी जाननेवाले एक दो
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मेरी जपान यात्रा 

भाईयों को बुलाया और उन लोगो को पते देने को कहा। उसी मुताबिक,
जो जो अपने पते देते थे उनके लेने को भी कहा।

मेरी हालत जादुगर जैसी हुई। जिधर जाता था उधर आदमी पीछे
पडते थे। मैने भी उनके साथ मिलकर बोलने का काम शुरु किया।

बाद बडे-बडे सी-पचास नेता मेरे पास आये और बोलने लगे,हमने आज
तक जीवन में ऐसा परिणामकारी भाषण नहीं सुना। हम आपको और भी
कुछ पूछना चाहते है।

मैंने कहा, जो भी आप पूछिये, मैं खुले दिल से बोलूंगा।
तब, दो घंटे बाते हुई। मेरा वृत्तांत उन लोगों को बताया।

... बाद, मुझे भजन के लिये ले गये।... अपने अपने घर में, मण्डल में
कछ संस्थाओं के लोग ले जाने लगे। पर मैने कहा, मैं अभी किसी के घर
नहीं आऊंगा। आप सुबह आइये।

.... आग्रह था; वहीं भजन हुआ। सिने कैमेरे से सैकडो छबियाँ उतार
ली।

         एक भाई ने कहा, भाषण के समय आप तो हमें प्रकाशमय दिखने
लगे।

        यह आपकी दृष्टि का परिणाम है। वहाँ मैं नहीं बोल रहा था। मैं तो
लाऊडस्पीकर बन गया था। बोलनेवाली शक्ति गुरुदेव की थी, मैने कहा।

         तब उसने कहा, हम लोगों को तो आप ही दिखते थे।

... बस्, जहाँ-वहाँ मेरी चर्चा!
४३


जापान मात्रा

              मैंने तुकारामजी से कहा, चलो भाई अपने कमरे में।

तब वे कहते है, मेरे भी पिछे इतने लोग आ रहे है कि मैं उनसे
बोल नहीं सकता।

             खैर! चलते चलते अमेरिका का एक प्रोफेसर (डॉ. वेल्सले)
आया। उसने भी खुशी से वही बात कही।

        .. हम तो अब चले कमरे में।

      .. सोने के पहले यह सब लिखने बैठा।

            विएतनाम के एक बुद्ध-पंथी भाई आये। कहने लगे,  मैं आश्रम
में आना चाहता हुँ। आपका हमारा मत एक हो गया है। सिद्धांत भी एक है।

मैंने कहाँ, जी हाँ!

     उससे बोलते बैठा।

          बात सब खत्म करके और यह जो लिखा उसे अभी समाप्त करके
सोता हूँ।

           मेरे भारत के मित्रों से मैंने आते समय कहा था कि, भाई, मैं तो
सिर्फ शामिल होने जाता हूँ। मगर गुरुदेव ने यहाँ भी मुझको सबके साथ
प्रेमी बनाया। न जाने और वह क्या क्या करा लेगा। 

... बस्, अब तक जो कुछ बातें लिखने बैठा, यहीं पर लिखा ।
हूँ। अब तो ग्यारह बजे हैं। सो जाऊंगा मैं।
४४


मेरी जापान यात्रा

 *टोकियो-शिमिझू,* 
दिनांक ५ अगस्त १९५५


              आज तो मै तीन बजे ही उठा। यहाँ तो. ४ बजे ही उजाला दिखने
लगता है। मेरे कमरे में मै और मेरे भगवान..

       उठते ही सामान लपेटा। शौच, मुखमार्जन किया और नित्य-क्रम
के अनुसार तीस चालीस आसन किये।... स्नान को गया। उधर तुकारामजी
भी आये।

       स्नान के बाद हम अपने कमरे में ध्यान करने लगे।

..... बस्, लगी लोगों की भीड़। कपडे पहने और नीचे के मंजिल।
में जाकर बैठा।

     ... वहाँ की कार्यकारिणी के एक भाई मि. हिटाका आये और।
कहने लगे महाराज, आज हमने प्रतिनिधि के लिये जापानी लडकियों का
डान्स (नृत्य) रखा है। मेहरबानी करके आप चलिये न! सभी प्रतिनिधि आ रहे है I

       उनकी भाषा मेरी समझ में नहीं आई। तब तुकारामजी ने बताया।

           मैंने तुकारामजी द्वारा बतलाया, उन्हें बोलो-यहाँ डान्स देखने की
मुझे कोई रूचि नही है। मैं तो धर्म-परिषद में आया हूँ। उसका कोई विषय।
हो तो मुझे लें जाईये!

