*मेरी जीवन यात्रा*
मंगल स्मरण
( हरगीति छंद )
१
ओंकार सबका बीज है , ओंकार सबका रूप है । ओंकार सबही कार्य है , ओंकारही अणु रूप है । । ओंकारही ब्रह्माण्ड है , ओंकारही यह पिण्ड है । ओंकारबिन कोई नही , ओंकारही परचण्ड है ।।
२
आनंदधन आनंदबन , जो विघ्ननाशक है सदा । सब विश्वका कल्याणकर्ता , दुःखहर्ता सर्वदा ।। उसका स्मरण करते है हम , वह बद्धिको सन्मार्ग दें । दें प्रेरणा कर स्फूर्त हमको
, सज्जनों का वर्ग दें ।।
३
ओ माँ सरस्वतिशारदे! कमलासनी मनमोहिनी । व्याघ्रांबरी शिवसुंदरी । हे दुर्ग - दुर्गतिनाशिनी ॥ स्वरमाधुरी दिव्यांबरी । शक्ती सुबुद्धी - धारिणी । हे अन्नपूर्णे ! सर्वपूर्णे ! मंगले ! रण - रंगिणी ! । ।
2020103 . 30 19 : 26
४ हे एकभुजा ,अष्टभूजा , सहस्त्रभूजा चंडिके !। नरमुंडिके खलदंडिके ! शस्त्रास्त्र भूषण - मंडिके !।। हे मंत्रशक्ते , यंत्रशक्त़े! तंत्रशक्त़े बहुगुणी !।। अन्याय - पातक ध्वंसिनी ! अणुरेणु व्यापक - व्यापिनी !।।
५
हे परमपावन , पापनाशन , पुण्यशीले नर्मदे ! । भूभारहरणी ! अन्नभरणी ! शान्तिदानी नर्मदे ! ।। हे योगीजन - मनरंजनी ! शुभदर्शनी पथगामिनी ! । भव्यांबरी जलसागरी ! हे नर्मदे ! सुखवाहिनी ! ।।
६
हे नर्मदे तेरेहि दर्शन से सदा फूला - फला । तेरी अमित जलबिन्दुओं से प्रेरणा ले मैं चला ।। इस शान्तिजल से भी तूने कितनी हरी कठिनाइयाँ । सब फोड पर्वत - पत्थरों को , बह रही भर खाइयाँ ।।
७
हे शेषशायी गरुडवाहन ! श्रीपती भवभयहरी ! । हे चक्रशंखांकित गदाधर ! पद्यनाभा श्रीहरि ! ।। हे कमल - लोचन कमलमुख ! पदकमल कमलासन हरि ! । हे भक्त़ - बलिया दुष्ट - दलिया ! काल - छलिया प्रिय हरि ! ।।
८
सुर - नर मुनीं सब देव भी गाते भजन जिनका सदा । सब शास्त्र वेदों के सहित करते स्तुती ही सर्वदा ।। जो देव के अधिदेव को भी मान्यसे सन्मान्य है । ऐसे * गुरु * को जो भजे , फिर क्यों न होगा धन्य है ? ।।
2020 . 03 . 30 19 : 27
*जीवन की मंगल प्रभात*
जन्म और बचपन
९
हम बूंद पर है वही , सागर हि जिसका नाम है । हम दीप है पर है वही , सूरज का तेज तमाम है ।। हम देह है पर है वही , सारा हिमालय छा गया । हम पिंड है पर है वही , ब्रह्माण्ड - विश्व बना गया । ।
१०
मेरे - तुम्हारे जन्म ये कइ बार दुनिया में भये । बिलकूल यादी है नही , थे कौन औ क्या हो गये ? ।। जो जानता कइ जन्म को , वहि छानता सत् ज्ञानको । भटका कभी फिरता नही , पाता प्रभू - गुण - ध्यानको ।।
११
बचपन बताता है पता हर आदमी की शक्ल का । उसके विचारों की छटा देती है दर्शन अक्ल का ।। चाहे उसे समझाओ , पर वह कुछ न सुनने पायगा । कुछ पूर्व सुकृत ही बनाकर आदमी बढ़ जायगा ।।
१२
प्रल्हाद को उसके पिताने खूब सिखलाया , सुना । पर एक भी माना नही , वह भक्त़ ही आखिर बना ।। शुकदेव माता औ पिता के मोह से भागा चला । सब सुकृतों से ही जमाना आखरी बढ़ता भला ॥
42020 . 03 . 30 19 : 27
१३
विपरीत भोगों से कोई फंँसता अगर दिखता नही।। मानो , उसे सुकृत जबर बहने न देता है कहीं ।।वह फेर अपने भाग्य से खुद सन्त ही बन पायगा। देखो चरित कुछ सन्त के , तब ही पता लग जायगा।।
१४
पैदा हुआ इस देह में , सारा
उड़ा घरबार है । आयी हवा उस वक्त़ ही , बंधन से बेडा पार है ।। माँ - बाप कहते थे हमें - तेरे कदम नहि स्थीर है । पैदाहि होनेसे लगी तेरे पिछे फिर - फीर है ।।
१५
खेला नहीं मैं खेल बचपन से बिना प्रभू - नाम के । चंचल हुआ नहिं मन मेरा कुछ भोग भोग हराम के ।। मुझसे हुआ नहिं दर्द किसको , और ने चाहे दिया । हँसता हि था मैं संकटों में , शक्त़ि यह गुरुकी दया ।।
१६
बचपनसे ही मेरा भजन - कीर्तन प्रबल होने लगा । आयी मुसीबत लाखही , पर दिल नही मेरा डगा।। मै साथियोंसे त्रस्त होनेपर भी दिल नहि मुड़ गया । कइ मंदिरों में , साधुओं में , जंगलो में बढ़ गया ।।
*पाठशाला और शिवालय*
१७
मेरी पढाई भी अजब ! जब स्कूल में डाला गया । सारे हि शिशुओं को मिलाकर भजन की दीक्षा दिया । गुरुजी मुझे अति पीटते , पर मैं भजन नहिं छोड़ता । होता हूँ फिरभी पास ही , करते सभी आश्चर्यता ।।
१८
पढ़ता नहीं कुछभी किताबें , वह तो आदतही नहीं । जो कुछ सुना सत्संग में , वह बाद ना भुलती कही ।। इतना श्रवणसे ही खजाना भर गया है पासमें । था जो आवश्यक ही मुझे , उसिका हुआ है दास में ।।
१९
अजि !क्या सिखाते हो किसीको ? जो सिखा धोकर धरो । वह शुद्ध निर्मल ही रहे , ऐसी कृपा उसपर करो ॥ कृत्रिम जीवों की तरह , वह इंद्रियों का दास हो । ऐसा करो तब क्या किया ? यमराज के ही पास हो ।।
२०
अभ्यास मेरा था यही , सबको खुशी मुझसे बने । हर काम किसके भी करो , मिलते चबीने या चने ।।
हँसते कभी जनलोग मुझको , क्या अजब है यह गडी ! । मै मस्त था अपनी जगह , प्रभु - धुंद थी मुझमें चढ़ी ॥
२१
आश्चर्य था मेरे लिए , माँ - बाप छोड़े भागता । दीक्षा नहीं शिक्षा नहीं , पर संतके संग जागता ।।कुछ संगठन करता , बनाने पंथ नवनिर्माण का । करके हि * धोखा है इसे , खतरा बढा है जान का
।।
२२
कुछ बोलते * पागल मुझे , कोई साधु है यह भी कहे । कोइ जाद है इसको किया कहने में नहि खाली रहे ।। कइ देवि - देवों की जगह मुझको लिये माता गयी । रोता नही हँसता नही , मै देखता सारा सही ।।
२३
शिव की सदा आराधना , शिवमूर्ति का है चिन्तवन । शिव के बिना नहि वक्त़ भी खाली रहे देखा श्रवण ।। सुनता वही , करता वही , कहता वही शिव का भजन । सो धन्य है ! सो धन्य है ! मिलता उसे कैलासजन ।।
२४
एकान्त का नित अनुचरण , आबाद सा निश्चलपना । निर्मोह - सा वैराग्य है , अरु सत् - असत् जा जानना ।। मुख में सदा शिवनाम है , अरु वृत्तियाँ निष्काम है । तुकड्या कहे उस भक्त़ की , सबसे गती उपराम है।।
*घर की दशा और मन की दिशा*
२५
बचपन गरीबी थी बड़ी , पर प्रेम मुझपर था बड़ा । भिक्षा किया , मजुरी किया , पर सत्यपर ही था खड़ा ।। कुछ प्रेमियोंने भी मुझे , कमती नहीं पड़ने दिया । आये चुराने घर किताबे , साँपने फिरवा दिया ।।
२६
कर कष्ट दुसरों के सदा , विद्या पढ़ाना कर दिया । उपकार उसका है बडा , खुब अक्ल हममें भर दिया ।।काशी हमारी है वही , पावन किया गुरुसे जिने । कितनी हमारी मूढता , आखिर न सुख दीन्हा उन्हें ।।
२७
दर्जी भया तो क्या हुआ ? क्या वह नहीं तर जायगा ? । बेशक वही तर जायगा , गर काट को नहि खायगा । साची नियत से कर्म कर , व्यवहार जो है साधता । मेरे लिये वह धन्य है ! सच्ची वही परमार्थता ।।
२३
शिव की सदा आराधना , शिवमूर्ति का है चिन्तवन । शिव के बिना नहि वक्त़ भी खाली रहे देखा श्रवण ।। सुनता वही , करता वही , कहता वही शिव का भजन । सो धन्य है ! सो धन्य है ! मिलता उसे कैलासजन ।।
२४
एकान्त का नित अनुचरण , आबाद सा निश्चलपना । निर्मोह - सा वैराग्य है , अरु सत् - असत् जा जानना ।। मुख में सदा शिवनाम है , अरु वृत्तियाँ निष्काम है । तुकड्या कहे उस भक्त़ की , सबसे गती उपराम है।।
*घर की दशा और मन की दिशा*
२५
बचपन गरीबी थी बड़ी , पर प्रेम मुझपर था बड़ा । भिक्षा किया , मजुरी किया , पर सत्यपर ही था खड़ा ।। कुछ प्रेमियोंने भी मुझे , कमती नहीं पड़ने दिया । आये चुराने घर किताबे , साँपने फिरवा दिया ।।
२६
कर कष्ट दुसरों के सदा , विद्या पढ़ाना कर दिया । उपकार उसका है बडा , खुब अक्ल हममें भर दिया ।।काशी हमारी है वही , पावन किया गुरुसे जिने । कितनी हमारी मूढता , आखिर न सुख दीन्हा उन्हें ।।
२७
दर्जी भया तो क्या हुआ ? क्या वह नहीं तर जायगा ? । बेशक वही तर जायगा , गर काट को नहि खायगा । साची नियत से कर्म कर , व्यवहार जो है साधता । मेरे लिये वह धन्य है ! सच्ची वही परमार्थता ।।
२८
