मेरी जापान यात्रा



       *बँकाक ,*
 दिनांक १७ अगस्त १९५८

           आज सुबह उठकर टट्टी ,
 मुंह - हाथ धोकर , प्रात : विधि निपटाका एक माह के बाद मालिश करवाया । नहाकर ध्यान किया और अब लिखने बैठा ।

         आज तो यहाँ के सब लोग मिलने आयेंगे । और कल पेनांग जाने का विचार हो रहा है । वहाँ की जनता का निमंत्रण है । . . . सिंगापुर भी निमंत्रण आया है ।

          सभी जगह जाने का सोचता हूं थोडा थोडा !

 आज बँकॉक में जरा घूमने निकला था ।

     यह शहर थायलंड की राजधानी है । बडी विशाल सड़कें । भव्य मंदिरों की योजना और राज्य के पुराने महल वगैरह बहुत हैं ।
         आज हमसे तुकारामजी ने कहा," जब मलाया जाना है , तो अपने पासपोर्ट में उसका नाम चाहिये । पेनाग है , सिंगापुर है , लेकिन
कोललमपुर ( मलायाका एक शहर ) का नाम नहीं है । "

       भारतीय वकालत से बताया गया , “ महाराज तक ठहरना पड़ेगा । देहली से वीसा आयेगा । तब जाना चाहिये Iवैसे तो हम यहाँ से दे सकते है | मगर वहाँ अगर रोकटोक हई तो अच्छा नहीं हैं । "

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मेरी जापान यात्रा 


   *बँकाक,* 
दिनांक १७ अगस्त १९५५


        यहाँ शंकरजी का एक सुंदर मंदिर है। सुना "वह मूर्ति नीले मूँह है |
की है और वहाँ बैंकाक का राजा आठ दिन में एक बार पूजा करने आता
है। बड़ा अनोखा दृश्य है वहाँ का!" मैं वहाँ जरूर जाऊंगा। ... मझे इससे
पता चलता है कि, भारत देश की संस्कृति कितनी दूर तक पहंची थी,
जबकि वायुयान भी नहीं थे। यहां पर भी भारत की उज्जल परंपरा की शान
नजर आती है। यहाँ की रहन सहन बाहर से तो पाश्चात्य संस्कति की हो
गई. मगर लोगों के दिल भारतीय है। ...मैं उस मंदिर को देखने जाऊंगा।

        १० बजे मंदिर को देखने हम निकले शहर में। अच्छा है यह शहर
ना। मंदिर तो मैंने अजीबही देखा। आज मता समझता कि यदि
को कई करोड रुपये लगे होंगे। हीरे और तुझे के कारीगरी से लबालब भरा हुआ है यह मंदिर! सब तरफ भगवान बुद्ध की मूतियाँ ! मगर राजविलास है उनमें। यहाँ की नसनस में कला भरी है। बडे बडे विशाल खम्बे, मूर्तियाँ 
और सारी दीवारों पर सुवर्ण के वर्क से रामायण के सक्रिय चित्र है | रामजन्म से सीता के मीलन तक पूरा रामायण चित्र में उतारा है। बिच में छोटे छोटे मंदिर है, मगर बढी कला भर दी है उसमें। रास्ते में देखकर आये चलते! एक सुंदर हनुमान मंदिर बना है, जो सारे शहर के मकानो से भी ऊंचा है। ऐसा खूबसूरत है जैसे कोई राजमहल बना हुआ हो I यहाँ एक समुद्र की खाडी का हमने पुल देखा है। मगर जब उसमें से
जलयान चलता है तो पूल के दोनों खम्बे खडे हो जाते है और फिर बंद
किये जाते है।

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*मेरी जापान यात्रा* 

       
       आज एक धनी आदमी ने हमें भोजन का निमंत्रण दिया है । मैंने
किया । ये भाई जैन हैं । रहनेवाले है बम्बई के , मगर व्यापार की कंपनी खोली है यहाँ । कल जाऊंगा मैं भोजन को ।

    . . . आज तो भारत महाविद्यालय में भाषण और भजन को जाऊंगा मैं । सुनते है यहाँ के सेठ भी करोडपति है । एक भाई ने कहा " महाराज ! आपको वह अपने यहाँ ही ठहराना चाहता है । "

    मैंने कहा , “ क्यों भाई ? वह कार्यक्रम के लिये मुझे ले जा सकता है । हम तो यहाँ मंदिर में ही अच्छे हैं । " उनसे कहा , “ अगर उनका बडाही आग्रह होगा तो हमारा बिच्छू का प्रपंच पीठपरही रहता है । चलने में देर ही क्या लगेगी ? मगर जहाँ तक हो , यहीं मैं ठीक मानता हूँ । "


      अभी हम थोडा आराम करके यह १० बजे के बाद का हाल लिख रहा हैं ।

. . . समय पर मोटर आयी । हम थायभारत कल्चरल लॉज में भजन को गये । श्री रघुनाथ प्रसाद शर्मा द्वारा प्रथम मेरा परिचय दिया गया । बाद भाषण को शुरुआत हो गई । प्रथम हमने ध्यान के पाठकों कहने की सूचना दी । सबकी सीधा बैठने को कहा । तमाम भाई सीधे बैठे । पश्चात ध्यान का पाठ पढ के भाषण आरंभ किया ।

मैंने कहा , " मैं किसी पंथ , पक्ष , धर्म या गुट का आदमी नहीं हैं । सारे पंथ , धर्म और देश मै अपने मानता हूँ । भारतीय संस्कृति सारे विश्व को अपना बनाने की योग्यता रखती है । वह पाशवी शक्ति से नहीं बल्कि अध्यात्म , आत्मधारणा , त्याग और अहिंसासे ही । आदमी जैसे जैसे आगे बढता है वैसे वैसे उसका क्षेत्र बढता जाता है । मैं अमरावती में होता तो गाँव का नाम बोलता ! मगर जब नागपुर में जाता तो अमरावती बताता हूँ । और परप्रान्त में जाता हूँ तब नागपुर का बताता हूँ । विदेशों में जाता हूँ तो भारत का बताता हूँ और आगे लम्बे देश में पहुंचता हूँ तब एशिया का कहता हूँ ।
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मेरी जापान यात्रा 

मतलब यह है कि आदमी जैसे आगे बढ़ता है वैसे उसकी विशालता का जवाबदार बनता है । वैसे ही जगत की रीति और नीति वह समझता है । छोटे - छोटे धर्म को भूलकर मानवतावादी बनता है ।

       “ भाईयों ! मैं तो अपनी धारणा पहलेसे ही विश्व की बना चुका है । इसलिये मुझे जापान ही क्या सारे विश्व में भी घूमने का प्रसंग आया तो कोई । बड़ी बात नहीं है । मेरा इष्ट देव विश्व है ! मेरा धर्म मानवधर्म है ! मेरी भावना इसी तरह भगवान बडा रहा है । यों तो मुझे ही क्या , आपको भी इसी रास्ते से आना होगा , जबकि , आप अपने विशाल हृदय को खोल बैठेंगे ! " 

     इसके बाद एक डेढ घंटा भाषण और भजन हआ । बडाही आनंद
हुआ इन भाईयों को !

         भजन होते ही मुझे भोजन को ले जाने की धूमधाम चली । एक साथ चार दिन का निमंत्रण आठ लोगों का ले लिया हमने ! मैंने कल ही तार दे दिया था कि , मैं भारत २४ , २५ अगस्त को पहंचूंगा ! मगर यहाँ सब लोग पीछे पड़े कि , बुधवार तक हम जाने नहीं देंगे ।

        अभी तो मैंने जवाब नहीं दिया । लेकिन देना ही पडेगा ऐसा लगता है । यहाँ के ( थायलंड के ) भिक्षुओं से मिलना है । मेरी इच्छा है कि , मैं इनकी धारणा और नियमों को समझ लूँ । ये लोग पीला वस्त्र पहनते हैं ।
और सात्त्विकता से रहते हैं । सुबह भोजन के लिये लोग अपने आप इनको देते हैं । इनके महंत से मुझे मिलना है ।

      आजभी यहाँ भजन और भाषण होंगे । हॉल तो कल ही भर गया था । आज तो जगह नहीं पूरेगी , ऐसा लगता है ।

        मैं आज सुबह गच्चपर बैठा था । ध्यान करके ! वहाँ कुछ महिलाएं मिलने को आई । उनमें भावुक भी कुछ थी । एकने पूछा ," महाराजजी! इधर के भिक्षु तो मांसाहार भी कर लेते है ! क्या यह साधुओं का धर्म है ?
    " मैंने कहा " देवीजी । जिधर का लोकाचार जैसा होगा वैसा
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मेरी जापान यात्रा








जपान- चित्रावली






टोकियोंकें आयोजित एक प्रीति- भोजके अवसर पर राष्ट्रसंत भाषन कर रहे है I






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मेरी जापान यात्रा





जापान- चित्रावली







सड्रद्रनीका चलाते हुए संत तुकडोजी का ड्रेक्तिक-द्वीप
(पर्ल- आड्रलंड) की ओर प्रस्थान I







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मेरी जापान यात्रा 

उनको करना चाहिये । इधरा आम लोग मांसाहार करते । इसका कारण
को करना चाहिये । इधरा आम लोग मांसाहार करते है । था जनसंख्या प्रमाण में अनाज का कमी होगी । तभी सबने मांसाहा वीकार किया होगा । जब ये भिक्षु हाथ से भोजन बनाते नहीं हैं , तो आम जनता जो खाती है वह उनको लेनाही चाहिये ना ! लेकिन अपने हाथ से किसी जीव को काटकर खाते हैं क्या ? "

        तब उसने कहा - “ नहीं ! वह पाप मानते हैं । "

    मैंने कहा “ फिर ठीक है उनका काम । हमारे बेंगाल में तो स्वामी रामकृष्ण परमहंस , स्वामी विवेकानंद मछलियाँ खाते थे । . . . तो क्या हुआ ? बेंगाल की सभ्यता में मच्छी आहार तो माना गया है । फिर उसमें दोष हम नहीं मानते । हमारे भारत में भी अगर अकाल पड जाय और लोग भूखे मरने लगे तो हमें कोई एतराज नहीं है । मगर उसमें कुछ तारतम्य भाव को रखना । चाहिये । फिर भी यह सवाल रक्षाका ही मैं मानता हैं । अगर फल - फूल और दूध अधिक प्रमाण में जिस देश में है और आम जनता को मिलने इतना है तो मैं कहूंगा कि , यह तुम्हारा दोष है , जबकि आप पशुओं को और निरुपद्रवी प्राणियों को मारकर पाप के भागीदार हो रहे हो । फिर उस देश के । हवापानी का भी प्रश्न आता है । किस देश का हवा - पानी ऐसा हो जहा बिना मांसाहार के नहीं चलेगा । वहाँ जो जीवन बिताना चाहते हैं उनका खाना ही होगा । मैंने सुना , कही बर्फ के प्रदेश में तो सिर्फ जानवरही खाकर लोग रहते है Iउनको  और कुछ भी नहीं मिलता है । फिर वे लोग क्या करें ? " उस देवी ने फिर मंजूर किया । वहाँ कुछ विद्वान लोग भी थेI

        एक भाई ने पूछा " महाराजजी ! मेरा दिल ईश्वर के तरफ लगता ही नहीं । जब कभी चार - छ : माह में लग जाता  है ।तो बडाही आनंद आता हैl लेकिन हमेशा नहीं लगता । "

      मैंने कहा " भाई ! ईश्वर में दिल लगने से आनंद होता यह जब तू महसूस करेगा तब तेरा दिल जरूर लगेगा । तू इसका करते जा I  जब तेरा दिल बाहर जाता है तब तुझे कब पता चलता हैं" उसने कहा-" थोडी देर के बाद । " 

      मैंने कहा - " जब पता चलता है तब पता चलानेवाला जो दिल में

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मेरी जापान यात्रा

है उसको सतर्क करने का प्रयत्न करना चाहिये और ध्यान के समय उस
मूर्ति से बोलना चाहिये कि मेरा दिल इधर ना जाय ऐसी मुझको शक्ति दे।"
उसने "मैं बराबर अब ऐसा प्रयत्न करूंगा।"

        मैंने कहा- “सवाल यह है कि, जो कमजोर होता है वह पीछे
पडते ही रहता है। अगर विचार भी है लेकिन वह इंद्रियों की विषयासक्ति
से कमजोर रहे तो विषयही शरीर को खींचते रहते हैं। उसको युक्ति से
रोककर अच्छी राह में लगाना चाहिये।"

        उसने माना और फिर कहा, “मेरा समाधान हो गया है।"

       उसके जाने के बाद एक हिंदुस्तानी भाई ने कुछ बाते की। उसने
कहा, "महाराजजी, आपकी कृपा से हम भारतवासी यहाँ बडी इज्जत से
रहते हैं। हमारा बड़ा नाम है इस देश में! हम चोरी चहाडी नहीं करते।
इसलिये हमको बडे प्रिय मानते हैं ये लोग! हमारे देश में हमें ४० रुपयों के
ऊपर एक कौडी नहीं मिलेगी, लेकिन यहाँ दो दो सौ रुपये कमा लेते हैं।
पहले जबकि, देश आजाद नहीं था तब तो ये उतना आदर नहीं करते थे।
लेकिन जब सुभाषबाबु ने इधर क्रान्ति की ज्योति जगायी तबसे ये लोग हमें
बहुत मानने लगे हैं। अब तो हमारा भारत आजाद हुआ। अब हमारे सामने
सिर भी झुकाते रहते हैं। पं. जवाहरलालजीने यह जो पंचशील द्वारा सारे
राष्ट्रों के साथ मित्रता जमाने का प्रयत्न किया है इससे सभी देश के लोग
उनका बड़ा आदर करते है। फिर भी जब कभी यहाँ के लोग उधर आकर
भीख मांगनेवालों को देखते हैं तब यहाँ आकर यह कहते हैं कि, आपका
देश अभी व्यवस्था नहीं कर पाया हैं। हमारे देश की ये बातें सुनकर हमें शर्म
से नीच देखने का मौका आता है। यहाँ एक भी भिखमंगा नहीं मिलेगा।
अगर कोई रहा तो उसकी शीघ्रही सरकार व्यवस्था करती है। उधर के
मंदिरों को जब ये लोग देखते हैं तब हमारे धर्म की अवनति को महसूस करते
हैं। यहाँ का कोई मंदिर गंदा नहीं दिखेगा।

फिर किसी ने कहा " महाराजजी! यहाँ की सभ्य ता का नमुना मै आपको बता ता हूँ | अगर अनपढ लड़का भी दूकानों मे जायेगा तो उसको

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मेरी जापान यात्रा

उतनीही सचाई से माल दिया जाता है जोकि, एक बड़े होशियार को। उसमें
कभी बेईमानी ये लोग नहीं करेंगे। उसने चीज का नाम लिख लाना चाहिये।
इतनी ईमानदारी का काम यहाँ चलता है। हमारे देश के जैसा झूठा व्यापार
घूसखोरी यहाँ बिलकुल नहीं मिलेगी। और यह थाय (थायलंड) तो हिन्दु
धर्म से इतना मिलाजुला है कि इनकी सारी रहनसहन हिन्दुओं के जैसीही
चलती है। संस्कृत शब्द भी वहीं के वही इनमें हैं। जैसे प्रमाण, साक्ष, माँबाप। ऐसे काफी शब्द हैं जो ये लोग बचाकर रखे हैं। बल्कि भारत में
ब्रिटिशों की सभ्यता से बहुत शब्द बदल गये। लेकिन यहाँ वे ही शब्द है।
जब भारत में शब्दकोष की जरूरत पड़े तो यहाँ के शब्द सीखने योग्य है।
सिर्फ यहाँ की बाहर की पोशाक पाश्चिमात्य ढंग की हो गई है। क्योंकि
अब उनकीही रहनसहन चारों ओर फैली है। उसी का यह परिणाम है।"

मैंने पूछा, “यह संस्था आप लोगों ने किस तरह खोली?"