.... फिर कहने लगाया, क्या धर्म परिषद के लोग डान्स देखदेखकर
विश्वशांति का प्रचार और अॅटमबब का निषेध करेंगे? यह कैसे हो सकता
है बाबा?"
४५


मेरी जापान यात्रा

          तब उन्होंने कहा, *नहीं हमने तो उसकी कला दिखाने को
कार्यक्रम रखा है।"

          मैंने कहा, *अब तो धर्म-परिषद में धर्म को बढाने की और
चारित्र्य की कला दिखाओ! यह क्या कला दिखाते हो? जो कुछ बचे होंगे उन धर्मवानों को भी शादी करने लगावोंगे?*

           तब वह हँस पडा और कहने लगा *अच्छी बात है। मैं कहूँगा।
महाराज नहीं आते है।*

      मैंने कहा, *जी हाँ! जरूर कहिये।*

         बाद, फिर लोगों से बोलने लगा।

         फिर, सुबह का नाश्ता करने गया।

आज इंडोनेशिया के एक प्रोफेसर अजरानंद नाम के भाई मेरे साथ ।
बैठे और हमारे लिये नई नई चीजें खाने को बुलाने लगे। बहुत अच्छी चीजे थी
वे। गेहूँ की पपड़ी थी। कुछ दालिया था। कुछ फल थे।

       मैंने कहा, *मै तो रोज दूध और ब्रेड लेता था। आपने आज नया
दिया।"

        तब वे कहने लगे, *यहाँ तो सब कुछ मिलता है महाराज"

        मैंने अजरानंद से कहा, *हाँ जी, इस देश में गरीब से गरीब 
कटिबद्ध है और इसी कारण यहाँ समृद्धि है। मैंने आगे कहा, मैं भी  यह 
बात पंद्रह साल के बाद अभिमान से कहूँगा कि, मेरे भारत में भी जापन
दुगुनी तरक्की हो गई है।

अजरानंद ने कहा, प्रयत्न से सब होगा।
४६


मेरी जापान यात्रा

        ये अजरानंद एक प्रोफेसर है। अभी, जरा पहले तो टेढी ही बात
करते थे। मगर तुकारामजी ने उसको ठीकठाक किया। तबसे अच्छे बोलने
लगे। पहले तो बोलते थे कि, "जापान में सबने शादियाँ करनी चाहिये।"
अजीब बातें की। मगर फिर ठीक रास्ते पर आये थे भाई।

.... फलाहार से उठे।

 ... तुकारामजी आज थाई एअरवेज का टिकट बुक करने गये है।
मैं अकेला ही बैठा था। बस, मेरी बडी गति! फिर कोई भी आये, हाथ में हाथ
मिलाये और इंग्लिश में बोले। मैंने कल तो पाठ कर लिया था। "नो इंग्लिश !
जो जापानी।" तब भी वे बड़ी ही श्रद्धा से बोलते थे। मैं भी उनकी भावना
समझता था और इशारे से समझकर समझा देता था, जैसे दोनों मूक आदमी
बोलते हो!

      एक आया। बोला, *मैंने राजयोग का अभ्यास किया है। मुझे कुछ 
अडचने आई है। आप समझा सकेंगे?*

      तब मैने कहा, *यस्!*

      वह समझा कि इंग्लिश जानता  हुँ। तब वह योग के सभी शब्द
संस्कृत में बोलने लगा। मुझे मालूम थे। प्राणायाम कुंडलिनी समाधि वगैरहI मैने  उसका समाधान किया। इसारे से राजयोग की शंकाएँ दुर की।
सवाल था,  ध्यान भृकुटि  में होता है या हृदय में?"

       मैंने कहा, ध्यान ध्येय होता है। ध्यान कहीं पर भी होता है,जहाँ आप लगाते, कोई ह्दय में l कोई मुर्ती में ।तो कोई 
आकाश के तारों में !में तो भाई जगंल में, पेडों में ही ध्यान लगाया।

       तब सब बाते इशारे से  वह समझ गया।  मैं उंगली बताता था वह समझता था I.......
४७


मेरी जापान यात्रा

        ये अजरानंद एक प्रोफेसर है। अभी, जरा पहले तो टेढी ही बात
करते थे। मगर तुकारामजी ने उसको ठीकठाक किया। तबसे अच्छे बोलने
लगे। पहले तो बोलते थे कि, "जापान में सबने शादियाँ करनी चाहिये।"
अजीब बातें की। मगर फिर ठीक रास्ते पर आये थे भाई।

.... फलाहार से उठे।

 ... तुकारामजी आज थाई एअरवेज का टिकट बुक करने गये है।
मैं अकेला ही बैठा था। बस, मेरी बडी गति! फिर कोई भी आये, हाथ में हाथ
मिलाये और इंग्लिश में बोले। मैंने कल तो पाठ कर लिया था। "नो इंग्लिश !
जो जापानी। तब भी वे बड़ी ही श्रद्धा से बोलते थे। मैं भी उनकी भावना
समझता था और इशारे से समझकर समझा देता था, जैसे दोनों मूक आदमी
बोलते हो!

