मेरी जापान यात्रा

        ये अजरानंद एक प्रोफेसर है। अभी, जरा पहले तो टेढी ही बात
करते थे। मगर तुकारामजी ने उसको ठीकठाक किया। तबसे अच्छे बोलने
लगे। पहले तो बोलते थे कि, जापान में सबने शादियाँ करनी चाहिये।"
अजीब बातें की। मगर फिर ठीक रास्ते पर आये थे भाई।

.... फलाहार से उठे।

 ... तुकारामजी आज थाई एअरवेज का टिकट बुक करने गये है।
मैं अकेला ही बैठा था। बस, मेरी बडी गति! फिर कोई भी आये, हाथ में हाथ
मिलाये और इंग्लिश में बोले। मैंने कल तो पाठ कर लिया था। नो इंग्लिश !
जो जापानी।" तब भी वे बड़ी ही श्रद्धा से बोलते थे। मैं भी उनकी भावना
समझता था और इशारे से समझकर समझा देता था, जैसे दोनों मूक आदमी
बोलते हो!

      एक आया। बोला, मैंने राजयोग का अभ्यास किया है। मुझे कुछ 
अडचने आई है। आप समझा सकेंगे?

      तब मैने कहा, यस्!

      वह समझा कि इंग्लिश जानता  हुँ। तब वह योग के सभी शब्द
संस्कृत में बोलने लगा। मुझे मालूम थे। प्राणायाम कुंडलिनी समाधि वगैरहI मैने  उसका समाधान किया। इसारे से राजयोग की शंकाएँ दुर की।
सवाल था,  ध्यान भृकुटि  में होता है या हृदय में?

       मैंने कहा, ध्यान ध्येय होता है। ध्यान कहीं पर भी होता है,जहाँ आप लगाते, कोई ह्दय में l कोई मुर्ती में ।तो कोई 
आकाश के तारों में !में तो भाई जगंल में, पेडों में ही ध्यान लगाया।

       तब सब बाते इशारे से  वह समझ गया।  मैं उंगली बताता था वह समझता था I.......
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मेरी जापान यात्रा

        एक भाई तो बिलकुल ही
 बोलने को उत्सुक था। मगर क्या करें?
न यह मुझसे बोलें, न मैं उससे बोलू। हम दोनों पास बैठे। हाथ में हम
मिलाये। हँसे! देखा! उसने कपाल से हाथ लगाया और अपने भाषा में
बोला, "किस्मत मेरी! मैं बोल नहीं सकता।" .... वह भी बुद्धसंप्रदायी था I

          बस्, बजा एक! अब आया भोजन का समय! तुकारामजी नहीं है। 
वे गये हैं भारतीय दुतावास के यहाँ!... तब मैं भोजन की जगह जाकर बैठा ।
एक लडकी आई। मुझसे पूछती है जापानी में। मैंने भोजन का शब्द पाठ किया।
था। भोजन लाया। पाकर फिर कमरे में गया।

....जरा लेटता हूँ, तो फिर कुछ समाचार पत्रवाले भाई आये।
उन्होंने कहा, "क्या आप के देश में जमीनदार गरीबों को मुफ्त जमीन देते
हैं?"

मैंने कहा, “ जी हाँ जमीन ही क्या, सारा गाँव भी दे देते है।"

तब उन्होंने कहा, "यह कैसे हो सकता है?"

      हमने कहा, "हमारे भारत में यही शिक्षण धर्म की नीति से दिया
गया है कि जहाँ कम है, वहाँ दे दो और जहाँ अधिक है उसे मांगो! सब
मिलकर, सबको लेकर, सबके सुख के साथ रहो! यही धर्म बोलता है और
उसी का प्रचार हमारे देश में अभी श्री विनोबा भावे कर रहे है। पूज्य
गांधीजी के बाद आपही ने यह बडा क्रांतिकारी काम उठाया है। विनोबा
के भूदान का काम भारत में चला है। मैं भी उसमें अधिक ख्याल दे रहा हुँ ।"

      बाद, टोकियों की भारतीय दुतावास की कुछ मराठी बोलनेवाली बहने आई थी! 
उन्होंने कहा, "आज हमें पता लगा कि आप टोकियो आये
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मेरी जापान यात्रा

        एक भाई तो बिलकुल ही
 बोलने को उत्सुक था। मगर क्या करें?
न यह मुझसे बोलें, न मैं उससे बोलू। हम दोनों पास बैठे। हाथ में हम
मिलाये। हँसे! देखा! उसने कपाल से हाथ लगाया और अपने भाषा में
बोला, "किस्मत मेरी! मैं बोल नहीं सकता।" .... वह भी बुद्धसंप्रदायी था I

          बस्, बजा एक! अब आया भोजन का समय! तुकारामजी नहीं है। 
वे गये हैं भारतीय दुतावास के यहाँ!... तब मैं भोजन की जगह जाकर बैठा ।
एक लडकी आई। मुझसे पूछती है जापानी में। मैंने भोजन का शब्द पाठ किया।
था। भोजन लाया। पाकर फिर कमरे में गया।

....जरा लेटता हूँ, तो फिर कुछ समाचार पत्रवाले भाई आये।
उन्होंने कहा, "क्या आप के देश में जमीनदार गरीबों को मुफ्त जमीन देते
हैं?"

मैंने कहा, “ जी हाँ जमीन ही क्या, सारा गाँव भी दे देते है।"

तब उन्होंने कहा, "यह कैसे हो सकता है?"

      हमने कहा, "हमारे भारत में यही शिक्षण धर्म की नीति से दिया
गया है कि जहाँ कम है, वहाँ दे दो और जहाँ अधिक है उसे मांगो! सब
मिलकर, सबको लेकर, सबके सुख के साथ रहो! यही धर्म बोलता है और
उसी का प्रचार हमारे देश में अभी श्री विनोबा भावे कर रहे है। पूज्य
गांधीजी के बाद आपही ने यह बडा क्रांतिकारी काम उठाया है। विनोबा
के भूदान का काम भारत में चला है। मैं भी उसमें अधिक ख्याल दे रहा हुँ ।"

      बाद, टोकियों की भारतीय दुतावास की कुछ मराठी बोलनेवाली बहने आई थी! 
उन्होंने कहा, "आज हमें पता लगा कि आप टोकियो आये
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मेरी जापान यात्रा

हैं। क्या हमें भजन सुनने नहीं मिलेगा?"

            मैने कहा, “जरूर! तारीख १४ को फिर वापस टोकियों
आता हूँ। फिर भजन करेंगे। अभी तो मैं शिमिझू जाऊंगा। वहाँ मेरा दो
दिन काम है। अनानाईक्यों के फौंडर और प्रेसीडेंट ने आज विश्वधर्म का
काम कैसे बढ़ाना इसकी कुछ चर्चा के लिये दो दिन हमें निमंत्रित किया है।
मैं अभी चला।"

       बस्, चले गाडी में। समय पर गाडी आई। लोग हजारों की तादाद में
चढ़ रहे हैं। बहुत बड़ा रेल्वे स्टेशन! ऊपर रेलें जाती हैं। नीचे रास्ते जा रहे हैं।।
मगर मेरे मुकाम में और प्रवास में अभी तक किसी का झगडा नहीं देखा भाई!

         आई गाडी! बैठकर चले हम!

       .... निरीक्षण कर रहा था मैं! कितना प्रयत्न है इन लोगों का।।
इन्होंने पहाड़ी में भी एक फिट जगह नहीं छोडी। सब जगह खेती उपजाऊ।
जगह बनाई है। जैसी किसी के मकान की चढ़ने की सीढियाँ होती है, उसी
तरह चढते समय पहाडी में खेती दिखाई देती है। वहाँ पानी के नल चढाये हैं।

    .. मीलों तक पहाडों को काटकर रेल चली जा रही है।

.….  अब हम नुमानु स्टेशन पर आये। ... मोटर तैयार है। स्वागत
को भाई लोग तैयार है। उतरते ही सामान पकडने लगे। यहाँ कूली तो हैं ही
नहीं।
... चले मोटर से! बहुत Scan @ 31 Mar 2020 11:01 PM
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मेरी जापान यात्रा
हैं। क्या हमें भजन सुनने नहीं मिलेगा?"
मैने कहा, “जरूर! तारीख १४ को फिर वापस टोकियों
आता हूँ। फिर भजन करेंगे। अभी तो मैं शिमिझू जाऊंगा। वहाँ मेरा दो
दिन काम है। अनानाईक्यों के फौंडर और प्रेसीडेंट ने आज विश्वधर्म का
काम कैसे बढ़ाना इसकी कुछ चर्चा के लिये दो दिन हमें निमंत्रित किया है।
मैं अभी चला।"
बस्, चले गाडी में। समय पर गाडी आई। लोग हजारों की तादाद में
चढ़ रहे हैं। बहुत बड़ा रेल्वे स्टेशन! ऊपर रेलें जाती हैं। नीचे रास्ते जा रहे हैं।।
मगर मेरे मुकाम में और प्रवास में अभी तक किसी का झगडा नहीं देखा भाई!
आई गाडी! बैठकर चले हम!
.... निरीक्षण कर रहा था मैं! कितना प्रयत्न है इन लोगों का।।
इन्होंने पहाड़ी में भी एक फिट जगह नहीं छोडी। सब जगह खेती उपजाऊ।
जगह बनाई है। जैसी किसी के मकान की चढ़ने की सीढियाँ होती है, उसी
तरह चढते समय पहाडी में खेती दिखाई देती है। वहाँ पानी के नल चढाये हैं।
.. मीलों तक पहाडों को काटकर रेल चली जा रही है।
अब हम नुमानु स्टेशन पर आये। ... मोटर तैयार है। स्वागत
को भाई लोग तैयार है। उतरते ही सामान पकडने लगे। यहाँ कूली तो हैं ही
नहीं।
. ..     चले मोटर से! बहुत बड़ा समुद्र। उसके किनारे किनारे से जा रही है मोटार!रात का समय हैI सब  तरफ ऐसा लगता है कि यह स्थान बहुत
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मेरी जपान यात्रा

बड़ा शहर है। समुद्र के किनारे छोटा रास्ता-जिसमें दूसरी गाडी भी नही
जायेगी!... एक गाडी उधरसे आई। उसने अपनी माल ट्रक करीबन एक
फलाँग पीछे चलाई और जहाँ मोटर निकलती थी वहाँ खडी की।

... बस् बढे हम आगे।

.... एक एक घर समुद्र के किनारे, पीछे पर्वत और सामने समुद्र 
बड़ी गजब की अडचने वहाँ के समुद्री जीवन में, मगर इतना होने पर
उनकी रहनसहन बडी ही सुंदर है! किनारे से नावें लगी है जैसे अपने तरफ।
गाडी-घोडे होते हैं। वह उनके उत्पादन का साधन है।

    ... जहाँ जगह हो वहाँ भात, नहीं तो बैंगन, बटाटे, बीट वगैरह बोये हैं।

       .. अब हम अनानाईक्यों की संस्था में पहुँचे। सामने बड़ा
विशाल समुद्र! किनारे संस्था का बड़ा सुंदर महल जैसा स्थान! अति रम्य
वहाँ का दृश्य।

       हमें वहाँ के लोग अंदर ले गये। तुकारामजी तो देखकर कहने लो
"मुझे तो अब ऐसा लगता है कि, अपने यहाँ भी ऐसा ही स्थान करना
चाहिये।"

         मैंने कहा, “भाई, अपना देश गरीब है। उसमें लोग आलसी है।
धरम के नाम से लोग मजाक करते हैं। अगर मैं ऐसी चीज बनाऊंगा तो मुझे लोग पत्थर मारके मार डालेंगे। भाई, इसलिये तो महात्मा गांधी को घुटना धोती और खुला-बदन रहकर इस देश में काम करना पड़ा। इधर तो सभी
लोग रहन-सहन से अच्छे है, इसलिये यह चलता है। यों तो जहाँ की चीज
वहीं शोभा देती है। हम इसकी नकल क्यों करे?"

..... बस समय पर आते ही स्नान किया। प्रार्थना की। भोजन
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मेरी जापान यात्रा

किया और आराम के लिये कमरे में जाकर सो गया।

        आज रेल में मैंने तकारामजी से चर्चा की कि ,सेवामण्डल सार।
ही राष्ट्रों में फैलने की योजना बन गयी है, बढ़ रही है। लोग उसके तत्त्वों को मंजूर कर रहे है। अगर हमारे यहाँ के लोग निश्चय को नहीं पकडते। कुछ।
तो हैं अच्छे, मगर जितने आते उतने नहीं रह पाते। क्या करना चाहिये ?"

         तब उन्होंने कहा, "जिससे जितना बनता उससे उतना ही काम
लेना चाहिये। एक आदमी से सभी अपेक्षाएं नहीं की जा सकती हैं ना?"

         मैंने कहा, "ठीक है। अगर वे कहते भी तो नहीं ऐसे कि यह ।
हमसे नहीं होता। वे मेरे पास आकर बड़ा विश्वास दिलाते हैं कि मैं संस्था
में ईमानदारी से रहुँगा; और कुछ नहीं चाहूँगा; आपकी आज्ञा नहीं तोडूंगा।
तब मैं समझ लेता हूँ कि यह आदमी भला दिखता है। मगर थोडे ही दिन गये
कि वह या तो नौकरी करने जाता है या तो वह पगार माँगता है या तो
विश्वासघात करके भाग जाता है। बताओ, क्या करें इसके लिये ?"

       तब तुकारामजी कहने लगे, “महाराज, ऐसे लोगों की खुद पहले।
परीक्षा लेनी चाहिये और उसमें वे उतरते हैं ऐसा लगा तो पास करके फिर।
विश्वास डालना चाहिये।"

        मैंने कहा, "मैंने अभी तक ऐसा माप नहीं किया। जो आया, उस ।
पर प्रेम किया। भागा उसको छोड दिया। फिर आया, फिर लिया। मगर में।
समझा तो जाता  हुँ कि इनमें कितना पानी है और फिर होशियार भी हो, तो।
विश्वास नहीं करता मैं।

           बस्, आज की बातें थोडी लिख चुका हूँ। अब सोता हूँ भाई!
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मेरी जापान यात्रा




         जापान- चित्रावली
    ( परिषद का एक दृश्य)





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मेरी जापान यात्रा







   जापान -चित्रावली





ग्रीसके प्रतिनिधी लिट्ड्रसीडीके साथ गंभीर चर्चा
  




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मेरी जापान



 *शिमिझू*
 दिनांक ६ अगस्त १९५५



      आज सुबह उठते ही सामने अतिरम्य विशाल पर्वत और महाससमुद्र 
का दर्शन किया। अफराफ छोटे-छोटे कीडों की मीठे और सुंदर स्वरों की
प्रार्थना सुनने आई; जैसे कोई बाजा बजाता हो।

... उठा। प्रात:विधि किया। फलाहार किया। ... और अब  फौंडर (अनानाईक्यों के संस्थापक) के साथ चर्चा के लिये बैठना है। वे
चाहते हैं कि हम गुरुदेव सेवामण्डल की पद्धति पर उनकी संस्था का संबंध
जोडे! आठ बजे उसके बारे में हमारी मीटिंग है। ...मैं निकला मीटींग को l   
... मीटींग से अभी आया।.. पहले संचालक ने खडे रहकर
स्वागत किया और कहा कि, " आपके कार्यक्रम बहुत अच्छे हुये ऐसा
हमने सुना है। आप भी वहाँ का अहवाल वताने की कृपा करेंगे क्या?"

      तब मैंने कहा, "वहाँ का भी कार्यक्रम अच्छा हआ। करीबन
५०-६० दूर दुर  के राष्ट्रों के लोग थे। जरासा गडबडी का रूप आया था।
मगर वह तो होता ही है। बाकी सब ठीक रहा।"


उन्होंने अपनी संस्था का हृदय बताना शुरु किया,"अनानाई क्यों
यह संस्था अध्यात्म के अधिष्ठान पर स्थापन हो गयी है। उसका मकसद केवल बाहरी ही नहीं है, यह संस्था विश्व को इस अध्यात्म के तरफ लाना चाहती है I"
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मेरी जापान यात्रा

          उन्होंने पंचतत्त्व का कुछ वर्णन किया। और कुछ गुणों का भी
किया। मुझसे पूछा, “अब आपका अनुभव बताइये!"