उन्होंने कहा "स्वामी सत्यानंदपुरी नाम के महाविद्वान यहाँ आये
थे। उन्होंने थाय भाषा का अभ्यास किया और उन्ही को पढाने लगे। उनका
इस देशपर बड़ा प्रभाव पड़ा और उन्हीं के अथक परिश्रम से यह संस्था
स्थापन हुई। लेकिन जब वे काम के लिये जापान गये, तब वायुयान गिर
पडा और वे मर गये। उन्हीं के नाम पर (स्मृति में) यह संस्था चलती है।"
फिर उसने कहा "आप जबसे यहाँ आये तबसे सारे शहर में आनंद की
खबरें ऊठ रही हैं। बच्चा बच्चा बोल रहा है कि खंजडीवाले महाराज बहत
अच्छा भाषण करते हैं, भजन गाते हैं।"

मैंने कहा "भाई! मैं तो साधारण आदमी हूँ। मगर चाहता जरूर ।
हूँ कि विश्व का प्रेमी बनूं!"

पश्चात और भी लोग आते जाते रहे।

अब तो यह चलता ही रहेगा! आज मुझसे यहाँ के बड़े महात्मा
की मुलाकात होनेवाली है। अगर कुछ संबंध लग सके तो देखूगा। मुझे सारे
विश्व की प्रियता ऐसे लोगों के साथ निर्माण करना ही है, जो धर्म की
अच्छी बात को समझ गये हो!

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मेरी जापान यात्रा


 *बँकाक* 

दिनांक १९ अगस्त १९५५

    आज मेरे पास कुछ समाचारपत्रों के संवाददाता और कुछ
साधना के प्रेमी आये थे।
 उन्होंने मुझसे पूछा, "क्या आप विश्व धर्म परिषद
को गये थे?"

मैंने कहा, "जी हां!"

मैंने कहा “साधारणतया जैसे आदमी डर के मारे विचार करता है
वैसे ही कुछ सोच रहे हैं कि संसार में शस्त्रों की गति बंद होनी चाहिये। और
भी कुछ अच्छी बाते बहुत थी।"
        फिर थोड़ी देर बातें करने के पश्चात उसने प्रश्न किया “आप
कुछ योग की बातें जानते हो क्या?"
मैंने कहा थोडा जानता हूँ।"
         तब उसने सप्तचक्र की जानकारी मुझसे पुछी। मैने उसको समझा
दिया। मैने कहा, "यह समझ लेना तो बडा आसान है, मगर अनुभव करना।
बडा कठिन होता है।"

उसने कहा, "मैं तो रोज अभ्यास करता हूँ। मुझमें कुछ शक्ति भी
आई है। मैं आपको बता भी सकता हूँ।"

"क्या बतावोगे?" मैंने पूछा।

उसने कहा “मेरी आत्मा के प्रभाव से मैं आपके हाथों मे गरमा
और तेज लावूगा!"

मैंने कहा, “भाई! तेरा तेज हमपर क्यों पडेगा? तू कोई जादुगर तो
नहीं है?"

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मेरी जापान यात्रा

          उसने कहा, "हम करते हैं प्रयोग; आप देखिये।
मैने कहा, "ठीक है। करों जो कुछ करना है।"

        उसने कहा “सीधे बैठकर दोनों हाथों को खुला रखो और मेरे
तरफ देखने लगो।"

    मैंने वैसा किया।

      १०-१५ मिनिट तक उसने बड़ी ताकद से प्रयत्न किया।
        मैंने कहा "क्यों पत्थर से टकराते हो भाई? रहने दो! तुम्हारा
कोई परिणाम मेरे ऊपर नहीं होगा।"

उसने कहा "क्या! थोडी भी गरमी नहीं लगी?"

  मैंने कहा “गरमी उसको लगती है जिसमें अहंकार हो! हम तो
ठंडेगार है। हममें गरमी कैसी चढेगी बाबा?"
    पश्चात उसने मंजूर किया कि जो कमजोर रहा उसी पर यह
चलेगा।
बाद वह चला गया।
          उसके बाद शाम को साढेपांच बजे भजन और भाषण था। उस
मुताबिक कार्यक्रम हुआ। आज कल से चौगुना लोग थे। हॉल में जगह न
रहने से बहुत से लोग नीचे से सुन रहे थे। इस कार्यक्रम को शहर के प्रमुख
लोग, सिक्ख के गुरू, महिलाएँ और कुछ थाय के साधु भी आये थे। उनको
उनकी
         
भाषा में एक पंडित समझा रहा था। ...
         भजन के बाद हम भोजन के लिये गये।
          आज का मेरा भाषण *विश्व धर्म और संप्रदाय की असलियत*
इस विषय पर था।

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मी जपान यात्रा

 *बँकाक* 
दिनांक २० अगस्त १९५५

         आज सुबह उठकर स्नान-ध्यान करके यह सब लिखने बैठा हूँ।
आज सुबह निश्चित किये मुताबिक सिक्ख गुरुद्वारा में हमारा भजन भाषण
था। बडा सुन्दर था वह गुरुद्वारा। एक हजार के ऊपर लोग थे। ... महिलाएँ।
तथा सिक्ख भाई। भारत के लोग भी बहुतेरे आये थे।

          दरबार साहब के सामने बडा सुंदर भजन-भाषण हुआ। वहाँ के
सिक्ख भाईयों ने प्रसाद बाँटा और बाद वहाँ से हम चले।
              आज हम यहाँ के बुद्ध साधुओं के मन्दिरों में गये। बडीही
सात्विक रहनसहन इन लोगों की! पीला वस्त्र और कभी भगवा भी पहनते
हैं। सादगी की रहन! मैं उनके आचार्य से मिलने गया। करीबन दो हजार
भिक्षु अभ्यास के लिये बैठे थे। आचार्य भगवान बुद्ध का पाठ दे रहे थे। 

          मैंने साथ के पण्डितजी से पूछा, "इनका खर्च कौन करता है?"

उन्होंने कहा “इनका सब खर्च सरकार करती है। सुबह का
भोजन तो ये माँगकर खा लेते हैं और सारा खर्च सरकार चलाती है। बँकॉक
के जितने मन्दिर है, सबकी देखभाल सरकार ही करती है और प्राय: सभी
मन्दिरों में यह पाठशाला खोली है। कोई मन्दिर खाली पडा नहीं है। कही
दवाखाना, कही संस्कृत विद्यालय, कहीं कही योगाभ्यास ऐसा चला है।"
           पंडितजी ने कहा, "इन सयामी लोगों का धर्म ऐसा कि हर
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मेरी जपान यात्रा

किसी को जीवन में भिक्षु की शिक्षा देना ही चाहिये, भलेही वह भिक्षुक
होने के बाद संसार करें या संसार के बाद भिक्षु हो। मगर उसको भिक्षु होना
ही पडेगा।"

मैंने एक स्थान में देखा वहाँ *सविकल्प समाधि* के अभ्यासी दो सी के
ऊपर थे। अभ्यास कर रहे थे। एक बुढिया तो आठ घंटे तक ध्यान समाधि
लगाती थी। जब हम उसको देखने गये तब वहाँ के मुख्य साधु ने कहा,
"महाराज हमारी यह सब योजना भारत की है। भगवान गौतम बुद्ध ने हम 
सयामियों पर बडा उपकार किया। यह सब वहीं का अभ्यास सिखाकर सारे ।
देश में इन भिक्षुओं को हम भेजते हैं। आपके आने से हमें बडाही आनंद
हुआ। ... जैसे माँ बच्चे को मिलने आती है और माँ ने कुछ लाया होगा, ।
ऐसा बच्चा समझता है। उसी तरह भारत के महात्मा जब जब यहाँ आते हैं।
तब हम पडे आतुर रहते हैं। ... हम लोग वहाँ की इस समाधि विद्या को घर
घर पहुँचाने का प्रयत्न करते हैं। हमारे यहाँ करोडो रुपये लगाकर मन्दिर
बान्धे गये हैं। मगर मिट्टी भारत की लाये बिना मन्दिर नहीं बनता। थोडी तो
भी पूजा के लिये लानी पड़ती ही है।... हम तो भारत के ही सम्प्रदायी है I"


           यह सब सुनकर मेरे दिल पर बड़ाही परिणाम हुआ। हजारों वर्ष
के बाद भी इन्होंने भारत की सभ्यता को बनाये रखा है। यहाँ के बहुतेरे नाम
भारतीय हैं। चौरासी आसन की पत्थरों की मूर्तियाँ बना के रक्खी है। यहाँ
भगवान बुद्ध की एक मूर्ति हमने देखी। इसे *निद्रामग्न बुद्ध* कहते हैं। एकसौ
पचास फिट चौडी है और सब सुन्ने के पत्थरसे मढाई हुई है। यह मूर्ति सोई।
है। ... बुद्ध का बडाही विशाल स्थान है यह!

यहाँ के राजघराने के और राज्यभिषेक वगैरे के पूजाविधि के
समय पुरोहित का काम भारत के ब्राह्मण ही करते हैं। वे सदियों से यहाँ बसे है I

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मेरी जापान यात्रा

         मुझे पण्डित आचार्य सत्यानारायणजी ने कहा, “महाराज। अपने 
भी देश में सभी मन्दिर सरकार के होना आवश्यक है।सब मन्दिर में पाठशाळा
हो। वहाँ से ग्रामप्रचारक तैयार हो। सब मन्दिरों के गुरुओंने अपना शिक्षाक्रम
ऐसा ही बना देना चाहिये।"

     मैंने कहा “पण्डितजी! मैं प्रयत्न करूँगा।"

     सब देखने के बाद हम भोजन करने गये।

        बाद दो बजे विष्णु मन्दिर में भजन हुआ। कार्य का समारोप था। ....
बस! बँकॉक का कार्य समाप्त कर अब हम रंगून के लिये आज आठ बजे
विमान से रवाना होंगे।
      ____________

       *रंगून,* 
दिनांक २१ अगस्त १९५५


        आज सुबह ही स्नान-ध्यान करके हम छ: बजे विमान के लिये
निकले। ठीक समय पर दो मोटरें लेकर बँकॉक के कार्यकर्ता आये और हम
चले।

             पण्डितजी ने कहा “हम आपको छोडेंगे नहीं। यहाँ की सयामी
जनता कहती है कि भगवान बुद्ध के बाद आप जैसे लोग ही हमारा
समाधान कर सकते. हैं। यहाँ के बडे साधु बीमार हो गये, नहीं तो वे
आपको और एक माह जाने नहीं देते।"

       मैंने कहा-“भाई! उनको कहना कि आप जब हमको बुलावे
तब हम हाजिर हैं। आखिर हम हैं किसके लिये? आप में प्रेम पैदा हो यही

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मेरी जापान यात्रा

तो हमारे जीवन का लक्ष्य है।"
      बाद, हम चले विमानतल पर।
        आज गिने-चुने लगभग दो सौ आदमी पहचाने आये थे। शहर से
लगभग अठ्ठाईस मील दूरी पर विमानतल है। तब भी लोग आये थे। बडा हर्ष
था उनमें।

        बाद हम चले वायुयान द्वारा और रंगून को ठहरे।

      आते ही हिन्दी सम्मेलन में हम सम्मिलित हुये। वहाँ का निमंत्रण
बडेही आग्रह से था। वहाँ भाषण और भजन हुआ। सारे लोग ने मुझे घेरा
और कहा, “अब एक माह हम आपको नहीं छोड़ेंगे।"

       मैंने कहा- "माफ करो! मेरा आगे का कार्यक्रम निश्चित हो
गया है।"

फिर आज आठ बजे सत्यानारायन मन्दिर में भजन के लिये जाना था।

मैं यहाँ बालकिसनजी के यहाँ ठहरा हूँ।

          समुद्र किनारे जहाज उतरे थे। उनको देखने के लिये थोडी देर यहाँ के सेठ लोग मुझे ले गये। लगभग १५-२० जहाज आकर खडे थेI हमने देखें।

         आज रात को आठ बजे भोजन के बाद मैं भजन को गया। मन्दिर
महिलाओं और भाईयों से भरा हुआ था।.. मन्दिर में दर्शन के लिये गया।
सभी तरफ कृष्णमन्दिर, राम-मन्दिर, हनुमान-मन्दिर,  भगवान बुध्द का मन्दिर ऐसे छोटे-छोटे मन्दिर थे। दर्शन किया और बाद में डेढ़ घंटे तक
भाषण और भजन हुआ। जनता ने बड़े प्रेम से भजन सुना और कल भी यहाँ
भजन होगा ऐसा जाहीर किया। भजन के बडे प्रेमी ये लोग! .
      बाद हम आराम करने आये।
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मेरी जापान यात्रा 

     *रंगून* 
दिनांक २२ अगस्त १९५५



         सुबह ऊठकर आसन ,
 स्नान - ध्यान करके आठ बजे जैनी सम्प्रदाय के कार्यकर्ताओं के निमंत्रणानुसार भाषण देने गया । काफी समाज जमा हुआ था । सीटी हॉल में आज का भजन था ।

       भाषण भजन के बाद हम बुद्ध - मन्दिर देखने गये । कितनी मूर्तियाँ है इस मंदिर में । बड़ी बड़ी ५० मूर्तियाँ होगी । सोने का वर्ख लगाकर रखी है I

        बाद में * विश्वशान्ति मन्दिर * देखने गया । बडाही विशाल स्थान है यह । ऊपर से तो मालूम होता था कि यह पड़ा हुआ पर्वत है । सब पत्थरों से भरा हुआ है । मगर अंदर जब गये तो दिखा एक राजमहल का दरबार लगा है । बडाही सुन्दर रंग देकर बनाया था । यहाँ की कला बडीही सुंदर है ।

         हम वहाँ से * विश्व युनिव्हर्सिटी * देखने गये । यहाँ काफी देशों के साधु अभ्यासक के लिये हैं । उनकी भेट ली । उनके स्थान देखने गये । सरकार की मदद बहुतही सुविधा देती है । देखें , हमारे भी देश में यह हालत होगी तो हम भारतीय लोग भी सांस्कृतिक कार्य में आगे बढ़ सकते हैं ।