द्रोही हमेशा साथ हो , आपत्ति के आघात हो । संगत सदा बेजात हो , माधुकरी खैरात हो ।। ऐसी बखत में यार ! तू अपना करम छोड़े नही ।सह तब धन्य है ! तब धन्य है ! लागी ध्वजा तेरी सही ।।
२९
चिन्ता न कर किसकी कभी , तेरा तुझे मिल जायगा । यहाँ भी रहे वहाँ भी रहे , चाहे वहाँ आ जायगा । । तुकड्या कहे प्रभुका स्मरण करते सभी तू कर लिया । क्या वह न देगा अन्न भी करके भरोसा ना किया ? | |
३०
हे नाथ ! सब है हाथ तेरे , साथ तब हमने किया । जब सत्यसागर में गये , तब कौन गीने नदियाँ ? ।। है कौन तज दे शान्तिको ओर मोह - मद में डूबता ? । तेरेसिवा किसको ठिकाना है लगा ? तूही बता । ।
३१
अजि ! क्या करूँ धन पास लेकर ? चोरकी होगी निगा । और क्या करूँ ताकत बढाकर ? इंद्रियोंसे हो दगा । । वह क्या करूँ विद्या भी बढकर ? यदि बढे अभिमान है । अभिमान से न्यारा रहँ , पावे मेरा भगवान है ।।
३२
मै रो रहा हूँ इसलिए , पल - पल यह बीता जा रहा । चिन्ता - भवानी के पिछे हरदम बली - सा हो रहा । । बलिदान हमको दीजिए , मत वासनारत कीजिए । बल्के सदा दुख दीजिए , पर पास अपने लिजिए ।।
३३
कंगाल होनेकी मुझे , इच्छा लगी कई रोज से । कइ दे दिया, कइ खालिया , खाली हुआ नहि बोझ से ।। सब तो दिया जो पास था , फिर आस का जाता नही हे नाथ ! अब कंगाल कर , में खुदबखुद चाहता नही ।।
३४
पूरी फजीती कर प्रभू ! तब याद तेरी आयगी । हम है बड़े बेईमान , नहि तो खब्र सब भुल जायगी ।। रख दःख में संसार के , तब तो पुकारेंगे तुझे । नहि तो कठिन है मोह यह , नहि याद आती है मुझे ।।
३५
मिल जायगा वहि खायेंगे , रूखी - सुखी को पायेंगे । तेरा सदा गुण गायेंगे , बदनाम यहि हो जायेंगे ।। चाहे कहे फिर लोग भी - *मत भिख किसको माँगिए * । उनके करूँगा काम , पर तुम्हरे चरण नित जागिए ।।
३६
मेरे जनम कब सिद्ध हो ! गर आप तो पाते नही । रहना नहीं बनता अभी , दिल एक पर छाते नहीं ।।हे दीनबन्धो ! दर्श दे , मेरा करम - साफल्य हो । नहि तो गये हम भूल में , बिन आपके निष्फल्य हो ।।
३७
रंग में रंगा दे नाथ ! तेरे , हाथ सिरपर धर मेरे । मै बहक जाता हूँ हमेशा , काम पूरे कर मेरे ।। दुनिया बला पीछे पडी , बेकार करती वक्त को । बिन भजन के सार्थक नही , मै मुफ्त खोता रक्त़ को॥
३८
अरजी मेरी मरजी तेरी , तु कर वही मंजूर है । विश्वास मेरा है पुरा , सबही करेगा हुजूर है ।। हम पूतले है नाम के , तुही नचावनहार है । नहि कौन तुझको जानता ? तेरा सही बेपार है ।।
३९
राजी रहो जिसमें प्रभो ! उसमें हमें आनन्द है । हम कुछ नही है चाहते , बस है वही स्वानन्द है ।। हम जानते , तुम्हरी दया सब के लिए भरपूर है । फिर दुःख क्यों कैसा करे ? किस्मत यथा मशहूर है ।।
४०
सेवक तुम्हारा हूँ सदा , ऐसा हमे वरदान दो । इस मोह - ममता में प्रभो ! मेरा मगज मत जान दो ।। माया - नटी को आप ही अपनी जगह रोको सदा । बस ज्ञानकी धाराहूँ से हम को नही करना जुदा ।।
४१
हे नाथ ! ऐसी भीख दो , चिंता - दरिद्री जा भगे । सन्तोष - सा धन दो , जिसे आशा पिछाडी ना लगे ।। हम और ना कुछ माँगते , खाने यदी तोटा पडे । पर द्रव्य ऐसा दीजिए , आशा - दुराशा ना लडे ।।
४२
गौएँ अगर देते रहो , तो शान्ति - बछवा दीजिए ।टट्टू अगर देना चहो , सुविवेक ऐसा भेजिए
।। जागिर अगर देते हमें , स्वराज्य अविचल कीजिए । इच्छा रहे तो दीजिए , नहि तो मुझे खुद लीजिए ।।
४३
स्वामी! हमारी अर्ज है , ऐसा अनुग्रह कीजिए। निज बोधसा हो अनुचरण , ऐसी कृपा भर दीजिए।। अपनी शरण मे लीजिए , त्रैताप सब हर दीजिए ।तुकड्या कहे मुझ जैसे अधम को पास अपने लीजिए।।
४४
नादान है जीना मेरा , जब कार्य न करूँ देश का। वरदानी में हो जाऊँगा , वाहक बनूं सन्देश का।।सद् भाग्य मेरे ऊँच होंगे , सत्समागम में करूं । सारे जगत् को जीत लूं , गर मन पे में काबू करूँ ।।
४५
मर जाउँगा संसार से , जी - जाउँगा परमार्थ में । हट जाउँगा सब स्वार्थसे , डट जाउँगा नित आर्त में ।। ऐसा मरण मुझको प्रभो ! तुम शीघ्रही दे दीजिए । करके अमर निजज्ञान से , बन्धन सभी हर लीजिए ।।
*आत्मश्रद्धा और गुरुकृपा*
४६
इसमें मिली भारी खुशी , मुझे संतको अर्पण किया । फिर तो फुटे अंडेसे बाहर जानिए पक्षी गया ।। मैं भागता नदियों किनारे , ध्यान करता विश्वका । सेवा करूँगा किस तरह ? चिंतन बढ़ा हर किस्मका ॥
४७
बन्दर बनाकर ही मुझे संसार में घुमवा दिया । लाखो - करोडोंसे मिला , पर साच एक न पा लिया । । मैं चाहता , कोई मिले पर सत्यको ही दें मुझे । गुरुदेव ही ऐसा मिला , कहे * सत्य देता हूँ तुझे*।।
४८
बडे भाग पाया आज मैं , सत् का समागम पा लिया । चहँ धाम चौरासी पुरी , सातों समुंदर न्हा लिया । । जो कुछ करम के दोष थे , इस दर्शसे ही टल गये । अज्ञान के ढग हल गये , निजज्ञान के पट खुल गये । ।
४९
मैं था पशूवत् ही हमेशा विषय के आनंद में । खाना विषय , पीना विषय , सब कुछ विषयकी धुंदमें । । गुरुदेव ने मेरे ऊपर तो शक्तिपात हि कर दिया । सारे विषय पलटे मेरे , स्वानंद - सुख अजमा लिया । ।
५०
इन इंद्रियों के भोग सारे , कल्पना से ही दबे । देखा नही खाना - पिना - सोना , कहाँ होती सुबे । । पागल सरीखा सन्त - चरणों में सदा रहता गया । बस हो गयी उनकी दया , मँझधार से तरता गया । ।
५१
मेरा गुरू तो मस्त था , उपदेश नहि करता कभी । चाहो तो गाली ही सुनो , समझो उसीसे ही सभी । । अपनेहि बलपर था खडा , माला थी उनके नामकी । इससे मिला सब लाभ औ श्रद्धा बढी इस कामकी ।।
५२
मेरा पुरा विश्वास ही मेरे लिए पथ पूर्ण है । मुक्काम है गुरु की दया , बस आखरी सम्पूर्ण है ।। पढ़ता नही मैं ग्रंथ को , मन्दिर को देखें कहीं । रटता हूँ गुरु की शब्दवाणी , एक पल जाता नहीं ।।
५३
गुरुभक्त़के मुख से सदा झरते श्रुति स्मृति-वेद है। छह शास्त्र अरु सद् ग्रंथ सबस्फुरते उसेहि अभेद है।। जाना न पडता सीखने , पढ़ने न पडती पोथियाँ। सेवा गुरू की जो करे , उसने सभी तीरथ किया।।
५४
है वेद मेरे सन्त ही , सब बोल वेदों की ऋचा। जो हुक्म दे अपनी जबाँ , में पालता हूँ जो सचा ।।करके अमल उसके उपर , अनुभव हमें मिल जायगा। विश्वास मेरा है यही , सन्मार्ग सन्त बतायगा।।
५५
पहिला गुरु सुविचार है जो मत्र देता हर घडी। चेला वही बन जायगा जो मानता बातें बडी ।। सत ज्ञान दे , पापाचरण से ऊँच जो उठवायगा । आत्मा अमर निजतत्त्व है , अपरोक्ष गुरु बतलायगा । ।
५६
मुझको गुरुने कह दिया - " ईश्वर औ तुममें भेद क्या ? | दोनों उसीके रूप हो , मिलके बने गुरु की दया । । बल्के गुरू और शिष्यका भी स्थान समझो एक है । यह जीव , ईश्वर , ब्रह्म भी नहि भिन्नसे निःशंक है ।।
५७
मेरे परम पावन गुरू ही इष्ट है मेरे लिए । मै भिन्नता नहि मानता गुरुदेव ईश्वर के लिए ।। बल्के मेरा अस्तित्व ही उनकी ही लहरे है सदा । त्वंपद * औ * तत्पद *एक हो * असिपद * हि होता सर्वदा ॥
५८
कोई मुझे चिन्ता नही , क्या होगया - क्या हो रहा । मैं एक बच्चे की तरह हैं , खेलता - डुलता रहा । । मेरे गुरू है सब कुछ , माता कहो या हो पिता । ईश्वर वही सर्वस्व है , ऐसी है मुझमें एकता । ।
५९
छाया रहे गुरु का स्वरुप हरदम हमारे नैन में । तो हम रहे बेचैन मे तो भी समझते नैन में । । होती रहे गुरु की हमेशा आँख हम - से बाल पर । तो माल क्या संसार है ? कूदे चढ़ेंगे ख्याल पर । ।
६०
गुरूनाम की नैया हमें भव - दुःख से तरवायगी । गुरू की चरणरज ही हमें मन - भौर से हरवायगी । । गुरू - प्रेम की बरखा हमें सत् ज्ञानको बतलायगी । गुरु की कृपा हमको हमारे सौख्यमें मिलवायगी । ।
---------------
*उन्मुक्त वन - विहार*
जंगल में मंगल
६१
कइ गाँव बदले , संत बदले , स्कूल बदले हर जगा । में कौन हूँ इसका पता किसिको नही जल्दी लगा ॥ गुरुदेव की किरपा हुई , जब जंगलोंमे बढ़ गया । कइ शेर हिंसक प्राणियोंमें भी भ्रमण मैंने किया ।।
६२