        तब मैंने बोलना शुरु किया। दो अनुवाद करनेवाले थे। मेरी धारणा
इस विषय में कैसे गई और अध्यात्म का अनुभव मुझे कैसे आया, यह मैंने
क्रम से बताया। बडा हर्ष हुआ उनको। उन्होंने अब ब्रह्म, माया,चैतन्य,
जीव, शिव इसका और चार देह, चार अवस्था इसका विषय सुनने की
इच्छा प्रकट की।

       मैंने कहा, "आप जब कहो तब मैं हाजिर हूँ। क्यों कि यह विषय
ही मेरे जीवन का सच्चा समाधान है। मुझे इसकी बड़ी खुशी है।"

        बस्, करीब आठ बजे से बारह बजे तक इस विषय की चर्चा हुई।
... अब हम भोजन करके आये और इस विषय को लिख गये।

         मैंने किस वक्त का भाषण किया वह स्वतंत्र विषय हैं। लिखा है
वह भी किताब के स्वरूप में देना जरूर होगा। (जापान-यात्रा के भाषण
इसी पुस्तक में आगे दिये है।)

         आज दो बजे हम संस्था से समुद्रपर्यटन और प्रकृति के विशाल
स्थान देखने को जा रहे हैं।

     ... मैं जब बोट में बैठा तब करीब सौ आदमी हमारे साथ थे। बोट
तो एक छोटा जहाज ही था। उसे इंजिन लगा था। बड़ी वेग से चलती थी
वह बोट।

        विराट समुद्र और अतराफ दो-दो हजार फिट के ऊपर बल्कि
अधिक ज्यादा ऊंचे पर्वत है। उसके बीच में अतराफ यह शहर बसा है। 

... करीबन २० मील पर एक सुंदर स्थान था बुद्ध का। वहाँ गये।

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मेरी जापान यात्रा

अति रम्य यह स्थान है।

      ... वहाँ से घूमते घूमते अतराफ के अड्डों पर चले। ... नीला गर्द
पाना समुद्र का, जैसा आकाश होता है। और इतना स्वच्छ था पानी कि, सौ
फिट का भी सुन्दर दिख सकता था। ... नीचे बडे विशाल पत्थर हैं इसके।
कभी कभी दो दो सौ फिट का एक एक पत्थर दिखता है। कभी छोटे! उसके
अंदर पेड लगे हैं सौ सौ फिट के! नीचे पानी में कुछ खास सब्जी भी बनती है। शंख और अनेक प्रकार के जानवर नजर पडते थे।

      एक बाई जाते जाते हमें मिली। सत्तर फिट गहरी डूबकी लगाकर
वहाँ से एक नई प्रजाति की मछली वह पकड रही थी। हमने वहाँ बोट खडी
की और उस लेडी की चीजों को ले लिया। ... कुछ शंख हैं और कुछ
निराले जीव! मुझे तो उस महिला को देखकर आश्चर्य लगा। वह मिनटों में
जाती थी और फिर आती थी। कितनी दफा उसकी चक्कर चलती थी उसमें!
मैंने सुना, उसी पर उसका जीवन था। देखने में सफेद रंग था बदन पर; सुंदर
सफेद कपडे थे उसके। मगर पानी में मछली के समान दिखती थी वह!

      ... हम वहाँ से चले। फलाहार (जलपान) भी बोट में ही हआ
सबका! मैंने बोट कैसे चलती, इसे गौरसे देखा। तब बोट चलाने वाले ने मुझे
सिखा दिया। और.. और आधे घंटे में सीखकर मैंने समुद्र में बोट चलाई।
ड्रायव्हर बाजू हो गया था। मुझे देखकर सब साथी आश्चर्य करने लगे कि इतने
जल्दी ये बोट कैसे चलाते?

      मैंने कहा, "जो दिल से भजन करना जानता है, वह सारा संसार
चला सकता है। फिर इस बोट की क्या बात है बाबा! अनानाईक्यों के
फौंडर (संस्थापक) भी देखने आये थे।

     चार घंटे समुद्र में हम घूमे। यह कार्यक्रम सिर्फ मेरे लिये ही था।
किनारे सब लडके-लडकियों की भीड लगी थी। सैकड़ों लोग देख रहे थे। कुछ
लडके तो बडे सुंदर शरीर के, अंडरविअर लगाये और समुद्र में दो-दो

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मेरी जापान यात्रा

तीन-तीन फलांग तैरते थे।

      हम एक जगह उतरे। मछलियों की प्रदर्शनी की वह जगह थी।
इतनी सुंदर जगह थी वह! हर मछली की जाति बताई जाती थी। मैंने तो
बंबई में मछलियों की प्रदर्शनी देखी थी। मगर उससे कई गुना यह अच्छी
थी। जलचरों की वह प्रदर्शनी देखकर मेरा दिल तो समाधि की ओर बढ़ने
लगा। दिल में आया, "क्या,ईश्वर की यह रचना है!" जितना आदमी
अपनी पोशाक नहीं कर सकता, उससे लाख गुना इन मछलियों में सुंदर रंग
और उनके प्रकार मैंने देखे। पास में बड़ी मछली थी। वह करीबन चालीसपचास फिट लंबी होगी। मगर बडी चपल! जब सांस डालती थी तब ऐसा
लगता था कि कोई इंजन हवा ले रहा हो। वह मरी हुई मछलियाँ ही खाती
थी। और भी चीजे खाती होगी; मगर हमने देखा कि एक भाई मरी मछली
डालकर उसे खिलाता था। वह विमान के समान वेग से ऊपर आती थी और
मछली खाती थी।

     .. बस्, चले वहाँ से!... कारखाना भी बोट में! समुद्र में ही हवा!
हजारों लडके मछलियाँ पकडते थे और घर ले जाते थे। मैंने मियोशी नाम के
एक प्रोफेसर को पूछा, “क्यों जी, इनको अन्न नहीं मिलता?"

         तब उन्होंने कहा, “महाराज यही इनका अन्न है। इनके पास कुछ
खेती नहीं और दूसरे धंधे भी कम हैं। वैसे ये लोग उद्योगी हैं। मगर उनको
इसके सिवा अन्न पर्याप्त नहीं मिल सकता। अगर ये मछलियाँ नहीं खावेंगे तो
मर जावेंगे बेचारे!"

       तब मैंने कहा, "हमारे देश में तो हम मुर्गी, मछली, बकरी खाने
को बड़ा पाप समझते हैं। मगर तुम्हारे तरफ तो कह ही नहीं सकते।
क्योंकि, दूसरा साधन नहीं है तुम्हें! आखिर आदमी को जिलाकर उससे
दुनिया का काम करना है; इसलिये यहाँ तो हम बता नहीं सकते। मगर
हमारे दिल को तो लगता है कि, बेचारे जीव को , फिजूल तम्हारे लिये मरना

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मेरी जापान यात्रा

है। खैर! प्रकृति ही ऐसी! क्या करें? जहाँ अन्न नहीं वहाँ दूसरा इलाज नई
है। हमारे भी देश में कुछ लोग मांसाहारी हैं। कुछ तो बिलकुल नहीं है।"
       तब उन्होंने कहा,“ वे कैसे जीते होंगे, जो माँस-मच्छी नही
खाते?"

         मैंने उन्होंने कबूल किया और कहा, "मैं भी अब ज्यादा वीजीटेबल
खाया करूंगा।"

         ... अब हम लगे किनारे।

          मैने फौंडर और उनके कार्यकर्ताओं को धन्यवाद दिये।

       तब उन्होंने कहा, "जब आपको यहाँ रहने की इच्छा होगी तब
चार छ: महिने रहने आइये। ऐसा हुआ तो हम अपनी बड़ी किस्मत समझेंगे।"
ये लोग शराब पीते हैं, यह मुझे ठीक नहीं लगता था। माँस भी खाते थे। मगर
उनके तरफ यही आदत बच्चों से लेकर बूढों तक है। तब क्या करें? मगर
बेचारे हमारे देश के समान नालियों में पड़ते मैंने नहीं देखा। जरा समझकर,
समय देखकर काम करने-करवाने की, पीने की आदत है इनको! हमारे यहाँ
से अच्छा है!

बस्,


       ... आते ही मैंने तुकारामजी को लेकर प्रार्थना की। आज मैं गरम 
कॉफी पीकर लिखने बैठा और लिखना होने के बाद सोने के तैयारी में हूँ I
मुझे ऐसा लगता है कि मेरा देश भी बहुत थोडे दिन में इसी सौंदर्य को प्राप्त
होगा। क्या नहीं मेरे देश में? ये लोग कच्चा माल वहीं से लाते हैं और पक्का
करके वहीं भेजकर पैसा कमाते हैं। अगर भारत में भी घरघर में ऐसे उद्योग
होंगे.तो भारत की बराबरी कोई राष्ट्र नहीं कर सकता। इसमें मैं शेखी नहीं
बधारता, बढाई नहीं कहता; बिलकुल यथार्थ है मेरी बात! मगर उस भारत

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मेरी जापान यात्रा

को हजारों प्रचारकों की जरूरत है, जो बिना गुटबंदी या गुटबाजी के और
बिना इलेक्शनबाजी के रचनात्मक काम करें और धर्मभावना देश की उन्नति
में लावे!
मैं अभी सोता हूँ।

          ----------------


 *शिमिझू* 
दिनांक ७ अगस्त १९५५




   आज तीन बजे मैं उठा। सब विधी हो गये।

       आज तो मैंने अपने हाथ से दाढी करना भी सीख लिया। यहाँ पर सभी
लोग करते थे। मैंने सोचा, मै ही क्या बना नहीं सकूँगा? देखा। समझ लिया।
तानाबे नाम के भाई की मदद भी मिली।.. और बन गई मेरी दाढी! छोटी छोटी
बात के लिये पराधीन रहना ठीक नहीं है। मगर भारत में मुझे करने नहीं देते थे।
वे समझते थे, यह बडे आदमियों का काम नहीं है। मगर यह गलत है। जितना
खुद का काम खुद कर सकें, करना चाहिये। कई रईस तो जूता पैर में डालने के
लिये भी आदमी रखते हैं। मैं इसको तो फिजूल रईसी मानता हूँ। इस जापान देश
में तो बड़े बड़े और भले भले आदमी अपना सामान अपने हाथ से लेकर चलते हैं।
मगर इन्होंने हमें सामान नहीं उठाने दिया। स्टेशन पर बहुत आदमी आते हैं। उनमें
से कुछ सामान ले जाने की व्यवस्था करते हैं, खुद ले जाते है।

आज फिर सुबह मीटिंग होगी।

     आज हम अनानाईक्यों के फौंडर की बिनती के अनुसार उनके
स्थान में गये |

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मेरी जापान यात्रा

-        जब मैं वहाँ गया तब उन्होंने मुझे कहा, "हम इस अनानाईक्यों
संस्था को विश्वव्यापी बना रहे हैं। उससे करीबन बहुत राष्ट्रों का संबंध है। हम
आपको उस संस्था का प्रमुख सलाहगार बनाना चाहते हैं।

       मैंने कहा, "मैं भी काफी दिन से यह सोच रहा था, कि सारे
विश्व का संबंध मुझसे आयें और मानवधर्म के विचार विश्व के लोगों के
हृदय में पहुंचाऊ! आज आपने यह योग ला दिया, इसलिये मैं आपकी
बिनती का स्वीकार करता हूँ। मैं इस संस्था का हमेशा हितचिन्त करूँगा।
सलाह देता रहूँगा। मैं शास्त्री नहीं हैं। मगर शास्त्र के हृदय का साक्षात्कार
जरूर हैं।"


     तब उन्होंने कहा, "हम इस बात को पूरे जान गये हैं!"

      हमने आज उनकी फर्ज पर मंजूरी दे दी। उनके पहले संस्था का 
उद्देश समझा लिया और वह सेवामंडल से पूरी तरह से निकट हैं, ऐसा समझकर
स्वीकृति दी। मैं उसका सलाहगार बना अब! यह गुरुदेव की दया मैं मानता हूँ। अब दूसरी मीटिंग को शुरुआत हो गयी है।

     फौंडर के प्रथम शिष्य ने कहा-" ईश्वर की आवाज ईश्वर के भक्त का
ही सुन सकते हैं। उन्हीं को जनशांति और जगत्धर्म बताने का अधिकार होता ।
है, ऐसा मैं मानता हूँ। ऐसे अधिकारी पुरुषों की आज्ञा से जगत् चलेगा तभी
संसार में शांति स्थापित होगी।" यह बात उन्होंने मेरी ओर देखकर कही।

       बाद मैंने पूछा, "आत्मा की स्थिरता के लिये क्या आप खान-पान
या रहनसहन ठीक करने की जरूरत नहीं समझते?"


      तब उन्होंने कहा, "खाने-पीने में मैं परहेज नहीं मानता! अभ्यासक
और खाने-पीने का क्या संबंध है?"

          उस पर मैंने कहा, "यह बात मुझे ठीक नहीं लगती। क्योंकि दिमाग
ठीक रहे, तन्दुरुस्ती अच्छी रहें तो ही आदमी अभ्यास कर सकता है। अगर

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मेरी जापान यात्रा

बदहजमी हो जाय तो आदमी काम ठीक नहीं करेगा। अगर शराब पिया तो
उसका ध्यान बिगड जायगा। अगर वह बुरी बातों में पडेगा तो चित्त स्थिर नहीं
होगा। क्या आप इसको नहीं मानते है?*

तब उन्होंने कबूल किया। जलपान लेने के बाद प्रेम से मीटिंग खत्म हुई |

        अब मैं भोजन करने जा रहा हूँ। बारह बजे हैं।

        
आज मेरे साथ मिस्टर कर्क थे। बंगलोर में रहते थे। उन्होंने वहीं
विषय लिया और कहा, "जब आदमी किसी चीज की परहेज नहीं रखेगा तो
चाहे कोई हो, कैसे ठीक होगा?"

मैंने कहा, "बात बराबर है। जो सारे समाज को नीति सिखाने
आगे आता है उसको जरूर परहेज रखना चाहिये। अगर वह बिना परहेज का
रहेगा, तो उसके समाज के लोग भी वैसा ही करेंगे। फिर, उसका मुकाबला
इसी को करना पड़ेगा। क्योंकि मनुष्य जब लाखों से संबंधित रहता है, तब
कोई किसी से टकराया तो जिम्मेदार कौन होगा? वही होगा जो सबके नियमों
का पालन नहीं करता। खाना, पीना, रहना इसके लिये नियम चाहिये।"

     *यह जो आपने कहा वह बात जरूरी थी।* उस अंगरेज भाई ने कहा।

           मैने कहा, "भाई, प्रकृति की आदत से आदमी बिना शिक्षा के
बिगड भी जाना स्वाभाविक है। मगर वह कम से कम सिद्धान्त तो न ठोके कि,
उसको सब चलता है! वह तो उनको सब चलता है, जिनको नल का पानी
और नाली का पानी एकसा लगता है, मरना-जनमना बराबर है। मगर जिसको
मानव समाज को ठीक रास्ते लगाना है, उसको तो परहेज से ही चलना
पडेगा।*

उसने कहा, ल *बहुत ठीक बताया आपने।*

बाद, भोजन के आराम को हम चले।

६१


मेरी जापान यात्रा

अब दो बजे ।

     यहाँ के साधारण लोग कैसे घर बनाकर रहते हैं , क्या खाते है । क्या करते हैं देखना है । उसके लिये हम सब जानेवाले है |

           मैंने इस बात का अनुभव किया है कि यह देश भौतिक रहन सहन में जितना बढने लगा है , उतना बुद्धि से मंद मंद चलता है । एकदम कोई बात इनकी समझ में नहीं आती और ये एक छोटीसी चीज को भी बहुत बडा करने लगते है I
          मैं तो इन्हें कहता हूँ कि , " ये बातें तो हमने छूटपन में ही सीखी थी ; और यह है उसका अनुभव ले लो । "

          तब ये कहते है , " बहुत ठीक है । " जैसे , इन्होंने चिंगकांग का साधन बताया ।

           मैंने कहा , " इसे तो हम * मुद्रा * समझते हैं । अभी तो बालसाक्षात्कार की बातें बहुत दूर हैं । आप तो ज्ञान के पहले अवस्था की बातें करते हैं । मैं तो आपकी ज्ञान की * सान्त  भूमिका भी बता सकता हूँ । 

तब वे कहते हैं कि , " भारत ने बहुत पुरातन काल से खोज की है । "

        मैंने कहा , " ऐसा नहीं होता तो भारत का फकीर भगवान गौतम बुद्ध यहाँ घरघर में और देश देश में अपना आसन क्या जमाता भाई कबूल करता हूँ कि आज तो हम बडों के नाम पर पले जाते हैं । भी बहुत काम करने की जरूरत है , ऐसा भी मैं कहूँगा ! फिर भी पर गांधी जैसे महान मानवधर्मी वहाँ अभी तक पैदा हो ही रहे हैं । "

        " यह तो भारत की विशेषता ही है । " ऐसा यहाँ के मीयोशी के एक बड़े प्रोफेसर ने कहा ।

अभी मैं देहात देखने गया था । मेरी इच्छा इस बात को जानने की I
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मेरी जापान यात्रा

 थी कि देहात में बड़े से बड़ा आदमी कैसे रहता है , बीचवाला कैसे रहता है और गरीब से गरीब कैसे रहता है ?

         मुझे तो मकानों का ढंग एकसा ही लगा । सिर्फ बड़े का बडा कोराबार और गरीब छोटी जगह में ! मगर रहनसहन वैसी ही दिखी ।

          लकडे के मकान ! ऊपर से कवेलू या घास ! नीचे ऊपर लकडे की चद्दर । उस पर चटाई की बिछायत ; बाथरूम ; संडास : सामने थोडा फूलोंफलों
का बाग और धंदा करने की छोटी मशीन ! 

         लडके - लडकियाँ अच्छे कपड़े पहने है । घर में आकर दूसरा पहनते
है । बाहर जाते समय दूसरा पहनते है । बडी मीठी बात का इनका चेहरा  । 
एकदम घर में कोई नहीं जा सकता । बाहर से बोलना पड़ता है । फिर वे स्वागत करने आते हैं । फिर अंदर ! वे सब दिखाते हैं बडे प्रेम से ।

           हम तो आज निशीआ ग्राम स्कूल में भी गये । बडा विशाल स्कूल
इनका ! छूटपन से ही यहाँ के स्कूलों में धंधा सिखाने लगते है । खेती , मशीन , लिखना , पढना , बैटरी बनाना , रेडियों , इंजन का काम सिखाना इत्यादि !