आज रात को भजन के लिये बहुत लोग इकट्ठा हो गये थे । हॉल छोटा था । चारों तरफ की सड़कें भरी थी । भाईयों से और वहाँ के सेठों से मैंने कहा था " देखिये भाई ! कल का दिन तो ठीक था । क्योंकि लोगों को ज्यादा पता नहीं था । मगर अब तो वहाँ भजन होना मुश्किल होगा
 । " 
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मेरी जापान यात्रा 

        उन्होंने कहा था , " महाराजजी ! लाऊड स्पीकर लगा देंगे । "
         मैंने कहा - " जैसा हो , करों ! "

          जब लोगों के झुंड आने लगे तब वे लोग घबडा गये । मैंने फिर समाज को शान्त किया और शान्तता से ही कार्यक्रम समाप्त हुआ । बाद में । हमने आराम किया ।
         ______________


      *रंगुन*
 दिनांक २३ अगस्त १९५५


            आज का रोज निकला रंगून में । आज भी एक बडी धर्मशाला में भजन तय हुआ है ।

           आज सुबह हम बडा पुराना बुद्ध मन्दिर देखने गये थे । कितना विशाल मन्दिर है यह ! इसकी ऊंचाई जमीन से लेकर एक हजार फिट तक होगी । सारा सुन्ने का पानी और पत्रा चढाया है । ऊपर कलश पर हीरे और जवाहर लटकाये है । उसके अतराफ लगभग दो हजार बड़ी - बड़ी मूर्तियाँ होगी । एक - एक मूर्ति के लिये एक एक सुन्दर सुन्दर मन्दिर बांधा है । कला तो इतनी भरी है कि आदमी मोहित हो जाता है इस कला पर ।

          मैंने देखा । फिर जैन भाई के घर गये । आज का उनका मिलने का दिन था । इसलिये वे ले गये थे ।

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मेरी जापान यात्रा

सब जन भाई इकठ्ठा हये थे । मैंने वहाँ भाषण दिया । इनका रिवाज ऐसा है कि आज से पिछले सारे पाप भगवान महावीर धो डालते हैं । . . . फिर लोग सबसे मिलकर पिछले अपराधों की क्षमा माँगते हैं और नया काम करने लगते हैं ।

          मैंने भाषण में कहा , " भाई आज का आपका दिन तो बहुत अच्छा है , लेकिन यह रिवाज नहीं पडना चाहिये कि , हम और अपराध करेंगे और आगे के साल में धो डालेंगे । कविने कहा है कि , * दुख में सुमरन सब करे , सुख में करे न कोय । अगर सुख में सुमरन करे तो , दुखिया काहे को होय । आप लोगों ने ऐसा ही बर्ताव करना चाहिये कि आइंदा के लिये किसी को क्षमा माँगने का मौका ही न पड सके । तोही इस त्यौहार का कुछ महत्त्व होगा ; नहीं तो यह धंधा होगा कि , पाप करो - झगडा करो और फिर साल में एक दिन क्षमा माँगो , तो छुटकारा होगा । यों तो आप लोगों ने आज के दिन सब मिलकर पिछडे लोगों में सुधार करने का सोचना चाहिये । अहिंसा के प्रचार की संसार में बड़ी जरूरत है । विश्व के बहुतेरे लोग मांसाहारी और शराब पीनेवाले हैं । उनको इस बात को अभी ज्ञान नहीं हुआ है कि , मनुष्य का खाना अनाज है , फल है , फूल है , दूध है । लेकिन समझाने पर वे समझ सकते हैं । फिर भी समझानेवाले हृदयवान लोग चाहिये । आपमें से निकलने चाहिये ऐसे लोग ! सारा विश्व भारत के विचारों की राह देखता है कि , वे हमें उच्च संस्कृति का ज्ञान दें । "

यह भाषण लगभग आधा घंटा देकर सबसे मिला ।

 बाद हम अपने स्थान पर लौट आये ।

        यहाँ बर्मा में हर दुकान पर औरते ही काम करती है । बडीही शौकिनी सी रहती है । यहाँ के आदमी तो हमाल दिखते है । लेकिन स्त्रियाँ बडी चपल और होशियार है । यहाँ सुनते है कि , ये लोग शौकिनी के मारे
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मेरी जापान यात्रा 

कमाया पैसा गँवा देते है और फिर खेती , कपडा आदि बेचकर जिंदगी चलाते है । 
मैंने समझदार भाई से सुना कि , आजकल भारतवासियों पर बर्मा के लोग नाराज हैं । इसका कारण भारतीयों ने इनके साथ दगा भी किया है । कुछ लोगों ने साहूकारी की और इन भोले बर्मावालों ने उनके पास धन रखा । उसको हडप कर गये ये लोग ! यहाँ का बाजार अपनी हकूमत से चलाते हैं । यह उनको खटक रहा है ।
        वास्तव में भारतीयों ने विदेश में मिलकर रहना चाहिये । मगर वहाँ भी ये लोग पार्टिया बना गये है । मारवाडियों में दो पार्टियाँ । सनातनियों में दो पार्टियाँ । आर्य समाजियों में दो पार्टियाँ ! आपस में भी दो - दो , तीन - तीन पार्टियों मतलब के लिये कर गये और उस बात को देखकर बर्मावाले इनको खराब देखते हैं ।

          मैंने यहाँ कुछ समझदारों को यह सूचित किया कि , " अपने बारे में बर्मा के लोगों की भावना खराब होना बड़ा ही बुरा है । उससे उनके दिल पर का गौतम बुद्ध के मन्दिरों का परिणाम भी उतर जायेगा । आपने उनको मित्र बनाने का प्रयत्न करना चाहिये । हमें तो दुनिया के सारे राष्ट्रों में स्नेह निर्माण करके भारतीय सांस्कृति की उज्वलता फैलाना है और आप लोग ऐसा करोगे तो कैसा चलेगा । एक संगठन बनाकर आपस के झगडे यहाँ तोडते जाओ और यहाँ के लोगों के दिल में भारत के बारे में प्रेम पैदा करों । "

           मैंने सब कुछ बातें समझाने का प्रयत्न किया । मैंने पूछा , " आजकल बर्मावाले लोग कौनसे देश का माल ज्यादा लेते है ? "

              तब उन्होंने कहा “ जापानवालों का । इसलिये कि , उनकी कला * *सुपिरियर-ता*  अच्छी है I

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मेरी जापान यात्रा 

कमाया पैसा गँवा देते है और फिर खेती , कपडा आदि बेचकर जिंदगी चलाते है । 
मैंने समझदार भाई से सुना कि , आजकल भारतवासियों पर बर्मा के लोग नाराज हैं । इसका कारण भारतीयों ने इनके साथ दगा भी किया है । कुछ लोगों ने साहूकारी की और इन भोले बर्मावालों ने उनके पास धन रखा । उसको हडप कर गये ये लोग ! यहाँ का बाजार अपनी हकूमत से चलाते हैं । यह उनको खटक रहा है ।
        वास्तव में भारतीयों ने विदेश में मिलकर रहना चाहिये । मगर वहाँ भी ये लोग पार्टिया बना गये है । मारवाडियों में दो पार्टियाँ । सनातनियों में दो पार्टियाँ । आर्य समाजियों में दो पार्टियाँ ! आपस में भी दो - दो , तीन - तीन पार्टियों मतलब के लिये कर गये और उस बात को देखकर बर्मावाले इनको खराब देखते हैं ।

          मैंने यहाँ कुछ समझदारों को यह सूचित किया कि , " अपने बारे में बर्मा के लोगों की भावना खराब होना बड़ा ही बुरा है । उससे उनके दिल पर का गौतम बुद्ध के मन्दिरों का परिणाम भी उतर जायेगा । आपने उनको मित्र बनाने का प्रयत्न करना चाहिये । हमें तो दुनिया के सारे राष्ट्रों में स्नेह निर्माण करके भारतीय सांस्कृति की उज्वलता फैलाना है और आप लोग ऐसा करोगे तो कैसा चलेगा । एक संगठन बनाकर आपस के झगडे यहाँ तोडते जाओ और यहाँ के लोगों के दिल में भारत के बारे में प्रेम पैदा करों । "

           मैंने सब कुछ बातें समझाने का प्रयत्न किया । मैंने पूछा , " आजकल बर्मावाले लोग कौनसे देश का माल ज्यादा लेते है ? "

              तब उन्होंने कहा “ जापानवालों का । इसलिये कि , उनकी कला * *सुपिरियर-ता*  अच्छी है I

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मेरी जापान यात्रा

हमने कहा " भारतियों ने भी उसको सीखना चाहिये । "
         रात को हमें एक बड़े सेठ के यहाँ भोजन को ले गये थे । बाद में हम रंगुन के सीटी हॉल में भजन करने गये थे । वहीं पर चायना से घूमकर
आये हुये भारतीय भाई श्री हरिवल्लभ मिले । आप आजकल भूमिदान में काम करते है और हमसे पहले भी मिले थे । उन्होंने मेरा परिचय दिया । फिर डेट घटा कार्यक्रम हुआ । एक घंटा तो भाषण हुआ । भाषण में अनेक विषय आये थे ; मगर प्रमुख विषय था " भारतवासियों ने विदेश में जात , गुटबाजी और मतलबी व्यवहार नहीं करना चाहिये , जिससे कि हम बदनाम हो । हमारा
और रंगुन का बहुत नजदिक का रास्ता है । बल्कि वे धर्म बंधु भी है । भगवान बुद्ध ने इन देशों में जो अपना प्रेम जमाया वह बडा नाता जोडनेवाला प्रेम था । उसको हमने भूलना नहीं चाहिये । व्यापार भी करना हो तो ऐसा नहीं करना चाहिये कि यहाँ के भोले भाले लोग खत्म हो जाय । अगर वे पिछड़े हैं तो उनको सिखाने में अपने को भूषण मानना चाहिये । " . . . बाकी विषय भी बहुत अच्छे रहे । भजन भी अच्छा रहा ।

          मुझे तो अनुभव आया कि , अकेले भजन में प्रेम चढता है , वह एक अलग बात होती है । और साथीदारों के साथ जब भजन होते है तो वह अलग बात होती हैं । वह सिर्फ ताल स्वर में बात चली जाती है । फिर भी कुछ लोग उसके भी उत्सुक रहते हैं ।
            भजन के बाद वहाँ के चुने - चुने लोगों ने  *आपको चार रोज तो भी यहाँ रहना चाहिये * ऐसा बड़ा ही आग्रह किया । मगर उन सबका । समझाकर हमने कहा , " फिर लिखो हम बाद में आयेंगे । मगर अभी नहीं । ।
         भजन के बाद हम उतरने की जगह गये । वहाँ भी कुछ सेठ लोग आये । एकने प्रश्न पूछा , " महाराज ! हम बर्मावासियों के साथ अच्छा रहते। तो भी उनकी समझ आज कल विपरीत ही है और उनको कुछ समझता भी
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मेरी जापान यात्रा

नहीं । उनके नाज के लाईसेन्स हम ले लेते है और आधा मुनाफा उनको देते है । वह मुनाफा लेकर वे लोग मोटर लेंगे , सोना लेंगे , हीरे लेंगे , ऊंचे - ऊंचे कपडे लेंगे । इस तरह पैसा बरबाद कर डालते है और फिर बेचना शुरू करते हैं । दस रुपयों का माल एक रूपये में ! गहना रखते है , उनको उसकी कुछ भी शर्म नहीं । आम जनता ऐसा करती है और सब औरतोंका ही मानते है । उनकी और उनके मालिक ! यह घर में काम करता है और औरत बाहर का सारा काम करती है । औरतें तो लिखी पढी भी होती है मगर आदमी बहुत कम पढ़े हैं ।

          मैंने कहा " भाई ! जो भी बात है हमको तो निभानाही है । अब उनका स्वभाव जानकर आपने सोचना चाहिये कि क्या करने से ये लोग मानेंगे । वैसी रहन - सहन करना चाहिये आप लोगों ने ।

        इतना बोलकर हमने उन सबको छुट्टी दी ।

         सामान बहुत हुआ हमारे साथ । बुद्ध की मूर्तिका सिंहासन और । एक छोटी मूर्ति एक भाई ने भेंट की । वह भी अब साथ हो गयी । खैर ! । चलेगी बेचारी हमारे गरीब देश में । यहाँ तो करोडो के वैभव में वह रहती थी । हमारे वहाँ झोपडी में वह रहेगी ।

    . . . एक बात ! वह जो चीन जाकर आये , उन्होंने मुझसे वहाँ का काफी अनुभव बताया । कहा कि , " चीन देश में जो देहातों की तरक्की हुई है । वह अजीब तरक्की है । सारे जमीन का बँटवारा ग्रामपंचायत द्वारा किया और अब तो वहाँ के लखपति खुले दिल से कहते है कि , जो हमें मालगुजार होने से शान्ति नही थी वह आज दस एकड में मिलती है । वेश्याओं का बिकट प्रश्न चीन के लोगों ने छुडाया है । हजारों वेश्याएं यहाँ थी । लेकिन उन्होंने एक आंदोलन चलाया कि देश में वेश्या व्यवसाय बड़ा खराब होता है । उनमें से जितनी बुढियाँ थी उनको एकदम कैद में रखा और युवतियाँ थी उनके

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मेरी जापान यात्रा 

लिये कम्युनिस्ट पार्टी ने तय किया कि कम्युनिस्ट पार्टी के भाई ने या उसके बच्चे ने एक वेश्या के साथ शादी लगाना चाहिये । इस काम को महत्व आना चाहिये इसलिये वहाँ के मिनिस्टर ने अपने लडके की शादी एक वेश्या लडकी के साथ लगा दी और बाद सभी लोगों ने कदम उठाया । आज वहाँ वेश्या का धन्धा बिलकुल नहीं है । वहाँ के लोगों ने मन्दिरों की बड़ी सुन्दर व्यवस्था की है । हर मन्दिर में जनता ने कुछ न कुछ परोपकारी काम चलाया है । वहाँ एक बडे चीफ मिनिस्टर को पाँच सौ रुपये वेतन मिलता है । सभी मिनिस्टरों को चार सौ इक्यानवे मिलते हैं । वहाँ के एक साधारण सिपाही को डेढ सौ रुपये से कम तरख्वाह नहीं है . वहाँ की खेती सब आदमी लोग करते हैं और अब अपने आप सामुदायिक खेती पर लोग आने लगे हैं । वहाँ भी बडे - बडे बुद्ध मंदिर है । लेकिन अब वह निकम्मे नहीं जैसे भारत के रहते हैं । "

       उनकी इन बातों को सुनकर मुझे तो बडाही हर्ष हुआ । यों तो जापान ने भी बहुत तरक्की की है मगर चीन के मामले में अभी उनको आगे बढना ही है ।

   ...मैंने वल्लभजी को बोला “ भाई ! बहुत ठीक हुआ तेरा जाना । तू भूमिदान का कार्यकर्ता है । और भूमि के बारे में तेरे दिल में प्रकाश पड़ना हमारे देश का कल्याणही है ।

      बाद हम लोग कलके तैयारी में लगे । दूसरे दिन सुबह ही विमान
की तेयारी थी । . . .
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मेरी जापान यात्रा 
 
   *रंगून से मातृभूमि में,* 
    दिनांक २४ अगस्त १९५५


          आज सुबह चार बजे ही तुकारामजी उठे और मै जरा देरी से
उठा। मैंने यहाँ मालिश वगैरेह करना छोड दिया था। इससे अधिक थकान
लगती थी।

        में उठा। आसन, स्नान-ध्यान किया। सामान को लपेटकर भोजन
को गये रामचन्द्रजी के यहाँ।
      बाद में तैयारी हुई।

चले मोटर से विमानतल पर। साथ में दोन-तीन प्राइव्हेट मोटरें
थी। मैं तो उतरते ही मिलनेवालों से बोलने गया और तुकारामजी ने कागज
पत्र का काम सम्हाला। एक महत्व का कागज उनकी भूल से कहीं रह
गया। बडी आफत! वहाँ के अफसर कहने लगे कि,"हम जाने नहीं देंगे।
वह रसीद बताओं।"

         बाद, उनको पता चला कि महाराज का यह साथी है और वहाँ
के कुछ भाईयों ने भी बताया कि, *भूल हुई, बाकी सब उनके पास है। बाद ।
उन्होंने जाने दिया। सामान का भी कुछ नहीं पड़ा। बेचारा वह अफसर
हमारे फोटो में भी शामिल हो गया था !