प्यारा मुझे जंगल लगे , निर्मल वहाँके वृक्ष है । नहि जाति है ना पक्ष है, ना धर्म है ना लक्ष्य है । ।बस एकही है स्थीर जीवन , वनचरी के साथ में। आनंद अपने पास है , नहि उग्रता किसि बात
बात में । ।
६३
भूमी बिछाना मस्तका , आकाश तम्बूदे रखा । परकोट पर्वत का बना , सागर कुआ घट में लखा । बुझे नही मशयाल चंदा , और सूरज है खडा । सारी जहाँ में मस्तका दौरा अलख गाजे बडा ।।
६४
यह बन हमारा मित्र है , गंगा हमारी माँ बनी । पर्वत हमारी खोपडी , भक्ती हमारी है धनी । । जंगल - जनावर जिगर है , चंदा - सुरज है रोशनी । बस कुछ नही अब चाहिए , हमको नही आगे उनी । ।
६५
पशुपक्षिभी होते जिगर , पर प्रेम सच्चा चाहिए । बैमानि करनी हो कभी , तब साच केसा पाइए ? | | अपने समानहि देखना बिन ज्ञान के होता नहीं । हो मुक्ति ही पानी अगर , दुर्वासना छोडो सही ।।
६६
अजि ! शेर था वहिं पास , मै भी सोगया जाकर वहाँ । मालुम नही था , फिर दिखा , मैने उसे * वाहवा ! *कहा ।। दोनों भी हम अपने भजन में लीन थे , तल्लीन थे । * मरने को हम तैयार थे , पर बीच में भगवान थे ।।
६७
उसकी बिना आज्ञा कोई किसिको न मारेगा यहाँ । ऐसाहि मारेगा कहीं , तब तो प्रभू का क्या रहा ? । । सबको बराबर न्याय देना ही प्रभू का धर्म है । गर मौतही होगी बदा , तब क्या करेगा कर्म है ? ।
।
*प्रकृति में प्रभु - लीला - दर्शन*
६८
अजि ! मैं करूँ तारीफ क्या ? मुझको पता पाता नहीं । पर दिल तडपता है सदा , पल भी रहा जाता नहीं ।। तू सत्य है और नित्य है , *सत् चित्* मिला *आनन्द* है । आनन्द विषयों से भी मिलता , तू तो ब्रह्मानन्द है । ।
६९
प्रभु ! कौन गिनती कर सके तेरे जगत ब्रह्माण्ड की ? । कितना है तू ? किसमें है तू ? यह याद पिण्ड न खण्डकी ।। इतनाहि कह सकते मुनी - * तू सब में है , सब से परे * । उसमेंहि घट उसमेंहि मठ , आकाश नहि जीये - मरे ।।
७०
बन - पर्वतों के रूप लेकर , तूहि तो यहाँ स्थीर है । कहि व्याघ्र - सिंह भी बनके उनमें खेलता बनबीर है ।। घन - गर्जना कर गूंजता है नाद भेरी - सा कहीं । मैं जानता हूँ , है तेरी लीलाहि सब में हो रही ।।
७१
विकराल रूप भी है तुम्हारा , हम सदा से जानते । इसके लिए डरते नहीं , हम प्रेम से ही छानते ।। नीलाम्बरों के वस्त्र में जब तारका शोभा करे । तब चन्द्रही के रूप में हम दर्शकी सुषमा स्मरे ।।
७२
हर रंग की ऊठी छटा , उसमें चमक है तेज है । मन भौर होता देखकर , लगता बिछायी सेज है ।। पर कौन लीला करने आवे ? ज्ञान इसमें है नही । बिजली चमककर बोलती - मैं हूँ सभी , सब हूँ मही ।।
७३
है कौन शौकिन जो तरे इस शौक की बाजी करे ? । है चित्रकारहि कौन तेरी लेखनी से भी परे ? | | है कौन शक्त़ी भी भयानक तुझ समान दिखायगा ? । बस तृहि है , बस तूहि है , सब कर अलग रह जायगा ।।
७४
सबकी सुरत को कर दिया , तेरी सुरत क्यों छिप गयी ? । कइ लाख चीजें दिख रही , लेकिन न तू दिखता कहीं ।। इतना तुझे क्यों डर भला ? छिप - छिप रहा किस दूर में ? । कुछ तो नजर कर देख , हम कैसे फैंसे जग - भूर में ।।
७५
मै ढूंढता हूँ , दूर में , मन्दीर में ,
मसजीद में । एकान्त में , लोकान्त में , कुछ ज्ञानियों की जीद में ।। वाहवा ! अजब है खेल यह , कितनी घडी छुपना भला ? । आओ , दरस दे दो हमें , कर लो मुझे अपना भला ।।
७६
नाना स्वरूप से आप ही नटके नटे हो जी प्रभू ! । नहि भिन्न तुमसे है कहीं दिखता मुझे , देखा कभू ॥ सबमें तुम्ही हो व्याप्त , पर अध्यस्त तुमसे है जुदा ।
अध्यस्त अंशाअंश है , नहि आप हो न्यारे कदा ।।
*प्रभु - रूप - दर्शन का निर्धार*
७७
जो है सभी तूही भरा , इतना हमें पाया पता । पर आँख नहि पलटी पुरी , मैं इसलिए हूँ खोजता । । जिस दिन मिटेगा मै व तू सब एकही हो जायगा । आनन्द ही रह जायगा , आनन्द ही रह जायगा ।।
७८
हम से जुदा प्रभु ! हो नही , फिर भी न हममें आप हो । क्योंकर मिलोगे आयके ? जब दिल न मेरा साफ हो ।। जब पाक हम दिलके बनें , तुम को नही फिर ढूंढना । हर नब्ज में मौजूद हो , नहि चाहिए सर मुंँडना ।।
७९
महाराज ! हमसे ना बने इतनी मजल को काटना । अवघड तुम्हारा घाट है , बनता न मन उच्चाटना ।। कइ सैकडो शत्रू लगे , पल - पल कदम को रोकते । बस आपकी किरपा बिना , कोऊ न जी के जीकते ।।
८०
गाडी खडी आकर किनारे , अब न मंजिल दूर है । आये हैं जब यहाँतक तो हम लौटेंगे क्यों मजबूर है ।। अब तो हुजूर के दर्श लेकर ही बनेंगे निहाल है । रुकते नही कोइ रोक दें , आडा पडे यदि काल है ।।
८१
हिम्मत हमेशा रख पुरी , मैं दर्श तेरा पाउँगा । चाहे हजारों बन चुके , वापस नही अब जाऊँगा ।। दरपे तुम्हारे कूंच बनकर मट्टिसम गिर जाऊँगा । मेरे जनम को इस तरह मारग सदा बतलाउँगा ।।
८२
चाहे कहे जनलोग अब , हटता न मैं दरबार से । मर जाउँगा बल्के यहाँ , कह जाउंँगा करतार से।। कि - " मैं तुम्हारी याद से बेजार होता था पडा़। परभी न तुम मुझसे मिले , किसका गुन्हा सबसे बड़ा ? "।।
---------------
*योग की स्वानन्दगुफा में*
*ऐ चित्तवृत्ति !*
८३
ए आँख ! जब तू धन्य है , मेरा प्रभू देखा करे। ए कर्ण ! जब तू मान्य है , उसकी कथा ऐका करे । । रसने ! जभी तू प्रीय है , प्रभुका स्मरण करती रहे । गर ना करे ऐसी चलन , बेशक अभी मरती रहे ।।
८४
हे चित्तवृत्ते ! क्या तुझे दिखता नही है आँख से ? कितने गये कितने चले , सब मिल चुके है राखसे ॥ प्रत्यक्ष होके देखती , फिर भी समझ भाती नहीं । कितने जनमके पाप है , जो तू प्रभू गाती नही ? ॥
८५
है वृत्ति ! मत आधीन हो इन इंद्रियों के साथ में । तू स्थीर हो अपनी जगह , मिल जा खूदी की जातमें ।।परजात है ये लोग सब , तुझको यहाँ भटकायेंगे । चढना कठिण होगा तुझे , परदेश में अटकायँगे ।।
८६
हे चित्तवृत्ते ! मित्रता ऐसी जगह से कर सदा । धोखा नही फिर जन्मका , मरना नही आवे कदा । । ऐसा अमरपद प्राप्त कर गुरु के चरणमें जायकर । मिलजा गुरू - रजधूल में , देखे न फिर उछलायकर । ।
८७
ए बुद्धि ! अब हट जा जरा , पट खोलने दे प्रेमके । तू बैठ अपनीही जगह , बन्धन हटाकर नेम के । । निर्बंध तेजोरंग में मुझको चढाने दे नशा । फिरने न वापस हूँ कभी , रखता हूँ ऐसी लालसा । ।
८८
ए दिल ! बडाई छोड दे , तू खास मेरी है लहर । हो लीन अपने केन्द्र में , यह छोड विषयोंका जहर । । अस्तित्व से नहि भिन्न तू , यह भिन्न माया है मृषा । तकड्या कहे हो जा सुखी , यह छोड मृगजलकी तृषा । ।
*विविध योग - साधनाएँ*
८९
बिन त्याग हो कामादिका यह स्थीर मन होता नहीं । जब स्थीर मन होता नही तब प्रेमरस पात नही । । बिन प्रेम के प्रभु की कभी तारी नजर लगती नही । तारी लगे विन भक्ति की ये वृत्तियाँ जगती नहीं ।।
९०
है नेम की निर्मल ध्वजा , अरु प्रेम - वीणा है मधुर । माला समन की मोहनी , देवल हृदय का शुध्दतर । । *सोह * सहज ही कर भजन , नैवेद्य अर्पण ज्ञान से । स्वानंदघन परमात्म को वहि भक्त प्यारा प्राण से । ।
९१
हरदम बरसती है झडी *सोहं * जबाँ की बूँद से । हर श्वासमें लागी लगन , इक्किस हजारों - छ । जो योग अपना साधकर इस मंत्र को जापा बिन कष्ट से भवसिन्धु में रहता हुआ प्राणी ,
तरे ॥
९२
अपने हृदय - आकाश में , षोडश कमल - दल स्थान वह भक्तजन रमते सदा , करते प्रभू का ध्यान है।। मनसे कियाकर कल्पना ,मूर्ति किया करते खडी़। आनन्दमय होते खुदी , जब ध्यान में वृत्ती जडी़।।
९३
है ध्यान का अतिरेक यह , ध्यानादि में नहि मग्न हो । नहि ध्यान ध्याता - ध्येय भी , त्रिपुटी परे संलग्न हो ।। संलग्न हो अपनी जगह , जहँ वृत्ति ना वृत्ती रहे । वृत्तिहि जहाँ निवृत्ति हो , यह भान ना रत्ती रहे ।।
९४
हठयोग साधन के लिए बलवन्त तन - मन चाहिए । बैराग अरु अभ्यास की मजबुत शक्ती छाइए। । लोकेषणा मद सिद्धियाँ , सब तुच्छ हरदम लेखना । गुरुके चरणमें लीन हो , निज आत्मसुखको देखना ।।