        बाहर के जूते अंदर नहीं और अंदर के जूते बाहर नहीं । गरीब के घर में भी वही ढंग होता है । गरीब से गरीब भी अंदर के और बाहर के जूते अलग अलग रखते है । स्कूलों में भी वही हालत । हर घर में ऐसा ही बर्ताव । बड़ों के वहाँ कुछ शान के जूते रहेंगे तो गरीब के यहाँ रबड के , धान की पुआल के ( तनीसके ) , रस्सी के या कपडे के ! मगर रहेंगे ।

      हाईस्कूल में तो सारा सायन्स और दुनिया भर की बातें सिखाई जाती हैं । हमने उसे गौर से देखा । तुकारामजी ने सब उतार लिया है ।

खाऊदीनिशीउरा गाँव के इवे डिस्पेन्सरी नाम के एक दवाखाने में हम गये । यहाँ तो सब दवाएँ जापानी ही रहेगी । बडी बडी सब मशीने 
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मेरी जापान यात्रा

 जापानी ! डॉक्टर ने कहा , " कभी चार - छ : साल में अमेरिका का एक इंजेक्शन देने का हमें मौका आता है । नही तो सब हमारी देश की दवाएँ I

          यहाँ कोई मुफ्त दवा नहीं लेता । सब लोग दवा का पैसा देते । सरकारी दवाखाना है , वह मुफ्त चलता है । 

     यहाँ के स्कूलों में सरकार के तरफ से मुफ्त शिक्षण दिया जाता । सिर्फ हाईस्कूल तक । गाना - बजाना , रसोई करना - सब जीवन की को यहाँ सिखाई जाती है । मगर फीस नही ली जाती है ।

     हम एक मंदिर में गये । वह बुद्ध मंदिर था । था तो देहाती , मी अच्छा था ।

      मैंने एक भाई से कहा , " क्यों जी , तुम्हारे सब गाँव में बुद्ध मंदिर है?"

       तब उसने उत्तर दिया , “ जापान देश में ऐसा कोई गाँव नहीं होगा जहाँ बुद्ध का मंदिर नहीं है । "

          उसने हमें पूछा , तब हमने कहा , " हमारे देश में भी बुद्ध को अवतार मानते हैं और उनका बडा आदर होता है । वहाँ बुद्ध के विशाल मंदिर हैं । अभी भी जमीन से बुद्ध मंदिर निकलते हैं । करोडो रुपये लगे हैं । " तब वह भाई बडा खुश हुआ ।

        फिर हम समुद्र के किनारे चले और कुछ लड़कों के साथ खेले । वे मुझे देखकर बड़े हँसते थे ! . . . हमारे दोस्त बन गये वे ।

फिर अनानाईक्यों संस्था में हम आये । 
अभी सात बजे मीटिंग है ।

अभी , मीटिंग होने के बाद
 भोजन करके लिखने बैठा हूँ । . . . आज तो कुछ स्नेहपूर्ण बातों की मीटिंग थी । भारत के रिवाज और जापान
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मेरी जापान यात्रा

 के रिवाज इनके बारे में फौंडर ने पूछा । उनका प्रश्न था , " भारत में साप , बिच्छू , शेर , सुअर वगैरह जानवरों को मारते हैं या नहीं ? "

       मैंने कहा , " आम तौर पर मारते हैं । मगर , कुछ समझदार लोग हैं जो नहीं मारते ; बल्कि मारने भी नहीं देते । कुछ लोग तो इतनी अहिंसा को पालते हैं कि अपने मुँह को पट्टी बांधकर वे रहते है , ताकि भूलकर भी जिवों की हत्या हमारे तरफ से ना हो । और तो माँसाहारी भी भारत में बहुत हैं । पहले तो नरमाँस भी देवता को चढाने का रिवाज हमारे देश में था , मगर अब नहीं है |"

       दूसरा प्रश्न प्रेसिडेंटने पूछा , " भारत में जंगली जानवर भी बहुत है क्या ?
" झुंड के झुंड ! " मैने कहा , “ बंदर भी बहुत हैं । नुकसान भी बहुत होता है । "

उन्होंने कहा , " हमारे देश में भी जंगल थे मगर जनसंख्या अधिक बढ़ने से सारे जंगल हम लोग खेती में मिला रहे हैं और पर्वतों पर भी उत्पादन निकालने लगे है । इसलिये अब बहुत कम हो गये हैं । 
बंदर तो यहाँ बहुत ही कम हैं । "
          फिर निकला सेवामंडल का प्रश्न , " आप नये गाँव किस तरह बना । रहे हैं ? "

     मैंने कहा , " हम तो सत्ता के अलावा लोगों की नैतिकता पर गाँव चलाना चाहते हैं । हम गरीब - अमीरका भेद धर्म के अधिष्ठान पर मिटाना चाहते हैं । . . . काम शुरू है हमारा । "

    उन्होंने पूछा , “ क्या लोग मुफ्त सब देते हैं ? "

        मैंने कहा , “ इसमें कौनसी बड़ी बात है ? जब गरीबों से कमा लेते है तो देना भी लाजमी बात है । अगर नहीं देते तो उनको भुगतना पडेगा यह भाई !जानते है, देते है I"
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मेरी जापान यात्रा

              आगे का प्रश्न निकला जातिपाँति का , " भारत बहुत जातिपाति , छुआछुत मानता है क्या ? "
         मैंने कहा , " जिन्होंने जातियाँ बनाई उनको समाज व्यवस्था जाति बनाकर रखना था । और वह व्यवस्था काफी दिन अच्छी तरह चली भी थी । मगर आज वह चल नहीं रही । इसलिये हमने जातिपाँति तोडकर मानवता बढाना शुरू किया है । यों तो भगवान बुद्ध ने भी वही बताया था । मगर कुछ सांप्रदायिकों ने उसको तोड दिया था । फिर उन्हीं विचारों को आज हम आगे बढ़ा रहे है । "
       कुछ प्रश्न मैंने पूछे । मेरा प्रश्न था , " दुनिया में आदमी जो कुछ भलाबुरा करता है , उसका पाप या पुण्य वह कहाँ भोगता है ? भोगता है या नहीं ? "

      तब फौंडरने कहा , “ जरूर , उसका नतीजा उसको मिलता है । " एक भाई ने कहा , " कुछ नहीं मिलता । वह सब तो यहीं रह जाता है । जब वही नही रहता तब सजा किसी को मिलेगी ? "

         तब मैंने कहा , " फिर अच्छी और बुरा समझना गलत है । "

       फिर उसने कहा , “ येस , इसी जनम में सब भोगना पडता है । आगे का जनम नहीं है । "

      मैंने कहा , " तुम्हारा धर्म यही बोलता है क्या ? "
       उसने कहा , " नहीं ! मेरा अपना ख्याल है । "

       बाद , मैंने सब जापानियों से पूछा , " क्यों जी, इस अनानाईक्यों में तुम क्यों आये हो ? घर में आराम क्यों नहीं करते?मजा क्यों नही करते? सुंदर लड़के - लडकियाँ हो तुम ; यहाँ क्यों रहते हो ? "
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मेरी जापान यात्रा 
 
        तब एक लड़की ने उत्तर दिया , “ मजा तो थोडी देर की बात होती । है । मगर धर्म तो मरे तक आराम में रखता है । इसलिये हम धर्म सीखने यहाँ आते हैं । "

       दूसरे लडके ने कहा , " हम छोटा घर तोडकर बड़ा घर देखकर
आये हैं । "

          बाद में कुछ ऐसी ही बातें हुई । 

फौंडर ने समारोप किया , " हम बडे भाग्यशाली हैं कि महाराज इतने दूर आकर हमारे लोगों को सिखाते भी हैं और उनमें खेलते भी है I हम उनका आभार मानते हैं I"
          इन भाषणों के बाद मीटिंग खत्म हुई |

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मेरी जापान यात्रा

 *शिमिझू से क्युटो प्रयाण* 
दिनांक ८ अगस्त १९५५



       हम आज ऊठकर स्नान , ध्यान सब करके साढेसात को भजन के लिये बैठे । उन सबकी इच्छा थी कि जाते जाते हमें भजन सुनने को मिले । मैंने सिर्फ चार - पाँच भजन बोलकर कार्य के बारे में थोडा भाषण दिया और फौंडर ने आभार प्रदर्शन किया ।


        अब दूसरी परिषद के सफर में शामिल होने को निकले । मोटर से . स्टेशन पर गये । सारा समुद्र किनारा पर्वत , बाग और सौंदर्य से भरा है । जिधर देखो , उधर देखने का दिल होता था । . . . गाडी में बैठकर शिमिझ शहर में पहूँचे । वहाँ शहर में कुछ सामान रखा था । भारत छोडते समय हमारे लड़कों को ख्याल हुआ था कि , वहाँ धोतियाँ कौन देगा ? कपडे कौन देंगे ? इसलिये किताबों का सामान का बडा गठ्ठा उन्होंने साथ कर दिया था । मैं भी जगह जगह एक एक चीज इनाम देता गया । दो जूते थे । वहीं रख दिये I मैंने चरखा वहाँ के लोगों को दिया । और भी कुछ सामान   दिया I

बाद , वहाँ से क्युटो के लिये हम निकले ।

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मेरी जापान यात्रा

 *क्यूटो* 
दिनांक ८ अगस्त १९५५



      आज यहाँ विश्वधर्मीयों की परिषद का कार्यक्रम था। चलते
समय रास्ते में अनानाईक्यों के सेक्रेटरी मि. मियोशी इनसे बहुत चर्चा हुई।

      उन्होंने कहा, "भारत का उत्पादन अच्छी चीजों को तयार।
करके बढाया तो भारत सारे राष्ट्रों में सिरताज रहेगा।"

        मैंने कहा, "हम लोगों ने अब काम हाथ लिया है। पंडित नेहरू
उस काम में पूरे लगे है। हम भी हमसे जितना बनें, रचनात्मक सेवा के काम
में हाथ बंटाते रहते है।"

        उन्होंने कहा, "मैं क्यूटो में एक बडे प्रोफेसर के नाते काम कर
रहा हूँ। एक घंटा पढ़ाने का मुझे १ हजार रुपये पगार मिलता है।" उन्होंने
अपने देश का हाल बताते हुये कहा, *बुद्ध, शिन्तो और ख्रिश्चन इन तीन
संप्रदायों ने जापान को घेरा है। शिन्तो के विचार राष्ट्रीय होने के कारण
उनका पुरस्कार सरकार भी करती है। बुद्ध पंथ अब पीछे पड़ रहा है।
कारण उसमें आलस और कर्मठता आई है।

    मैने कहा, *उसको ऊँचा उठाना चाहिये। क्योंकि, भगवान बुद्ध
का तत्त्वज्ञान विश्वधर्म को समझानेवाला है। यो तो सभी बड़े पुरुष विश्व
की मानवताको ही मानते है।"

        और भी कुछ बातें हुई। ...क्यूटो पहुँचे। .. पहले भी हम एक
बार क्यूटो आये थे I...

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मेरी जापान यात्रा

          वहाँ इस वक्त क्यूटो के मेयरने सबको पार्टी दी. मैं भी वहाँ
पहुंचा। देखकर सारे लोग नजदीक आये। पूछने लगे “अब भजन कब हो
महाराज?"

     मैंने कहा, "कल होंगे। भाषण भी होंगे।"

       सारे लोग खा रहे थे। पी रहे थे। जो कुछ हिंन्दुस्थानी थे, उनके
ऊपर मैंने नजर पहुँचाई। वे सब खा के, पी के झूम रहे थे।

       मैंने तुकारामजी से कहा, "ये लोग धर्म परिषद को आये हैं कि
पी के बकने आये हैं? ये तो भारत का नाम गँवानेवाले मेहमान दिखते हैं।
अरे भाई विश्वधर्म परिषद का माने कुछ चैनबाजी थोडी ही होती है?"
मुझे बडा दुख भी होता था। भला, पीये तो कुछ समझकर पीयें। मगर उसमें
भी चढाओढ, स्पर्धा प्रतियोगिता! यह तो ठीक नहीं है।।

    वे लोग तो बडी चाव से देख रहे थे। ... कुछ हिन्दुस्थानी तो मेरी
तरफ देखकर कहने लगे थे कि, “यहाँ गांधी के जैसे और नरेंद्र देव के जैसे
रहने से नहीं चलेगा। यहाँ तो आपको भी इधर के सरीखा रहना चाहिये।
तभी देश की शान बढती है।" यह मुझे तुकारामजी ने समझाया।

       मैंने कहा, "उनको कहो कि पूज्य गांधी नहीं होते तो तुम्हें ये
लोग बैल से ज्यादा महत्त्व नहीं देते। उन्हीं की पुण्याई है, जो भारत की
अदब आज होती है।" प्रेम से बोला।

         बाद, हम आराम करने गये। अलग अलग जगह में ठहरे थे हम।
एक विएतनाम का भक्त था। बड़ा दुर्खा हुआ था बेचारा! वह सात्त्विक
मगर यहाँ तो सब सेवक भी नहीं थे, तो धर्मगुरू कहाँ से होंगे?
हाँ, उनमें कुछ लोग तो बहुत शांत, ज्ञानी और हृदयवान भी थे |

       .. हम एक होटल में ठहरे। .. आराम की व्यवस्था हुई | ...

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मेरी जापान यात्रा

 *क्यूटो ओसाका,* 
दिनांक १ अगस्त १९५५




     आज सुबह उठे। अपना नित्यक्रम किया और भारत के कुछ
सज्जनों की याद करके खत लिखे... | वहाँ से आते भी हैं बहुत से खता...

      आज हम आठ बजे से जो निकले तो सारे क्यूटो के विशाल
मंदिर के दर्शन किये।... यहाँ पर बुद्ध के मंदिर इतने विशाल है कि एकाध
लाख आदमी प्रत्येक मंदिर में समा जाते हैं। सभी मंदिर लकडे के! बड़ी
स्वच्छता उनमें! एक एक लकडे का खंभा भी कोच के जैसा चमकता है।
नीचे भी लकडे की पट्टीयाँ! बड़ी चमकीली! मैंने गिना एक खंभे की
गोलाई (परीघ) पंद्रह फुट तक है। ... और बुद्ध की मूर्ति तो इतनी सुंदर है,
जैसी आदमी को आकर्षण करती हो। मैंने अपने आयुष्य में इतना विशाल,
लकडे का और कलापूर्ण मंदिर नहीं देखा था। इस मंदिर का नाम होगाशी
होंगाजी हैं। विश्व में दूसरे नंबर का यह मंदिर है। केवल लकडे का है।...

      .... जब हम मोटर से उतरे तो करीबन पाँच सौ बुद्ध संप्रदायी
काला ड्रेस या कफनी गले में जरी का सुंदर कलाबतुका पट्टा पहने हुये खड़े
थे। वे हम सबको सिर झुकाकर नमन कर रहे थे। हमने भी उन्हें उतने ही
आदर से प्रणाम किया।

       बाद, मंदिर के दर्शन किये। एक विशाल हॉल में हमें भोजन दिया
गया। करीबन हम सत्तर डेलीगेट और और दो तीन सौ स्थानीय, मिलने
भोजन करने टेबल कुर्सी पर बैठे।

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मेरी जापान मात्रा

पश्चात, बुद्धमंदिर के अध्यक्ष का भाषण हुआ। बाद, एक दो
और भाषण हुये।

       भोजनोपरान्त हम रेल से ओसाका आये।

        आते ही स्वागत हुआ! हजारों लोग थे। लडके लडकियाँ और
बच्चे भी! झंडे लेकर लैनसे खडे थे। झंडे हिला रहे थे।...

      ... बड़ी खुशी हुई उनको।....

     बाद, हमें एक हॉल में ले गये। जलपान कराया।

       फिर, हॉल में स्वागत के भाषण हुये। बडी सुंदर पद्धति है इनके
स्वागत की! पहले लैन में बैठे थे। हम जैसे ही आने लगे, सब तालियाँ
बजाने लगे।

      बाद, हम बैठते ही एक भाई ने सूचना की कि मेहमानों को
पुष्पगुच्छ दिये जायेंगे।

       छोटी छोटी लडकियाँ फुलों के गुच्छ लेकर लैन में खडी हई। हम
सबको खडे किया। एक-एक लड़की ने एक-एक के हाथ में गुच्च दिया |

     पश्चात, उन्होंने स्वागत गीत गाया। कुछ भाषण हुये और कार्यक्रम
समाप्त हुआ।

        बाद, हम   बिठाकर ओसाका के चारों ओर जो, सुंदर स्थान
है उन्हें और बम से जो आधा शहर खत्म हुआ वह स्थान दिखाया I बम से
जिस भाग को क्षति पहुँची वह अभी तक बाँधने का है।

७२


मेरी जापान यात्रा

      एक इतने बड़े किले में हमें वे लोग ले गये जो दस मंजिल ऊँचा
था। वहाँ से सारा ओसाका शहर दिखता था।

      ... सब घूमकर एक हॉटेल में आये। ... वहाँ अभी आराम को
जरा लेटे हैं।...

       ... मुझे एक याद अब आई। ... उस बुद्धमंदिर में एक बड़ा लंबा
और एक फिट गोलाईका (परीघ का) रास्ता था। उसे हम लोगों ने देखा।
कहा गया कि, "यह उन देवियों का है, जिन्होंने अपने सिर के बाल यहाँ
अर्पण किये और बुद्ध की दीक्षा ले। ऐसे ५२ डोर हैं।"सुना.., अजीब
बात मुझे लगी! भावना में आदमी क्या क्या कर जाता है, इसका बह दृश्य
था।

     ... बहुत ही बडा शहर है यह! ...