इस प्रवास में लिखने के और पास पोर्ट के काम तुकारामजी ही
सम्हालते थे। बहुत अच्छा काम उन्होंने किया। मेरी जरूरत सिर्फ हस्ताक्षर
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मेरी जापान यात्रा

के वक्त पडती थी। एक आदमी ने मेरा सारा काम
लते थे। फिर
एक आदमी ने मेरा सारा काम सम्हालना महान
बात है। हजारों आदमी माँगने में लगे रहे थे। फिर परिचय पंछते है
कार्यक्रम लगाना और मेरा सारा काम भी करना।

        यों तो वहाँ के मित्र बहुत काम करा लेते थे। मगर भाषा की.
दिक्कत जाती थी। तो भी बड़ा सुन्दर मेरा प्रवास हुआ। कई देशों का अ
मुझे आया। आदरातिथ्य बहुत हुआ। रहन सहन की पहले ही दधिक
उसको काफी प्रमाण में जोड मिली।

      बस्! हम रंगून के विमान में बैठने चले। काफी लोगों ने मुलाकात
की।

बाद कलकत्ता उतरते ही यहाँ के बडे बडे सेठ और प्रेमी भाईयों
ने स्वागत किया। हारों के ढेर लगे थे। मैंने तो हार उन्हीं के गले में डाल
दिये।

          फिर चले कलकत्ता। हमारी ठहरने की व्यवस्था पूरणमलजा
जयपुरीयाजी के यहाँ की गई थी। कलकत्ता के लोगों का आदरातिथ्य
पाकर हम रेलद्वारा नागपुर और बाद में हमारे गरुकंज आश्रम में आप
बस् इस प्रकार हमारे जापान यात्रा की यहाँ समाप्ति हर्ड! धन्यवाद
भाई बहनों की जिन्होंने यह यात्रा सफल बनाने में हमको मदद दी।

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मेरी जापान यात्रा

       *अनमोल बोल* 

     परिषद में उपस्थित देश-विदेश के भाइयो और बहनों!

            जब कि आप इस विश्व धर्म परिषद में विश्व शांति की, प्रेम की
ध्येय दृष्टि समक्ष रखकर विभिन्न देशों से आये, साथ ही अनेको राष्ट्रों से
परिषद की सफलता के लिये शुभ सन्देश भी प्राप्त हये हैं, तब तो यह बात
सूर्य प्रकाश के समान स्पष्ट है कि विश्व को बन्धुत्व की, शांति की, स्नेह
की तीव्र भूख लगी हुई है। परंतु मुझे इस बात का पता नहीं लगता कि
संसार में इतने धर्मों का प्रयोजन ही क्या? क्या यह सच है कि प्रत्येक
व्यक्ति का उद्धार करने का मार्ग भिन्न हो सकता है? क्या प्रत्येक मनुष्य के
लिये सुख-शांति भिन्न प्रकार की हो सकती है? क्या यह भी सत्य है कि
भगवान बुद्ध, प्रभु ईसा मसीह, महात्मा झवष्ट, भगवान श्रीकृष्ण, महम्मद
पैगंबर, महात्मा गांधी आदि धर्माचार्य लोगों में फूट डालने के लिये उनको
एक दूसरे के दुश्मन बनाने के लिये कार्य कर गये? यह बात मुझे कदापि
मान्य हो नहीं सकती।

          सबका उद्धार सबकी सुख-शांति एकसीही हो सकती है। सबके
कल्याण का मार्ग भी एकही हो सकता; फिर उसका बाह्यस्वरूप देशकाल,
परिस्थिति के अनुसार कितना भी भिन्न क्यों न दिखता हो!

        संसार के ये सब धर्माचार्य मनुष्य को संकुचित एक दूसरे से भिन्न
बनाने के लिये अवतीर्ण नहीं हुये थे; वे तो इसलिये अपना कार्य कर गये
कि जिससे मानवमात्र परस्पर के पूरक बनकर संसार में प्रेम का ईश्वरी
साम्राज्य निर्माण हो। अखिल मानवसमाज को विश्वधर्म की धारणा और

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मेरी जापान यात्रा

ईश्वरी नियमों की प्रेरणा देने हेतु उन महापुरुषों ने कार्य किया।
ऐसा होते हुये भी आज मनुष्य को मनुष्य के खून की प्यास क्यों लगी है। धर्म और देश के नाम पर मानव अपनी जाति का संहार करने क्यों प्रस्तत है? मै तो
कहूँगा कि उन महापुरुषों की विशाल दृष्टि का ये लोग आकलन कर ही
नहीं सके। मनुष्य ने प्रेम के लिये जन्म लिया पर खेद है कि वह उसी में
कमजोर सा पड़ गया; भिन्न वेशभूषा देखकर वह उलझन में पर गया:
सबकी पूर्ण व्यवस्था करने में वह भूल गया। एक कारण और भी दुसरा है |
उन महापुरुषों के नाम पर बिना श्रम किये ही जगने की इच्छा रखनेवाले
कुछ साम्प्रदायिकों ने बरबस धर्म अलग रखकर विरोध बढाया; मानव को
विशाल दृष्टि न देते हुये एक दुसरे से जुदा रखा, इनमें द्रोह निर्माण किया।

          यदि ऐसा न होता तो क्योकर बेचारे ये सिधे सादे, सरल स्वभाव
के, भोले भाले लोग, अनजान बच्चे, उत्साही युवक, शांतिप्रिय वृद्ध एक
दूसरे से भिन्न एक दुसरे के शत्रू बनकर रहते? जापान, हाँगकाँग, बर्मा,
भारत आदि देशों में प्रेमधर्म के लिये लालयित हए, भगवद भक्ति से प्रेरित
हुये, तथा प्रेमी मानवों से मिलने के लिये अपने हृदय द्वार खोलकर प्रतीक्षा
करनेवाले लोग मेरी दृष्टि से समान है। पर फिर भी ये एक दूसरे के हृदय ।
काबीज नहीं कर पाते। इसका कारण भला क्या हो सकता है? अपने सत्य
धर्मतत्वों से, महात्माओं के विशाल दृष्टिकोन से परे रहना और व्यक्ति,
पक्ष, राष्ट्र इनके संकुचित स्वार्थ से बेहोश रहना इन पापों का फल है ये!
इसके कारण ही आज संसार में विरोध, अशांति और आतंक इनका जोर
बढ़ा रहा है। वास्तव में देखा जाय तो यह पता चलता है कि सभी धर्म
मानवों की उन्नती, विकास करने के हित ही निर्माण हुए हैं। सबकी मालिक
वाणी एक ही है। इस बिगडी हुई परिस्थिति के लिये कोई एक धर्म मूलत; जबाबदार नहीं I क्या समुंदर मे कभी  मानवों में भिन्नता रखी है? क्या चांद सूरज की किरनों ने कभी ऐसा भेदभाव रखा है?और हवा? क्या उसने भी कभी यह अन्तर अनुभव किया है? क्या विभिन्न वेषभूषा, उपजीवीका और
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मेरी जापान यात्रा

रहन सहन इनका प्रयोजन मानव की मानवता नष्ट करने के लिय हा
है? यह मुझे मंजुर नहीं! विरोध का अस्तित्व देखना हो तो वह दो धमा
ही नहीं बल्कि दो कुटुम्बों में भी देखा जा सकता है और उसका मूल के
अज्ञान एवं संकुचित स्वार्थ ही पाया जायगा।

       एक कारण और है। घर के तथा गाँव के लोगों ने अपनी
जिम्मेदारी ठीक तरह सम्भाली नहीं। अतएव आपसी वैमनस्य की वृद्धि हुई।
उसी प्रकार धर्मों का सत्य-स्वरूप समझानेवालों के कार्यतत्परता की कमी।
महसूस होने लगी। फलतः विविध सम्प्रदायों की भरमार हुई; धार्मिक कलह 
बढता गया। वास्तविकतः धर्म तो विश्व की धारणा करने का एक अच्छा
सा मार्ग है और वह धारणा केवल उसी के द्वारा हो सकती है कि जो ईश्वर
का विशाल स्वरूप जानकर समस्त संसार के मानवों ने किस तरह जीवन
जिने पर सबको सुखप्राप्ति हो सकती है इसका सर्वसामान्य मार्ग समझा
सकता है। जो लोग यहाँ धर्म के नाम पर राजनीति के बर्के ओढकर आये हैं।
अथवा पत्नि-पुत्र की मोहमाया के बन्धन में फँसे हये हैं वे भला क्या सच्चे
धर्म का जान दे सकते है? ईश्वर की वाणी का स्फोट तो नीरे निर्मल, निरीह
पुरुषों के हृदयसे ही हो सकता है।

       मेरे विश्वप्रेमी सज्जनों! आपको तो चाहिये कि आप निर्मल और
विशाल दृष्टि से ही धर्म का विचार, आचार और प्रचार करें। यदि धर्मवादी
पुरुषोंने धर्म के बन्धन मानवतावादी दृष्टिकोन से व्यवहार में नहीं लाये तो
धर्म *धर्म* रह न सकेगा। एक धर्म ने दूसरे धर्म पर आक्रमण करने की प्रवृत्ति 
धर्म की नहीं- अधर्म की है। एक मनुष्य का पाँव जोड़ने के लिये दूसरे
मनुष्य का पाँव काँटना जितना अन्याय्य है उतनाही दूसरे धर्म पर किया
हुआ आक्रमण अन्याय्य होगा। तलवार का उत्तर तलवार से देने का माने
एटम बॉम्ब व हैड्रोजन बॉम्ब को प्रोत्साहन देना होगा। तलवार का आक्रमण
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मेरी जापान यात्रा

रोकने के लिये ढाल सामने की जाती है। उसी प्रकार शान्तिवाद व भ्रातृभावना
से हमें विरोधी प्रवृत्तियों का सामना करना चाहिये। अनेक विध साधनों द्वारा
विश्व के मानव एक दूसरे के सम्पर्क में आये है ; उन्हें प्रेम के सूत्र में आबद्ध ।
कर सुखी और समृद्ध करना चाहिये। सभी धर्मियों ने प्रेमपूर्ण सहकार्य द्वारा क्रूर प्रवृत्ति को विश्व से हटा देना चाहिये। सभी राष्ट्रों ने समझदारी के साथ
विश्व बन्धुत्व को अपनाना चाहिये ताकि मानवता की मूर्ति साकार हो
उठे। संहारक प्रवृत्ति का त्याग कर उपरोक्त उपदेश हमें सभी धर्मों के लोगों
ने अपने धर्मबंधुओं को देना चाहिये। यह परिषद प्रस्तावों को स्वीकृत
करेगी, उत्तम भावना पैदा करेगी, पर प्रत्यक्ष कार्य किये बिना उसकी पूर्ती।
हो न सकेगी।

 मेरे प्रियजनों! ईश्वरी आज्ञा का, मानवधर्म का, सत्य और प्रेम ।
का प्रचार घर-घर में करने के लिये आप अपना सर्वस्व अर्पण कर दें और।
देशदेशों के लोगों में परिभ्रमण शान्ति के साम्राज्य का सृजन करें यही मेरी
हार्दिक प्रार्थना!


          ______________
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मेरी जापान यात्रा
              *२.* 
        मित्रो! संसार में आज तक यह विचारधारा प्रभाव डाले हुये थी
कि तलवार का मुकाबला तलवारही के बल किया जा सकता है और तभी
दोनों में से एक की तलवार ऊंची उठ सकती है, जो ताकतवर हो। इसी
धारणा के कारण आज तक नये नये शस्त्र- अस्र पैदा किये। बन्दूकें, तोपों,
मशीनगन, बम और हैड्रोजन बम तक इसी वहम के बदौलत अवतीर्व हुये
और न जाने क्या क्या होने जा रहे है। किन्तु इसी से यह बात साफ जाहीर
हो जाती है कि शक्ति की कही हद नहीं और शस्त्र की विजय कोई कायम
विजय नहीं। तलवार या किसी के एटम बम हमेशा के लिये ऊंचा सिर किये
नहीं रह सकते, उनके सिर पर संशोधन या आविष्कार अपना कदम ताने
का हमेशा तैयार रहते हैं। इसी के कारण किसी की विजय, विजय नहीं रह
सकती और उस विजय की अवधि में भी डर बना ही रहता है जो कभी
शान्ति का अनुभव नहीं होने देता।

       इससे तो यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि शस्त्र का सवाल शस्त्र
के द्वारा हल नहीं हो सकता। तलवार की छाया के नीचे मानवता का बाग
हराभरा नहीं रह सकता। जहर बोकर अमतफल प्राप्त नहीं किये जा सकते।
तलवार की चोट ढाल ही सह सकती है और शस्त्र का मुकाबला मानवता
का शास्त्र ही कर सकता है। शत्रु को जीतने का रास्ता उसे मारना नहीं, वश
करना है। इसके लिये अपना चित्त शद्ध करना और दूसरों का विश्वास प्राप्त
करना जरुरी होता है, जिसका मार्ग है खुला और सत्यनिष्ठ जीवन। किसी
को मारने की अपेक्षा सच्चाई के लिये मरना हम पसन्द करते है इसलिये न
कि हम किसी के विषय में शत्रत्व रखते हैं और न हम अपना सत्य बदलने
को ही तैयार हैं। इसका मतलब यह कि हम अपनी सत्यता बलिदान की
कसौटी पर सिद्ध कर सकते हैं, स्वयं अपने न कि अन्य किसी के। और

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मेरी जापान यात्रा

किसी को मारने के बदले स्वयं मरने के लिये तैयार होने में जो बहादुरी है
वही शस्त्रों की ताकत को हमेशा के लिये धूल में मिला देती है। शान्ति तो
इस रास्ते आरम्भअब से अनंत तक बल्कि उसके बाद में भी पूरी तरह
फलती- फूलती है।