९५
जाते प्रभू की राह में आती है आडी सिद्धियाँ ।वृत्ती न आगे जानेदे , करदे भ्रमी सब बुद्धियाँ ॥ जो ज्ञानका ले शस्त्र अरु बैराग की ले ढाल को । सो पार जाता है चला , सब तोड सिद्धी - जाल को ॥
९६
ले हाथ धीरज - ढाल को , बैराग की तलवार ले । अभ्यास का चिल्खत चढा , अरु चश्म सारासार ले । गुरु - ज्ञान की करके ध्वजा चढ जा त्रिकुट के घाटपर । तुकड्या कहे गड जीत ले उस नाद - बुंद - झल्लाट पर । । ९७
यम - नेम से तनु - मन शुची , स्थिर होत आसन - बंधसे । उठवाय कुण्डलनी भली , सम प्राण के सम्बन्ध से । । षड्चक्र का भेदन करे , बिजली गिरे , गरजे गगन । गटकाय अमृत - बूँद को , कर लीन निज - पदमें सधन । ।
९८
सूने महल में दीप की झलकी नजर में आ रही । सूरज कभी तारे कभी , बिजली - झलारी छा रही । रण के नगारे बज रहे , अर्गन मधुर - सी गा रही । निजज्ञान की बरखाहुँ में अनुभव - फुँवारी हो रही । ।
९९
अर्गन सुहावन बज रही , तबला कहीं है खंजरी । बन्सी सरंगी माधुरी , मिरदंग है अरु झंजरी । । नाना तरह के वाद्य में चलता सरस है तम्बुरा । आनन्द का लगता झरा , अनहद नगारों में भरा ।
१००
मैं चढ़ गया हूँ घाट पे , जहाँपर त्रिकुट का ठाठ है । जीवन - झरा झरता जहाँ , अरु ज्ञान बन घनदाट है । । मेरी नजर नहि लौटती , है जादुगर कोई यहाँ । बस आगयी मुझको नशा , अब दिल न आनेको तहाँ । ।
१०१
मिल जाउँगा मिल जाउँगा , वापिस नही अब आऊँगा । वृत्ती विषय से खैंचकर , सत् रूप में समवाऊँगा।। समवायके , समवायका अभिमान भी नहि लाउंगा। तुकड्या कहे , सब क्षेत्र को क्षेत्रज्ञ में रंँगवाऊँगा।।
१०२
बिन ज्ञानके गर योग का सम्पूर्ण मारग कर चुके । सिद्धी हजारों भर चुके , कइ वर्ष जीवन धर चुके।। पर फोल ही वह जानिए , जबतक न आत्मानन्द है। लाखों ऋषीमुनि गिर चुके , बिन ज्ञान के सब मन्द है।।
१०३
इत शून्य के उत शून्य में जो शून्य की निज नैन । सो नैन ही पावे जहाँ , वह धन्य है ! जगमान्य है । फिर चैन को बाकी नही , *साखी * उसीने पा लिया तुकड्या कहे वह गुरुकृपा बिन कोउ ना दूजा दिया । ।
**योगानुभव की परिपूर्ति*
* १०४
योगी ! तम्हारी वृत्तियाँ स्थिर होगयी है क्या सदा ? । अभ्यास के व्यतिरिक्त भी स्थिरबुद्धिही है क्या सदा ? | |देखे जिगर सोचे जिधर क्या उन्मनी की है छटा ? । तब तो तुम्हारा योग पूरा होगया , हमको पटा । ।
१०५
तुम क्रोधसे और कामसे , अति लोभसे क्या दूर हो ? । आदर - अनादर एकसा , निंदास्तुती नहि चूरहो ? । । तुमको न प्रिय - अप्रीय कोई , इष्ट औ न अनिष्ट है । गर सध गया यह वृत्ति में , तब योग पूरा स्पष्ट है । ।
१०६
संकल्प सारे छोड दो , वृत्ती बहिर्मुख मोड दो । कुछ भी प्रवृत्ति हो , निवृत्ति - सुध भी छोड दो । । जब लक्ष्य को भी आत्म में समरस करो और शून्य हों । फिर भी रहो जीओ जगत् में , धन्य हो , तुम धन्य हो ! । ।
१०७
लाखों जमाना आगया , व्यवहार भी खुब होगया । फिरभी न मुझको स्पर्श है , क्या होगया - क्या रह गया । । परिणाम ऐसा शान्त है , निर्मल विमल , समचित है । होता वही योगी पुरा , जो आत्म में निश्चिन्त है ।।
१०८
अभिमान तन का है नही , आशा नही संसार की । परिपूर्ण निश्चय हो गया , छायी नशा है सार की । ।कर्तापना ही चला गया , फिर कर्म ही निष्कर्म है । आनन्दमय निर्मल सदा , यहि योगहूँ का मर्म है । ।
१०९
हमने किया , हमने किया , मत बोल मनमें लो कभी । नहितो जनम को पात्र होगा , ख्याल रखना यह सभी । । प्रभुका हि है प्रभुका हि है यह , हम तो सेवा कर रहे । इच्छा अनिच्छा कुछ नही , लीलास्वरूप ही जी रहे । ।
११०
यहि भक्ति की निर्मल ध्वजा , यहि ज्ञान का खुद रंग है । यहि ध्येय सच्चे धर्म का , यहि योगियों की भंग है । । बाहर भितर जग ईशमय , निर्द्वद है सुखकंद है । तुकड्या कहे , नरदेह में सच्चायही स्वानंद है । ।
----------------
*ईश्वर - मिलन की साधना*
सत्यदेव के दर्शन कहाँ !
१११
ईश्वर - मिलन की साधना हमको बतादो जो ! कही । इच्छा हमारी है , मगर मारग कहीं दिखता नही ।। जो वह कहे * हमरा बड़ा है पंथ ईश्वर पाय को ।लेकिन गया तो कुछ नही , हम पागये है अपाय को ।।
११२
सुंदर सजीले वृक्ष देखे पुष्प से फूले फले । कुछ पर्वतों के टोंक देखे बादलों से जा मिले । । बह जीर्ण औ विस्तीर्ण देखी मन्दिरों की झाँकिया । पर ना कहीं देखा उसे , जिसने जिवन यह भर दिया । ।
११३
देखा नहीं मैने कहीं , इस आँखसे शंकर कभी । विष्णू कभी , ब्रह्मा कभी , या देवताएँ अन्य भी । पद - तत्त्वका दर्शन किया , जो तत्त्व सबमें है भरा । अब आत्मतत्त्वहि है सभी , फिर दूसरा कहाँ से भरा ? | |
११४
इस आँख से चाहे न देखे , पर समझ में आगया । तू सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है , इसका पता भी पा गया ।। इतना निकट है तू हमारे , दूसरा कुछ भी नही । हम चाहते नहि ऐक्य हो , फिर तो मजा ही क्या रही ? ॥
११५
मेरी तनू में जीव है , उस जीव में भी जीव है । है आत्मा में परमात्म ही , कूटस्थ जो स्वयमेव है । । वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर , जिसमें बनी दुनिया बडी । आत्मा सभीका साक्षि है , आश्चर्य दिखता हर घडी । ।
११६
अति सूक्ष्मतर , इस पिण्डसे ब्रह्माण्डतक व्यापक बड़ा । ब्रह्माण्ड भी तो पिण्ड ही है , ब्रह्मासत्ता से जड़ा ।। वह ब्रह्म व्यापक - व्याप्य सबसे ही परे स्वयमेव है । जो जन्मता - मरता नही , वहि सत्य है वहि देव है । ।
११७
इस देवमें भी देव है , जो देव का परदेव है । अति सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर , वह मूलदेव सदेव है । । जहाँतक है साक्षी साक्ष्यका , द्रष्टासहित त्रिपुटी महा । यह जब जहाँपर है विलय , सच देव उसको ही कहा । ।
*मै साक्षी निश्चल देव हूँ ! *
११८
करना है मुझको आत्मबल से साधना अध्यात्म की । साधन - चतष्टय , शद्धि मनकी औ प्रतिष्ठा स्वात्मकी । । मैं को मेरे भुल जाउँगा , सब तूहि तू * बन जाउँगा । * तझमें औ मुझमें भेद नहि *इस तत्त्वमे सुख पाउँगा । ।
११९
व्यतिरेक पहले सीखना , चहँ देह के पर * आत्म * से । अन्वयगती फिर लेखना , बाहर भितर परमात्म * से । । * ततत्वम असि * को छानकर , निज आत्म - अनुसंधान कर । तकड्या कहे फिर साम्यता , त्रिपुटी रहित पथ ध्यान कर । ।
१२०
गंगा - किनारे बैठकर , हर बूंद को देखा करूँ। हर बूंद के आधार में ये वृत्तियाँ लेखा करुँ।। उठे उठाते गंगा की जैसी लहर मिटती रहे। वैसी हमारी वृत्तियाँ सत् रूप में घटती रहें ।।
१२१
हर कल्पना एक सृष्टि है , बनती औ मिटती साथ में। सुखदुःख तो होता मगर , लगता न कुछ भी हाथमें । । मैं जानता हूँ जब इसे , मेरा बिगड पाता नही । आत्मा सदा साक्षी रहे , आता नही जाता नही । ।
१२२
आकाश की सीमा नही , नहि रंग है नहि रूप है । जो रूप है अरु रंग है , यह नेत्र के अनुरूप है । । निश्चल वहीसा ब्रम्ह है , अध्यस्तता के बाद में । अध्यस्त ही सब खेलता दुई बना आजाद में । ।
१२३
इंद्रीयगण - बेपार के सापेक्ष से संसार है । संसार का न्यारेपना , मनका बना व्यवहार है । । मन तो तरंग की बूंद है , है बुद्धिसे सहवासता । मैं नित्य आत्माराम हूँ , नहि बुद्धिसे कुछ वासता ॥
१२४
मायारूपी है क्षेत्र सब , इस क्षेत्रको मैं जानता । हूँ दूर इस संघात से , मुझ में नही इसका पता । । बनता - बिगडता खेल है , मै साक्षि निश्चल देव हूंँ । सन्मात्र हूँ , चिन्मात्र हूँ ,आनन्दमय स्वयमेव हूँ ।।
१२५
अनुमान क्योंकर कर रहे ? प्रत्यक्ष आँखी खोल लो । अज्ञान पडता छोडदो , अपने स्वरूप को तोल लो । । अजि ! तोल लो निजज्ञान को , आँखे लगाकर तोल लो । करते रहो खुद अनुचरण , मेरे प्रभू को मोल लो ।।
१२६