      एक आया। बोला, मैंने राजयोग का अभ्यास किया है। मुझे कुछ 
अडचने आई है। आप समझा सकेंगे?

      तब मैने कहा, "यस्!"

      वह समझा कि इंग्लिश जानता  हुँ। तब वह योग के सभी शब्द
संस्कृत में बोलने लगा। मुझे मालूम थे। प्राणायाम कुंडलिनी समाधि वगैरहI मैने  उसका समाधान किया। इसारे से राजयोग की शंकाएँ दुर की।
सवाल था,  ध्यान भृकुटि  में होता है या हृदय में?

       मैंने कहा, ध्यान ध्येय होता है। ध्यान कहीं पर भी होता है,जहाँ आप लगाते, कोई ह्दय में l कोई मुर्ती में ।तो कोई 
आकाश के तारों में !में तो भाई जगंल में, पेडों में ही ध्यान लगाया।

       तब सब बाते इशारे से  वह समझ गया।  मैं उंगली बताता था वह समझता था I.......
४७


मेरी जापान यात्रा

        एक भाई तो बिलकुल ही
 बोलने को उत्सुक था। मगर क्या करें?
न यह मुझसे बोलें, न मैं उससे बोलू। हम दोनों पास बैठे। हाथ में हम
मिलाये। हँसे! देखा! उसने कपाल से हाथ लगाया और अपने भाषा में
बोला, "किस्मत मेरी! मैं बोल नहीं सकता।" .... वह भी बुद्धसंप्रदायी था I

          बस्, बजा एक! अब आया भोजन का समय! तुकारामजी नहीं है। 
वे गये हैं भारतीय दुतावास के यहाँ!... तब मैं भोजन की जगह जाकर बैठा ।
एक लडकी आई। मुझसे पूछती है जापानी में। मैंने भोजन का शब्द पाठ किया।
था। भोजन लाया। पाकर फिर कमरे में गया।

....जरा लेटता हूँ, तो फिर कुछ समाचार पत्रवाले भाई आये।
उन्होंने कहा, "क्या आप के देश में जमीनदार गरीबों को मुफ्त जमीन देते
हैं?"

मैंने कहा, “ जी हाँ जमीन ही क्या, सारा गाँव भी दे देते है।"

तब उन्होंने कहा, "यह कैसे हो सकता है?"

      हमने कहा, "हमारे भारत में यही शिक्षण धर्म की नीति से दिया
गया है कि जहाँ कम है, वहाँ दे दो और जहाँ अधिक है उसे मांगो! सब
मिलकर, सबको लेकर, सबके सुख के साथ रहो! यही धर्म बोलता है और
उसी का प्रचार हमारे देश में अभी श्री विनोबा भावे कर रहे है। पूज्य
गांधीजी के बाद आपही ने यह बडा क्रांतिकारी काम उठाया है। विनोबा
के भूदान का काम भारत में चला है। मैं भी उसमें अधिक ख्याल दे रहा हुँ ।"

      बाद, टोकियों की भारतीय दुतावास की कुछ मराठी बोलनेवाली बहने आई थी! 
उन्होंने कहा, "आज हमें पता लगा कि आप टोकियो आये
४८


मेरी जापान यात्रा

हैं। क्या हमें भजन सुनने नहीं मिलेगा?"

            मैने कहा, “जरूर! तारीख १४ को फिर वापस टोकियों
आता हूँ। फिर भजन करेंगे। अभी तो मैं शिमिझू जाऊंगा। वहाँ मेरा दो
दिन काम है। अनानाईक्यों के फौंडर और प्रेसीडेंट ने आज विश्वधर्म का
काम कैसे बढ़ाना इसकी कुछ चर्चा के लिये दो दिन हमें निमंत्रित किया है।
मैं अभी चला।"

       बस्, चले गाडी में। समय पर गाडी आई। लोग हजारों की तादाद में
चढ़ रहे हैं। बहुत बड़ा रेल्वे स्टेशन! ऊपर रेलें जाती हैं। नीचे रास्ते जा रहे हैं।।
मगर मेरे मुकाम में और प्रवास में अभी तक किसी का झगडा नहीं देखा भाई!