          संक्षेप में, मारने की परम्परा स्नेह के बल ही खत्म की जा सकती
है और वास्तविक स्नेह का रास्ता आध्यात्मिक प्रवृत्तिसे ही प्राप्त हो सकता
है, जो नितान्त सत्य पर आधारित होता है। विकारों का सत्य भ्रान्ति की
देन है जो झूठा होता है, किन्तु विचारों का सत्य एक ऐसा सत्य होता है
जिसके विकास या प्रकाश से अखिल मानवसमाज ही नहीं, विश्व अणु -
परमाणु से भरा हुआ परमात्मा भी प्रसन्न हो जाता है। मेरा निजी विश्वास है
कि किसी भी बेसमझ या स्वार्थलोलुप व्यक्ति का बेडा विचार तथा स्नेह
के द्वारा ही तोडा जा सकता है, बम या अस द्वारा नहीं।

दो पुरुषों का झगडा खत्म होने पर दोनों अपना- अपना नुकसान महसूस
कर पीछे मुडकर देखने लगते है, जबकि उनकी बुद्धि कारणों का अन्वेषण
कर मानवता का विचार करने तैयार हो जाती है। रणकी धुन जिस पर सवार
हो वह घोडा लगाम के खीचने से भी रुकता नहीं। उसे रोकना हो तो युद्ध
के पश्चात या पहले ही रोकने का प्रयास करना चाहिये ; प्रेम सिखाना
चाहिये। जो हुआ उसका डंख पकडे रहना या प्रतिशोध की भावना जागृत
रखना यह तो युद्धकाही बीज होता है। युद्ध खत्म हो जाने पर अब हम
सबको एक अच्छे खिलाड़ी की तरह स्नेह से नजदीक आना चाहिये, हाथ
मिलाना चाहिये और अपनी सचाई की कायम रखते हुये पिछला बैर पीछे
छोडकर आगे युद्ध न हो इसलिये सारे विश्व को समझाना चाहिये।

समझाने की हवा तो आज विश्वभर में फैल चुकी है, किन्तु कोई
समझौता कर वैसा बरतने के लिये तैयार ही नहीं दिखाई देता। मुंह में

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मेरी जापान

शान्तिपाठ और हाथ में मशीनगन यह कोई समझाने का तरीका नहीं होता है,फिर असर भी हो तो कैसा? प्रेम भय से नहीं, प्रामाणिक आत्मीयता से
बढ़ता है। इस नियम के अनुसार उसी राष्ट्र के समझाने का विश्व पर प्रभाव
पडेगा जो सत्य के लिये स्वयं मर मिटने को तैयार है; मगर साथ ही जो शस्त्र
को हाथ न लगाने की प्रतिज्ञा कर चुका है और अपने व्यवहार द्वारा शस्त्र के
बड़प्पन को मिटा चुका है। शान्ति की चर्चा करनेवाले किन्तु अंदरुनी शस्त्रों
को बढ़ावा देनेवाले युद्धप्रिय देशों का परिणाम व्यवहार में किसी पर कुछ न होगा, बल्कि उनकी हंसी उडायी जायेगी, इसे खूब समझ लेना चाहिये।

           जापान के भाईयों ने अपनी उत्पादनशक्ति बढाकर अपने राष्ट्र
की जो उन्नति की है और अपने रहनसहन के साथ ही सेवाभावना की भी
जो प्रगति की है उसके लिये उनकी सराहना किये बिना नहीं रहा जा
सकता। अपनी इस दृश्य उन्नति के साथ ही उन्हें अब अपनी भावना को
अधिक से अधिक उन्नत बनाना चाहिये और हमारा कोई शत्रु है* इस
कल्पना को छोड अपने देश को शस्त्रीकरण से मुक्त तथा अध्यात्म की ओर
अग्रसर बनाने के भरसक प्रयत्न करने चाहिये। अपनी आत्मा की निर्भयशक्ति
तथा असीम ब्यामि को पहचानकर उन्हें न किसी को डराना चाहिये और न
किसी से डरनाही चाहिये। स्नेह का दरवाजा सबके लिये खुला रखने से ही
जापान विश्व का प्रेमी तथा अजेय शक्ति का खजाना बन सकता है और
बडेही गर्व की बात है कि वह इसी रास्ते पर तेजी से पर बढाते हुये जा रहा

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मेरी जापान यात्रा
           *३.* 
       सभास्थित नेतागण तथा सज्जनों! आप इस बात को जानते तो
अवश्य होंगे कि विकास का अर्थ ही व्यापकता होता है, जिसमें समानता
विभिन्न रूप से गृहित होती है। विकास का लक्ष्य होता है पूर्णता, जिसमें
सीमाओं का निर्वाह नहीं हो सकता। वह पूर्णताही अमर सुख प्रदान कर
सकती है और अपूर्णता या अल्पता के पीछे हमेशा भय बना रहता है। भय
सागर को नहीं होता, वह होता है थिल्लर को। मर्यादित जल सुखने लगता है।
सागर में मिल जाना या स्वयं समुद्र बन बैठनाही उसके लिये विकास की चरम
सीमा कही जा सकती है। जल के मर्यादित रूप को हम कूप या तलैया कह
सकेंगे, किन्तु उसे विनाश का भय लगाही रहता है। वह अच्छी सीमाओं को
बढ़ाते हुए महानता धारण करेगा तभी वह अपनी समानता का चिन्ह बताकर
विकास को प्राप्त होगा। इसी प्रकार मनुष्य का अपने स्थान पर छोटा या बड़ा
होकर रहना उसके छुटपनकाही निदर्शक है, जिसके साथ विनाश का खतरा
लगाही रहता है। वह जब सबको अपनाने लगता है तभी उसकी व्याप्ति बढ़ती
है और उसका सच्चा बडप्पन सबको आकर्षित कर लेता है, स्वयं उसको
निर्भय बना देता है। यही है मनुष्य का विकास।

पुरुष जब अपने कुटुम्बियों को अपने समान बना लेता है तब वह उतनाही बडा बन बैठता है। जब वह अपने पड़ोसियों को अपनाता है तब
उससे कई अधिक बडा कहलाता है। और जब वह अपने अपने प्रान्त, देश,
खण्ड बल्कि विश्व को अपना समझ लेता है तब क्रमश: वह उतना ही व्यापक दो विकास की ऊंची चोटी का अधिकारी हो जाता है, बल्कि उसे मैं विश्व ही मान
 लेता हुँ। उसकी सब चिन्ताएं, सब दुर्बलताएं तथा सारी अतृप्तियाँ समाप्त हो जाती है। अब यह बताईये कि, क्या आपको यह शान्तिमार्ग आवश्यक नहीं प्रतित
 होता? क्या आपको जातीयता, धार्मिकता, प्रान्तियता, संस्था-

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मेरी जापान यात्रा

प्रियता या देशीयता आपको विश्व की ओर जाने से कहीं मना तो नहीं
करती ? अगर करती है तो निश्चय समझिये कि आपकी हस्ती छोटी,
राष्ट्रीयता छोटी और आपकी मानवता झूठी है, जो हमेशा संकटों से घिरी
रहेगी। समानता का प्रदर्शन तथा शान्ति का अनुभव वह कर ही नहीं सकती |

             मैं यह मानता हुँ  कि ऐसा न हो कि हम उजड़ते जाय और गाँव को
बसाये, गाँव का खात्मा करें और प्रान्त की बाग सजाये ; प्रान्त का गला घोंटे और देश की ध्वजा फहराये। मगर यह तो मानने की बात है कि, हम भी सुखी
बने और दुनिया को भी बनाये। वह सुखशान्ति खींचातानी से प्राप्त नहीं हो सकती इसलिये सब मिलकर प्रेमपूर्वक सहयोग दें और एकसाथ आगे बढ़ते जाय। इस विशाल सृष्टि के समान अपनी हार्दिक व्यापकताओं बढाने के लिये
सत्पात्र बनें यानि अपने पास विषमता का थाल भरा ना रखें। कमसे कम
हजारों कुटियों की शक्ति छीनकर हम अपना ताजमहल न उठाये, बल्कि एकविशाल ताजमहल में सबको सुखपूर्वक सांस लेते खुश हो जायें।

क्या आप इस ख्यालातके हैं कि, दुनिया की सारी सम्पत्ति, समूची खेती,
सम्पूर्ण शक्ति, समस्त बुद्धि-युक्ति इकट्ठा कर विश्वसम्पदा बना देने से
दुनिया भूखी मरेगी? ज्ञान का वितरण करने से कोई किसी को आदर की
दृष्टि से न देखेगा और खेती के विकेंद्रीकरण से उत्पादन की व्याप्ति घटने
लगेगी? आपपरभाव का संकुचित आवरण फेंककर व्यक्ति अपने को
विश्वव्यापी समझने लगे तो क्या दुनिया उसे दबोच डालेगी या भूखों
मारेगी? वह भ्रम कैसे पैदा हो जाता है, मेरी समझमें ही नहीं आता। हां,
जब तक मनुष्य ऊंचे ख्यालात की ओर से मुंह मोडकर अपने को अकेला
असहाय समझ लेता है, जीवन का जिम्मेदार या कधितां केवल अपने ही
का मानता है, तब तक तो उसे इतना डर लगना वाजीब है। जस कि, कल

१२९


मेरी जापान यात्रा

अगर मैं एकाएक मर गया तो मेरे घरवालों का क्या होगा? मेरे पास अगर
पैसा ही न रहा तो भविष्य में मैं कैसे जीवित रह सकूगा? इत्यादि, इत्यादि।
किन्तु यह भ्रम तो समाज के वर्तमान ढाँचे को आखों के सामने रखने पर ही
पैदा होता है, जो व्यक्ति की मालिकी तथा पैसा इन्ही की नीव पर खड़ा
है। आदमी जब तक अकेला है, अन्य समाज जबतक पुराने ढाँचे के
अनुसार माल तथा मालिकी से ही बर्ताव करता रहता है, तब तक व्यक्ति
को डरने का कारण अवश्य है; किन्तु वह तथा उसका सारा गाँव या समाज
जब एकसा बनता है तो उसे डरने की जरूरत ही क्या? क्या उसके
जिम्मेदार थोडे रहेंगे? फिर वह चिन्ता करना सरासर कायरता नहीं तो और
क्या हो सकता है? धन, सत्ता,खेती आदि का संग्रह करना यह तो मनुष्य
की डरपोक वृत्ति या अविश्वास का लक्षण है, विकास का साधन नहीं
माना जा सकता। इसे विकास मान लेना मैं तो घोरतम अज्ञान समझता हूँ।

          व्यक्ति व्यक्ति ने अपने को एक दूसरे से भिन्न समझ लिया और
अपनी अपनी रक्षा, उपजीविका तथा प्रगति के लिये स्वयं अपने को ही
जिम्मेदार समझ इसी संकुचित भावना की नींव पर सारा प्रपंच खडा कर दिया।
यही परम्परा हजारों वर्ष से चलती आयी, जिससे उसके दुष्परिणामों को
सहकर भी उसे लिपटे रहने की सबको आदत सी हो गई। संत महात्माओं ने
समानता का उपदेश दिया, किन्तु उसे केवल तात्त्विक समझ व्यवहार में
उतारने की किसी को जरूरतही महसूस न हुई। हम सब समानता से सुखदुख
झेलकर आगे बढ़ सकते हैं, जिसमें सबकी सुरक्षा तथा शान्ति का सवाल
आपसे आप हल हो जाता है, इस बात की कल्पना भी लोगों से कोसो दर
पड़ी रही। सामुदायिक सहजीवन के आनन्द की अपूर्वता का आस्वाद तो
दूर रहा, आभास तक हमारे लिये अगम्य हो बैठा। इन्सान ने अपने लिये
दूसरों की लूटखसोट करने तथा सबको कष्ट पहुंचाने की आदत सी बना ली
और जीवन की आग को "जीवन संग्राम" घृणित स्वरूप दे दिया I क्या

१३०


मेरी जापान यात्रा

यही ही मार्ग है मनुष्य के विकास का ? क्या और को दुखी बनाये बिना
इन्सान सुखी हो ही नहीं सकता, यह कोई ईश्वरी कानून है? क्या सबको
अखपूर्वक जीवननिर्वाह करने के लिये आवश्यक उत्पादन इस दुनिया में नहीं
हो सकता, जो खीचातानी की जरूरत है? किसी को लूटे बिना इन्सान
अगर खुद ही उत्पादन करने का अभ्यास डाल ले तो क्या वह बड़ा पतित
कहलायेगा? इस सवालों के जवाब में आप अगर हां कहेंगे तो मैं इसे महान
अज्ञान समझूगा।

         खैर, भाई! कोई अगर यह कहें कि सारे विश्व की इकाई या समानता
का सवाल बहुत कठिण सवाल है, हम उसे एकदम से कैसे अमल में ला सकते है, मैं इसे मान भी लूं। मगर हम धीरे धीरे आगे बढ़ेंगे यह कहना भी तो आज
प्रत्यक्ष में दिख नहीं रहा है। देखिये न, आदमी जाति की संघटना किस ढंग से
कर रहा है, जो गुट बनाकर हमला करने तैयार हो जाती है। प्रान्तवाद के रूप
मैं वह कैसा संगठन उपस्थित करता है, जो स्वार्थी दृष्टि से उपभोग के लिये देश
की शक्तियों को खींचने लगता है। राष्ट्रीयता के नाम पर दुनिया को तबाह
करने के लिये वह हैड्रोजन बम आदि निकालकर लढने तैयार हो जाता है।
क्या यह सब तमाशा विश्व का विकास करनेवालाही समझा जा सकता है ?
अरे भाई! गजब हुआ उन ज्ञानियों का जो समाज विकास के साधनों को
विनाशकी सामग्री का रूप देते है। आदर्शता का पाठ पढानेवाले मन्दिरों को
भी जाति या धर्म का गुनाहखाना बनाकर उस पर अपना पेट निभाते है। विश्व
के चालक परमात्मा के ही नाम पर एक दूसरे का खून चूसने के लिये उतारू
हो जाते हैं। बताईये, कितना विपर्यास हो रहा है विकास का इस मानव
समाज में। मुसलमान या ख्रिश्चन को हिन्दू मंदिरों में न जाने पर कट्टर द्रोही
कहा जाता है; सबकी देखभाल कर समन्वयक दृष्टि से कुछ सीखने की उन्हें
सीख दी जाती है। मगर जब सहर्ष वे मन्दिरों में जाने लगें तो पुजारियों द्वारा उन्हें रोक दिया जाता है। यह क्या हमारा विकास है, दानत है, जो इस रूढिवाद पर सीधा इन्सान को हैवान बनाने की दीक्षा दे रहा ?इससे