          ... और एक वस्तु दिखाने ले गये हमे! ... वहाँ शोध (वैज्ञानिक
खोज) करने की दुनिया भर की हजारों वस्तुएं थी। वे हमें देखने मिली और
आईस्क्रीम भी मिला।

        बस् हमारे ऊपर बुद्धसंप्रदायी विशालता का अच्छा परिणाम रहा है I

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मेरी जपान यात्रा

 *ओसाका* 
दिनांक १० अगस्ता १९५५

    आज का भजन है साढे सात बजे और भाषण भी! आज मेंरे
पास १०-१२ अखबारों के लोग आये। भडाभड फोटो लेने लगे।

     मैंने कहा, “भाई सबकों छोडकर मेरे ही पीछे क्यों पडे हो?"

उन्होंने कहा, "हमें जिनका आकर्षण हुआ, वहाँ हम खडे हुये है |

    उन्होंने मुझसे प्रश्न भी पूछे। मैंने खुशी से उनके उत्तर दिये।.... वह
सब अखबारो में आवेगा।..

      ... बाद, मैं चलने लगा। तब सब लोग देखकर प्रसन्न होते थे।

      और लोगों को बुरा लगेगा, इसलिये मैं पीछे पीछे रहने लगा। मगर
सब लोग मुझे आगे करने लगे।

   ऐसा आज का किस्सा है।

कोई बात याद से निकल जाती है, आगे पीछे लिख लेता हूँ।

         साढे सात बजे मेरा प्रथम भजन, बाद भाषण हुआ। बहुत बडा हॉल
था। वह ओसाका की जनता से भरा था। यह भजन आम जनता के लिये था।
मेरे साथ कलकत्ता के प्रोफेसर श्री चक्रवर्ति थे।

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मेरी जापान यात्रा

     भजन-भाषण के बाद, हम जाते तक सब लोगों ने जोश में
तालियां बजाई। बच्चे तो अपने हाथों से ही खंजरी बजाते थे।

   उस मालिक ने फिर फल खिलाये।

     फिर, जिस होटल में हम ठहरे थे, वहाँ आकर रहे।

       आज ओसाका में गवर्नर की हमारे साथवालों को पार्टी थी। सवाल
वहीं आया मेरे सामने बीजीटेबल! ... आज तो अंडा परोसा गया एक पदार्थ
बनाकर! मैंने देखा, कोई दूध की चीज होगी। मैं तो खाने लगता था. मगर
पास के भाई सत्यानंद से पूछा।

     उन्होंने कहा, "है तो वीजीटेबल, मगर अंडा है उसमें! "

     तब मैंने कहा, “क्या अंडा भी वीजीटेबल में आता है?"

   तब उन्होंने बताया, नहीं। उनका ख्याल नहीं था।

      तब हमने वापस कर दिया। 

         आज ओसाका में बहुत बड़े प्रमाण में मीटिंग हो गई। सभी राष्ट्रों के
प्रतिनिधि थे। सबके भाषण हुये। मलाया के रिलीजन मिनिस्टर श्री सत्यानंद
इनके भाषण से समारोप हुआ।

        बाद, सबको लकडे का एक एक बंद डबा देकर भोजन कराया।
फल दिये। एक लडकी सामान हाथ में लाकर पास आती थी और बडे ही प्रेम
से उठाने लगाती थी। मानो, हमारी माँ-बहन है; इतना उसमें प्रेम था।

        भोजन के बाद, हम चले रेल से! चले स्टेशन पर काफी लोग
पहुँचाने! रेल बहुत अच्छी थी। ट्राम जैसी मोटर थी रेल से चलनेवाली! इतने
वेग से बह चलती थी; मुझे तो लगा कि, मैं विमान के वेग से जा रहा हुँ I


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मेरी जापान यात्रा

       .... जबसे निकले... पहाड, समुद्र, नदियाँ ! चावल के खेत इतने छोटे
छोटे। पर्वतों और छोटे घरों का मनोहर दृश्य! मैं तो देखकर दंग हुआ।

      ... पर्वतों के बीच में रेल गई। अंदर से करीबन दो-दो मील की.
चार-चार मील की वहाँ गहरी खाई। जमीन में से जानेवाला वह रास्ता
इतनी सीधाई में खोदा था कि, चार मील का प्रकाश उसमें से दिखता था।
दोनो तरफ इलेक्ट्रिक की बत्तियों की लैन और बीच में वह प्रकाश सूर्य
जैसा दिखता था। बड़ा ही अनोखा वह सीन था!

      फिर दूसरा अंदरुनी रास्ता लगा। उसमें प्रकाशक चक्र दिखता था।
मन बडा प्रसन्न होता था।

       .... देखा!....

         ... स्टेशन आया।

         .... छोटी लडकियाँ सुंदर पोशाक करके कमल के फूलों का
सिरमें टोप डालकर स्वागत करने सामने आई और एक-एकके हाथ में
उन्होंने फुलों का गुच्छ दिया। उस समय सबने हाथ ऊंचा उठाकर आनंद
व्यक्त किया।

        ... सामने बस थी। ... बैठे। चली पर्वतो से। पर्वत ही पर्वत। ऐसे
ही गये सीमाकान को। हॉटेल में उतरे, जहाँ अतराफ समुद्र है और बीच में
यह स्थान है।

       हमें रास्ते में एक पर्ल आयलंड (मोतियों का दीप) लगा। उसमें
मोती .बनाने के कारखाने है। हजारों मोती बनाये जाते है। सीप से निकाले जाते है।
। उनको निकालकर पालिश चढाते है और हजारों की तादाद में गिने जाते है |
७६


मेरी जापान यात्रा

       यहाँ पर तीन लडकियों ने समुद्र में डुबकी लगाकर सिंपे निकाली।
करीबन पचास फिट तक वे डूबकी लगाती हैं और आधा घंटा दम रोककर
अपने यंत्र से काम करती हैं।

       हमने देखा अतराफ समुद्र की खाडियाँ आई हैं। बीच में पर्वत पडे
हैं। जगह जगह मिले चावल और सब तरह की किसानी! सारा जापान
पानी और पर्वत से घेरा है। कहीं तो ड़ेढ सौ मील घेरे का तालाब है,
जिसका पानी मीठा है। सब तरफ नहर है। नदियाँ घेरी है। सारे जापान में
कहीं भी जगह सूनी नहीं है, जहाँ फिजूल समझी जाती है।

इतना प्रवास बाहर के देशवाले यहाँ करना असम्भव है, जितना
हमें करने को मिला है। पहली परिषद अनानाईक्यों की और यह दूसरी !
दोनोंने सारे देश के सुंदर स्थान हमें अलग अलग दिखाये हैं।

        मुझे फिर एक भाई ने पूछा, “महाराज क्या आपके भी देश में
ऐसे अलग अलग गुट और पक्ष है?"

       हमने कहा, "भाई, गुट और पक्ष तो सभी जगह रहते है। उनमें से
कुछ काम के होते है, यह बहुत अच्छा है; परन्तु कुछ आपस में झगडते है।
देश का नुकसान करते हैं। देश के लिये वे बडे खतरनाक होते है। इसका
अनुभव तो मुझे यहाँ पर भी मिलता है। हम पाँच-छ: हिन्दुस्तानी आये है;
मगर वे सब अपनी ही शान करनेवाले हैं। सादगी को तो वे नजदीक ही नहीं
आने देते।"

       बस, अब भोजन करके सोता हुँ ।

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मेरी जापान यात्रा

 
*ओसाका से अटामी* 
दिनांक १० अगस्त १९५५


    ....आज तो सुबह ही ब्रेकफास्ट (जलपान) करके हम निकले
रमणीय स्थान देखने में आया। दस हजार एकड़ में एक स्थान बस
हा माट और ऊंचे वृक्ष यहाँ है। चलने की सडके १२५ फिट चौड़ी
। सडक पर मोटी काली रेत डाली है। ... काम इतना गंभीर है कि
विशालता की पूरी पूरी कल्पना आती है।

      ... देखते देखते १२ बज गये। ... जहाँ देखो वहाँ मंदिर! मगर
इन मंदिरों में मूर्ति नहीं है। ध्यान करने की जगह है। पवित्रता का ऊंचा
नमूना है। इसका नाम है इसेसराईन! इस मंदिर की ८० हजार शाखायें
जापान में हैं। यह उसकी काशी समझी जाती है।

     यहाँ पर गवर्नर और मेयर हमें देखने के लिये और भोजन समारोह
में स्वागत करने के लिये आये थे। भोजन के वक्त भाषण हये। सबको मोती
का नमूना दिया और कुछ छोटे फोटो भी दिये गये।

        बाद, डान्स बताया गया।शक्रेड डान्स!  पवित्र नाच I बडा गंभीर नृत्य था वह !,...एक ढोल था ।उनका घेरा  करीबन ३० फिट जरूर होगा I उसको बजाकर श्रृंगार करके वहाँ लडकियाँ नृत्य करती थी। अपने
यहाँ के और उधर के नृत्य में बडा फर्क है। उधर भावना, श्रद्धा बनाने का
प्रयोग किया जाता है। हमारे इधर के नृत्यवाले विषयरस को बढ़ाने की
भावना पैदा करते हैं।... प्रकती की विशालता में यह बड़ा शोभा देनेवाला
और ईश्वर की भावना निर्माण करनेवाला स्थान हमने देखा।

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मेरी जापान यात्रा

           यह ठीक है कि आकलन करने का इनका मिजाज बडा ठंडा है।
एक छोटीसी बात को बडा लंबा बना देते हैं।

     ... फिर यहाँ से चले रेल पर) एक घंटे में रेल बदलनी पड़ी।
बडी ही जोर से चलनेवाली ये रेले हैं। जहाँ ठहरना है, वहाँ पहले ही
लाऊडस्पीकर से गार्ड सूचना देता था कि, अब दस मिनट से आपको
उतरना है। तब सब लोग होशियार होते थे। जैसे बस में बैठे कि एक लड़की
चलते चलते उस जगह को बताते चलती है, वैसे रेल में भी होता है।

आज तो जब हमारी बस चली तब सबने एक एक गाना बोला।
और फिर मेरे पर बात आई तब मैंने भजन बोलने पर सब लोगों ने
तालियाँ जोर में बजाई।

" और एक महाराज।" वे कहने लगे।

ऐसे आग्रहपर दो चार भजन बोल दिये।

बाद, सब मेरे पास आकर कहते है, "आज तो हम खंजरी का
भजन सुनेंगे महाराज!"

" जरूर सुनों रात को," मैंने कहा!

बड़े खुश मेरे ऊपर। मैं भी बच्चे के मुताबिक उनसे मिलता जुलता था।

  .... हम फिर रेल में चले। हमें कुछ पंखे और कुछ फोटो दिये गये।
आते आते लोग बड़े हृदय से देखते थे। मगर वहाँ के जो कुछ
भारतवासी थे उनको ठीक नहीं लगता था। क्योंकि उनको भी मेरा परिचय
ज्यादा नही था।

७९


मेरी जापान यात्रा

        वहाँ का गवर्नर मिला। तब उसने तुकारामजी द्वारा मुझसे कहा,
"आपकी फोटो और कीर्ति अखबार में सुनी।"

बाद, हम नागोया गये। ... वहाँ स्टेशन पर ठहरकर अभी अटामी
जा रहे हैं। वहाँ के मेयर ने मिलने को बुलाया।

... यह विश्वशांति परिषद शांति देगी तब देगी, मगर हमारे साथ
सारे राष्ट्र के लोगों से प्रेम तो जरूर पैदा कर रही है।

     .. यहाँ भोजन के वक्त एक भाई बोला, “विश्वशांति कोई 
आसान नहीं है; मगर उसका यही रास्ता हो सकता है, जो हम कर रहे है |

        अटामी स्टेशन पर उतरने के साथ वहाँ के मेयर ने बड़े प्रमाण में
स्वागत किया। लडकियों ने पुष्पगुच्छ दिये। मेयर ने थोडा भाषण दिया।...
फिर होटल में उतरने गये।... यह होटल विशाल समुद्र के किनारे पर बसा
हुआ है।... यहाँ से जब मैं मेरे कमरे से देखता हूँ , तो, आकाश में और
समुद्र में कोई भेद नहीं दिख पाता।

      रात को फिर भोजन के समय बाई इलापाल चौधरी का भाषण
हुआ।... हमने अब ऐसा निश्चित किया कि, उसी को सामने करते जाना!
क्योंकि यहाँ हमारी एक ही महिला प्रतिनिधि आई है और महिलायें तो 
कार्यक्रमों में ज्यादा आती हैं। ... मैं तो पीछे पीछे ही चलता हूँ। मगर यहाँ
के कार्यकर्ता मुझे खींचकर ले जाते हैं। ।

         .... भाषण के पश्चात इस अटामी शहर का सिनेमा दिखाया
गया।... एक बड़ा ही सुंदर शहर है। यहाँ प्राकृतिक गरम पानी के झरने है I...


८०


मेरी जपान यात्रा

 *अटामी- होकॅनो* 
दिनांक १२ अगस्त १९५५

       आज मैं सुबह उठकर बैठा था। जरा पैर में गोला आया था।
दिनभर बैठे बैठे और मोटार में, रेल में बैठे बैठे थकासा हो गया था।...

        .....यहाँ सोने की गहियाँ बड़ी ही नरम है। ...   मुझे वहाँ उस पर
नींद नहीं आती। मैं अपना नीचे ही सो जाता हैं।

        ... आज यहाँ आठ बजे से फिर नये नये लोगों के भाषण हैं। ...
सब पर एक दिन की बारी आती है। ... मेरी तो भाषा की अडचन। ...
लोग चेहरा देखकर हाथ जोडते हैं और हँसते हैं। मैं भी वैसा ही करता हूँ।
मगर तुकारामजी रहे तो थोडा काम चल जाता है। फिर भी, उनको जापानी
नहीं आती इसलिये दिक्कत जाती है। तो भी हमारा ठीक चला है उस
मानसे!

           नेपाल के एक प्रतिनिधि आये है। वे हिंदी भी बोलते हैं। हमसे बहुत
बातें उन्होंने की। वे गुरुकुंज आश्रम में आना चाहते हैं। मैंने कहा, "जरूर
आईयेगा।"

      बस् ! बाद का बाद लिखूगा।

        आज सुबह आठ बजे मीटिंग के लिये गया।

           जाते समय मैंने देखा कि रास्ता उत्तम सौंदर्य से भरा हुआ है। पर्वत
इतने ऊंचे कि उन पर चढना भी खतरनाक है। अगर गाडी एक फिट भी रास्ते
के नीचे जाती तो क्षण में तीन हजार फिट नीचे समुद्र में जा गिरती। फिर भी

८१


मेरी जापान यात्रा

(लोगों ने ) इस रास्ते को सीमेंट से मजबूत बनाकर इस जगह की खूबसूरती
बढाई है I चकर काटते हुये पर्वत के चोटी पर आये। वहाँ विशाल हाल
है। करी बन
दस हजार आदमी कुर्सी पर बैठ सकते हैं। बडे बडे खम्बोपर
बना यह हॉल बड़ा ही महावना लगता है। भीतर  थियेटर के जैसा एक
भव्य तथा सुन्दर मंच भी है। वहाँ हमारे पहले मुशिक्षित लोग कुर्सियों पर बैठे हुये थे I

      हम उतरते ही सीनेमा के कैमरों से फोटो खीचे गये। मैंने देखा कि
जोशभरी तालियों की आवाज में जगह जगह पर सुन्दर बालिकाएं स्वागत कर
रही है।

       बस, हम अन्दर गये और आसनस्थ हुये। थोड़ी ही देर में उनकी
प्रार्थना आरम्भ हुई। कितना आदर और कितना अनुशासन था उनकी प्रार्थना
में! मुझे तो सेवामण्डल की याद आ गयी। दोनों प्रार्थनाओं में फर्क इतना ही
कहा जा सकता है कि, मेवामण्डल की प्रार्थनाये फटे, पुराने कापडे पहने लोग
प्रार्थना करते है। और यहाँ की प्रार्थना का ठाट है दाबारी!

       प्रार्थना के बाद इस कार्यक्रम के मुखिया ने मेरा परिचय करा दिया।
में बैठकर भजन के लिये मंच पर गया। लोगों के लिये यह अजीब सी बात थी।
उन्होंने न तो खंजडी देखी थी और न तो सुनी थी। खंजडी पर थाप पडते ही
करतल ध्वनि से अन्होंने खूशी प्रदर्शित की और जब गाने लगा तब वे
बिल्कुल शांत थे।

     मैने दस मिनिट में तीन भजन गाये और फिर अपनी जगह की ओर
जाने लगा। रास्ते में लोगों ने मुझे रोक रोककर फोटो खीचे।

      बाद में दरबारी ठाट से कार्यक्रम की शुरुआत हुई | सबो के भाषणों
का विषय एक ही था | वह था- जगत् मे  युध्द कैसे बन्द  हो और हम सब २ाष्ट्रों में स्नेह केसा पैदा कर सकते है |

८२


मेरी जापान यात्रा

     मीटिंग के बाद फिर से फोटो के लिये तैयार होना पड़ा।

       भोजन के बाद पर्वत के निसर्गरम्य दृश्य तथा गरम पानी के झरने
साथ ही समुद्र किनारे के मनोरम दृश्य देखने हम सब लोग गये।

       हम होकेनो म्युझियम देखने के लिये भी गये थे। वहाँ पुरातन मूर्तियाँ
और चित्रकला देखी। अतराफ ऋषियों के जैसी सुन्दर कुटियाँ तथा घर, पहाडी
रास्ते और पहाडी लोगों की सुन्दर रहनसहन हमने देखी। वह बड़ीही सुहावनी थी |

          बाद में हम एक विशाल तालाब में पानी की मोटर पर बैठकर सैर
करने गये। तालाब बहुत गहरा था। हम उसमें आधा घंटा सैर सपाटा करते
रहे। अतराफ पर्वत, ऊपर बादल, नीचे नीला पानी और बीच में हमारी
जल मोटर चलती थी। तालाब का नीला पानी हजारों लहरों के रूप में
उछल रहा था। पर्वतों की विशेषता यह थी कि वे सुन्दर वृक्षों से हरेभरे
दिखाई देते थे; और वे थे भी कितने सुहावेने! उन्हें देखकर दिल भी हराभरा
हो जाता था।

         हमने होटल में जलपान किया तब मेरे पड़ोस में बैठे एक जापानी
भाई ने मुझसे पूछा - "बाबा! आपको जापान कैसे भाया?"