एकान्त मन को कर सदा , लोकान्त ही हर भावना । *लोकान्त में एकान्त हो *ऐसी करामत जानना । । अरु चित्त का साक्षी सदा , एकान्त में ला खैंचना । हर वृत्ति के पीछे लगाकर सत्य भूमा ऐंचना ।।
१२७
बाहर - भितर गर एक है , तो आँख मिच के क्या किया ? । जो कुछ किया सोना किया , अपना फरक बतला दिया । । जब ज्ञानकी नैना खुले , बाहर - भितर जाना भुले । *अन्दर - बाहर सब एक है * इस भेद के पडते खुले ।।
चैतन्य ही है सर्वथा , चैतन्यबिन कोऊ नही । यह विश्व सब चैतन्यमय , माया - अविद्या यों सही ।। दिखता सभी चैतन्य है , देखे सभी चैतन्य है । ये तत्त्व पाँचोंभी वही , त्रेगूण भी ना अन्य है ।।
१२९
जो है सभी मैं एक हूँ - तू पना भी झूठ है । सम एकरस परिपूर्ण हो स्वानन्द की लखलूट है ।। समदृष्टि के अभ्यास से कामादि होते लीन है । तुकड्या कहे बाहर - भितर आनन्द ही स्वाधीन है ।।
*अलमस्त अमरबूटी का नशा*
आत्मतृपति के धन्योद् गार।
१३०
वाह रे प्रभू! तुने अजब यह खेल जगा में कर दिया। मेरे सरीखा मूर्ख भी *भारी महात्मा* बन गया ।। ऐसे समय में कई हजारों कवि कवायदबाज है । मे हूँ
*अंँगूठा छाप * फिर भी जग कहे *महाराज* है।।
१३१
आश्चर्य मुझको है बडा , मैं धूल से भी धूल था । दनिया जिसे पापी कहे ,उसाचे कहि में अनुकूल था ।। अच्छे न मुझसे काम होते , था सदा बदनाम सा । गुरू की दयाने ही किया मेरा जनम सच धाप - सा ।।
१३२
भ्रम के किंवा डे खुल गये,
अज्ञान के ढग हिल गये । डरके फँवारे चल गये , दुई निशाने भुल गये । । बाकी नही कुछभी रहा , वाकीफ - गडपे चढ़ चुके । गरुकी कृपा जब हो चुकी , * साखी ,मजासे लड चुके । ।
१३३
लायक न होनेपर भी मुझको हाथ से पकड़ा तुने । मे भागता था विषयपर , हर बात से जकड़ा तुने । । सब पास के जो पाप थे , उनसे भी मुक्ताहि कर दिया । तेरी हि मस्ती देके मुझमें रूप अपना भर दिया ।।
१३४
बल्के मेरी इस कल्पना ने ही मुझे दुनिया दिया । थी बूंद थोड़ी - सी वहाँ सागर भी चंचलसा किया । ।मेरेहि भाई - बन्धु सारे , शत्रू भी दिखने लगे । गरुदेव ने जब की कृपा , मन के अंधारे जा भगे । ।
*मृत्युंजय आत्मसिद्धी*
१३५
मेरे सरीखे मूड को प्रभु ! पास अपने कर लिया । था भूलता संसार में , उस भावसे तुम हर लिया । । बस आखरी यह अर्ज है , जब प्राण यह जाता रहे । जब दीनबन्थो ! आपके चरणार मे भाता रहे ।।
१३६
हे नाथ ! लाखों सर्प की अंगार होती अन्त में । तब कौन आवेगा भला आडा वहाँ देहान्त में ? । । * हमसे बने नहि फिर वहाँ प्रभु ! नाम लेना आपका । ऐसी करो हमपे दया , भय दूर हो उस तापका । ।
१३७
प्रभु - नाम गाने में जिसे लागी समाधी आपही । नहि खब्र अपने देह की , आडा पडे यदि साँप ही । । ऐसा जिसे बैराग हो , हो प्रेम अपने राम का । सो लाख भी कोई को , नहि भक्त विषयों काम का । ।
१३८
आशा औ तुष्णा भाग जाये , तब तो फिर कहनाहि क्या ? । यह दिव्यताही छागयी , फिर मृत्यु में रहनाहि क्या ? ॥ बैकुंठ उसके पास है , सब सिद्धियाँ भी दास है । आनन्द ही आनन्द है , आनन्द का निज ध्यास है ।।
१३९
है चित्ता जिसका शद्ध तो फिर बोध का क्या काम है? ।लगी लगन प्रभ की जिसे , फिर खोजना क्या धाम है? ।। सब तीर्थ उसके साथ में , सब देव उसके पास है। रिद्धी अरू सिद्धी सभी बनती उसीकी दास है।।
१४०
पर्वा न अपने तन - बदन की , मानकी या शानकी । तुफान चाहे आड आवे , बेखबर है जान की ।।जिस को लगी यह आग अपने प्रीयतम भगवान की ,। वह * अवलिया * बनता सही ज्योतीहि ब्रह्मज्ञान की ।।
१४१
केवल निरामय भाव से जिनको प्रभु प्रेमा मिला । वह धन्य है जगमान्य है ! जिनका अहं सारा ढला । । छह शास्त्र चारों बेद भी उनकी जबाँ होते खडे । जो प्रेमसे गावे प्रभू वे भक्त़ है सबसे बड़े । ।
१४२
शान्ती उन्हीने लूट ली , गुरु के कदम दिल धर चुके । सब मान अरु अपमान से सारी जहाँ में मर चुके । । जीते उसी में है अगर आनन्द का संवाद हो । करते प्रभू की याद , फिर बरबाद हो आबाद हो ।।
*मौत पचाकर जिंदगी का आनंद !*
१४३
कोई पिलाते जहर भी , कोई नशा देता भले । जाता लिपट कही साँप भी , तूफान घोडा ले चले । ।किसिने मेरा सन्मान कर , मान्यत्व कीर्तन को दिया । मैने सभी से मेल कर इनकार नहि किसका किया ।।
१४४
माँ बाप ने भी मौत के दिन कर लिये मेरे सही।अजि ! शेर मुझको खागया,उनसे खबर किसिने कही।।फिर दुःखसे आये वहाँ, तौ मैं दिखा उस गाँवमें।मैने कहा होनाहि था वैसा किया गुरुदेव ने।।
१४५
कागज मेरा श्रोता है अब, है लेखनी वक्त़ा मेरा।परिणाम है आनन्द-लहरे, रात-दिन झुकता मेरा।।खाना वही सोना वही, घुमना भी उसकी धुंद है।
चाहे छुटे यह देह अब भी, वृत्ति ही स्वच्छंद है।।
१४६
अपनाहि लिखते-बाचते, अपनी खुशी में नाचते।दुनिया हमारी है यही, नाता नही हम जाँचते।।
दिखता वही भगवान है, बस प्रेम है पूजा मेरी।सेवा है मन की चिंतना, शुभ कामना होती पुरी।।
१४७
बंधू कहूँ या मित्र भी, ईश्वरहि काफी है हमें।संगी औ साथी चाहिए, मिलता विधाता ही हमें।।
आनंद गर उपभोगना, तो ज्ञान ही पूरा करे।पाना अधोगति है अगर तब वासना में जा मरे।।
१४८
गर इश्क है अल्लाह से, तो कुफ्र क्या इस्लाम क्या? ।कुछ भेद उसको है नही, दुख-दर्द क्या आराम क्या? ||लागी लगन जब मस्तकी, अपने खुदाकी राह में।
तो माल क्या धन-धाम है? है मस्त बेपार्वाह में।।
१४९
जो जो भि निकले दिन, हमारी शान होगी सत्य है।उल्हास होगा सत् करम का, धारणा का नित्य है।।आरोग्य उन्नत है सदा, सेवादि करने के लिए । आत्मा प्रबल है , स्फूर्ति निर्मल,मोक्ष पाने के लिए।।
१५०
किसका भजन करना है अब? सब तो हमारे हो गये।परकाश आतम का हआ, अज्ञान-तारे खो गये ।। निर्मल निरंजन आत्मकी ही ज्योति दिल में छा गयी।शत्रू नही ना मित्र है,बस एकता दिल भा गयी।।
१५१
गाया वही फिर गायँगे, फिर फिर तुम्हें रिझवायेंगे।रिझवायके रँग जायँगे, रँग से सदा बन जायेंगे।।
बन के अनुग्रह पायँगे, उस मंत्रकी धुन छायेंगे।ऐसी जडीको पायँग, पाते वही मिल जायँगे ।।
१५२
अलमस्त बूटी मिल गयी, दुनिया नजर से ढल गयी।अज्ञान-आंधी टल गयी,निजज्ञान-बिजली फल गयी।।सीधाहि सीधा जाऊँगा, वापिस नही फिर आउँगा।
हक में सदा रँग जाउँगा, रँग में सदा मर जाउँगा ।।
१५३
हर रोम से तेरा भजन हर वक्त मै करता रहूँ।हर पल तुम्हारे जोश के आनन्द में जरता रहूँ ॥यहि चाहता हूँ हर घडी, मत दूसरा कुछ दीजिए।तुकड्या कहे यह अर्ज मेरी, दीनबंधो! लीजिए ।।
**केवल बने उपकारवत्**
१५४
पाया जिसे प्रभुका पता, दुनिया-लता छोड के।
बैठा अमर होके वही, संसार-बन्धन तोड के ।।
विषसम विषय यह भासता, किंचित् नही आसक्त़ता।
देखे जिधर प्रभुकी सत्ता, प्रभु के बिना नहि भासता ।।
१५५
पहिचान से मिल जा वहाँ, जिसको सदा पहिचानता ।
मिलना बडा ही दूर है, यह भेद बिरला छानता ।।जो मिल चुके पहिचानकर वे मुक्त़ से भी मुक्त़ है।अधिकार होकर मुक्त़ का, जग के लिए सत् युक्त़ है ।।
१५६
वहि मोक्षके साथी सदा, जो मुक्त़ बन्धन से भये।अपने लिए तो मर गये, जग के लिए जीते रहे।।
करना नही उनको कही अपना भला इस लोक में।केवल बने उपकारवत् इस लोक में परलोक में ।।
१५७
करना नही पाना नही, ना है विधि न निषेध है।स्वच्छंद है निर्द्वंद्व है, जिनको न बाँधे वेद है ।। पर भी जगत्हित के लिए रखते सदा सत् नेम है।निष्काम-से सत्कर्म कर, करते सभी का क्षेम है।।
१५८
ज्ञानी, महात्मा, सन्त भी सत्कर्मको करते गये।
क्रियमाण भी यदि था नही,तो भी जगत्हित को लहे ।।
जबतक जीवन है ज्ञान का,तबतक करम धरनाहि है।
वह देखकर सब जन करे,यह बात अनुसरनाहि है।।
१५९
है सन्त ईश्वर एकही. नहि कार्य उनका है जुदा।करते जगत् की पालना, दुष्कर्म की हर आपदा।। सद्धर्म की संस्थापना, जडजीव का हो उद्धरण। तुकडया कहे उन सन्त के दिल से सदा पकडो चरण।।
--------------------
*विचित्र व्याक्तित्व का आकर्षण*
सन्त -अवतार ?