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मेरी जपान यात्रा

विश्वधर्म तो कोसो दूर रहा, ग्रामधर्म की भी उन्नति होना असम्भव है।

        मित्रों! सोचियें तो सही, हमें आखिर किस ओर बढना है?
दुनिया के इन्सान क्या एकही ईश्वर के प्यारे पुत्र नहीं है? एक ही हवा
पानी, मिट्टी, तेज आदि से बने हुये पुतले नहीं हैं? क्या एक ही वायुमण्डल
में सांस लेकर सब जीवित नहीं है? मानव क्या बैरके लिये पैदा हुआ है या
मित्रता के लिये? विभिन्न नामरूपों से सुसज्जित हमारे उपास्य देवता क्या
मानवसमाज को विभक्त या विच्छिन्न करने का उपदेश दे गये हैं? हमारे
समस्त धर्मो ने अपने समान सबके सुखदुख समझकर बर्ताव करने का ही आदेश सबको दिया हुआ है न? फिर हम किस ओर बढ़ रहे हैं? जिस
संकेत की ओर ये सब बातें इशारा कर रही हैं, उसे भुलाकर, हम व्यक्तिवाद
की भ्रमात्मक दिशा की ओर आज तक बढ़ने आये है, तो क्या उसमें कुछ
शान्ति हमें प्राप्त हुई है? आदमी का जोश अगर उसको पतन में ले जाता है
तो क्या वह उसका जोश है या मूढता का द्योतक? एकेक आदमी अगर
चिल्लाने लगा कि मेरा प्रान्त स्वतंत्र हो, मेरी भाषा स्वतन्त्र हो, बल्कि मेरी
नीतिअनीतिकी व्याख्याएँ भी स्वतन्त्र रूप से निर्वाहित हों, तो क्या इसमें
कभी किसी का विकास हो सकता है? वाहरे मनुष्य का विकास! मैं तो इसे
बुद्धि, शान्ति तथा शक्ति का विनाशही मानता हूँ, विकास तो हरगीज नहीं
मान सकता।

 ऐसे विरोधमूलक धर्मवाद तथा देशवाद को मै इन्सान को कमअस्सल बनाने
का कारखाना समझता है, जिसके कारण इन्सान एक दूसरे के साथ कभी
मिल नहीं सकता, खेल नहीं सकता और न बोल ही सकता है। जैसे कोई
धनी पुरुष अपने घर में जानवरों को बांध रखता है वैसाही एक धार्मिक
कहलानेवाला व्यक्ति अपने लोगों को धर्म के बन्धन में जकड लेता है।
अन्य देशों से लड़ने के लिये सजीव शस्त्रों के रूप में! इसमें विकास को
जगह कहाँ और विश्वशान्ति का यह झूठा नारा क्यों यह मेरे समझ में ही नहीं आता I

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मेरी जापान यात्रा
       
       हां, यह मैं भलीभांति समझ सकता हुँ, कि, हमें
अपनी उन्नति
करनी है, मगर विश्व की बाधा बनकर नहीं। हमें अपनी आवश्यकताओं
की पूर्ति करनी है, मगर विश्व के लिये उत्पादन बहाना भी हमारा फर्ज है,
बल्कि विश्व की समृद्धि में ही हमारी इच्छापूर्ति निहित है। मनुष्य को इस
लायक तैयार करना है कि उसकी नीति विश्वशान्ति के मार्ग में रोड़ा न
बने; बल्कि एक सीढी बन सके। इसलिये आदमी की भावना का स्तर
इतना ऊँचा उठाने की जरूरत है कि समूचे विश्व कोही वह अपना मकान
मान ले। सारे विश्व की बोलचाल में, रहन-सहन में धनधर्म में, सेवाप्रेम में
कोई विरोध या विसंवाद पैदा न हो, इसी दृष्टि से जाति उसका रास्ता , धर्म
उसकी सीढी, देश उसकी मंझिल और विश्व उसके लक्ष्य का ऊँचा शिखर
बनाने की निहायत जरूरी है। इसी दृष्टिकोन से अगर सारे मानव, नेतागण,
सन्त था प्रतिनिधि प्रचारक बन सकते हैं तो दुनिया की हर चीज को मानता
ह और शान्तिवाद तथा मानवतावाद के सामने सर झुकाता हूं। मगर ऊँची,
बाते बताकर आदमी अगर आदमी को फँसाने का जाल रचा है? यह नहीं
मान सकता कि संसार विकास की ओर जा रहा है। मुख में शान्तिपाट और
हाथ में हैड्रोजन बम, यह विश्वशान्ति का रास्ता कभी नहीं हो सकता।

        मुझसे आप अगर पूछे कि फिर इसका पहला कदम क्या हो
सकता है, जो विश्वशान्ति की ओर ले जाने में अग्रसर हो? इसका उत्तर मैं
वही दूंगा कि पहला कदम है देश या संसार के बडे लोगों का हृदयपरिवर्तन !
देश देश के सारे महन्त, नेता, शासक तथा संशोधक (अन्वेषक) अगर
अपनी नीति को सेवा के रास्ते पर ला सकते हैं तो यह संसार स्वर्ग बन
सकता है। आज आपसके बैरविरोध या आक्रमण की आशंका के कारण
सेना तथा युद्धविषयक सामग्री आदि जुटाने में हरेक राष्ट्र की एक बड़ी से
बड़ी ताकत हमेशा काम में लगी रहती है और देश-देश में इस बारे में
विधायक कार्यों में लगाई जाय, तो मेरा विश्वास है कि दुनिया देवनगरी बन सकती है I विधायक कार्यक्रमों द्वारा हमारे गाँवों को हरेभरे बगिचों के रूप

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मेरी जापान यात्रा

में परिवर्तित किया जा सकता है । हमें केवल निश्चित करने मात्र की देरी है कि हमारा हरेक घर उत्पादक बन जाय , और हमारा हरेक व्यक्तीस्वावलंबी अहिंसक तथा विश्वकल्याणकर्ता होकर रहे । निश्चय के साथ हम सब जानकार तथा अन्य गाँवों को आकर्षित करने योग्य बनाने के लिये अगर कार्यप्रवण हो सकें तो देखते ही देखते दुनिया का रूख बदल जायगा इसमें संदेह नहीं । सारे देश में यही हवा फैले जिधर उधर ऐसीही चलन जारी हो और इस विचार के जो भी प्रवर्तक तथा प्रचारक सभी देश और धर्म में हो ; वे सबके सब एकसाथ काम शुरु कर दें यानी जनता की नदी - प्रवाहों के समान मानवता के समुंदर की ओर लगातार सफलतापूर्वक अग्रसर बनाते जाय , तो ईश्वरी राज्य आज ही संसार में प्रत्यक्ष रूप में आ सकता है । विश्वशान्ति का रास्ता यही हो सकता है , जो सबके सर्वांगीण विकास का रास्ता है , व्यापकता तथा समानता का रास्ता है । तो फिर आइये , कुछ
सोचिये और शीघ्रता से आगे कदम बढाइये । मानवता के नीचे समस्त समाज का सर्वोदय साध्य करने के लिये हम सब अपना सेवा मण्डल बनाकर सबकी सेवा करें , अपने बल - बुद्धि से काम कर सबको सुखी बनायें . यही हमारा आत्मधर्म है और इसी म हमारा आत्म - शान्ति तथा विकास की
पूर्णता है ।



        _________________
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मेरी जापान यात्रा

             *४.* 
           संसार की हर चीज का धर्म उसकी हद तक गुण देता है ; जैसे
कि वक्ष का धर्म छाया देना, सुन्दरता दिखाना, रस में व मूलीमें गुण बताना,
अंत में अपना सर्वस्व निसर्ग में स्वाहा करना और बीजों के जरिये अपनी
वृक्ष परंपरा कायम रखना। उसके व्यतिरिक्त अधिक अपेक्षा नहीं की जा
सकती। अगर वृक्ष से कोई तत्काल आदमी बनने की अपेक्षा करें तो वह
कहना और करना विक्षिप्तसा होगा। यही निसर्ग का नियम है। इसे बिना
भगवान के कोई नहीं तोड सकेगा। अगर भगवान भी तोडे तो उसका भी
एक रास्ता होगा कि पहले वृक्ष खत्म होने पर उसका जीवन नया रूप धारण ।
करेगा। मगर यह देखने की दृष्टि भी तो उसी को मिल सकती है। उसी
मुताबिक संसार के जितने प्राणिमात्र हैं उनकी हद उनकी मर्यादा में है।
मानव का भी उसी तरह है। मानव का अंतिम लक्ष्य है संसार की रक्षा ।
करना, व्यवस्था करना। ईश्वर के बताये हुये मार्ग का पालन करना।
मनुष्यलायक ऐसी ही आदतों से चलना और मानवमात्र हम सब एक है इसे
महसूस कर विश्व कुटुम्ब का निर्माण करना। उसके करने में जो त्रुटियाँ
आती है उन्हें दूर करने का सत्य, अहिंसा से प्रयत्न करना। अगर वह करता
करता हैं तो मानव नहीं वह दानव होगा और वह दूसरे की बुद्धि को
समझकर उसे अपनायेगा तब वह मानव होगा। अगर दूसरे को वह अपनाने
में कम पड़ता है तो उसको अपनी कमी महसूस करनी चाहिये और जिनसे
यह काम बनता है उसको, माने उस महामानव को शरण जाना चाहिये।
यह संसार अनुभव का सागर है। जीव उसका विद्यार्थी है। कोई जीव विश्व
की चिन्ता करता है और कोई प्राणी अपनी भी फिक्र नहीं करता, माने
खुदका ही नाश कर लेता है। यह उसका अज्ञान है और अपने सुख के लिये
दुसरों का करना यह घोरतम पाप है। यह जैसे एक व्यक्ति का उसी

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मेरी जापान यात्रा
 तरह एक धर्म का है ; एक समाज का है ; एक देश का है । जब एक धर्म दमों धर्म पर आक्रमण करता है तो वह धर्म कैसा ? एक देश दूसरे देश को खत करता है तो वह देश कैसा ? इसमें मानव का ध्येय कैसे पूरा हो सकता है ?

        एकबार एक महामना के पाँव में चोट लग गयी । उसकी लापरवाही से पाव तोड़ने का मौका आया । तब डॉक्टर ने बताया कि इसके लिये एक जिन्दा आदमी का पाँव तोडकर इसको जोडना चाहिये । तब वह महामना बोला कि अगर मेरे लिये दूसरों का पैर तोडा जाता है तब तो मे लंगडा भी । रहा तो काम चला सकंगा । लेकिन वह लंगडा तो जन्म का अधूरा होगा । क्योंकि मैंने तो लापरवाही से पैर बिगाडा । उस भाई ने क्या पाप किया जो उसका पैर तोडा जाय ? यह तो मुझे नहीं जचेगा । उस पुरुष के इस कहने का अर्थ है मानवता I
        उसी तरह संसार का कोई व्यक्ति किसी के हक को छीनने का साहस करता है तो वह मानव का ध्येय प्राप्त नहीं कर सकता ऐसा मैं मानता हैं । मानवों का अन्तिम ध्येय है सब में ईश्वर का आरोप करना , विश्वंभर को पहिचानना , विश्व के प्रति अपने कर्तव्य का पालना करना । जैसे कि एक पानी का हौद सौ आदमी के लिये भरा रखा है । सबको यह ज्ञान होने की आवश्यकता है कि हमारा इसमें का शतांश हिस्सा है । हमने ज्यादा खर्च करना गुनाह होगा ।

          इस नियम से अगर कोई नहीं चलता तो जितने भाई चलते हैं उन्हें न चलनेवालों की बुद्धि को समझाते रहना चाहिये । समझाने का तरीका उसे खत्म करना नहीं होगा । वैसे मानव का अंतिम लक्ष्य है , मानवों के प्रति सद्भावना जहाँ कमी है उसे भर निकालने का प्रयत्न करना ।
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मेरी जापान यात्रा

         जो पुरुष आत्म के प्रति ज्ञान रखते हूँ उनको तो यह सीख जरूरत ही नहीं पड़ती । क्योंकि उनकी  दृष्टि में यह प्रकाश पडता ही है । वे आत्म को पहिचान गये है । जैसे आदमी अपने घर केआदमी को पहिचान जाता है । उसके दिल में उस हद तक आत्मा समझने का बहिरंगता स रहता है । वैसे जब हमारे दिल में मानव मात्र का एक ही रूप , एक हा नाता समझमें आयेगा । तब हमारी आत्मा का उतना विशद रूप होगा । अगर संसार के सारे ही प्राणिमात्र को जब अपना मानेंगे तब तो हमें ईश्वर का साक्षात्कार होगा । ईश्वर के साक्षात्कार का अर्थ यही है कि ईश्वर के उज्वल तत्त्व का दर्शन किया है वे पुरुष मृत्यु नहीं पाये , अमर हुये हैं । वे अपनी फटी - सी कंबल में भी संतोषी रहते हैं । अपनी आधी रोटी में भी पेट भरने का आनंद पाते है । यहीं मैं मानव की पूर्णता मानता हुँ। अगर मुझे यह है तो दूसरों को क्यों नहीं ? यही प्रश्न सूज्ञ के दिल से उठता रहता है । अज्ञ के दिल में तो उससे मैं क्यों कम यह चिन्ता उसे सताती रहती है ।

        मित्रो , हमें ऐसा मानव समाज तैयार करना है जो विश्व को विशालता को समझाने का प्रयत्न करें और सभी के दर्द को अपनाने का प्रयत्न करें । संसार में इसका खेल आप लोगों के सामने रखा है । अगर आप इसको समझेंगें तो ही मानव का उच्च ध्येय प्राप्त कर सकेंगे , अन्यथा नहीं । मेरे बडप्पन में विश्व का भला है यह मानवों का ध्येय नहीं , तो दूसरों के भलें में मेरा भला है , यह उच्च मानव का ध्येय होता है । हमारे भारत वर्ष के महानुभवों ने अपना घर अपनी बुद्धि और तपश्चर्या मानवों को देकर एक छोटी सी लंगोटी पर अपना ऐश्वर्य माना और उनमें ही उन्होंने आत्मानंद प्राप्त किया । संसार के अमर तत्त्वों की खोज हिमालय के दरी कंदर में जाकर अपने आत्म - ज्ञान की और सद्ग्रन्थों के द्वारा मानवों की संस्कृति को जगाया है । इसलिये हम मानवों का ध्येय परम तत्त्व प्राप्त करना और उस ।