         आई गाडी! बैठकर चले हम!

       .... निरीक्षण कर रहा था मैं! कितना प्रयत्न है इन लोगों का।।
इन्होंने पहाड़ी में भी एक फिट जगह नहीं छोडी। सब जगह खेती उपजाऊ।
जगह बनाई है। जैसी किसी के मकान की चढ़ने की सीढियाँ होती है, उसी
तरह चढते समय पहाडी में खेती दिखाई देती है। वहाँ पानी के नल चढाये हैं।

    .. मीलों तक पहाडों को काटकर रेल चली जा रही है।

.….  अब हम नुमानु स्टेशन पर आये। ... मोटर तैयार है। स्वागत
को भाई लोग तैयार है। उतरते ही सामान पकडने लगे। यहाँ कूली तो हैं ही
नहीं।
... चले मोटर से! बहुत Scan @ 31 Mar 2020 11:01 PM
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मेरी जापान यात्रा
हैं। क्या हमें भजन सुनने नहीं मिलेगा?"
मैने कहा, “जरूर! तारीख १४ को फिर वापस टोकियों
आता हूँ। फिर भजन करेंगे। अभी तो मैं शिमिझू जाऊंगा। वहाँ मेरा दो
दिन काम है। अनानाईक्यों के फौंडर और प्रेसीडेंट ने आज विश्वधर्म का
काम कैसे बढ़ाना इसकी कुछ चर्चा के लिये दो दिन हमें निमंत्रित किया है।
मैं अभी चला।"
बस्, चले गाडी में। समय पर गाडी आई। लोग हजारों की तादाद में
चढ़ रहे हैं। बहुत बड़ा रेल्वे स्टेशन! ऊपर रेलें जाती हैं। नीचे रास्ते जा रहे हैं।।
मगर मेरे मुकाम में और प्रवास में अभी तक किसी का झगडा नहीं देखा भाई!
आई गाडी! बैठकर चले हम!
.... निरीक्षण कर रहा था मैं! कितना प्रयत्न है इन लोगों का।।
इन्होंने पहाड़ी में भी एक फिट जगह नहीं छोडी। सब जगह खेती उपजाऊ।
जगह बनाई है। जैसी किसी के मकान की चढ़ने की सीढियाँ होती है, उसी
तरह चढते समय पहाडी में खेती दिखाई देती है। वहाँ पानी के नल चढाये हैं।
.. मीलों तक पहाडों को काटकर रेल चली जा रही है।
अब हम नुमानु स्टेशन पर आये। ... मोटर तैयार है। स्वागत
को भाई लोग तैयार है। उतरते ही सामान पकडने लगे। यहाँ कूली तो हैं ही
नहीं।
. ..     चले मोटर से! बहुत बड़ा समुद्र। उसके किनारे किनारे से जा रही है मोटार!रात का समय हैI सब  तरफ ऐसा लगता है कि यह स्थान बहुत
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मेरी जपान यात्रा

बड़ा शहर है। समुद्र के किनारे छोटा रास्ता-जिसमें दूसरी गाडी भी नही
जायेगी!... एक गाडी उधरसे आई। उसने अपनी माल ट्रक करीबन एक
फलाँग पीछे चलाई और जहाँ मोटर निकलती थी वहाँ खडी की।

... बस् बढे हम आगे।

.... एक एक घर समुद्र के किनारे, पीछे पर्वत और सामने समुद्र 
बड़ी गजब की अडचने वहाँ के समुद्री जीवन में, मगर इतना होने पर
उनकी रहनसहन बडी ही सुंदर है! किनारे से नावें लगी है जैसे अपने तरफ।
गाडी-घोडे होते हैं। वह उनके उत्पादन का साधन है।

    ... जहाँ जगह हो वहाँ भात, नहीं तो बैंगन, बटाटे, बीट वगैरह बोये हैं।

       .. अब हम अनानाईक्यों की संस्था में पहुँचे। सामने बड़ा
विशाल समुद्र! किनारे संस्था का बड़ा सुंदर महल जैसा स्थान! अति रम्य
वहाँ का दृश्य।

       हमें वहाँ के लोग अंदर ले गये। तुकारामजी तो देखकर कहने लो
"मुझे तो अब ऐसा लगता है कि, अपने यहाँ भी ऐसा ही स्थान करना
चाहिये।"

         मैंने कहा, “भाई, अपना देश गरीब है। उसमें लोग आलसी है।
धरम के नाम से लोग मजाक करते हैं। अगर मैं ऐसी चीज बनाऊंगा तो मुझे लोग पत्थर मारके मार डालेंगे। भाई, इसलिये तो महात्मा गांधी को घुटना धोती और खुला-बदन रहकर इस देश में काम करना पड़ा। इधर तो सभी
लोग रहन-सहन से अच्छे है, इसलिये यह चलता है। यों तो जहाँ की चीज
वहीं शोभा देती है। हम इसकी नकल क्यों करे?"

