मेरी जापान यात्रा

जापान में लोकप्रियता पाया

          *भजन-पंचक* 

                  *-१-* 
      (तर्जः मेरे दिल में गुरू ने जादू...)


हर देश में तु, हर भेष में तू,।
तेरे नाम अनेक, तू एक ही है।।
तेरी रंगभूमि यह विश्व भरा।
सब खेल में, मेल में तू ही तो है ।।टेक ।।

सागर से उठा बादल बनके।
बादल से फुटा जल होकर के।।
फिर नहर बना नदियाँ गहरी।
तेरे भिन्न प्रकार तू एक ही है ।।१।।
चीटी से भी अणु परमाणु बना।
सब जीव जगत् का रूप लिया ।।
कहीं पर्वत, वृक्ष विशाल बना।
सौंदर्य तेरा तू एक ही है ।।२।।
यह दित्य दिखाया है जिसने ।
वह है गुरुदेव की पूर्ण दया ।।
तुकड्या कहें कोई न और दिखा ।
यह मैं अरु तू सब एक ही है ।।३।।

( टोकिया)

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मेरी जापान यात्रा

            *-२-* 

          (तर्ज : दिल भरम
 जबतक..)


हर जगह की रोशनी में, दिल भुलय्या तुम्ही तो हो।।टेक।।

अगर तुम्हारी छटा न होती, तो सारी खिलकत मरी हुई थी।
कहाँ छुपाते हो हुस्न अपना, चेत-चितय्या तुम्हीं तो हो।।१।।

तुम्ही हो देवल तुम्ही हो मसजिद, तुम्ही हो मुरत तुम्ही पुजारी।
ढँकाया परदा करम करमका, सबर शुकरिया तुम्ही तो हो।।२।।

तुम्हारी कुदरतही छा रही है, वह पूरे आशकको पार ही है।
नहीं तो यों ही दफा रही है, झूल-झूलय्या तुम्हीं तो हो।।३।।

कहाँ पे पर्वत कहाँ समुंदर, कहाँ पे बादल कहाँ फवारे।
लाखों घटाता लाखों बढाता, खेल खिलय्या  तुमहीं तो हो।।४।।

कहाँ पे लैला कहाँ पे मजनू, कहाँ बादशा कहाँ फकीरा।
कहाँ पे आशक कहाँ पे माशुक, प्रेम पिलय्या तुम्ही तो हो॥५॥

वह दास तुकड्या को आस भारी , न नाम तेरा भुलूँ मुरारी ॥
नशा चढा दो हुजूर! पूरी, डोल डुलय्या तुम्ही तो हो॥६॥
       _____________
            
                 *-३-* 

        (तर्ज : भारताचा घोर तू...)

सबसे ऊँचा है धन, मेरा प्यारा भजन ,
उसपे सारा तन-मन कुर्बान रहेगा ।।टेक।।

इससे ही मैंने जीवन बनाया।
जंगल-पहाडों में ईश्वर रिझाया।

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मेरी जापान यात्रा

सारा जनम इसमें जायगा,
मुझे कोई ना छंद, सिवा प्यारे गोविंद,
इसपे सारा तन-मन कुर्बान रहेगा॥१॥

घर-घर में खाना, घर-घर में गाना।
मस्ताने बनकर के दिल को रंगाना।
अब तक जगाया जगायगा,
मेरा मीठा है बाज, खंजडी का आवाज,
इसपे सारा तन-मन कुर्बान रहेगा॥२॥

इसने ही मुझको सेवा सिखाया।
सबमें प्रभु एक अनुभव बताया।
अब तक उठाया उठायगा,
करता तुकड्या विश्वास बनके दासन का दास,
इसपे सारा तन-मन कुर्बान रहेगा ।।३।।

         ______________

              *-४-* 
     (तर्ज : अब काहे को धूम मचाते हो...)

गाओ भाई! सब देवन को, सब सन्तन को गाओ।
तनमन से ध्यान लगाओ ।।टेक।।

सभी धर्म और सभी पंथ ये, मानव सुख को बनाये ।
समय-समय पर रूप बदलकर, अपना फर्ज सुनाये ।।१॥

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मेरी जापान यात्रा

कोई कहत है पीरपैंगबर, कोई राम के नामा।
येशुख्रिस्त को कोई भजत हैं, कोई रटे दिल श्यामा ।।२।।

अलख निरंजन निर्गुण प्रभु की, सबमें शक्ति समायी।
चाहे उसको ब्रम्ह कहाओं, या अल्ला कहों भाई! ॥३।।

जगत्- पिता की यह रचना है, सब में न्यारी न्यारी ।
जिसका जो कोई धर्म-वर्म है, हो उसको वही तारी ।।४।।

हम सब एक अनेक हुए हैं, जगसौंदर्य बनाने ।
तुकड्यादास कहे यह निज-धन गुरु का प्यारा जाने ।।५।।


             *-५-* 
     (तर्ज : आकळावा प्रेम भाव...)

ऐ विश्व के चालक प्रभो! मुझ में समझ दे विश्व की।
यह अखिल मानव धर्म के, आदर्श ऊँचे वेष की।।टेक।।

दुःख है इसका हमें, हम अवनती क्यों पा रहे।
शील यह हममें भरा, सेवा करें हम देश की।।१।।

हे मनुज हम देह से, पर कर्म है सब भूल के।
सोचने की बुद्धि दे, आदर्शवत संदेश की॥२॥

पक्ष औ उपपक्ष में खाते हैं गोते जोर से।
प्रभू एक्यता का ग्यान दे, बंधन कटाकर द्वेष की।।३।।

धर्म किसका हो कोई पर वर्म सबके एक हो।
हम भाई-सम विचरे सदा, लहरे चले सन्तोष की॥४॥

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मेरी जापान यात्रा


हो गरीब याके अमिर सुख- दुःख सबके एक हो।*
गर मर मिटे तो हम से भी, हो ख्याल ऐसे होश की ।।५।।

धीर हो गंभीर हो, हम वीर हो संसार में ।
बस! दान यह दीजे प्रभू, सेवा करें जगदीश की ।।६।।

आज की यह वक्त है, सौभाग्य-चंदन लपकी।
कहत तुकड्या भीख दे, जो कुछ रहे अवशेष की ॥७॥




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