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मेरी जापान यात्रा 

अनुभव में हमेशा आनंद में रहना , यह मानते हैं । उन्होंने त्याग में समाधान माना  है , भोग में नहीं । त्यागी पुरुष अंत में निष्काम रहकर मोक्ष है । मगर भोगी पुरुष अंत में कुत्ते की मौत से भी अधिक दुख भोगता रहता है । इसलिये मनुष्य का उज्वल ध्येय अपनी आत्मा की विशालता प्राप्त करता हैं और उसे विशाल बनाने का साधन प्राणिमात्र की सेवा हैI सेवा का अर्थ पिछडे हुये समाज को कर्तव्यशिल बनाना है खाली बेकारांको  पालना सेवा नही है,  तो बेकार रोको कर्तव्यशील बनाना सेवा है *I न्होंने त्याग में समाधान काम रहकर मोक्ष प्राप्त करता रहता है मगर भोगी पुरुष अंत मे
 कुत्ते की मौत से भी अधिक दुख भोगता रहता है |
पनी आत्मा की विशालता प्राप्त
शाल बनाना है । खाली बेकारों को
र उस विशाल बनाने का साधन प्राणिमात्र की सेवा है । सवा का अर्थ पिछडे हये समाज को कर्तव्यशील बनाना है । खालाब पालना सेवा नहीं है , तो बेकारों को कर्तव्यशील बनाना सेवा हा आर भी विश्व की विशालता का ज्ञान भरना यह मनुष्य का कर्तव्य होता है। जो संसार को छोडकर भीख मांगते है , वे भी जगत के दोष होते है , और जो खूब कमाकर भोग करते है वे भी मनुष्यता को पात्र नहीं होते । जो अपने कर्तव्य का पालन कर कमसे कम गरज में रहकर ज्यादा से ज्यादा दूसरों की मदद करते है और आवश्यकता के मुताबिक ही उपयोग करते हैं वे ही पुरुष इस दुनिया में ध्येय धारणा प्राप्त करने के लायक हैं , ऐसा मैं मानता हूँ ।

        मित्रों ! अगर सारा जगत् इस तत्त्व का पालन करें तो विश्व की संपत्ति , विश्व की संतति , बुद्धि व प्रेम एक ही है और सारा विश्व उसका हकदार है । उसके लिये कर्तव्यशील रहना मानवों का परम ध्येय है ।


      ________________
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मेरी जापान यात्रा

            *५.* 


        आज परिषद के अन्त में मेरा समारोपीय भाषण आपने रखा
आप लोगों का आभारी हूँ । धर्म की आ . ते क्योंकि वे ही ईश्वर की आवाज सुन सकते हैं ।

          धर्म ही मानवता को ऊँचा उठाकर विश्व में शांति स्थापित कर सकता है । सवाल यह है कि लोग धर्म को ही अगर समझतेन तो पिछले दो महायुद्ध 
भी नहीं होते । आज धर्म के नाम पर स्वर्ग , सत्ता और प्रतिष्ठा या हनवाले लोग हो गये है इसे मैं धर्म का पतन समझता हूँ । धर्म का सच्चा रास्ता प्रेम और परस्पर में सहकार्य यही होता है और धर्म का पालन करना इसका मतलब ही यह है कि विश्व के मनुष्य मात्रसे स्नेह करना और क्रोध ,
लोभ , मोह मूलक बातों का विरोध करना ।

       मित्रों , आप लोग नया धर्म तो निर्माण नहीं कर सकते मगर सच्चे धर्म की जानकारी भी विश्व में देंगे तो भी मानवता पर बडा उपकार करोंगे । मैं जानता हूँ कि लोग आगे के महायुद्ध के लिये डर रहे है । मगर उसको मिटाने का रास्ता परस्पर में प्रेम पैदा करना यही हो सकता है । हमारे प्रिय पंडित जवाहरलालजी नेहरू ने इसी कार्य का समर्थन किया है और आप लोग समझ सकते है कि वे कितने लोकप्रिय हो गये हैं । भारत में सही धर्म का काम अभी सन्त विनोबा भी कर रहे हैं जो भूमिदान से चल रहा है ।
श्रीगुरुदेव सेवा मण्डल भी सच्चे धर्म का पथिक मैं मानता हूँ । उसमें विश्वधर्म
का निचोड है ।

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मेरी जापान यात्रा 

          मनुष्य को ईश्वर के विशाल नियमों का  ज्ञान हो पूर्णता हैे । आप लोग इस बात का सक्रिय कार्य करोंगे तब ही यह परिषद सफल हो सकती है । अगर प्रचार के लिये तुम लोग अपना आयुष्य यदि नहीं । दे सके तो भी साल के चार - छ : महिने तो देना ही चाहिये और यह परिषद विश्व के कोने - कोने में घुमनी चाहिये । इससे मानवता पर बड़ा प्रभाव पड़ेगा ।
आज संसार के राष्ट्र एक दुसरे से साशंक है । उनकी शंका का निरसन करके उनको उन्हीं के धर्म के असली ज्ञान का मार्गदर्शन करने से ही हम शांति प्राप्त कर सकते हैं । * धर्म सम्मेलन * यह बात ही त्याग की है ; केवल भाषण ही करने से नहीं बनेगा ।
धर्म की आवाज उठानेवाले जितने भी महान पुरुष थे , उनके पीछे हृदय , चारित्र्य , आत्मबल , विश्व सेवा और शुद्ध प्रेम था , इसलिये उनका नाम जगमें अभी तक जाहीर है । ईश्वर उसी धर्म की प्रगति करने को सामर्थ्य दे यही मैं प्रार्थना करता हूँ ।
आप सब लोगों ने अभी तक जो परस्पर में प्रेम निर्माण किया और इस परिषद को सफल बनाया इसलिये मुझे बड़ी खुशी है । यहाँ के कार्यकर्ताओं ने हमें सारे जापान का महत्त्व दिखाया और सभी विशाल स्थानों के दर्शन कराये । इसलिये हम धन्यवाद देते हैं । आज जनरल सेक्रेटरी श्री सीमाँराने कहा कि सेवामण्डल और विश्व धर्म प्रचार - स्थान के लिये यहाँ दस हजार मीटर जगह देते है । मैं उनको धन्यवाद देता है । मैंने उनसे कहा कि भाई अभी तो हमारे लिये भारत में ही बहुत काम पडा है । हम लोग उद्घाटन को ही आये थे । और कभी आयेंगे फिर एक बार सबको धन्यवाद !

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मेरी जापान यात्रा


 *शंका समाधान* 

        फाऊंडर - महाराज ! आप यहाँ नये अतिथि है । अतएव जापानी लोगों के बारे में मैं आपके विचार जानना चाहता हूँ ।

राष्टसन्त - जापान में जिन लोगों से मेरा सम्बन्ध आया वे सब सी नजर में मिहनती और मिलनसार दिखाई दिये ।

फाऊंडर - महाराज ! आपके आगमन से यहाँ के वातावरण में भारी उत्साह निर्माण हुआ है । आपकी सादी रहन - सहन प्रेमपूर्ण बर्ताव हम लोगों पर जादू - सा असर कर रहा हैं । तो क्या आप , कृपया , हमें यह बता सकेंगे कि विश्व धर्म के बारे में आपके विचार क्या हैं ।

राष्ट्रसन्त - इस विषय में मेरे जो विचार बने हैं वे पुस्तके पढ़कर नहीं बल्कि निसर्ग और नैसर्गिक सत्यों का अभ्यास करते हुये प्राप्त अनुभवों से बने हुये हैं ।

मिस् काझार्ड - 
महाराज ! आपकी राय में अनुभव की परिभाषा
क्या है ?

राष्ट्रसन्त - अनुभव का माने यह है कि मानवी जीवन का उद्दिष्ट हेतु जानकर विश्व के चिर सत्य को पहिचानना तथा उससे समरस होना । मनुष्य किसी भी देश , धर्म अथवा वर्ण के रहे तो भी उनमें आत्मा भिन्न नहीं रह सकती ऐसा विश्वास अंत : करण को प्राप्त होना और ऐसा विश्वास प्राप्त होते हा संसार के सब जीवों को को समदृष्टि से देखना तथा व्यवहार में उसी प्रकार का आचरण करना इसे मैं अनुभव कहता हूँ । अनुभव के इससे भी कुछ ऊँचे

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मेरी जापान यात्रा

प्रकार हैं किन्तु यहाँ उनकी कोई आवश्यकता नहीं।

       *फाऊंडर -* आपके अनुभवों ने विश्वधर्म का कौनसा स्वरूप
निश्चित किया है?

       *राष्ट्रसन्त-* मेरी राय में समस्त विश्व नैसर्गिक नियमों के बन्धन में
जकडा हुआ है। विश्व की प्रत्येक वस्तु को स्वतंत्र अस्तित्व व मूल्य है।
वस्तुमात्र में श्रेष्ठता पाये मनुष्यमात्र ने सभी का उचित उपयोग व यथोचित
आदर कर निसर्ग नियमों का पालन सबसे अच्छी तरह करने की आवश्यकता
है। संसार में मनुष्य स्वयं जिस तरह से जिना चाहता उसी तरह अन्य जनों
को और जीवों को जिने देने की खबरदारी लेना ही निसर्गालात को
हितकारक होगा। जब सभी मनुष्यमात्र इस नियम का
ठीक रेंगे
तब तो सभी का जीवन सुखमय हो सकेगा; फिर वे मनुष्क र्म के
हो अथवा देस के । विश्व को सुख-समाधान की कसा विश्व
कुटुम्ब में परिणत करने की आवश्यकता है। इससे भिन्न विश्व धर्म और हो
ही क्या सकता?

      *मिस् काझाई -* पर मैं पूछती हूँ कि ऐसा विश्वधर्म कभी स्थापन
हो भी सकेगा?

         *राष्ट्रसन्त-* हाँ हो सकेगा- पर सबको उसकी आवश्यकता
महसूस होने पर; और वह आवश्यकता एक दिन अवश्य महसूस होगी ही!
संसार के विश्वविद्यालय में मनुष्य विद्यार्थी है। हो सकता कि वह कुछ
गलतियाँ भी कर ले, कुछ आपत्ति भी मोल ले, पर इससे भी वह सीखता ही
जायगा। जो व्यक्ति प्राप्त अनुभवों से कुछ सीख न सकेगा वह अपने आपको
तो फसायेगा पर संसार को भी ; और परिणामस्वरूप प्रगति की आशा से भी
बिछुड़ना पड़ेगा। यह भी स्वाभाविक ही है कि नैसर्गिक नियमों में बाधा
पहुँचकर फलस्वरूप विश्व की गतिविधि में अडचने उपस्थित होगी। ऐसा

१४२


मेरी जापान यात्रा

होता भी आया। अत: मानव के मन जागृत करने की आवश्यकता है। मानव के
मानसिक विकास से ही देशविदेशों के बीच मित्रता के सम्बन्ध दृढतर होते रहेंगे।

      *मिस काझाई -* इस मानसिक विकास से आपका क्या मतलब?

       *राष्ट्रसन्त -* हर किसी को यह एक बात महसूस होनी चाहिये
कि विश्व की रंगभूमि पर हम सब अभिनेता हैं। नाटक के लिये हमने विभिन्न
देश धर्म के वेष चढाकर यह स्वाँग रचा है; फिर भी हम सब *मानव* है।
हमको यह भी समझना चाहिये कि हम पहले तो एक थे ही पर इस
नाट्यभिनय के उपरान्त भी हमें एकत्रित होना है। तो फिर कहिये कि इस
विश्व की रंगभूमि पर धर्म देश के वितंडवाद निर्माण कर शत्रुत्व बढाने में
क्या राम? इस स्वौंग में निहित सत्य आत्मतत्व भिन्न नहीं। इस एकात्म
प्रत्यय ने तथा विश्व सुख की भावना ने विश्व का प्रत्येक देश प्रत्येक मनुष्य
निसर्ग नियमों का पालन करता रहा तो इस मानसिक विकास का वृक्ष
सुमधुर फलों फुलों से खीच उठेगा।

      *फाऊंडर -* महाराज आपके ये विचार और अनुभव मेरे हृदय
को आनंदविभोर बनाकर प्रोत्साहित कर रहे है। पर, मुझे इस बात का पता
नहीं चल पाता कि ग्रन्थ- ज्ञान बिना इतनी उच्च भूमिका आप किस प्रकार
साधय कर सके?

     *राष्ट्रसन्त -* तो इसका पता मैं बता सकता हूँ। मैं तो विश्व को
एक बृहद मानता हूँ। मेरी उम्र के ९ वे वर्ष मैंने गृहत्याग कर मैं निसर्ग के समरस हुआ I अध्यात्म- भूमिका के लिये बनवास अपनाया; सिद्ध पुरुषों की संगति को और हर किसी तत्व के गहराई में पहुँचकर उनके मूलतत्त्वों का संशोधन
किया। मानव तथा विश्व इनके मूल स्वरूप का दर्शन ही सब अनुभवों का उद् गम स्थान है I विश्वधर्म की नीव इन अनुभवों पर ही आधारित है I भारत की विश्वशांति विषयक योजनाओं की नींव भी

१४३


मेरी जापान यात्रा

आध्यात्मिकता पर खड़ी है। इस धर्म तथा अध्यात्म के माध्यम में से निरपेक्ष ।
एवं नि:पक्ष सेवा कार्य करनेवाला श्रीगुरुदेव सेवा मण्डल विगत डेढ दो तपों से
अपनी विशेष कार्यप्रणालि के अनुसार विविध सेवाकार्य और विश्वधर्म की
मजबुती करता आया है। भारत में अनेक सन्त सम्मेलन आयोजित कर हमने
यही कार्य किया है। सर्वत्र मानवधर्म की सुसंगति साध्य करने के लिये विश्व
के धार्मिक नेता किस हद तक विचार व आचार करने को तैयार है इस बात
का पता लगाते ही मैंने यहाँ आने का साहस किया!

       *फाऊंडर-* आपके आगमन से हमें प्रसन्नता हो रही ।मेरी राय में
सभी धर्मो में एक वाक्यता दिकाई देती है; क्यों ठीक है न?

       *राष्ट्रसन्त-* निश्चितही एकवाक्यता है! भगवान बुद्ध, प्रभु ईसा ।
मसीह, महात्मा गांधी इन सबके विचार एक ही से जान पडते; उनमें एक
वाक्यता पाई जाती है। यद्यपि कही प्रसंगोचित हेरफेर किया गया होगा. फिर
भी मूलत: कोई भेद नहीं। पर भिन्नता हुई है उन महापुरुषों के अनुयायियों में!
यदि ये लोग एकत्रित होकर सहमत बन सके तो जनता में मानव्य तता
अध्यात्म का बीजारोपण होने में एंव बंधुत्व व शांति की आवाज बुलन्द होने ।
में तनिकभी देरी न लगेगी।

 *फाऊंडर-* आप के ये विचार अनमोल हैं। आपके जैसे महात्मा के सुनिश्चय मात्र से विश्व का भवितव्य उज्वल बन सकेगा I चुकि आपके इन  महान विचारों की आवश्यकता समस्त संसार के  देशों के लिये और लोगों लिये आवश्यक है, हम आपके अधिकतर समय का उपयोग कर लेंगें। 

   *मिस् काझाई -* महाराज! आज आपके ये
सुनकर मुझे एक नई दृष्टि
 प्राप्त हो रही है !

         ______________
१४४
       _______________
१४४


मेरी जापान यात्रा

जापान में लोकप्रियता पाया

          *भजन-पंचक* 

                  *-१-* 
      (तर्जः मेरे दिल में गुरू ने जादू...)