      मैंने कहा, “ईश्वर ने आपको बडी सुहावनी जगह दी है। आपके
लोगों ने उसका अच्छा सदुपयोग भी किया है और आपके राज्य ने भी! हमारे
देश में देखने योग्य बहुत स्थल हैं- जंगल है, पहाड़ है। मगर इतने परिश्रम
उठाकर हम वहाँ रंगदेवता की ऐसी सजावट कर नहीं पाये। हमारा देश अभी
अभी स्वतंत्र हआ है और अब ऐसा कार्य वहाँ भी जोर से शुरु हो गया है। लोग
भी अब सचेत होकर इस दिशा में प्रयत्नशील है। आशा है दस- पंद्रह वर्ष में
भारत का नक्शा बदल कर वह भी प्रेक्षणीय बन जायगा।"

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मेरी जापान यात्रा




        जपान- चित्रावली














    ( बैठे हुए)- कु. काझर्ड, वं. महाराज, अनानाईडोके संस्थापक श्री नाकानो और श्री कर्क तथा अन्य सदस्य I



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मेरी जापान यात्रा






     जापान- चित्रावली









टोकियो के संपन्न विश्वास धर्म तथा विश्वशांती परिषद गुजरता हुआ संत तुकडोजी महाराज का सुधूर खंजिरी भजन I








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मेटी जापान यात्रा

           बाद में उन्होंने दूसरा प्रश्न किया कि , " मनुष्य को ईश्वर के दर्शन करने में कौन से अडंगे उपस्थित होते है ? "

        तब मैने कहा - “ यो तो इसके लिये कोई अडचन नही : केवल अडचन यह हो सकती कि हमारा दिल अपने लोगं में से निकालकर ईश्वर में लगा देने की तैयारी होनी चाहिये । और जब हम उसमें दिल लगाते हैं तो दिल में संकल्प व विकल्पता का तूफान ( संगठन ) आगे बढ़ने नहीं देता । । यदि उससे मार्ग निकाल लिया तो फिर घर के लोग चाहते है कि हमने ऐसा । रहना चाहिये और वैसा ! इससे भी आगे बढ़े तो लोग साथ नहीं देते । जगह । जगह पर अनादर होता है । चूंकि शहर के लिये आवश्यक खाना - पीना भी समय पर न मिलने से वह रोगी सा , जर्जर बन जाता है । पर ऐसी दर्दशा में भी ईश्वर की भक्ति नहीं छोडना । वहीं ईश्वर के दर्शन को प्राप्त हो जाता है । और अन्त में जब साक्षात्कार होता है तब लोगों में भी बडी भक्ति होने लगती है ; क्योंकि उसके उज्वल स्वभाव का घरपर , पडोसी पर और जनता पर बड़ा प्रभाव पड़ता है । मगर बडी अडचन तो यह आती है कि लोगों के हंसने द्वारा उसकी जान जाने की नौबत आ जाती है । आज तक जितने बड़े
आदमी - संत ; तत्त्ववेत्ता हो गये , वे सब इसी रास्ते से गये हैं । क्या आपको यह बात जँचती है ? "

          मेरे प्रश्न का उत्तर देते हुए उस भाई ने कहा - “ यह तो सिद्धान्त की चीज आपने बताई । हमें बडीही पसन्द पड़ी ; मगर क्या हमको भी सब करना होगा ? "

 मैंनेक कहा-" यह करना नहीं पडता। जो आगे बढता है, उसे पैरों के नीचे की मिट्टी छोडनी ही पड़ती है । हम तो आपको यह बतातहकि आप अपने दोनों काम कीजिये । अपना घर संसार भी चलाहेये ओर ईश्वर की प्रार्थना भी किजिये । नीति से चलना सीखिये और सबके साथ ईमानदारी सबका अदब रखिये । तब तो धीरे - धीरे यह भी बात हो जायेगी कि

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मेरी जापान यात्रा

लोग आपके स्वभाव को जानने लगेंगे और जहाँ तक हो आपकी मुश्किलें आसान बनती जायेगी और अन्त में आपका जीवन ही सफल बनकर , रहेगा । 

         यह सुनकर उन्होंने नमस्कार किया और कहा - " इतनी अच्छी बाते हमने अपने जीवन में नहीं सुनी थी । 

       मैंने कहा - “ धन्यवाद ! मैं तो ऐसा ही गरीब भाई है । प्रेनियों के साथ पिघल जाता हूँ ! "

         बाद में हम होटल में ठहरने के लिये गये । भोजन हुआ और रात में वहाँ की बस्ती में रहनेवाली बहनों का बढिया नृत्य भी हुआ ।

           नृत्य दिखाने हम सबको ले गये । मैंने देखा कि , उस नृत्य में कुछ
बडे बडे आदमी भी थे । सभी युवा लडकियाँ , बुढियाँ तथा भाई लोग एक ताल पर नृत्य करने लगे ।

        बीच में दो नगारे थे । बाजा बजता था और अपने रंग में रंगकरकर वे सब नृत्य करते थे । हम लोग भी उसमें शामिल हो गये  इस नृत्य में उन लोगों की भजन सी धार्मिक सद्भावना अभिव्यक्त होती थी ।

         मुझे लगा कि उसमें विषयी लोगों की मस्ती होगी ; मगर यह गलत था । जैसे कि अपने देश के आदिवासी लोगों में नृत्यों का रिवाज है , जापान में भी यह रिवाज सर्वत्र पाया जाता है ।

         बाद में हम आराम करने होटल की ओर निकले । लौटते समय मुझे अनायास हमारे पंढरपूर की याद हो आई । वहाँ भी तो भक्तिरस से सराबोर होकर भाविक भक्त ऐसी ही मस्ती में झूमझूमकर भजन गाते और नाचते हैं ।

           भगवान् ! तू कहाँ नहीं है ? तेरी छटा सभी जगह फैली हुई है । तो फिर क्यों न तेरे प्रेम से भाविक जन नाच उठे ? बेशक , हर जगह ! . . . "

       बस ! मैं उस सर्वव्यापि परमेश्वर के चिंतन में निद्रिस्त हो गया ।

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मेरी जापान यात्रा



    *होकॅनो - निको*       दिनांक १३ अगस्त १९५६

         आज सुबह उठते ही होकॅनो पर्वत और विशाल तालाब निसर्गरम्य दृश्यों का दर्शन हुआ । बस् ! स्नान - आसन आदि निपटाकर नीचे उतरा तो सब भाई मिले ।

      छोटी नाव में बैठकर हम सबको परिषद के जनरल सेक्रेटरी सैर के लिये ले गये ।

        एक पहाड के समीप हमारी नाव आते ही जनरल सेक्रेटरी ने कहा " महाराज ! हम आपको इस पहाडी पर दस हजार मीटर भूमि देना चाहते है । इस भूमि पर ऐसा मंदिर तथा आश्रम रहेगा , जो विश्व धर्म की विशाल योजना का केंद्र बनेगा । "

       धन्यवाद देते हो मैंने कहा " तो आप लोगों द्वारा यह स्थान तैयार होते ही उसका उद्घाटन करने में अवश्य आऊंगा । इस योजना के लिये प्रचारक भी भेजूंगा ! . . . मुझे बड़ी खुशी हुई , जो आप यह काम उठा रहे हैं । "

       बाद में सुबह का नाश्ता ! हम बस में बैठे और बड़े बडे स्थान देखते देखते रेल से टोकियों होतो हुये निकोको आ गये । . . . यहाँ हर शहर में सौंदर्य ! हर देहात में सौंदर्य ! हर बात में कला ! . . . अजीब है इस देश की तरक्की !

        मैंने तुकारामजी को कहा - “ देखो ! वहाँ वह मजदूर मिट्टी ढोने का कर रहा है और देखो तो दिखता भी कैसा राजकुमार सा ! उसकी
कितनी अच्छी है ! उसके काम की चपलता भी कितनी अच्छी ! हमारे देश के मजदूर ! बेचारे करें भी क्या ? पहले तो लखपाल
सेतो लखपतियों ने उन्हें चूस आरव खुद भी निकम्मे रहने के आदी बन गये है । उनको देश की  कोई परवाह भी नहीं ! "
८८


मेरी जापान यात्रा
      
        तब तुकारामजी ने कहा " जी हाँ1 . . . अब तो अपना देश भी
सुधरेगा । "

        हम निको के होटल में ठहरो अब कल यहाँ अन्तिम अधिवेशन होगा । मेरा भाषण रखा है इन लोगों ने ! . . . देखे भगवान क्या करना है ।

       आज ही भोजन के बाद मीटिंग निश्चित हुई ; इसलिये कि कल यही कुछ दृश्य देखना है ।

. . . मीटिंग में गया । अध्यक्ष की योजना हुई । निको के एक बुद्ध सम्प्रदायी बहुत बुजुर्ग थे । हम सबने उन्हीं के अध्यक्ष - स्थान दिया ।

         बाद , उन्होंने मेरा मीटिंग के उद्घाटन का भाषण रखा : करीबन तीस मिनट तक भाषण हुआ ।

         थोडी देर और दूसरे लोगों के भाषण हुए ।
         एक ने कहा कि , “ धर्म मंदिर का बुद्ध के समय बचाव होना
चाहिये । "
         दूसरे ने कहा " जिन मंदिरों की जगह बहुत च्याप्त है ऐसे मंदिरों में दवाखाने , उद्योग , खेतीकाम और अन्य कामों की शिक्षा देनी चाहिये । इससे अधिक धर्म का उपयोग है ? "

       तीसरे ने कहा " इतने में ही धर्म समाप्त नहीं होता । वह तो मनुष्य को आत्मप्राप्ति तक पहुँचाता है । "

        फिर एक भाई ने कहा - " युद्ध में केवल मंदिर बचाने की कल्पना ही क्यों ? सच तो यह है कि युद्ध ही होना न चाहिये । तब न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी ! "

      इस तरह यह विषय बढता गया । अध्यक्ष महोदय से सम्हाला न गया । बाद में ऐसा तय हुआ कि कल फलाहार के समय कुछ विषय लेकर मीटिंग बरखास्त की जाय ।

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मेरी जापान यात्रा
     

      *निको - टोकियो* दिनांक १४ अगस्त १९५५

       *मै* सुबह   ऊठकर और नित्यक्रम निपटाकर ६ बजे लिखने बैठा । आठ बजे आँखरी मीटिंग होगी ।

       यहाँ सब लोग दिनभर देखते - देखते थक जाते है । फिर भी उन्हें तनिक भा सामान उठाने का प्रसंग नहीं आता । परिषद के सेवक सबका सामान ढोते हैं । जहाँ जहाँ हम जाते वहाँ  यह देखो !  वह देखो !  मैं तो देखने से ऊब गया । अब तो जी चाहता है कि जल्द ही भारत में जाकर कुछ काम करूँ ।

        आज भोजन के समय परिषद का समारोप हआ । परस्पर में शाश्वत प्रेम और बंधुत्व बढाने की चर्चा हुई । यह परषिद प्रतिवर्ष विभिन्न राष्ट्रों में आयोजित कर मानवधर्म का प्रचार करने का भी निश्चित किया गया ।

     बाद में सभी टोकियों के लिये रवाना हुए ।

     . यहाँ हमें एक ऐसे ऊंचे पर्वत पर ले गये , जिसकी ऊंचाई लगभग छ : हजार फिट से भी अधिक है । यहाँ के रास्ते बडीही कशाल सजाकर उनमें सुन्दरता लाई गयी है । ऊपर एक विशाल जला इर्दगिर्द में प्राकृतिक दृश्यों की भरमार है ।

      आज हम एक विशाल बुद्धमंदिर देखने गये । इस मंदिर में करोडो रुपये खर्च हुए होंगे । उसकी व्याप्ति एक चौरस मील से होगी । मंदिर में सर्वत्र सोने के पत्रे लगाकर कहीं कहीं सोने का चढाया गया है । कला तो मानो इसके नस नस में भरी पड़ी है । या वृक्ष तीन सौ फिट ऊंचे हैं । वे बिल्कुल सीधे और हजारों की ताद समूचे जापान के लोग यहाँ आते हैं । स्कूल - कॉलेजों के विद्या टोलियाँ बनाकर अपने अध्यापकों के साथ यहाँ आते और धार्मिक शिक्षा

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मेरी जापान यात्रा 

लेते हैं। यहाँ आनेवाले हजारों विद्यार्थियों में भी हमने भारी अनुशासन देखा।

         बाद में हम टोकियों आये। यहाँ एक संस्था के संस्थापक (फौन्डर)
श्री शिनरीको इन्होंने हमें भोजन के लिये बुलाया। इस अवसर पर हमें
जापानी पद्धती की पोशाक दी गयी।

        रात से दस बजे इन्टरनॅशनल होटल में हमने आराम किया।

       --------------------------

 *टोकियो,* 
दिनांक १५ अगस्त १९५५


        आज हमें यहाँ एक बड़े कार्यक्रम का बुलावा आया था। सभा
और भाषण के बाद कुछ लोग मुझे मिलने आये थे। उनमें कुछ उद्योग
निर्माण करनेवाले थे। मैंने उनसे कहा, "यदि वे लोग हमारे देश में आकर
कुछ दिन देहाती उद्योग सिखा सकेंगे तो हम ५०-५० देहातों के ब्लॉक
बनाकर उनमें आपकी व्यवस्था कर देंगे।"

       उन्होंने कहा, "हमे असम प्रान्त से वैसा निमंत्रण प्राप्त हो चुका
है।" उन्होंने आगे कहा कि असम में आनेपर मुझे वे खत देकर सम्बन्ध
स्थापित कर सकेंगे। साथ ही सरकार से भी इस विषय में सम्बन्ध प्रस्थापित करेगें I

        मैने कहा, "अवश्य कीजिये इतना! मैं भी प्रान्तीय सरकार को
इस विषय में समझा सकूँगा।"

बाद में शिमिझू में आयोजित विश्वधर्म परिषद के सेक्रेटरी मझे
मिलने आये।

.... मुझे आज रात को विमान द्वारा बँकॉक जाना है। अत:
भोजन के पहले शांति-सभा की एक बैठक हुई।

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मेरी जापान यात्रा

           वहाँ जाते ही तालियां बजाकर मेरा स्वागत किया गया। कुर्सी पर
बैठते ही कॅमेरावाले लोगों ने मुझे घेर लिया। सीनेमा की फिल्म भी खींची
गयी। बाद में अनेको के भाषण हये। इस सभा में सरकारी मंत्री, ऊंचे
अधिकारी और अन्य प्रतिष्ठित लोग भी सम्मिलित थे।

       भाषणों के बाद सभी ने एक मिनट खड़े रहकर विश्वशाति के
लिये मौन प्रार्थना की और यह सभी बरखास्त हुई।

बाद में भोजन के पहले सबका ग्रुप फोटो लिया गया।

भोजन के बाद हम सब इन्टरनेशनल हाल में आये।

      थोड़ी ही देर में कुछ सामान खरीदने हम शहर में गये। वहाँ एक
अजीब बात हुई। सामान खरीदते हुये पास के पैसे खर्च हो गये। बैंक में चेक
तुडवाना था। उसके बिना पैसा मिलना मुश्किल था। बैंक के सिवा अन्य कोई
चेक ले भी नहीं सकता था। वह कानूनी गुनाह हो सकता था। समस्या बिकट
श्री नगेज. हमाली और होटल के बिल भी चुकाने थे और रात को विमानदारा
कजाना भी निश्चित ही था। एसा अवस्था में हमको एक यक्ति सझी। वहाँ
दिल एम्बसी में (भारतीय दूतावासम) श्री अभ्यकर नामक एक भाई थे। उनसे
हमने कहा-"भाई! हमारे पास पैसे है मगर येन (जापानी
(जापानी मुद्रा) नहीं है।

        बाद में उन्होंने चेक की कीमत के येन लेकर और वहीं पर उनके
अति आग्रह के खातिर खाना खाकर रात के ९ बजे हम हवाई अंडडे पर गये I

श्री अनानाइको के बन्यू हमें पहुंचाने विमान
थे। यहाँ जो दूसरी परिषद थी, उस परिषद की
दोनो में कल गुटबाजी सी दिखाई दी।.... रात १२ बजे तक वे भोई मेरे पास 
व्यवस्था के लिये थे। लगेज कुछ बढ़ गया था।परंतु , मुझे देखते ही विमानवालों 
ने कहा कि मेरा लगेज मुफ्त में ले जाने को वे तैयार है ।

बस्। हवाई जहाज हवा में तीन हजार फुट उंचाई पर उड़ रहा है
और यह दिनचर्या लिख रहा हूँ।
      ______________
९२


मेरी जापान यात्रा 


 *हाँगकाँग-बँकाक* 
दिनांक १६ अगस्त १९५५


       अभी हम तायुषे द्वीप में ठहरे थे और अब हाँगकाँग आयेगा।

हम हाँगकाँग में उतरे। चारों तरफ पर्वत बिखरा हुआ है और उस
एक पर बसी हुई है यह सुन्दर नगरी। नगर के बीच तक गंगा-सा सागर फैला
शक हुआ है। किनारों पर बनाये हुए घर बहुत ही लुभावने हैं। ये सब मनोहर
कोई दृश्य देखकर दिल की कली खिल जाती है।

       वहाँ पहुंचने के बाद में हमें कुछ भारतीय भाई मिले। उनमें कुछ
तो मारवाडी भाई थे। एक सिपाही भी था I
     
भोजन के बाद फिर बैंकॉक के लिये रवाना हुये।
       अब बैंकॉक उतरेंगे और हम वहाँ के हिन्दू- सभा मंदिर में
जायेंगे।

      विमान से उतरते ही बँकॉक की जनता ने हाथ ऊपर उठाकर
जब जय की आवाज कर स्वागत किया। मुझे लगा, "ठिक है! सब
व्यवस्था हो चुकी है।"

       विमान से उतरा तो मोटर तैयार थी। हिन्दू सभा मंदिर में मुझे
लाया गया। मंदिर साधारणतः अच्छा ही है।

     अनेक लोग मुझे मिलने आये थे। उनमें उल्लास भरा दिखाई देता था।
एक ने पूछा - "महाराज! आपको इस मंदिर में कैसा लगता है?"