१६०
सोर नगर मे शोर है- *अवतार पैदा
हो गया *। मुझको बडी आयी हँसी, भगवान कैसे दो भया ?।। जो अवतरे सबही तो ये भगवान के ही रूप है । कोई बडे - छोटे रहे, यह दिव्यता का माप है॥
१६१
मन के नचाये नाचते, पागलहि कहते है उन्हे। मन को विचारों से रखेगा, बस वही मानव बने ।।जिनका विचारहि ज्ञान है, वे सन्त कहलाते सदा।जो कह सके वहि कर सके,अवतार की है मान्यता।।
१६२
भगवान वह जो कर दिखावे, व्यर्थ बोलेगा नही । सब सिद्धियाँ उसकेहि पीछे रातदिन रहती सही।।उसकी निगा में देश है, करुणा-सरलता-नम्रता।
वह जानता नहि जाति-नाता, सिर्फ जाने सत्यता॥
१६३
इन्सान में भगवान में कोई फरक रहता नही । भगवान की पूरी चमक इन्सान ही पाता सही ।। अवतार उसिका नाम है, भगवान का ही काम है। भगवान की शक्त़ी औ यूक्त़ी का वही एक धाम है ।।
१६४
घोडे - गधे यदि एकही पथ से सभी जाते रहें । है मूल्य फिरभी भित्र ही यह हम समझ पाते रहे ।।आत्मा सभी में एक है, इस में तो कुछ अंतर नही । फिरभी वही है पूज्य , जिस के कार्य में अवगुन नही ।।
१६५
ऐसा नही प्राणी कहीं ,जिस में जरा अवगुण नही । जिसमें न गुण-अवगुण रहे , वही जन्मही लेता नही ।। अवतार के भी पार हो , उसमें भी कुछ अवगुण रहें । जो अवगुणों से हो भरा ,उस में भी क़ुछ सद्गुण रहे।।
१६६
जीसमें भरे दुर्गुंण बड़े वही दुष्ट दानव,जव कहे । सद्गुण कीसीमें
अधिक हो, वह सन्त मानव देव है ।। ऐसा नही कोई मिले जिस में सभी कुछ शुद्ध है । गर शुद्ध ही पूरा रहे ,वह जन्म से नहि बद्ध है।।
१६७
मुझसे खरीदो मुर्खता, मुर्खत्व का भण्डार हूँ।सद्गुण मूझे देदो कोई उसका खरीदीदार हूँ ।। अबतक न मैने स्वार्थ की पूँजी किसे है दान दी ।भगवान की दृष्टी हुई तबही नजर यही आ गयी ।।
१६८
मै सद्गुणों का भृंग हूँ , सत् प्रेम का सत् नेम का।
वहाँ ही मेरा मन मस्त है,जहाँपर खजाना क्षेप का।।
सत्संग की बहती नदी,न्हाता हूँ मै दिल खोल के।
थोडा नही रहना खडा, जहाँ झुण्ड होते झोल के।।
१६९
किसको कहे अच्छा-बुरा?हमभी तो कुछ अच्छे नही।कितनी गरीबी जगत् में हम पार कर सकते नाही।।जितना बने सत् कर्म करनाही हमारा फर्ज है।
निंदा न हो हम से किसी की,हे प्रभू! यहि अर्ज है।।
१७०
किसकी दुबायी जिंदगी, या बोझ डाला हो कहीं।यह तो जनम में भी मेरा अवगुण किसे पाया नहीं।।खाया सभीके घर, न देखा जात या कुछ पक्ष है।सच्चे रहो अच्छे रहो, यह ही हमारा लक्ष्य है।।
१७१
हो शान्ति का परिणाम जिससे क्रान्ति वहही सत्य है।
वह शान्ति क्रान्ति फले तभी,परिणाम जिसका नित्य है।।
परिणाम में निवृत्ति हो, टूटे न उसका तार है।
जग जीतता है वह पुरुष, वहि सन्त का अवतार है।
*तपस्या का प्रभाव*
१७२
इन्सान का मुख चमकता, कारण उसीका कार्य है।
उसके बचन में ओज हे, कारण उसीका शौर्य है।
उसकेहि हाथों लक्ष्मी है, कारण भरा औदार्य है।
उसके चरण मंगल करें, कारण वह सत् का सूर्य है ।।
१७३
सारा बदन है सत्य से, और प्रेम से ढाला हआ।उपकार ही है धन तथा, है हृदय-वाणी में दुआ ।।
थोडा भी गुण किसका दिखा,तारीफ उसकी ही करे ।
ऐसेहि जन होते बडे, बिरलाद जग में अवतरे ।।
१७४
गोली तो होती है वही, पर भिन्न शक्तिहि से चले।
कुछ हाथसे कुछ तीरसे, बन्दूक से भी वेग ले ।।
जैसी हो ताकत साधनों की, जोरसे आगे चले।
वैसी ही वाणी व्यक्ति की, तप-त्यागसे फूले फले ।।
१७५
जब बाण छूटे शब्द के, लागे हदय थरकाँपने ।
हर रोमसे ज्वाला उठे, ख्यालात पहुँचे आपने ।।
ऐसी नशा जब हरघडी सत् शब्द की मिल जायगी।
तब वज्र जैसे धीर की वृत्ती प्रभू-गुण गायगी ।।
१७६
होता प्रभाव न व्यक्ति का, बल्के पड़े चारित्र्य का ।
विद्वान पूजा जायगा कोईभी देश-विदेश का ।।
जिसकी तपस्या मानवों की पूर्ण सेवा में लगे।
उसके लिए भगवान भी मन्दीर में रहते जगे ।।
१७७
मत बोलिए चाहो जबाँ, वृत्ति-प्रवाह न बन्द है।
जब हृदय में आनन्द है निकले सभी स्वछन्द है ।।
ऐसे निरामय सन्त का व्यवहार ही उपदेश है।
प्यारे ! उठो देखो उन्हें, उनका यही सन्देश है।।
*चमत्कारी दैवी शक्ति*
१७८
सुन्ने बराबर मिट्टिभी कभी काम देती है बड़ी।
सुन्ना भी कर सकता न कुछ जब झंझटे रहती खडी।।
कभी सन्त की धूली औ आशीर्वाद ही पूरा करे।
दोनों करे मिल प्रार्थना, हथियार भी चूरा करें।।
१७९
गर सोच लूँ कुछकर सकूँ तब तो रहूँ असफल सदा।
चाहे करूँ मै यत्न भी, नहि दूर होती आपदा ।।
पर बिन कहे सोचे भी जब मेरी निगा रंग जायगी।
तब दैवि शक्ती से सफलता ही असर कर जायगी।।
१८०
पूछो न मुझसे,मैने किनको शक्ति दी या मुक्ति दी? ।
बिलकुल नही मैं जानता, मैने तो केवल युक्ति दी ।।
कुछ शब्द मुख में स्फुर गये-*अच्छे रहो सच्चे रहो* ।
श्रद्धा रही जिनकी बडी उनसेहि अपना दिल कहो।।
१८१
सुखदुःख अपने बोलकर हलका किया करते है दिल ।
उनको भरोसा है मेरा जाता हूँ मै सबमें हि मिल ॥
होना न होना जोभी हो भगवान के आधीन है।
पर प्रेमियों के दिलमें लगता भक्त के स्वाधीन है।।
१८२
मुझसे करो नहि याचना मै कुछ नहीं देता किसे ।
कहते हो तुम *मिलता य* वह पूछ लो गुरुदेव से ।।
सच बोलता हूँ मैं नही किसि सिद्धि के आधार हूँ।
सिद्धी नरकगामी करे क्यों चार दिन बाँधा रहूँ ||
१८३
मेरी दवा चलती प्रभूके नाम लेकर ही दुआ।
होता मेरा अंतःकरण जब अंतरंग डूबा हुआ।।
उस वक्त मेराही मुझे कुछ भी पता पाता नही।
गुरुदेव की शक्तीहि मुझसे काम करवाती सही ।।
१८४
कुछ लटक है मुझमें अभी भी,बात सबकी सुन सकूँ।
और जो मुझे उस वक्त सूझे, वहहि उससे कह सकूँ।।
ऐसी लटकसे भावुकोंके काम भी कइ हो गये।
बल्के मरणमुख आदमी गुरुदेव ने अच्छे किये ।।
*हरदम बना रहे दरबार*
*लूटो मजा गुरु-नाम की*
१८५
हम से हँसो नहि यार! हम है सन्त के दरबार के।
पागलहि करता प्रेम उनका, ना रहे घरबार के ।।
चलते किधर देखे किधर, पर ध्यान उनका ही रहे।
दुनिया के ना हम कामके, हम सन्त के शाहीर है।।
१८६
हम पागलों के साथ में आना नही प्यारे! कभी।
मुश्कील होगा किसि घडी खाना-पिना-रहना सभी ।।
मेवा कहीं मिष्ठान्न है, खाने कहीं ना अन्न है।
जंगल कहीं बस्ती कहीं, ऐसा पडे सम्बन्ध है ।।
१८७
प्यारा हमे वह देश है, जिस में रहन हो सत्य की।
नहि देश वह भाता हमें, जहँ लालसाहि असत्य की ।।
भाई! सदा ले जाइए हमको नगरी में आपकी।
जहाँ नामबिन कुछभी नही, है संगती प्रभु-जापकी ।।
१८८
मै मुफ्त की खेती करी, खुब लाभ मझको पागया।
जो था नही वह मिलगया, तकदीर-फाटक खलगया ।।
ऐ मित्र लोगों! तुम हमारे दोस्त गर कहला रहे।
तो *राम* की खेती करो, कइ तर गये तर जा रहे ।।
१८९
लूटो मजा गुरुनाम की, ऐसी बखत ना आयगी।
यह मालमत्ता यार! इकदिन खाकमें मिल जायगी ।।
अपनी भलाई के लिए, सत् संग साधो जन्मभर ।
तो माल क्या संसार है? कूदे चढेंगे ख्यालपर ।।
१९०
बेडर बनो, इस हाथ लेकर सद्गुरू की पादुका।
निर्भय रहो, धोखा नही किसि बात के फिर जादुका ।।
न्हाओ सदा गुरुकी चरण-रज को उठाकर सीसपर ।
तो माल क्या संसार है? कूदे चढेंगे ख्याखपर ।।
१९१
आनन्द का दरबार यों आनन्द से भरता रहे।
सत् नाम की चर्चा चले अरु प्रेम-फूँ झरता रहे ।।
जिसमें नही कुछ द्रोहता, अधिकार से ही काम है ।
ऐसी जगह उस राम का हरदम रहे विश्राम है।।
१९२
आनन्द के दरबार में नहि हेतुओं से काम है।
गर काम होता हो खडा, मिलता नही आराम है।।
आराम को मिलवा रहो तो जा बसो निष्काम है।
नित ज्ञानकी चर्चा सुनो, पा जाओगे विश्राम है।।
१९३
आनन्द का सागर भरा, लहरें उठे खद से भली।
न्हाते रहो नित श्रवणसे,खुलती रहे कलि और कलि ।।
हर एक कलिया में भरा अमृत जैसा प्रेम है।
उस प्रेम को छूते रहो, टूटे जगत् के नेम है।।
१९४
आनन्द के दरबार का उसको मजा खुब पा गया।
जो ज्ञान-बूटी छा गया, अपरोक्ष में रमता भया ।।
ब्रह्मात्म-जी के भाव को अजमा लिया जिन ठाम है।
तुकड्या कहे उस धन्य को मेरा सदाहि प्रणाम है।।
*सत्संग करो, पर अन्धश्रद्धा न हो* !