हर देश में तु, हर भेष में तू,।
तेरे नाम अनेक, तू एक ही है।।
तेरी रंगभूमि यह विश्व भरा।
सब खेल में, मेल में तू ही तो है ।।टेक ।।

सागर से उठा बादल बनके।
बादल से फुटा जल होकर के।।
फिर नहर बना नदियाँ गहरी।
तेरे भिन्न प्रकार तू एक ही है ।।१।।
चीटी से भी अणु परमाणु बना।
सब जीव जगत् का रूप लिया ।।
कहीं पर्वत, वृक्ष विशाल बना।
सौंदर्य तेरा तू एक ही है ।।२।।
यह दित्य दिखाया है जिसने ।
वह है गुरुदेव की पूर्ण दया ।।
तुकड्या कहें कोई न और दिखा ।
यह मैं अरु तू सब एक ही है ।।३।।

( टोकिया)

१४५


मेरी जापान यात्रा

            *-२-* 

          (तर्ज : दिल भरम
 जबतक..)


हर जगह की रोशनी में, दिल भुलय्या तुम्ही तो हो।।टेक।।

अगर तुम्हारी छटा न होती, तो सारी खिलकत मरी हुई थी।
कहाँ छुपाते हो हुस्न अपना, चेत-चितय्या तुम्हीं तो हो।।१।।

तुम्ही हो देवल तुम्ही हो मसजिद, तुम्ही हो मुरत तुम्ही पुजारी।
ढँकाया परदा करम करमका, सबर शुकरिया तुम्ही तो हो।।२।।

तुम्हारी कुदरतही छा रही है, वह पूरे आशकको पार ही है।
नहीं तो यों ही दफा रही है, झूल-झूलय्या तुम्हीं तो हो।।३।।

कहाँ पे पर्वत कहाँ समुंदर, कहाँ पे बादल कहाँ फवारे।
लाखों घटाता लाखों बढाता, खेल खिलय्या  तुमहीं तो हो।।४।।

कहाँ पे लैला कहाँ पे मजनू, कहाँ बादशा कहाँ फकीरा।
कहाँ पे आशक कहाँ पे माशुक, प्रेम पिलय्या तुम्ही तो हो॥५॥

वह दास तुकड्या को आस भारी , न नाम तेरा भुलूँ मुरारी ॥
नशा चढा दो हुजूर! पूरी, डोल डुलय्या तुम्ही तो हो॥६॥
       _____________
            
                 *-३-* 

        (तर्ज : भारताचा घोर तू...)

सबसे ऊँचा है धन, मेरा प्यारा भजन ,
उसपे सारा तन-मन कुर्बान रहेगा ।।टेक।।

इससे ही मैंने जीवन बनाया।
जंगल-पहाडों में ईश्वर रिझाया।

१४६


मेरी जापान यात्रा

सारा जनम इसमें जायगा,
मुझे कोई ना छंद, सिवा प्यारे गोविंद,
इसपे सारा तन-मन कुर्बान रहेगा॥१॥

घर-घर में खाना, घर-घर में गाना।
मस्ताने बनकर के दिल को रंगाना।
अब तक जगाया जगायगा,
मेरा मीठा है बाज, खंजडी का आवाज,
इसपे सारा तन-मन कुर्बान रहेगा॥२॥

इसने ही मुझको सेवा सिखाया।
सबमें प्रभु एक अनुभव बताया।
अब तक उठाया उठायगा,
करता तुकड्या विश्वास बनके दासन का दास,
इसपे सारा तन-मन कुर्बान रहेगा ।।३।।

         ______________

              *-४-* 
     (तर्ज : अब काहे को धूम मचाते हो...)

गाओ भाई! सब देवन को, सब सन्तन को गाओ।
तनमन से ध्यान लगाओ ।।टेक।।

सभी धर्म और सभी पंथ ये, मानव सुख को बनाये ।
समय-समय पर रूप बदलकर, अपना फर्ज सुनाये ।।१॥

१४७


मेरी जापान यात्रा

कोई कहत है पीरपैंगबर, कोई राम के नामा।
येशुख्रिस्त को कोई भजत हैं, कोई रटे दिल श्यामा ।।२।।

अलख निरंजन निर्गुण प्रभु की, सबमें शक्ति समायी।
चाहे उसको ब्रम्ह कहाओं, या अल्ला कहों भाई! ॥३।।

जगत्- पिता की यह रचना है, सब में न्यारी न्यारी ।
जिसका जो कोई धर्म-वर्म है, हो उसको वही तारी ।।४।।

हम सब एक अनेक हुए हैं, जगसौंदर्य बनाने ।
तुकड्यादास कहे यह निज-धन गुरु का प्यारा जाने ।।५।।


             *-५-* 
     (तर्ज : आकळावा प्रेम भाव...)

ऐ विश्व के चालक प्रभो! मुझ में समझ दे विश्व की।
यह अखिल मानव धर्म के, आदर्श ऊँचे वेष की।।टेक।।

दुःख है इसका हमें, हम अवनती क्यों पा रहे।
शील यह हममें भरा, सेवा करें हम देश की।।१।।

हे मनुज हम देह से, पर कर्म है सब भूल के।
सोचने की बुद्धि दे, आदर्शवत संदेश की॥२॥

पक्ष औ उपपक्ष में खाते हैं गोते जोर से।
प्रभू एक्यता का ग्यान दे, बंधन कटाकर द्वेष की।।३।।

धर्म किसका हो कोई पर वर्म सबके एक हो।
हम भाई-सम विचरे सदा, लहरे चले सन्तोष की॥४॥

१४८


मेरी जापान यात्रा


हो गरीब याके अमिर सुख- दुःख सबके एक हो।*
गर मर मिटे तो हम से भी, हो ख्याल ऐसे होश की ।।५।।

धीर हो गंभीर हो, हम वीर हो संसार में ।
बस! दान यह दीजे प्रभू, सेवा करें जगदीश की ।।६।।

आज की यह वक्त है, सौभाग्य-चंदन लपकी।
कहत तुकड्या भीख दे, जो कुछ रहे अवशेष की ॥७॥




१४९


मेरी जापान यात्रा

जापान में लोकप्रियता पाया

          *भजन-पंचक* 

                  *-१-* 
      (तर्जः मेरे दिल में गुरू ने जादू...)


हर देश में तु, हर भेष में तू,।
तेरे नाम अनेक, तू एक ही है।।
तेरी रंगभूमि यह विश्व भरा।
सब खेल में, मेल में तू ही तो है ।।टेक ।।

सागर से उठा बादल बनके।
बादल से फुटा जल होकर के।।
फिर नहर बना नदियाँ गहरी।
तेरे भिन्न प्रकार तू एक ही है ।।१।।
चीटी से भी अणु परमाणु बना।
सब जीव जगत् का रूप लिया ।।
कहीं पर्वत, वृक्ष विशाल बना।
सौंदर्य तेरा तू एक ही है ।।२।।
यह दित्य दिखाया है जिसने ।
वह है गुरुदेव की पूर्ण दया ।।
तुकड्या कहें कोई न और दिखा ।
यह मैं अरु तू सब एक ही है ।।३।।

( टोकिया)

१४५


मेरी जापान यात्रा

            *-२-* 

          (तर्ज : दिल भरम
 जबतक..)


हर जगह की रोशनी में, दिल भुलय्या तुम्ही तो हो।।टेक।।

अगर तुम्हारी छटा न होती, तो सारी खिलकत मरी हुई थी।
कहाँ छुपाते हो हुस्न अपना, चेत-चितय्या तुम्हीं तो हो।।१।।

तुम्ही हो देवल तुम्ही हो मसजिद, तुम्ही हो मुरत तुम्ही पुजारी।
ढँकाया परदा करम करमका, सबर शुकरिया तुम्ही तो हो।।२।।

तुम्हारी कुदरतही छा रही है, वह पूरे आशकको पार ही है।
नहीं तो यों ही दफा रही है, झूल-झूलय्या तुम्हीं तो हो।।३।।

कहाँ पे पर्वत कहाँ समुंदर, कहाँ पे बादल कहाँ फवारे।
लाखों घटाता लाखों बढाता, खेल खिलय्या  तुमहीं तो हो।।४।।

कहाँ पे लैला कहाँ पे मजनू, कहाँ बादशा कहाँ फकीरा।
कहाँ पे आशक कहाँ पे माशुक, प्रेम पिलय्या तुम्ही तो हो॥५॥

वह दास तुकड्या को आस भारी , न नाम तेरा भुलूँ मुरारी ॥
नशा चढा दो हुजूर! पूरी, डोल डुलय्या तुम्ही तो हो॥६॥
       _____________
            
                 *-३-* 

        (तर्ज : भारताचा घोर तू...)

सबसे ऊँचा है धन, मेरा प्यारा भजन ,
उसपे सारा तन-मन कुर्बान रहेगा ।।टेक।।

इससे ही मैंने जीवन बनाया।
जंगल-पहाडों में ईश्वर रिझाया।

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मेरी जापान यात्रा

सारा जनम इसमें जायगा,
मुझे कोई ना छंद, सिवा प्यारे गोविंद,
इसपे सारा तन-मन कुर्बान रहेगा॥१॥

घर-घर में खाना, घर-घर में गाना।
मस्ताने बनकर के दिल को रंगाना।
अब तक जगाया जगायगा,
मेरा मीठा है बाज, खंजडी का आवाज,
इसपे सारा तन-मन कुर्बान रहेगा॥२॥

इसने ही मुझको सेवा सिखाया।
सबमें प्रभु एक अनुभव बताया।
अब तक उठाया उठायगा,
करता तुकड्या विश्वास बनके दासन का दास,
इसपे सारा तन-मन कुर्बान रहेगा ।।३।।

         ______________

              *-४-* 
     (तर्ज : अब काहे को धूम मचाते हो...)

गाओ भाई! सब देवन को, सब सन्तन को गाओ।
तनमन से ध्यान लगाओ ।।टेक।।

सभी धर्म और सभी पंथ ये, मानव सुख को बनाये ।
समय-समय पर रूप बदलकर, अपना फर्ज सुनाये ।।१॥

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मेरी जापान यात्रा

कोई कहत है पीरपैंगबर, कोई राम के नामा।
येशुख्रिस्त को कोई भजत हैं, कोई रटे दिल श्यामा ।।२।।

अलख निरंजन निर्गुण प्रभु की, सबमें शक्ति समायी।
चाहे उसको ब्रम्ह कहाओं, या अल्ला कहों भाई! ॥३।।

जगत्- पिता की यह रचना है, सब में न्यारी न्यारी ।
जिसका जो कोई धर्म-वर्म है, हो उसको वही तारी ।।४।।

हम सब एक अनेक हुए हैं, जगसौंदर्य बनाने ।
तुकड्यादास कहे यह निज-धन गुरु का प्यारा जाने ।।५।।


             *-५-* 
     (तर्ज : आकळावा प्रेम भाव...)

ऐ विश्व के चालक प्रभो! मुझ में समझ दे विश्व की।
यह अखिल मानव धर्म के, आदर्श ऊँचे वेष की।।टेक।।

दुःख है इसका हमें, हम अवनती क्यों पा रहे।
शील यह हममें भरा, सेवा करें हम देश की।।१।।

हे मनुज हम देह से, पर कर्म है सब भूल के।
सोचने की बुद्धि दे, आदर्शवत संदेश की॥२॥

पक्ष औ उपपक्ष में खाते हैं गोते जोर से।
प्रभू एक्यता का ग्यान दे, बंधन कटाकर द्वेष की।।३।।

धर्म किसका हो कोई पर वर्म सबके एक हो।
हम भाई-सम विचरे सदा, लहरे चले सन्तोष की॥४॥

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मेरी जापान यात्रा


हो गरीब याके अमिर सुख- दुःख सबके एक हो।*
गर मर मिटे तो हम से भी, हो ख्याल ऐसे होश की ।।५।।

धीर हो गंभीर हो, हम वीर हो संसार में ।
बस! दान यह दीजे प्रभू, सेवा करें जगदीश की ।।६।।

आज की यह वक्त है, सौभाग्य-चंदन लपकी।
कहत तुकड्या भीख दे, जो कुछ रहे अवशेष की ॥७॥




१४९


४८२

है यह मुझे पूरा पता, मृत्यू जलाती देह को।
फिरभी न छूटता मोह यह, आगे बढाता स्नेह को।।
चिन्तन भी करता ही हूँ मैं, सब झंझटे ये दूर हो।
हे सद्गुरु! किरपा करो, जिससे कि बल भरपूर हो।।

               ४८३

मेरे चरण और हाथ,सिर,सब हृदय पर ही जम गये।
बनता नही इस देह से, पर ब्रीद साथी बन नये ।।
किसिका बुरा हमने किया ऐसा हमें लगता नही।
जितनी बनी प्रभु-याद में सारी उमर सेवा रही।।

                 ४८४

सुनकर सुना जाता नही, कहकर कहा जाता नहीं।
दिखता, मगर कुछ भी नही, यह हाल होता है सही।।
निवृत्त वृत्ती हो रही प्रवृत्ति के गुण-धर्म से।
आसक्ति सारी जा रही है बाह्य सारे कर्म से।।

                 ४८५

नहि पैर धर सकते जमींपर, आसरा ही चाहिए।
नहि हाथ ऊठे आप से, लिखकरहि कुछ बतालाइए।।
कुछ बोलना भी हो नही सकता. जबानी क्या कहें? ।
अब तो यही लगता प्रभू! सेवा को आयेंगे नये।।

                  ४८६

दिखता नही है पास का, अब दूरदृष्टी होगयी।
अपना गया घरकुल सभी, है धर्म ही और देश ही।।
उसका भला अपना भला, यह दिल में लगता है सदा।
भगी, सूख-दूख दोनों ले बिदा।।


४८२

है यह मुझे पूरा पता, मृत्यू जलाती देह को।
फिरभी न छूटता मोह यह, आगे बढाता स्नेह को।।
चिन्तन भी करता ही हूँ मैं, सब झंझटे ये दूर हो।
हे सद्गुरु! किरपा करो, जिससे कि बल भरपूर हो।।

               ४८३

मेरे चरण और हाथ,सिर,सब हृदय पर ही जम गये।
बनता नही इस देह से, पर ब्रीद साथी बन नये ।।
किसिका बुरा हमने किया ऐसा हमें लगता नही।
जितनी बनी प्रभु-याद में सारी उमर सेवा रही।।

                 ४८४

सुनकर सुना जाता नही, कहकर कहा जाता नहीं।
दिखता, मगर कुछ भी नही, यह हाल होता है सही।।
निवृत्त वृत्ती हो रही प्रवृत्ति के गुण-धर्म से।
आसक्ति सारी जा रही है बाह्य सारे कर्म से।।

                 ४८५

नहि पैर धर सकते जमींपर, आसरा ही चाहिए।
नहि हाथ ऊठे आप से, लिखकरहि कुछ बतालाइए।।
कुछ बोलना भी हो नही सकता. जबानी क्या कहें? ।
अब तो यही लगता प्रभू! सेवा को आयेंगे नये।।

                  ४८६

दिखता नही है पास का, अब दूरदृष्टी होगयी।
अपना गया घरकुल सभी, है धर्म ही और देश ही।।
उसका भला अपना भला, यह दिल में लगता है सदा।
भगी, सूख-दूख दोनों ले बिदा।।