९३


मेरी जापान मात्रा

        मैंने कहा- "भाई! मुझे तो लगता है कि मैं कही भारत में ही आ
पहुँचा हूँ और अपने भारतीय भाइयों के बीच उपस्थित हैं।"

           बाद में पुजारी मिते; और भी कुछ भाई आये। उनमें एक श्री
दुनिया शुक्ल नामक भाई थे। स्वभाव के बडे मिलनसार थे वे! सुभाषचन्द्र
बोस की सेना में काम किये हुये थे। उन्होंने कहा, महाराज! आज की
फोटो में जब आपको देखा तो मैं देखता ही रह गया। मैं मस्त हो गया। बडी
खुशी हुई आपके दर्शन से। हम लोग तो सुभाषचंद्र बोस के सिपाही रहे हैं।
समूचा एशिया उनको भगवान मानता है। उन्होंने सन बयालीस में इतनी
महाक्रांति छेडी थी कि जिससे हिन्दुस्थान में पड़ी ब्रिटिश सल्तनत की नींव
डगमगाने लगी। ब्रिटिश लोग यह जान सके कि एक हिन्दुस्थानी नेता भी
इतनी तैयारी कर सकता है। तीन महिनों में ८० हजार सिपाहियों की फौज
उन्होंने तैयार की। ब्रिटिशों की फौज ही उनके खिलाफ तैयार की। सिंगापूर,
पेनांग और इधर के सारे हलके हमारे कब्जे में थे।

      उस भाई ने आगे कहा, महाराज! जब सुभाषबाबू बाहर
निकलकर शहर में घूमते थे, तब तोप भी बन्द पड़ जाती थी। उनपर
इथियार उठाने की किसी की हिम्मत ही नहीं होती थी। एक गीत
इधर सर्वत्र कहा जाता है। वह है

आजादी कैसी होती है वह वर्मा के हिंदियों से पळो।
शासन कैसा चलाना वह नेता सुभाषसे पूछो।।

तममन न्योलावर कर देखा आजाद-पसंदों से पूछो।
निज देश की सेवा में  मर मिटना आईन् के जवानों से पुछो॥
भारत पर कैसा जुल्म हुआ, भारत किसान पूछो ॥
भारत आजाद कैसे हुआ, पंडित नेहरू से पूछो॥

९४


मेरी जापान यात्रा 

डरते नहीं है दुनिया में सुभाषचन्द्र किसी से । अगर शंका है तो पूछ लो ब्रिटिश गव्हरमेंट से ।I

          गीत कहने के बाद वह बोला , " अगर सुभाष होता तो पाकिस्तान कैसे बनता हम देखते थे ? "

          फिर उसी ने कहा , " लडने के पश्चातही मिलने में मजा रहता है ? केवल नम्रता से मिलन करोंगे तो कभी न कभी वह उछाल मारेगा इसमें कोई सन्देह नहीं । "

मैंने कहा " भाई ! यह तो ठीक हुआ जो कुछ हुआ ! मगर अब तो देश को नमूनेदार बनाना है । खाना , घर , कपडा , इज्जत और कला देश में कैसी बढेगी इसका विचार अब होना चाहिये । इसकी बडी जरूरत है । भारत सरकार उसके लिये प्रयत्न भी कर रही है । "

उसने कहा “ बेशक ! आपकी बात हम मंजूर करते हैं । क्योंकि , केवल पिछला किस्सा कहने से थोडाही काम बनेगा । उसका तो दिलको सहारा मिलता है कि , हमने क्या काम किया था ! "

बाद , वे सब लोग घर चले गये ।

      आज रात को मैं इतना थक गया कि सोने को दिल होता था । बस ! पड़ा एक खटिया पर ! रात के १२ बजे भोजन को उठा ! भोजन किया
और लेट गया ।
     
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        _______________
९५


मेरी जापान यात्रा



       *बँकाक ,*
 दिनांक १७ अगस्त १९५८

           आज सुबह उठकर टट्टी ,
 मुंह - हाथ धोकर , प्रात : विधि निपटाका एक माह के बाद मालिश करवाया । नहाकर ध्यान किया और अब लिखने बैठा ।

         आज तो यहाँ के सब लोग मिलने आयेंगे । और कल पेनांग जाने का विचार हो रहा है । वहाँ की जनता का निमंत्रण है । . . . सिंगापुर भी निमंत्रण आया है ।

          सभी जगह जाने का सोचता हूं थोडा थोडा !

 आज बँकॉक में जरा घूमने निकला था ।

     यह शहर थायलंड की राजधानी है । बडी विशाल सड़कें । भव्य मंदिरों की योजना और राज्य के पुराने महल वगैरह बहुत हैं ।
         आज हमसे तुकारामजी ने कहा," जब मलाया जाना है , तो अपने पासपोर्ट में उसका नाम चाहिये । पेनाग है , सिंगापुर है , लेकिन
कोललमपुर ( मलायाका एक शहर ) का नाम नहीं है । "

       भारतीय वकालत से बताया गया , “ महाराज तक ठहरना पड़ेगा । देहली से वीसा आयेगा । तब जाना चाहिये Iवैसे तो हम यहाँ से दे सकते है | मगर वहाँ अगर रोकटोक हई तो अच्छा नहीं हैं । "

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मेरी जापान यात्रा 


   *बँकाक,* 
दिनांक १७ अगस्त १९५५


        यहाँ शंकरजी का एक सुंदर मंदिर है। सुना "वह मूर्ति नीले मूँह है |
की है और वहाँ बैंकाक का राजा आठ दिन में एक बार पूजा करने आता
है। बड़ा अनोखा दृश्य है वहाँ का!" मैं वहाँ जरूर जाऊंगा। ... मझे इससे
पता चलता है कि, भारत देश की संस्कृति कितनी दूर तक पहंची थी,
जबकि वायुयान भी नहीं थे। यहां पर भी भारत की उज्जल परंपरा की शान
नजर आती है। यहाँ की रहन सहन बाहर से तो पाश्चात्य संस्कति की हो
गई. मगर लोगों के दिल भारतीय है। ...मैं उस मंदिर को देखने जाऊंगा।

        १० बजे मंदिर को देखने हम निकले शहर में। अच्छा है यह शहर
ना। मंदिर तो मैंने अजीबही देखा। आज मता समझता कि यदि
को कई करोड रुपये लगे होंगे। हीरे और तुझे के कारीगरी से लबालब भरा हुआ है यह मंदिर! सब तरफ भगवान बुद्ध की मूतियाँ ! मगर राजविलास है उनमें। यहाँ की नसनस में कला भरी है। बडे बडे विशाल खम्बे, मूर्तियाँ 
और सारी दीवारों पर सुवर्ण के वर्क से रामायण के सक्रिय चित्र है | रामजन्म से सीता के मीलन तक पूरा रामायण चित्र में उतारा है। बिच में छोटे छोटे मंदिर है, मगर बढी कला भर दी है उसमें। रास्ते में देखकर आये चलते! एक सुंदर हनुमान मंदिर बना है, जो सारे शहर के मकानो से भी ऊंचा है। ऐसा खूबसूरत है जैसे कोई राजमहल बना हुआ हो I यहाँ एक समुद्र की खाडी का हमने पुल देखा है। मगर जब उसमें से
जलयान चलता है तो पूल के दोनों खम्बे खडे हो जाते है और फिर बंद
किये जाते है।

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*मेरी जापान यात्रा* 

       
       आज एक धनी आदमी ने हमें भोजन का निमंत्रण दिया है । मैंने
किया । ये भाई जैन हैं । रहनेवाले है बम्बई के , मगर व्यापार की कंपनी खोली है यहाँ । कल जाऊंगा मैं भोजन को ।

    . . . आज तो भारत महाविद्यालय में भाषण और भजन को जाऊंगा मैं । सुनते है यहाँ के सेठ भी करोडपति है । एक भाई ने कहा " महाराज ! आपको वह अपने यहाँ ही ठहराना चाहता है । "

    मैंने कहा , “ क्यों भाई ? वह कार्यक्रम के लिये मुझे ले जा सकता है । हम तो यहाँ मंदिर में ही अच्छे हैं । " उनसे कहा , “ अगर उनका बडाही आग्रह होगा तो हमारा बिच्छू का प्रपंच पीठपरही रहता है । चलने में देर ही क्या लगेगी ? मगर जहाँ तक हो , यहीं मैं ठीक मानता हूँ । "


      अभी हम थोडा आराम करके यह १० बजे के बाद का हाल लिख रहा हैं ।

. . . समय पर मोटर आयी । हम थायभारत कल्चरल लॉज में भजन को गये । श्री रघुनाथ प्रसाद शर्मा द्वारा प्रथम मेरा परिचय दिया गया । बाद भाषण को शुरुआत हो गई । प्रथम हमने ध्यान के पाठकों कहने की सूचना दी । सबकी सीधा बैठने को कहा । तमाम भाई सीधे बैठे । पश्चात ध्यान का पाठ पढ के भाषण आरंभ किया ।

मैंने कहा , " मैं किसी पंथ , पक्ष , धर्म या गुट का आदमी नहीं हैं । सारे पंथ , धर्म और देश मै अपने मानता हूँ । भारतीय संस्कृति सारे विश्व को अपना बनाने की योग्यता रखती है । वह पाशवी शक्ति से नहीं बल्कि अध्यात्म , आत्मधारणा , त्याग और अहिंसासे ही । आदमी जैसे जैसे आगे बढता है वैसे वैसे उसका क्षेत्र बढता जाता है । मैं अमरावती में होता तो गाँव का नाम बोलता ! मगर जब नागपुर में जाता तो अमरावती बताता हूँ । और परप्रान्त में जाता हूँ तब नागपुर का बताता हूँ । विदेशों में जाता हूँ तो भारत का बताता हूँ और आगे लम्बे देश में पहुंचता हूँ तब एशिया का कहता हूँ ।
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मेरी जापान यात्रा 

मतलब यह है कि आदमी जैसे आगे बढ़ता है वैसे उसकी विशालता का जवाबदार बनता है । वैसे ही जगत की रीति और नीति वह समझता है । छोटे - छोटे धर्म को भूलकर मानवतावादी बनता है ।

       “ भाईयों ! मैं तो अपनी धारणा पहलेसे ही विश्व की बना चुका है । इसलिये मुझे जापान ही क्या सारे विश्व में भी घूमने का प्रसंग आया तो कोई । बड़ी बात नहीं है । मेरा इष्ट देव विश्व है ! मेरा धर्म मानवधर्म है ! मेरी भावना इसी तरह भगवान बडा रहा है । यों तो मुझे ही क्या , आपको भी इसी रास्ते से आना होगा , जबकि , आप अपने विशाल हृदय को खोल बैठेंगे ! " 

     इसके बाद एक डेढ घंटा भाषण और भजन हआ । बडाही आनंद
हुआ इन भाईयों को !

         भजन होते ही मुझे भोजन को ले जाने की धूमधाम चली । एक साथ चार दिन का निमंत्रण आठ लोगों का ले लिया हमने ! मैंने कल ही तार दे दिया था कि , मैं भारत २४ , २५ अगस्त को पहंचूंगा ! मगर यहाँ सब लोग पीछे पड़े कि , बुधवार तक हम जाने नहीं देंगे ।

        अभी तो मैंने जवाब नहीं दिया । लेकिन देना ही पडेगा ऐसा लगता है । यहाँ के ( थायलंड के ) भिक्षुओं से मिलना है । मेरी इच्छा है कि , मैं इनकी धारणा और नियमों को समझ लूँ । ये लोग पीला वस्त्र पहनते हैं ।
और सात्त्विकता से रहते हैं । सुबह भोजन के लिये लोग अपने आप इनको देते हैं । इनके महंत से मुझे मिलना है ।

      आजभी यहाँ भजन और भाषण होंगे । हॉल तो कल ही भर गया था । आज तो जगह नहीं पूरेगी , ऐसा लगता है ।

        मैं आज सुबह गच्चपर बैठा था । ध्यान करके ! वहाँ कुछ महिलाएं मिलने को आई । उनमें भावुक भी कुछ थी । एकने पूछा ," महाराजजी! इधर के भिक्षु तो मांसाहार भी कर लेते है ! क्या यह साधुओं का धर्म है ?
    " मैंने कहा " देवीजी । जिधर का लोकाचार जैसा होगा वैसा
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मेरी जापान यात्रा








जपान- चित्रावली






टोकियोंकें आयोजित एक प्रीति- भोजके अवसर पर राष्ट्रसंत भाषन कर रहे है I






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मेरी जापान यात्रा





जापान- चित्रावली







सड्रद्रनीका चलाते हुए संत तुकडोजी का ड्रेक्तिक-द्वीप
(पर्ल- आड्रलंड) की ओर प्रस्थान I







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मेरी जापान यात्रा 

उनको करना चाहिये । इधरा आम लोग मांसाहार करते । इसका कारण
को करना चाहिये । इधरा आम लोग मांसाहार करते है । था जनसंख्या प्रमाण में अनाज का कमी होगी । तभी सबने मांसाहा वीकार किया होगा । जब ये भिक्षु हाथ से भोजन बनाते नहीं हैं , तो आम जनता जो खाती है वह उनको लेनाही चाहिये ना ! लेकिन अपने हाथ से किसी जीव को काटकर खाते हैं क्या ? "

        तब उसने कहा - “ नहीं ! वह पाप मानते हैं । "

    मैंने कहा “ फिर ठीक है उनका काम । हमारे बेंगाल में तो स्वामी रामकृष्ण परमहंस , स्वामी विवेकानंद मछलियाँ खाते थे । . . . तो क्या हुआ ? बेंगाल की सभ्यता में मच्छी आहार तो माना गया है । फिर उसमें दोष हम नहीं मानते । हमारे भारत में भी अगर अकाल पड जाय और लोग भूखे मरने लगे तो हमें कोई एतराज नहीं है । मगर उसमें कुछ तारतम्य भाव को रखना । चाहिये । फिर भी यह सवाल रक्षाका ही मैं मानता हैं । अगर फल - फूल और दूध अधिक प्रमाण में जिस देश में है और आम जनता को मिलने इतना है तो मैं कहूंगा कि , यह तुम्हारा दोष है , जबकि आप पशुओं को और निरुपद्रवी प्राणियों को मारकर पाप के भागीदार हो रहे हो । फिर उस देश के । हवापानी का भी प्रश्न आता है । किस देश का हवा - पानी ऐसा हो जहा बिना मांसाहार के नहीं चलेगा । वहाँ जो जीवन बिताना चाहते हैं उनका खाना ही होगा । मैंने सुना , कही बर्फ के प्रदेश में तो सिर्फ जानवरही खाकर लोग रहते है Iउनको  और कुछ भी नहीं मिलता है । फिर वे लोग क्या करें ? " उस देवी ने फिर मंजूर किया । वहाँ कुछ विद्वान लोग भी थेI

        एक भाई ने पूछा " महाराजजी ! मेरा दिल ईश्वर के तरफ लगता ही नहीं । जब कभी चार - छ : माह में लग जाता  है ।तो बडाही आनंद आता हैl लेकिन हमेशा नहीं लगता । "

      मैंने कहा " भाई ! ईश्वर में दिल लगने से आनंद होता यह जब तू महसूस करेगा तब तेरा दिल जरूर लगेगा । तू इसका करते जा I  जब तेरा दिल बाहर जाता है तब तुझे कब पता चलता हैं" उसने कहा-" थोडी देर के बाद । " 

      मैंने कहा - " जब पता चलता है तब पता चलानेवाला जो दिल में

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मेरी जापान यात्रा

है उसको सतर्क करने का प्रयत्न करना चाहिये और ध्यान के समय उस
मूर्ति से बोलना चाहिये कि मेरा दिल इधर ना जाय ऐसी मुझको शक्ति दे।"
उसने "मैं बराबर अब ऐसा प्रयत्न करूंगा।"

        मैंने कहा- “सवाल यह है कि, जो कमजोर होता है वह पीछे
पडते ही रहता है। अगर विचार भी है लेकिन वह इंद्रियों की विषयासक्ति
से कमजोर रहे तो विषयही शरीर को खींचते रहते हैं। उसको युक्ति से
रोककर अच्छी राह में लगाना चाहिये।"