१९५
भारी खशी है आज हमको, सन्त आये गाँव में।
चारों तरफ है स्वच्छता और शुद्धता सद्भाव में ।।
सज्जन और दुर्जन भी सभी भाई समझकर एक है।
सत्संगती का लाभ यह, जाहीर है और नेक है।।
१९६
दरबार पूरा भर गया, सत्संग भी होने लगा।
ऐसे भी इनमें है कई, जिनका नहीं दिलही जगा॥
है ख्याल उनका चोरियों में, जारियों में ही लगा।
सत्संग बिचारा क्या करें? शैतान होकर मन भगा।।
१९७
धन के किनारे पर बसो, पर मन रखो बाहर कही।
गंगा किनारे बास हो, पर जल पिओ उसका नही ।।
सत् संग में जाकर बसो, पर लक्ष्य हो घरबार का।
क्या लाभ उसको होगया? जब तत्त्व ना हो सारका ।।
१९८
व्यवहार से मन उब गया, बैराग में ही डुब गया।
भाते नही स्त्री-पुत्र घर, अब सब प्रलोभन छुप गया।
है अब रहा सत्संग, जिसकी आस भारी है लगी।
ऐसे समय सद्गुरु मिले, तब आत्म-ज्योती ही जगी।।
१९९
हो बद्ध नास्तिक आर्त भी, साधक मुमुक्षु हो कही।
सत्संग सबको योग्य है, जिससे चढे वृत्ती सही।।
जिनके प्रभावी बोधसे जड जीव भी तर जाय है।
आनन्द के उत्कर्ष से सब विश्व ही भर जाय है।।
२००
मत देर गिन लो वर्ष से, गिन लो खदी के हर्ष से।
जब प्रेम पावे स्पर्श से तब ही लगो आदर्श से॥
जितना हि बर्तन माँज लो उतनी चमक भर आयगी।
यह वृत्ति जब रंग जायगी, चारों तरफ सुख पायगी।।
२०१
भावुक जनो! इस भाव को अंधा न रख जागे रहो।
सत् या असत् पहिचानलो, फिर भाव में लागे रहो।।
जब नाव पत्थर की बनी, तब पार कैसे जाओंगे? ।
यहाँ भी नही वहाँ भी नही,बिच में अटक भरमाओगे।।
२०२
सीधे रहो सादे रहो, निर्मल हृदय करके रहो।
अपना कमाओ कष्ट करके, मित्र बनकरही जिओ ।।
संगत नही करना किसी की छल-कपटवाली कहीं।
श्रद्धा रखो पर अन्धता नही, यह खबर रखना सही ।।
२०३
झटका दिया जब हाथको, पेढा-मिठाई ला दिया ।
खालीहि उँगली को घिसा, अत्तर-सुगंधी पा लिया ।।
जेवर निकाले मूठसे, और साँप डाले गाँठ से ।
यह जादुगर भी कर सके, क्या सन्त कहना है उसे? ।।
२०४
कइ जादुगर होते गुरु, *फूं फाँ* किया करते सदा ।
ठाने-ठुने बतलायके दुनिया किया करते फिदा ।।
पर याद रखना भाईयो ! ये गुरु नही, गुरगुर है।
कुत्ते तभी कुछ ठीक है पर ये लुबाडे शूर है ।।
२०५
संगत उन्हीकी योग्य है, है योग्य उनका अनुसरण ।।
हो बोध, चलना, देखना, रहना सभी करना ग्रहण ।।
काया-वचन-मन एकमय, मर्मज्ञ, जनहितबुद्धि है।
तुकड्या कहे उन श्रेष्ठ की सेवा सुखामृत सिद्धि है ।।
२०६
हिन्दू धरम में पाँव छूने की बडी आदत लगी।
यह नम्रता नहि अंधश्रद्धा, अव्यवस्था है जगी ।।
जो जानता नहि समय भी, ना शिस्त रखता पास है।
आज्ञा नही है मानता, केवल रूढीका दास है।।
२०७
किसका यह दर्शन कर रहे ?हाड का या मॉस का?I
यह देह तो मुर्दाहि है, इसमें है जीवन साँस का।।
उस साँस के अंदर बसा, वहि प्यार करने योग्य है।
उससे नजर मिलवा सको तब ही मिलेगा सौख्य है।।
*सत्संग का फल लोकसुधार ?*
२०८
लाखों जमा है आदमी, अति शान्ति से बैठे यहाँ।
वे देखते है *भजन सुनने कब मिलेगा? वाहवा!* ।।
मुझको खुशी इसमें नहीं,वे क्या सुने सुर-ताल को?।
मैं चाहता हूँ लोग सुधरे छोड बूरी चाल को॥
२०९
यह झण्डसी गर्दी कहाँ से किस लिए आयी यहाँ?।
सुनिए तो कुछ सत्संग,नहि तो लाभ कैसे क्या हआ? ।।
सुनकर न जाओ कुछ करोभी, तब तो पाओगे मजा।
अनुभव परख लो ज्ञानका, तब तो छटे जमकी सजा।।
२१०
भाषण दिये प्रवचन किये और भजन-कीर्तन भी किये।
पर लोग सुनकर घर गये, कुछभी अमल नहि कर गये।।
यहि बात लाखों बार दहराने लगे तो क्या हुआ?।
दुनिया तो रोटी के लिए ही बोलती है वाहवा!॥
२११
मैं सोचता भी हूँ नही, ये ही मेरे प्रिय मित्र है।
सच मित्र मेरा कार्य है, करना मुझे अनिवार्य है।।
में मॉस-मूर्ती पे कभी खुशही न बनता हूँ कहीं।मुझे सत्य, करुणा, नम्रता ही साक्ष देती है सहा।।
२१२
हम लिख रहे तो क्या हुआ?लिखना हि हमको रोग है।
कैसे अमल में ला सके?मिलता नही संजोग है।
अब तो यही आशा बढी,हम करके कुछ दिखलायेंगे।
तब ही फलेगी भक्ति यह जब लोग कुछ सुधरायेंगे ।।
२१३
सुन तो रहे हो ! बात मेरी, काम में भी लाइए।
नहि तो वृथाही वक्त मेरा क्यों यहाँ गमवाइए? ।।
हर पल हमारा औ तुम्हारा कीमती है जानिए।
आयू खतम हो खेल में तब क्या कहीं से लानि है ।।
२१४
साधू का कहना मानते, या तो नचाते हो उन्हें? ।
वाहरे! तुम्हारी मूर्खता को कौन सज्जन ले गिने? ।।
अपनीहि आज्ञा साधुजन सुन ले, कहाँ का धर्म है? |
जो दूरदृष्टी सन्त है, देगा न तुमको मर्म है ।।
२१५
मेरा वही भगवान है, जो मानता मेरा कहा।
जैसा नचाऊँ में उसे, वैसा नचे वह वाहवा! ॥
मित्रों! तुम्हारी भूल को सुधरो जरा, भूलो नही।
भगवान का ही हुक्म माने भक्त होता है वही ।।
२१६
सहवास से भी मुख्यतर सत्बोध पे करना अमल ।
कर्तव्य अपना खोजकर कर यत्न हरने चित्त मल ॥
सीधा सुपथ यह छोडकर खाली कर जो संगती।
पाता न पूरा लाभ वह, मद-मोहमय जिसकी मती ।।
२१७
रे! उठ सुबह यह हो गयी, सोना पड़ा क्यों? जागना ।
यह ज्ञान-सूरज देख तो आनन्दमय कैसा बना।।
*जो जो मिले मेरे हि है, मैं हूँ सभी की आतमा*।
यह जान लेगा जब कहीं सब दूर होगी यह तमा।।
*सच्चे दरबार* की बोध-दिशा*
*सेवामय प्रपंच ही परमार्थ !*
२१८
मैने हि अपनी भाव-भक्ती को सरल मुडवा दिया।
औ देशभक्ती-राष्ट्रसेवा ही प्रभू-सेवा किया।।
मेरा प्रभू सब व्याप्त है हर मानवों की जान में।
इस बातको भूला नहीं, हर काम में हर ध्यान में।।
२१९
कितना खवाते यार! कुछ तो पेट खाली है नहीं।
जिनको खिलाना है जरूरी उनको ना टुकडा कहीं।।
क्या अजब है यह चालही,किन लोगोंने डाली यहाँ? ।
मुझ को पता तो हो गया, वे स्वार्थी होते है महा॥
२२०
दीपक जलाते घी-अत्तर के देवता के धाम मे।
मजदूर को देते नही भरपेट भी कछ काम में।।
भूखा दरिद्री द्वारपर मुँह फाडकर रोता बडा।
भगवान क्या है बेवकुफ देगा तम्हें मक्ती-घडा? ।।
२२१
ऐ चढमिजाजो! नौकरों को क्यों घृणा से देखते? ।
धन है तुम्हारे पास करके नीच उनको लेखते ।।
ना याद है तुम को नही, धन रक्तपर किसके बढा? ।
अजि! पेट पर ये खन देते, करके सरपर छत चढा ।।
२२२
वाहवाह! तुम्हारी शादियाँ,कितना भी हो संकट पडा।
पर शान जाती ही नहीं, ना काम थोडा भी अडा ।।।
मेरी समझ में खर्च करना कम और देना दान है।
भूखे पड़े जो लोग उनकी ही दुआ बेदाम है ।।
२२३
मेरे उजागर दोस्त! तू तो चोर है इस ग्राम का ।
साराहि संग्रह कर लिया, कुछ काम का बेकाम का ।।
गर दिक्कतों में भी किसीके काम तू नहि आयगा ।
नाहक कभी मर जायगा, किसको पता नहि पायगा ।।
२२४
रख मौत अपने ख्यालमें, इकदिन जहाँ गुजरान है।
उसको भूले हो जबतलक, हो जाओगे हैरान है ।।
पर कब्रही अपनी हमेशा आँख में भरवाओगे ।
तो कुछ भलाई साधकर आगे नफा कर जाओगे ।।
२२५
भगवान का यह हुक्म है, जनता सुखी रखना सदा ।
पर आदमी ने स्वार्थसे यह सर उठा ली आपदा ।।
इक है सुखी, इक है दखी, यह मानवी वैषम्य है।
इन्सान जब उन्नत बने, तब न होगा क्षम्य है।।
२२६
झूठा - कपट करके कहीं धन को कमाना छोड दे । टेढी नजर से देखना,बुरी जबानी तोड दे ।। निन्दा किसीका ना करे , व्याभिचार - मारग खोड दे । सब से अलग रहता हुआ प्रभु में सदा मन जोड दे ।।
२२७
कर्जा नही करना किसी का, बल्कि मचदरी करो ।
लादी हुई यह ऐंठ लेकर चार जन में नो मरो ।।
वह ही सुखी है आदमी, ऋणमुक्त औ गरुभक्ती है ।
निरोग है तन-मन सदा, वहि युक्त है औ मक्त है।।
२२८
व्यवहार करता न्याय से, सुविचार-सत् आचार से।
परमार्थ-पथ पाता वही, ले सारही संसार से ।।
सत्संग अरु भक्ती, दया, रखता सदा ही पास में ।
सो पार जाता है चला, फँसता नही वो आस में।।
२२९
रहता अलग संसार से, फिर भी रहे संसार में।
करता नही अपने लिए, करता है पर-उपकार में।।
जो जानता ऐसा धरम- *उपकार ही महपुण्य है।
परपीडना ही पाप है* सो भक्त शिरसा मान्य है।।
२३०
जिस हाल में तू होयगा, उस में हि लाभ उठायगा ।
गर सदविचारों से गडी! अपना करम निभवायगा ।।