..... बस समय पर आते ही स्नान किया। प्रार्थना की। भोजन
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मेरी जापान यात्रा

        ये अजरानंद एक प्रोफेसर है। अभी, जरा पहले तो टेढी ही बात
करते थे। मगर तुकारामजी ने उसको ठीकठाक किया। तबसे अच्छे बोलने
लगे। पहले तो बोलते थे कि, "जापान में सबने शादियाँ करनी चाहिये।"
अजीब बातें की। मगर फिर ठीक रास्ते पर आये थे भाई।

.... फलाहार से उठे।

 ... तुकारामजी आज थाई एअरवेज का टिकट बुक करने गये है।
मैं अकेला ही बैठा था। बस, मेरी बडी गति! फिर कोई भी आये, हाथ में हाथ
मिलाये और इंग्लिश में बोले। मैंने कल तो पाठ कर लिया था। "नो इंग्लिश !
जो जापानी।" तब भी वे बड़ी ही श्रद्धा से बोलते थे। मैं भी उनकी भावना
समझता था और इशारे से समझकर समझा देता था, जैसे दोनों मूक आदमी
बोलते हो!

      एक आया। बोला, "मैंने राजयोग का अभ्यास किया है। मुझे कुछ 
अडचने आई है। आप समझा सकेंगे?"

      तब मैने कहा, "यस्!"

      वह समझा कि इंग्लिश जानता  हुँ। तब वह योग के सभी शब्द
संस्कृत में बोलने लगा। मुझे मालूम थे। प्राणायाम कुंडलिनी समाधि वगैरहI मैने  उसका समाधान किया। इसारे से राजयोग की शंकाएँ दुर की।
सवाल था, " ध्यान भृकुटि  में होता है या हृदय में?"

       मैंने कहा, "ध्यान ध्येय होता है। ध्यान कहीं पर भी होता है,जहाँ आप लगाते, कोई ह्दय में l कोई मुर्ती में ।तो कोई 
आकाश के तारों में !में तो भाई जगंल में, पेडों में ही ध्यान लगाया।"

       तब सब बाते इशारे से  वह समझ गया।  मैं उंगली बताता था वह समझता था I.......
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मेरी जापान यात्रा

        एक भाई तो बिलकुल ही
 बोलने को उत्सुक था। मगर क्या करें?
न यह मुझसे बोलें, न मैं उससे बोलू। हम दोनों पास बैठे। हाथ में हम
मिलाये। हँसे! देखा! उसने कपाल से हाथ लगाया और अपने भाषा में
बोला, "किस्मत मेरी! मैं बोल नहीं सकता।" .... वह भी बुद्धसंप्रदायी था I

          बस्, बजा एक! अब आया भोजन का समय! तुकारामजी नहीं है। 
वे गये हैं भारतीय दुतावास के यहाँ!... तब मैं भोजन की जगह जाकर बैठा ।
एक लडकी आई। मुझसे पूछती है जापानी में। मैंने भोजन का शब्द पाठ किया।
था। भोजन लाया। पाकर फिर कमरे में गया।

....जरा लेटता हूँ, तो फिर कुछ समाचार पत्रवाले भाई आये।
उन्होंने कहा, "क्या आप के देश में जमीनदार गरीबों को मुफ्त जमीन देते
हैं?"

मैंने कहा, “ जी हाँ जमीन ही क्या, सारा गाँव भी दे देते है।"

तब उन्होंने कहा, "यह कैसे हो सकता है?"

      हमने कहा, "हमारे भारत में यही शिक्षण धर्म की नीति से दिया
गया है कि जहाँ कम है, वहाँ दे दो और जहाँ अधिक है उसे मांगो! सब
मिलकर, सबको लेकर, सबके सुख के साथ रहो! यही धर्म बोलता है और
उसी का प्रचार हमारे देश में अभी श्री विनोबा भावे कर रहे है। पूज्य
गांधीजी के बाद आपही ने यह बडा क्रांतिकारी काम उठाया है। विनोबा
के भूदान का काम भारत में चला है। मैं भी उसमें अधिक ख्याल दे रहा हुँ ।"

      बाद, टोकियों की भारतीय दुतावास की कुछ मराठी बोलनेवाली बहने आई थी! 
उन्होंने कहा, "आज हमें पता लगा कि आप टोकियो आये
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