        उसने माना और फिर कहा, “मेरा समाधान हो गया है।"

       उसके जाने के बाद एक हिंदुस्तानी भाई ने कुछ बाते की। उसने
कहा, "महाराजजी, आपकी कृपा से हम भारतवासी यहाँ बडी इज्जत से
रहते हैं। हमारा बड़ा नाम है इस देश में! हम चोरी चहाडी नहीं करते।
इसलिये हमको बडे प्रिय मानते हैं ये लोग! हमारे देश में हमें ४० रुपयों के
ऊपर एक कौडी नहीं मिलेगी, लेकिन यहाँ दो दो सौ रुपये कमा लेते हैं।
पहले जबकि, देश आजाद नहीं था तब तो ये उतना आदर नहीं करते थे।
लेकिन जब सुभाषबाबु ने इधर क्रान्ति की ज्योति जगायी तबसे ये लोग हमें
बहुत मानने लगे हैं। अब तो हमारा भारत आजाद हुआ। अब हमारे सामने
सिर भी झुकाते रहते हैं। पं. जवाहरलालजीने यह जो पंचशील द्वारा सारे
राष्ट्रों के साथ मित्रता जमाने का प्रयत्न किया है इससे सभी देश के लोग
उनका बड़ा आदर करते है। फिर भी जब कभी यहाँ के लोग उधर आकर
भीख मांगनेवालों को देखते हैं तब यहाँ आकर यह कहते हैं कि, आपका
देश अभी व्यवस्था नहीं कर पाया हैं। हमारे देश की ये बातें सुनकर हमें शर्म
से नीच देखने का मौका आता है। यहाँ एक भी भिखमंगा नहीं मिलेगा।
अगर कोई रहा तो उसकी शीघ्रही सरकार व्यवस्था करती है। उधर के
मंदिरों को जब ये लोग देखते हैं तब हमारे धर्म की अवनति को महसूस करते
हैं। यहाँ का कोई मंदिर गंदा नहीं दिखेगा।

फिर किसी ने कहा " महाराजजी! यहाँ की सभ्य ता का नमुना मै आपको बता ता हूँ | अगर अनपढ लड़का भी दूकानों मे जायेगा तो उसको

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मेरी जापान यात्रा

उतनीही सचाई से माल दिया जाता है जोकि, एक बड़े होशियार को। उसमें
कभी बेईमानी ये लोग नहीं करेंगे। उसने चीज का नाम लिख लाना चाहिये।
इतनी ईमानदारी का काम यहाँ चलता है। हमारे देश के जैसा झूठा व्यापार
घूसखोरी यहाँ बिलकुल नहीं मिलेगी। और यह थाय (थायलंड) तो हिन्दु
धर्म से इतना मिलाजुला है कि इनकी सारी रहनसहन हिन्दुओं के जैसीही
चलती है। संस्कृत शब्द भी वहीं के वही इनमें हैं। जैसे प्रमाण, साक्ष, माँबाप। ऐसे काफी शब्द हैं जो ये लोग बचाकर रखे हैं। बल्कि भारत में
ब्रिटिशों की सभ्यता से बहुत शब्द बदल गये। लेकिन यहाँ वे ही शब्द है।
जब भारत में शब्दकोष की जरूरत पड़े तो यहाँ के शब्द सीखने योग्य है।
सिर्फ यहाँ की बाहर की पोशाक पाश्चिमात्य ढंग की हो गई है। क्योंकि
अब उनकीही रहनसहन चारों ओर फैली है। उसी का यह परिणाम है।"

मैंने पूछा, “यह संस्था आप लोगों ने किस तरह खोली?"

उन्होंने कहा "स्वामी सत्यानंदपुरी नाम के महाविद्वान यहाँ आये
थे। उन्होंने थाय भाषा का अभ्यास किया और उन्ही को पढाने लगे। उनका
इस देशपर बड़ा प्रभाव पड़ा और उन्हीं के अथक परिश्रम से यह संस्था
स्थापन हुई। लेकिन जब वे काम के लिये जापान गये, तब वायुयान गिर
पडा और वे मर गये। उन्हीं के नाम पर (स्मृति में) यह संस्था चलती है।"
फिर उसने कहा "आप जबसे यहाँ आये तबसे सारे शहर में आनंद की
खबरें ऊठ रही हैं। बच्चा बच्चा बोल रहा है कि खंजडीवाले महाराज बहत
अच्छा भाषण करते हैं, भजन गाते हैं।"

मैंने कहा "भाई! मैं तो साधारण आदमी हूँ। मगर चाहता जरूर ।
हूँ कि विश्व का प्रेमी बनूं!"

पश्चात और भी लोग आते जाते रहे।

अब तो यह चलता ही रहेगा! आज मुझसे यहाँ के बड़े महात्मा
की मुलाकात होनेवाली है। अगर कुछ संबंध लग सके तो देखूगा। मुझे सारे
विश्व की प्रियता ऐसे लोगों के साथ निर्माण करना ही है, जो धर्म की
अच्छी बात को समझ गये हो!

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मेरी जापान यात्रा


 *बँकाक* 

दिनांक १९ अगस्त १९५५

    आज मेरे पास कुछ समाचारपत्रों के संवाददाता और कुछ
साधना के प्रेमी आये थे।
 उन्होंने मुझसे पूछा, "क्या आप विश्व धर्म परिषद
को गये थे?"

मैंने कहा, "जी हां!"

मैंने कहा “साधारणतया जैसे आदमी डर के मारे विचार करता है
वैसे ही कुछ सोच रहे हैं कि संसार में शस्त्रों की गति बंद होनी चाहिये। और
भी कुछ अच्छी बाते बहुत थी।"
        फिर थोड़ी देर बातें करने के पश्चात उसने प्रश्न किया “आप
कुछ योग की बातें जानते हो क्या?"
मैंने कहा थोडा जानता हूँ।"
         तब उसने सप्तचक्र की जानकारी मुझसे पुछी। मैने उसको समझा
दिया। मैने कहा, "यह समझ लेना तो बडा आसान है, मगर अनुभव करना।
बडा कठिन होता है।"

उसने कहा, "मैं तो रोज अभ्यास करता हूँ। मुझमें कुछ शक्ति भी
आई है। मैं आपको बता भी सकता हूँ।"

"क्या बतावोगे?" मैंने पूछा।

उसने कहा “मेरी आत्मा के प्रभाव से मैं आपके हाथों मे गरमा
और तेज लावूगा!"

मैंने कहा, “भाई! तेरा तेज हमपर क्यों पडेगा? तू कोई जादुगर तो
नहीं है?"

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मेरी जापान यात्रा

          उसने कहा, "हम करते हैं प्रयोग; आप देखिये।
मैने कहा, "ठीक है। करों जो कुछ करना है।"

        उसने कहा “सीधे बैठकर दोनों हाथों को खुला रखो और मेरे
तरफ देखने लगो।"

    मैंने वैसा किया।

      १०-१५ मिनिट तक उसने बड़ी ताकद से प्रयत्न किया।
        मैंने कहा "क्यों पत्थर से टकराते हो भाई? रहने दो! तुम्हारा
कोई परिणाम मेरे ऊपर नहीं होगा।"

उसने कहा "क्या! थोडी भी गरमी नहीं लगी?"

  मैंने कहा “गरमी उसको लगती है जिसमें अहंकार हो! हम तो
ठंडेगार है। हममें गरमी कैसी चढेगी बाबा?"
    पश्चात उसने मंजूर किया कि जो कमजोर रहा उसी पर यह
चलेगा।
बाद वह चला गया।
          उसके बाद शाम को साढेपांच बजे भजन और भाषण था। उस
मुताबिक कार्यक्रम हुआ। आज कल से चौगुना लोग थे। हॉल में जगह न
रहने से बहुत से लोग नीचे से सुन रहे थे। इस कार्यक्रम को शहर के प्रमुख
लोग, सिक्ख के गुरू, महिलाएँ और कुछ थाय के साधु भी आये थे। उनको
उनकी
         
भाषा में एक पंडित समझा रहा था। ...
         भजन के बाद हम भोजन के लिये गये।
          आज का मेरा भाषण विश्व धर्म और संप्रदाय की असलियत
इस विषय पर था।

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मी जपान यात्रा

 *बँकाक* 
दिनांक २० अगस्त १९५५

         आज सुबह उठकर स्नान-ध्यान करके यह सब लिखने बैठा हूँ।
आज सुबह निश्चित किये मुताबिक सिक्ख गुरुद्वारा में हमारा भजन भाषण
था। बडा सुन्दर था वह गुरुद्वारा। एक हजार के ऊपर लोग थे। ... महिलाएँ।
तथा सिक्ख भाई। भारत के लोग भी बहुतेरे आये थे।

          दरबार साहब के सामने बडा सुंदर भजन-भाषण हुआ। वहाँ के
सिक्ख भाईयों ने प्रसाद बाँटा और बाद वहाँ से हम चले।
              आज हम यहाँ के बुद्ध साधुओं के मन्दिरों में गये। बडीही
सात्विक रहनसहन इन लोगों की! पीला वस्त्र और कभी भगवा भी पहनते
हैं। सादगी की रहन! मैं उनके आचार्य से मिलने गया। करीबन दो हजार
भिक्षु अभ्यास के लिये बैठे थे। आचार्य भगवान बुद्ध का पाठ दे रहे थे। 

          मैंने साथ के पण्डितजी से पूछा, "इनका खर्च कौन करता है?"

उन्होंने कहा “इनका सब खर्च सरकार करती है। सुबह का
भोजन तो ये माँगकर खा लेते हैं और सारा खर्च सरकार चलाती है। बँकॉक
के जितने मन्दिर है, सबकी देखभाल सरकार ही करती है और प्राय: सभी
मन्दिरों में यह पाठशाला खोली है। कोई मन्दिर खाली पडा नहीं है। कही
दवाखाना, कही संस्कृत विद्यालय, कहीं कही योगाभ्यास ऐसा चला है।"
           पंडितजी ने कहा, "इन सयामी लोगों का धर्म ऐसा कि हर
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मेरी जपान यात्रा

किसी को जीवन में भिक्षु की शिक्षा देना ही चाहिये, भलेही वह भिक्षुक
होने के बाद संसार करें या संसार के बाद भिक्षु हो। मगर उसको भिक्षु होना
ही पडेगा।"

मैंने एक स्थान में देखा वहाँ सविकल्प समाधि के अभ्यासी दो सी के
ऊपर थे। अभ्यास कर रहे थे। एक बुढिया तो आठ घंटे तक ध्यान समाधि
लगाती थी। जब हम उसको देखने गये तब वहाँ के मुख्य साधु ने कहा,
"महाराज हमारी यह सब योजना भारत की है। भगवान गौतम बुद्ध ने हम 
सयामियों पर बडा उपकार किया। यह सब वहीं का अभ्यास सिखाकर सारे ।
देश में इन भिक्षुओं को हम भेजते हैं। आपके आने से हमें बडाही आनंद
हुआ। ... जैसे माँ बच्चे को मिलने आती है और माँ ने कुछ लाया होगा, ।
ऐसा बच्चा समझता है। उसी तरह भारत के महात्मा जब जब यहाँ आते हैं।
तब हम पडे आतुर रहते हैं। ... हम लोग वहाँ की इस समाधि विद्या को घर
घर पहुँचाने का प्रयत्न करते हैं। हमारे यहाँ करोडो रुपये लगाकर मन्दिर
बान्धे गये हैं। मगर मिट्टी भारत की लाये बिना मन्दिर नहीं बनता। थोडी तो
भी पूजा के लिये लानी पड़ती ही है।... हम तो भारत के ही सम्प्रदायी है I"


           यह सब सुनकर मेरे दिल पर बड़ाही परिणाम हुआ। हजारों वर्ष
के बाद भी इन्होंने भारत की सभ्यता को बनाये रखा है। यहाँ के बहुतेरे नाम
भारतीय हैं। चौरासी आसन की पत्थरों की मूर्तियाँ बना के रक्खी है। यहाँ
भगवान बुद्ध की एक मूर्ति हमने देखी। इसे निद्रामग्न बुद्ध कहते हैं। एकसौ
पचास फिट चौडी है और सब सुन्ने के पत्थरसे मढाई हुई है। यह मूर्ति सोई।
है। ... बुद्ध का बडाही विशाल स्थान है यह!

यहाँ के राजघराने के और राज्यभिषेक वगैरे के पूजाविधि के
समय पुरोहित का काम भारत के ब्राह्मण ही करते हैं। वे सदियों से यहाँ बसे है I

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मेरी जापान यात्रा

         मुझे पण्डित आचार्य सत्यानारायणजी ने कहा, “महाराज। अपने 
भी देश में सभी मन्दिर सरकार के होना आवश्यक है।सब मन्दिर में पाठशाळा
हो। वहाँ से ग्रामप्रचारक तैयार हो। सब मन्दिरों के गुरुओंने अपना शिक्षाक्रम
ऐसा ही बना देना चाहिये।"

     मैंने कहा “पण्डितजी! मैं प्रयत्न करूँगा।"

     सब देखने के बाद हम भोजन करने गये।

        बाद दो बजे विष्णु मन्दिर में भजन हुआ। कार्य का समारोप था। ....
बस! बँकॉक का कार्य समाप्त कर अब हम रंगून के लिये आज आठ बजे
विमान से रवाना होंगे।
      ____________

       *रंगून,* 
दिनांक २१ अगस्त १९५५


        आज सुबह ही स्नान-ध्यान करके हम छ: बजे विमान के लिये
निकले। ठीक समय पर दो मोटरें लेकर बँकॉक के कार्यकर्ता आये और हम
चले।

             पण्डितजी ने कहा “हम आपको छोडेंगे नहीं। यहाँ की सयामी
जनता कहती है कि भगवान बुद्ध के बाद आप जैसे लोग ही हमारा
समाधान कर सकते. हैं। यहाँ के बडे साधु बीमार हो गये, नहीं तो वे
आपको और एक माह जाने नहीं देते।"

       मैंने कहा-“भाई! उनको कहना कि आप जब हमको बुलावे
तब हम हाजिर हैं। आखिर हम हैं किसके लिये? आप में प्रेम पैदा हो यही

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मेरी जापान यात्रा

तो हमारे जीवन का लक्ष्य है।"
      बाद, हम चले विमानतल पर।
        आज गिने-चुने लगभग दो सौ आदमी पहचाने आये थे। शहर से
लगभग अठ्ठाईस मील दूरी पर विमानतल है। तब भी लोग आये थे। बडा हर्ष
था उनमें।

        बाद हम चले वायुयान द्वारा और रंगून को ठहरे।

      आते ही हिन्दी सम्मेलन में हम सम्मिलित हुये। वहाँ का निमंत्रण
बडेही आग्रह से था। वहाँ भाषण और भजन हुआ। सारे लोग ने मुझे घेरा
और कहा, “अब एक माह हम आपको नहीं छोड़ेंगे।"

       मैंने कहा- "माफ करो! मेरा आगे का कार्यक्रम निश्चित हो
गया है।"

फिर आज आठ बजे सत्यानारायन मन्दिर में भजन के लिये जाना था।

मैं यहाँ बालकिसनजी के यहाँ ठहरा हूँ।

          समुद्र किनारे जहाज उतरे थे। उनको देखने के लिये थोडी देर यहाँ के सेठ लोग मुझे ले गये। लगभग १५-२० जहाज आकर खडे थेI हमने देखें।

         आज रात को आठ बजे भोजन के बाद मैं भजन को गया। मन्दिर
महिलाओं और भाईयों से भरा हुआ था।.. मन्दिर में दर्शन के लिये गया।
सभी तरफ कृष्णमन्दिर, राम-मन्दिर, हनुमान-मन्दिर,  भगवान बुध्द का मन्दिर ऐसे छोटे-छोटे मन्दिर थे। दर्शन किया और बाद में डेढ़ घंटे तक
भाषण और भजन हुआ। जनता ने बड़े प्रेम से भजन सुना और कल भी यहाँ
भजन होगा ऐसा जाहीर किया। भजन के बडे प्रेमी ये लोग! .
      बाद हम आराम करने आये।
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मेरी जापान यात्रा 

     *रंगून* 
दिनांक २२ अगस्त १९५५



         सुबह ऊठकर आसन ,
 स्नान - ध्यान करके आठ बजे जैनी सम्प्रदाय के कार्यकर्ताओं के निमंत्रणानुसार भाषण देने गया । काफी समाज जमा हुआ था । सीटी हॉल में आज का भजन था ।

       भाषण भजन के बाद हम बुद्ध - मन्दिर देखने गये । कितनी मूर्तियाँ है इस मंदिर में । बड़ी बड़ी ५० मूर्तियाँ होगी । सोने का वर्ख लगाकर रखी है I

        बाद में  विश्वशान्ति मन्दिर  देखने गया । बडाही विशाल स्थान है यह । ऊपर से तो मालूम होता था कि यह पड़ा हुआ पर्वत है । सब पत्थरों से भरा हुआ है । मगर अंदर जब गये तो दिखा एक राजमहल का दरबार लगा है । बडाही सुन्दर रंग देकर बनाया था । यहाँ की कला बडीही सुंदर है ।

         हम वहाँ से  विश्व युनिव्हर्सिटी  देखने गये । यहाँ काफी देशों के साधु अभ्यासक के लिये हैं । उनकी भेट ली । उनके स्थान देखने गये । सरकार की मदद बहुतही सुविधा देती है । देखें , हमारे भी देश में यह हालत होगी तो हम भारतीय लोग भी सांस्कृतिक कार्य में आगे बढ़ सकते हैं ।