जब झूठ है तेरी चलन, चाहे हजारो जोग ले।
पर भोग तो चुके नही, फिर लाख संजोग ले ॥
२३१
धंधा जरूरत का सभी, चाहे करे कोई यहाँ।
झाडू लगावे मैल धोवे, या सिलावे जूतियाँ ।।
खेती करे नौकर बने, उद्योग हो व्यापार हो।
वेदाध्ययन, शिक्षादि हो, या वीर रणझंजार हो ।।
२३२
हो कार्य जीवन के सभी, सत्कार्य ही है मानना ।
श्रद्धा पकडकर ही सदा उस कार्य को पहिचानना ।।
जिस कार्य से बदनाम हो, ऐसा न करना कार्य है।
व्यष्टी- समष्टी साक्षि हो, वह कार्य ही अनिवार्य है।।
२३३
सत्ताधिकारी हो अगर, तो सत्यता नित पास धर ।
माता न जा, रख न्याय रे! लेता रहे दीन की कदर ।।
सामादि शासन पास हो, अरु सज्जनों का दास हो ।
सद्धर्म में उल्हास हो, झूठे जशन का नाश हो ।।
२३४
मत झूठ में ग्वाही भरो, या न्याय झूठा ना करो।
अधिकार में मद ना धरो, या चाकरी में ना डरो ।।
बेपार में ना हो असत्, धनि या हकिम में हो कदर ।
संसार में तब सार है, अपनी स्थिती में नेक धर ॥
२३५
अजि! मित्रता भी हो बराबर, सद्गुणी के साथ में।
हो स्त्री भी उसकी धारणापर ही, उसी के हाथ में ।।
हो पुत्र भी संस्कार के, सीखे-पढे अति नम्र है।
है शान्ति जीवन में उसे, यह स्वर्गमय ही उम्र है।
*तीर्थक्षेत्र, पूजा-भक्ति आदिका मर्म*
२३६
भारी बना मन्दर-बगीचा, देखने को सब चले।
अपना न देखा पाप तो फिर क्यों चले कैसे चले।।
फिर तो तमाशा देखना, इसमें ओ उसमें भेद क्या?।
जिसनेन धोया दिल बुरा,उसको तिरथ ओ बेद क्या?।।
२३७
यह घर हि तो मन्दीर है, जब शुद्ध शान्त पवित्र है।
हरिनाम जपते मन्त्र है, शुभ कामना का तन्त्र है।।
तसबीर है भगवान की, तुलसी है घरके सामने।
व्यवहार निर्मल सत्य है,तब तीर्थ घर क्यों ना बने।।
२३८
घर को नही पावित्र्यता, तो तीरथों में ना रहे।
बुद्धी नही सत् ध्यान में, तो सत्-समागम क्या रहे? ।।
तुकड्या कहे पावे प्रभू, रख प्रेम ही मँझधार में।
रे सत् नियत रख आदमी! काशी मिले संसार में।।
२३९
मत बोल ब्रह्मज्ञान को,मत धर किसीके ध्यान को।
मत जा तिरथ-निजधामको,मत कर पूजा अरुस्नानको।।
रे कर गडी! पहले यही, झूठा कभी नहि बोलना।
सारे व्यसन को छोडना, बन्धुत्व सबसे जोडना ।।
२४०
कुछ ग्रंथ भी बेकार है, वे पेट भरने को लिखे।
उनमें नहीं है तत्व का बल, पंथ-वैभव ही दिखे ।।
सारा चमत्कारों हि का भण्डार उसमें भर दिया।
इन्सान कैसा भी रहे पर पार कहते कर दिया ।।
२४१
तीरथ में फँसवाये कोई, इसके लिए है आदमी।
चारों तरफ है घेरते, पडने न देते है कमी ।।
मिलता उन्हें कमिशन यहाँ, जो दान देते तीर्थ में।
कैसा सुधारा होयगा ऐसी बनावट शर्त में? ।।
२४२
बजते रहे मंदीर में घण्टे घनाघन जोर से।
ब्राह्मण पुजारी मंत्र बोले वेद-गीता ठौर से ।।
चारों तरफ है महक ऊठी धूप-दीप औ माल की।
पर मन नही मेरा वहाँ, खोजे कुटी कंगाल की ।।
२४३
मंदीर में क्या कर रहा? आँखे लगाकर देखता ।
घण्टी हलाकर देखता, मुण्डी झलाकर देखता ।।
क्या है वहाँ? पानी-फतर, भगवान उसमें है नही ।
वह भक्त के घर रब रहा, कर दीन की सेवा तुही ।।
२४४
मंदर में दौडे जा रहे, भगवान को छोड चले।
सब पंथ ही चिल्ला रहे, सच तत्व को मोडे चले ।।
क्या दीनदुःखी दिख नही, पातें तुम्हे संसार में ।
सेवा बिना इनकी किये, काशी कहाँ बाजार में? ।।
२४५
सीढी अगर चढना चहो, चढती पहरियाँ डाल दो।
आगे बढालो ज्ञानको पहिला करम ओछाल दो।।
खुद आँख अपनी खोलकर ऊँचे शिखरपर चढ चुको।
पूजा करो यह ठीक है, पर पूज्य गड पे गढ चुको ।।
२४६
सबसे बराबर प्रेम करना, और पजा है नही।
जो समझता इस बात को, सच्चा पुजारी है वही।।
जब वासना से गुक्त है, सन्यास फिर दूजा कहाँ।
पर-स्त्री जिसे माता लगे, माला चढी न चढी वहाँ।।
२४७
पूजा करे जगदीश की तो पूज पहिले भाव को।
श्रद्धा पकड *सबमे प्रभु है* डाल दे हम्-भाव को।।
सबके बरावर प्रेम कर, कर द्रोहता-उत्थान रे!।
सत्प्रेम ही भगवान है, यह बात सच्ची जान रे! ।।
*दया और विवेक*
२४८
सद् धर्म का मूल है दया, अभिमान का मूल पाप है।
इस ज्ञान को छोडो नही, जबतक मिटो नहि आप है।।
जो चाहते हो कर चलो, अपना किया ही भर चलो।
आज्ञा हुई भगवान की, शुभ नाम आखिर धर चलो।।
२४९
छेडे गरीबों को सदा, पाले न कबहूँ कीव को।
ईश्वर-पूजन के नाम पे बलिदान देता जीव को।।
अन्याय है यह घोरतम, ईश्वर खुशी नहि होयगा।
भगवत् स्वरूप सब जीव है, हो लीन सत्सुख पायगा।।
२५०
जो दूसरे को दुःख दे, दुखिया वही हो जात है।
जो सौख्य देना चाहता, तो खुद सुखी बन जात है।।
गर यार! तेरे हाथ से गौएँ कतल-घर जायँगी।
तो याद रख, यह जिन्दगी भर धूल में हर जायगी।।
२५१
उपकार हरदम कीजिए, पीडा न किसको दीजिए।
यह धर्म है सबके लिए,सब शास्त्र मत सुन लीजिए।।
सब सन्त का मत है यही,हर जीव की करना दया।
सो ही पुरुष इस लोक में सद्धर्म से मोटा भया।।
२५२
जिसकी दया मे स्वार्थ है, वह तो दया नहि ढोंग है।
अपने बडप्पन का प्रदर्शन ही उसीका रंग है।।
सच्ची दया करुणा से लिपटी, प्रेम ही निष्काम है।
बदला नही वह चाहती, ऐसी दया बेदाम है।
२५३
उसको दया तारक बने, जो फिर बुराई ना करे।
अनुताप से सुधरे जो अपनी भक्ति -नीति हि ले धरे।।
विश्वास जिसका आ गया, उसपर दया करना सही।
जो साँप के सम पलटता, उसकी दया करना नही ।।
२५४
जिसकी गिरी नीयत तथा जो पाप का भंडार है।
अपने व्यसन की पूर्ति को बेचे सभी घरबार है।
उसको खिलाना या पिलाना यह दया नही दोष है।
चाहे मरे, मरना हि उसका मानना सन्तोष है।।
२५५
चाहो कहो *है बेकदर*, डरता नही है दिल मेरा।
मै जानता है, हर कोई भोगो से है जग में भरा।।
जो जो किया वह भोगना है,सौख्य हो या दःख हो।
गर *भोग छूटें* चाहते, तब ज्ञान हो सत्संग हो।।
*तीर्थक्षेत्र, पूजा-भक्ति आदिका मर्म*
२३६
भारी बना मन्दर-बगीचा, देखने को सब चले।
अपना न देखा पाप तो फिर क्यों चले कैसे चले।।
फिर तो तमाशा देखना, इसमें ओ उसमें भेद क्या?।
जिसनेन धोया दिल बुरा,उसको तिरथ ओ बेद क्या?।।
२३७
यह घर हि तो मन्दीर है, जब शुद्ध शान्त पवित्र है।
हरिनाम जपते मन्त्र है, शुभ कामना का तन्त्र है।।
तसबीर है भगवान की, तुलसी है घरके सामने।
व्यवहार निर्मल सत्य है,तब तीर्थ घर क्यों ना बने।।
२३८
घर को नही पावित्र्यता, तो तीरथों में ना रहे।
बुद्धी नही सत् ध्यान में, तो सत्-समागम क्या रहे? ।।
तुकड्या कहे पावे प्रभू, रख प्रेम ही मँझधार में।
रे सत् नियत रख आदमी! काशी मिले संसार में।।
२३९
मत बोल ब्रह्मज्ञान को,मत धर किसीके ध्यान को।
मत जा तिरथ-निजधामको,मत कर पूजा अरुस्नानको।।
रे कर गडी! पहले यही, झूठा कभी नहि बोलना।
सारे व्यसन को छोडना, बन्धुत्व सबसे जोडना ।।
२४०
कुछ ग्रंथ भी बेकार है, वे पेट भरने को लिखे।
उनमें नहीं है तत्व का बल, पंथ-वैभव ही दिखे ।।
सारा चमत्कारों हि का भण्डार उसमें भर दिया।
इन्सान कैसा भी रहे पर पार कहते कर दिया ।।
२४१
तीरथ में फँसवाये कोई, इसके लिए है आदमी।
चारों तरफ है घेरते, पडने न देते है कमी ।।
मिलता उन्हें कमिशन यहाँ, जो दान देते तीर्थ में।
कैसा सुधारा होयगा ऐसी बनावट शर्त में? ।।
२४२
बजते रहे मंदीर में घण्टे घनाघन जोर से।
ब्राह्मण पुजारी मंत्र बोले वेद-गीता ठौर से ।।
चारों तरफ है महक ऊठी धूप-दीप औ माल की।
पर मन नही मेरा वहाँ, खोजे कुटी कंगाल की ।।
२४३
मंदीर में क्या कर रहा? आँखे लगाकर देखता ।
घण्टी हलाकर देखता, मुण्डी झलाकर देखता ।।
क्या है वहाँ? पानी-फतर, भगवान उसमें है नही ।
वह भक्त के घर रब रहा, कर दीन की सेवा तुही ।।
२४४
मंदर में दौडे जा रहे, भगवान को छोड चले।
सब पंथ ही चिल्ला रहे, सच तत्व को मोडे चले ।।
क्या दीनदुःखी दिख नही, पातें तुम्हे संसार में ।
सेवा बिना इनकी किये, काशी कहाँ बाजार में? ।।
२४५
सीढी अगर चढना चहो, चढती पहरियाँ डाल दो।
आगे बढालो ज्ञानको पहिला करम ओछाल दो।।
खुद आँख अपनी खोलकर ऊँचे शिखरपर चढ चुको।
पूजा करो यह ठीक है, पर पूज्य गड पे गढ चुको ।।