आज रात को भजन के लिये बहुत लोग इकट्ठा हो गये थे । हॉल छोटा था । चारों तरफ की सड़कें भरी थी । भाईयों से और वहाँ के सेठों से मैंने कहा था " देखिये भाई ! कल का दिन तो ठीक था । क्योंकि लोगों को ज्यादा पता नहीं था । मगर अब तो वहाँ भजन होना मुश्किल होगा
 । " 
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मेरी जापान यात्रा 

        उन्होंने कहा था , " महाराजजी ! लाऊड स्पीकर लगा देंगे । "
         मैंने कहा - " जैसा हो , करों ! "

          जब लोगों के झुंड आने लगे तब वे लोग घबडा गये । मैंने फिर समाज को शान्त किया और शान्तता से ही कार्यक्रम समाप्त हुआ । बाद में । हमने आराम किया ।
         ______________


      *रंगुन*
 दिनांक २३ अगस्त १९५५


            आज का रोज निकला रंगून में । आज भी एक बडी धर्मशाला में भजन तय हुआ है ।

           आज सुबह हम बडा पुराना बुद्ध मन्दिर देखने गये थे । कितना विशाल मन्दिर है यह ! इसकी ऊंचाई जमीन से लेकर एक हजार फिट तक होगी । सारा सुन्ने का पानी और पत्रा चढाया है । ऊपर कलश पर हीरे और जवाहर लटकाये है । उसके अतराफ लगभग दो हजार बड़ी - बड़ी मूर्तियाँ होगी । एक - एक मूर्ति के लिये एक एक सुन्दर सुन्दर मन्दिर बांधा है । कला तो इतनी भरी है कि आदमी मोहित हो जाता है इस कला पर ।

          मैंने देखा । फिर जैन भाई के घर गये । आज का उनका मिलने का दिन था । इसलिये वे ले गये थे ।

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मेरी जापान यात्रा

सब जन भाई इकठ्ठा हये थे । मैंने वहाँ भाषण दिया । इनका रिवाज ऐसा है कि आज से पिछले सारे पाप भगवान महावीर धो डालते हैं । . . . फिर लोग सबसे मिलकर पिछले अपराधों की क्षमा माँगते हैं और नया काम करने लगते हैं ।

          मैंने भाषण में कहा , " भाई आज का आपका दिन तो बहुत अच्छा है , लेकिन यह रिवाज नहीं पडना चाहिये कि , हम और अपराध करेंगे और आगे के साल में धो डालेंगे । कविने कहा है कि ,  दुख में सुमरन सब करे , सुख में करे न कोय । अगर सुख में सुमरन करे तो , दुखिया काहे को होय । आप लोगों ने ऐसा ही बर्ताव करना चाहिये कि आइंदा के लिये किसी को क्षमा माँगने का मौका ही न पड सके । तोही इस त्यौहार का कुछ महत्त्व होगा ; नहीं तो यह धंधा होगा कि , पाप करो - झगडा करो और फिर साल में एक दिन क्षमा माँगो , तो छुटकारा होगा । यों तो आप लोगों ने आज के दिन सब मिलकर पिछडे लोगों में सुधार करने का सोचना चाहिये । अहिंसा के प्रचार की संसार में बड़ी जरूरत है । विश्व के बहुतेरे लोग मांसाहारी और शराब पीनेवाले हैं । उनको इस बात को अभी ज्ञान नहीं हुआ है कि , मनुष्य का खाना अनाज है , फल है , फूल है , दूध है । लेकिन समझाने पर वे समझ सकते हैं । फिर भी समझानेवाले हृदयवान लोग चाहिये । आपमें से निकलने चाहिये ऐसे लोग ! सारा विश्व भारत के विचारों की राह देखता है कि , वे हमें उच्च संस्कृति का ज्ञान दें । "

यह भाषण लगभग आधा घंटा देकर सबसे मिला ।

 बाद हम अपने स्थान पर लौट आये ।

        यहाँ बर्मा में हर दुकान पर औरते ही काम करती है । बडीही शौकिनी सी रहती है । यहाँ के आदमी तो हमाल दिखते है । लेकिन स्त्रियाँ बडी चपल और होशियार है । यहाँ सुनते है कि , ये लोग शौकिनी के मारे
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मेरी जापान यात्रा 

कमाया पैसा गँवा देते है और फिर खेती , कपडा आदि बेचकर जिंदगी चलाते है । 
मैंने समझदार भाई से सुना कि , आजकल भारतवासियों पर बर्मा के लोग नाराज हैं । इसका कारण भारतीयों ने इनके साथ दगा भी किया है । कुछ लोगों ने साहूकारी की और इन भोले बर्मावालों ने उनके पास धन रखा । उसको हडप कर गये ये लोग ! यहाँ का बाजार अपनी हकूमत से चलाते हैं । यह उनको खटक रहा है ।
        वास्तव में भारतीयों ने विदेश में मिलकर रहना चाहिये । मगर वहाँ भी ये लोग पार्टिया बना गये है । मारवाडियों में दो पार्टियाँ । सनातनियों में दो पार्टियाँ । आर्य समाजियों में दो पार्टियाँ ! आपस में भी दो - दो , तीन - तीन पार्टियों मतलब के लिये कर गये और उस बात को देखकर बर्मावाले इनको खराब देखते हैं ।

          मैंने यहाँ कुछ समझदारों को यह सूचित किया कि ,  अपने बारे में बर्मा के लोगों की भावना खराब होना बड़ा ही बुरा है । उससे उनके दिल पर का गौतम बुद्ध के मन्दिरों का परिणाम भी उतर जायेगा । आपने उनको मित्र बनाने का प्रयत्न करना चाहिये । हमें तो दुनिया के सारे राष्ट्रों में स्नेह निर्माण करके भारतीय सांस्कृति की उज्वलता फैलाना है और आप लोग ऐसा करोगे तो कैसा चलेगा । एक संगठन बनाकर आपस के झगडे यहाँ तोडते जाओ और यहाँ के लोगों के दिल में भारत के बारे में प्रेम पैदा करों । "

           मैंने सब कुछ बातें समझाने का प्रयत्न किया । मैंने पूछा , " आजकल बर्मावाले लोग कौनसे देश का माल ज्यादा लेते है ? "

              तब उन्होंने कहा “ जापानवालों का । इसलिये कि , उनकी कला सुपिरियर-ता  अच्छी है I

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मेरी जापान यात्रा

हमने कहा " भारतियों ने भी उसको सीखना चाहिये । "
         रात को हमें एक बड़े सेठ के यहाँ भोजन को ले गये थे । बाद में हम रंगुन के सीटी हॉल में भजन करने गये थे । वहीं पर चायना से घूमकर
आये हुये भारतीय भाई श्री हरिवल्लभ मिले । आप आजकल भूमिदान में काम करते है और हमसे पहले भी मिले थे । उन्होंने मेरा परिचय दिया । फिर डेट घटा कार्यक्रम हुआ । एक घंटा तो भाषण हुआ । भाषण में अनेक विषय आये थे ; मगर प्रमुख विषय था " भारतवासियों ने विदेश में जात , गुटबाजी और मतलबी व्यवहार नहीं करना चाहिये , जिससे कि हम बदनाम हो । हमारा
और रंगुन का बहुत नजदिक का रास्ता है । बल्कि वे धर्म बंधु भी है । भगवान बुद्ध ने इन देशों में जो अपना प्रेम जमाया वह बडा नाता जोडनेवाला प्रेम था । उसको हमने भूलना नहीं चाहिये । व्यापार भी करना हो तो ऐसा नहीं करना चाहिये कि यहाँ के भोले भाले लोग खत्म हो जाय । अगर वे पिछड़े हैं तो उनको सिखाने में अपने को भूषण मानना चाहिये । " . . . बाकी विषय भी बहुत अच्छे रहे । भजन भी अच्छा रहा ।

          मुझे तो अनुभव आया कि , अकेले भजन में प्रेम चढता है , वह एक अलग बात होती है । और साथीदारों के साथ जब भजन होते है तो वह अलग बात होती हैं । वह सिर्फ ताल स्वर में बात चली जाती है । फिर भी कुछ लोग उसके भी उत्सुक रहते हैं ।
            भजन के बाद वहाँ के चुने - चुने लोगों ने  आपको चार रोज तो भी यहाँ रहना चाहिये  ऐसा बड़ा ही आग्रह किया । मगर उन सबका । समझाकर हमने कहा , " फिर लिखो हम बाद में आयेंगे । मगर अभी नहीं । ।
         भजन के बाद हम उतरने की जगह गये । वहाँ भी कुछ सेठ लोग आये । एकने प्रश्न पूछा , " महाराज ! हम बर्मावासियों के साथ अच्छा रहते। तो भी उनकी समझ आज कल विपरीत ही है और उनको कुछ समझता भी
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मेरी जापान यात्रा

नहीं । उनके नाज के लाईसेन्स हम ले लेते है और आधा मुनाफा उनको देते है । वह मुनाफा लेकर वे लोग मोटर लेंगे , सोना लेंगे , हीरे लेंगे , ऊंचे - ऊंचे कपडे लेंगे । इस तरह पैसा बरबाद कर डालते है और फिर बेचना शुरू करते हैं । दस रुपयों का माल एक रूपये में ! गहना रखते है , उनको उसकी कुछ भी शर्म नहीं । आम जनता ऐसा करती है और सब औरतोंका ही मानते है । उनकी और उनके मालिक ! यह घर में काम करता है और औरत बाहर का सारा काम करती है । औरतें तो लिखी पढी भी होती है मगर आदमी बहुत कम पढ़े हैं ।

          मैंने कहा " भाई ! जो भी बात है हमको तो निभानाही है । अब उनका स्वभाव जानकर आपने सोचना चाहिये कि क्या करने से ये लोग मानेंगे । वैसी रहन - सहन करना चाहिये आप लोगों ने ।

        इतना बोलकर हमने उन सबको छुट्टी दी ।

         सामान बहुत हुआ हमारे साथ । बुद्ध की मूर्तिका सिंहासन और । एक छोटी मूर्ति एक भाई ने भेंट की । वह भी अब साथ हो गयी । खैर ! । चलेगी बेचारी हमारे गरीब देश में । यहाँ तो करोडो के वैभव में वह रहती थी । हमारे वहाँ झोपडी में वह रहेगी ।

    . . . एक बात ! वह जो चीन जाकर आये , उन्होंने मुझसे वहाँ का काफी अनुभव बताया । कहा कि , " चीन देश में जो देहातों की तरक्की हुई है । वह अजीब तरक्की है । सारे जमीन का बँटवारा ग्रामपंचायत द्वारा किया और अब तो वहाँ के लखपति खुले दिल से कहते है कि , जो हमें मालगुजार होने से शान्ति नही थी वह आज दस एकड में मिलती है । वेश्याओं का बिकट प्रश्न चीन के लोगों ने छुडाया है । हजारों वेश्याएं यहाँ थी । लेकिन उन्होंने एक आंदोलन चलाया कि देश में वेश्या व्यवसाय बड़ा खराब होता है । उनमें से जितनी बुढियाँ थी उनको एकदम कैद में रखा और युवतियाँ थी उनके

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मेरी जापान यात्रा 

लिये कम्युनिस्ट पार्टी ने तय किया कि कम्युनिस्ट पार्टी के भाई ने या उसके बच्चे ने एक वेश्या के साथ शादी लगाना चाहिये । इस काम को महत्व आना चाहिये इसलिये वहाँ के मिनिस्टर ने अपने लडके की शादी एक वेश्या लडकी के साथ लगा दी और बाद सभी लोगों ने कदम उठाया । आज वहाँ वेश्या का धन्धा बिलकुल नहीं है । वहाँ के लोगों ने मन्दिरों की बड़ी सुन्दर व्यवस्था की है । हर मन्दिर में जनता ने कुछ न कुछ परोपकारी काम चलाया है । वहाँ एक बडे चीफ मिनिस्टर को पाँच सौ रुपये वेतन मिलता है । सभी मिनिस्टरों को चार सौ इक्यानवे मिलते हैं । वहाँ के एक साधारण सिपाही को डेढ सौ रुपये से कम तरख्वाह नहीं है . वहाँ की खेती सब आदमी लोग करते हैं और अब अपने आप सामुदायिक खेती पर लोग आने लगे हैं । वहाँ भी बडे - बडे बुद्ध मंदिर है । लेकिन अब वह निकम्मे नहीं जैसे भारत के रहते हैं । "

       उनकी इन बातों को सुनकर मुझे तो बडाही हर्ष हुआ । यों तो जापान ने भी बहुत तरक्की की है मगर चीन के मामले में अभी उनको आगे बढना ही है ।

   ...मैंने वल्लभजी को बोला “ भाई ! बहुत ठीक हुआ तेरा जाना । तू भूमिदान का कार्यकर्ता है । और भूमि के बारे में तेरे दिल में प्रकाश पड़ना हमारे देश का कल्याणही है ।

      बाद हम लोग कलके तैयारी में लगे । दूसरे दिन सुबह ही विमान
की तेयारी थी । . . .
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मेरी जापान यात्रा 
 
   *रंगून से मातृभूमि में,* 
    दिनांक २४ अगस्त १९५५


          आज सुबह चार बजे ही तुकारामजी उठे और मै जरा देरी से
उठा। मैंने यहाँ मालिश वगैरेह करना छोड दिया था। इससे अधिक थकान
लगती थी।

        में उठा। आसन, स्नान-ध्यान किया। सामान को लपेटकर भोजन
को गये रामचन्द्रजी के यहाँ।
      बाद में तैयारी हुई।

चले मोटर से विमानतल पर। साथ में दोन-तीन प्राइव्हेट मोटरें
थी। मैं तो उतरते ही मिलनेवालों से बोलने गया और तुकारामजी ने कागज
पत्र का काम सम्हाला। एक महत्व का कागज उनकी भूल से कहीं रह
गया। बडी आफत! वहाँ के अफसर कहने लगे कि,हम जाने नहीं देंगे।
वह रसीद बताओं।

         बाद, उनको पता चला कि महाराज का यह साथी है और वहाँ
के कुछ भाईयों ने भी बताया कि, भूल हुई, बाकी सब उनके पास है। बाद ।
उन्होंने जाने दिया। सामान का भी कुछ नहीं पड़ा। बेचारा वह अफसर
हमारे फोटो में भी शामिल हो गया था !

इस प्रवास में लिखने के और पास पोर्ट के काम तुकारामजी ही
सम्हालते थे। बहुत अच्छा काम उन्होंने किया। मेरी जरूरत सिर्फ हस्ताक्षर
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मेरी जापान यात्रा

के वक्त पडती थी। एक आदमी ने मेरा सारा काम
लते थे। फिर
एक आदमी ने मेरा सारा काम सम्हालना महान
बात है। हजारों आदमी माँगने में लगे रहे थे। फिर परिचय पंछते है
कार्यक्रम लगाना और मेरा सारा काम भी करना।

        यों तो वहाँ के मित्र बहुत काम करा लेते थे। मगर भाषा की.
दिक्कत जाती थी। तो भी बड़ा सुन्दर मेरा प्रवास हुआ। कई देशों का अ
मुझे आया। आदरातिथ्य बहुत हुआ। रहन सहन की पहले ही दधिक
उसको काफी प्रमाण में जोड मिली।

      बस्! हम रंगून के विमान में बैठने चले। काफी लोगों ने मुलाकात
की।

बाद कलकत्ता उतरते ही यहाँ के बडे बडे सेठ और प्रेमी भाईयों
ने स्वागत किया। हारों के ढेर लगे थे। मैंने तो हार उन्हीं के गले में डाल
दिये।

          फिर चले कलकत्ता। हमारी ठहरने की व्यवस्था पूरणमलजा
जयपुरीयाजी के यहाँ की गई थी। कलकत्ता के लोगों का आदरातिथ्य
पाकर हम रेलद्वारा नागपुर और बाद में हमारे गरुकंज आश्रम में आप
बस् इस प्रकार हमारे जापान यात्रा की यहाँ समाप्ति हर्ड! धन्यवाद
भाई बहनों की जिन्होंने यह यात्रा सफल बनाने में हमको मदद दी।

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मेरी जापान यात्रा



       *बँकाक ,*
 दिनांक १७ अगस्त १९५८

           आज सुबह उठकर टट्टी ,
 मुंह - हाथ धोकर , प्रात : विधि निपटाका एक माह के बाद मालिश करवाया । नहाकर ध्यान किया और अब लिखने बैठा ।

         आज तो यहाँ के सब लोग मिलने आयेंगे । और कल पेनांग जाने का विचार हो रहा है । वहाँ की जनता का निमंत्रण है । . . . सिंगापुर भी निमंत्रण आया है ।

          सभी जगह जाने का सोचता हूं थोडा थोडा !

 आज बँकॉक में जरा घूमने निकला था ।

     यह शहर थायलंड की राजधानी है । बडी विशाल सड़कें । भव्य मंदिरों की योजना और राज्य के पुराने महल वगैरह बहुत हैं ।
         आज हमसे तुकारामजी ने कहा," जब मलाया जाना है , तो अपने पासपोर्ट में उसका नाम चाहिये । पेनाग है , सिंगापुर है , लेकिन
कोललमपुर ( मलायाका एक शहर ) का नाम नहीं है । "

       भारतीय वकालत से बताया गया , “ महाराज तक ठहरना पड़ेगा । देहली से वीसा आयेगा । तब जाना चाहिये Iवैसे तो हम यहाँ से दे सकते है | मगर वहाँ अगर रोकटोक हई तो अच्छा नहीं हैं । "

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